निस्वार्थ कर्म (Kahani)

May 1987

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अकबर ने तानसेन के सम्मुख उनके गुरु श्री हरिदास का संगीत सुनने की इच्छा व्यक्त की तानसेन बड़े असमंजस में पड़ गये। श्री हरिदास के दिल्ली आकर बादशाह के सामने गाने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यह भी आशा नहीं की जा सकती थी कि वृन्दावन में भी अकबर को सुनाने के लिये वे तैयार हो जावेंगे।

इस उलझन में तानसेन ने एक रास्ता निकाला, बादशाह अकबर वृन्दावन गए व साधारण वेश में चुपके से स्वामी जी की कुटिया से बाहर छिप कर बैठ गये। तानसेन अन्दर गये व अपने गुरु को प्रणाम कर गाना गाने लगे। तानसेन ने जान बूझकर गाने में गलती कर दी, अपने इतने पटु शिष्य की गलती सुधारने के लिए गुरु ने स्वयं गाना शुरू किया। इस तरह बादशाह अकबर की इच्छा पूर्ण हुईं

कुछ दिनों बाद की बात है। एक बार जब दिल्ली में तानसेन गा रहे थे, तो गाना पूरा हो जाने पर तानसेन से कहा-”तानसेन तुम गाते तो हो, परन्तु तुम्हारे गाने में वह निखार नहीं जो तुम्हारे गुरु के गाने में है। तुम्हारे गुरु का गायन तो बहुत ही उच्च कोटि का है “तुरन्त ही तानसेन ने नम्रता पूर्वक कहा-”जहाँपनाह! इसका कारण यह है कि मैं हिन्दुस्तान के बादशाह के लिये गाता हूँ और मेरे गुरु अखिल विश्व के नियन्ता के लिये गाते हैं।”

जो वस्तु परमात्मा को सौंप दी इससे अधिक पवित्र वस्तु क्या हो सकती है?


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