बड़े करामाती हैं हमारे हाथ!

May 1987

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पाश्चात्य सभ्यता में मिलन और बिदाई के अवसर पर प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए हाथ से हाथ मिलाने का रिवाज है। पूर्वार्त देशों में हाथ जोड़कर अभिवादन किया जाता है। यह मात्र प्रथा प्रचलन ही नहीं है, इसके लिए मानवीय विद्युत के आदान-प्रदान के साथ-साथ भाव-संवेदनाओं का किसी कदर विनियम करना भी है।

स्नेह प्रदर्शन के लिए छोटों के सिर पर हाथ फिराया जाता है। बालकों के कपोल सहलाये जाते हैं। भावों की अभिव्यक्ति करते समय वक्ता की उँगलियाँ भी चलने लगती हैं। हस्त मुद्राएँ अनायास ही बनती हैं। यह एक प्रकार का भाव नृत्य हैं। जिसके लिए नर नारियों के नर्तन जैसा अंग संचालन नहीं होता। थिरकन की भी आवश्यकता नहीं पड़ती, पर हाथों की अदलती–बदलती मुद्राएँ ही यह प्रकट कर देती हैं कि प्रवक्ता के अन्तराल में किस प्रकार का भाव संचार गतिशील हो रहा है।

आन्तरिक उभारों का परिचय प्रधानतया मुख मुद्रा में प्रकट होता है। आँखों को मनुष्य के हृदय का दर्पण माना जाता है, उनके उतार चढ़ाव देखकर पारखी यह समझ लेते हैं कि अन्तराल में क्या कुछ उभर रहा है। होंठ, कपोल भी अभिव्यक्तियों के प्रकटीकरण में सहायक होते हैं। भवें तथा माथे की रेखा भी अपने ढंग से व्यक्ति की मनःस्थिति का भाव संवेदना का परिचय देती है। सौंदर्य की छठा चेहरे पर छाई रहती है। कुरूपता भी वहाँ बसती है। शरीर के अन्य अंग तो प्रायः कपड़े से ढके रहते हैं पर चेहरा तो खुला ही रहता है। उसे ध्यानपूर्वक देखा जा सके तो मनुष्य के व्यक्तित्व और कर्तव्य का स्तर का परिचय बहुत अंशों में जाना जा सकता है।

चेहरे के उपरान्त दूसरा उतना ही संवेदनशील अंग हैं-हाथ-यद्यपि उनमें वाणी नहीं होती। देखने सुनने के आधार भी नहीं हैं इतने पर भी बोलते, सुनते, समझते, देने तथा लेते रहते हैं। उनकी भाव संवेदना अपने आप में असाधारण है।

मोटे तौर पर उन्हें विविध-विधि कामों में निरत रहते देखा जा सकता है। पैर तो चलने फिरने की आवश्यकता पड़ने पर ही काम आते हैं, पर हाथ हैं जो अनेक प्रकार के ताने बाने बुनते रहते हैं। वाद्य-वादन, लेखन, शिल्प, व्यवसाय आदि में जितना उनका उपयोग होता है उतना और किसी अंग अवयव का नहीं।

यह सब तो हाथों के बारे में प्रत्यक्ष ही है और सर्वविदित भी। पर गहराई में उतर कर उनकी विचित्रताओं का अध्ययन किया जाय तो प्रकट होता है कि उनकी एक दिशा धारा गिराने उठाने की भी है। वे अपने संकेतों के द्वारा भी वाणी की आधी आवश्यकता पूरी कर देते हैं। मूक या मौन व्यथाओं की भावाभिव्यक्ति हाथ के संकेतों पर भी निर्भर होती है। उनके आकार बनाकर इच्छा को आसानी से दूसरों पर प्रकट किया जा सकता है।

चरण स्पर्श में, मस्तक पर तिलक लगाने में, कलाइयों में सूत्र बाँधने में रहस्यमय अर्थ छिपे हुए हैं। शरीर की मालिश में, हाथ पैर मसलने में, हाथ जो चमत्कारी परिचय दिखाते हैं, वह किन्हीं अन्य यंत्र उपकरणों से सम्भव नहीं हो सकता। क्षमा याचना से लेकर धमकी देने तक में हाथों की अनुकृतियाँ अपना उद्देश्य भली प्रकार पूरा कर देती है। सांत्वना एवं आश्वासन देने में, स्वीकृति तथा अस्वीकृति प्रकट करने में हाथ अपनी भूमिका भली प्रकार निभाते देखे गये हैं।

यहाँ हाथों का विवेचन कलाई से लेकर हथेली समेत उँगलियों वाले भाग का किया जा रहा है। यह शरीर का एक छोटा पतला छिरछिरा भाग है, पर उसकी कार्यक्षमता असाधारण है। मस्तिष्क के कॉर्टेक्स में इस भाग को 30 प्रतिशत से अधिक प्रतिनिधित्व मिला है। भाव क्षमता भी, हस्तस्पर्श से रोग निवारण की विधा प्राण चिकित्सा सायकिक हीलिंग के नाम से प्रख्यात है। ईसा से लेकर अनेकानेक सिद्ध पुरुषों में यह क्षमता पाई जाती है। इंग्लैण्ड के राजा के बारे में बहुत समय पूर्व यह मान्यता थी कि वे राजयक्ष्मा के रोगी को स्पर्श कर दें तो बीमारी से छुटकारा मिला जाता था।

प्रणय प्रसंग में हाथों की भूमिका सर्वाधिक होती है। प्रेम का प्रकटीकरण और घनिष्ठता भरी उमंगे उत्पन्न करना उन्हीं का काम है। यौनाचार क्षणिक होता है। वे आवेश भरे उन्मादग्रस्तता के क्षण होते हैं। उनमें आवेश आतुरता और अस्त व्यस्तता का समावेश रहता है। नशा उतरने पर सब कुछ ठंडा हो जाता है। किन्तु हाथ ही हैं जो अपनी हलचलों से आनन्द को घंटों बनाये रखते हैं।

ज्योतिषी हस्त रेखाएँ देखकर भूत, भविष्य, वर्तमान, की अनेक बातें बताते हैं। गुण, दोषों की विवेचना करते हैं। आयुष्य, धन, सौभाग्य, दुर्घटना, दुर्भाग्य आदि के कितने ही रहस्यमय पृष्ठ खोलते हैं। विद्वान कीरो ने सामुद्रिक विधा पर एक विज्ञान-सम्मत ग्रन्थ लिखा है। यों भारत के मनीषियों की इस संदर्भ में प्राचीन काल से जानकारी रही है, और उनने उसका वर्णन सामुद्रिक शास्त्र के अनेक ग्रन्थों में किया है।

विज्ञान की नवीनतम खोजों में हथेलियों, पोरुवों के उभार गठान तथा गड्ढे देखकर आन्तरिक अवयवों की स्थिति समझने के विषय में गहरी जानकारी प्राप्त करने का आधार ढूंढ़ निकाला है। जो कार्य काय-परीक्षा के विभिन्न निरीक्षण, परीक्षणों द्वारा जाने जा सकते हैं, उन्हें हाथ को बारीकी से टटोलने पर भी जाना जा सकता है। इसे समग्र पैथालॉजी की स्थानापन्न विधा समझा जा सकता है। अब डर्मेटोग्लायफिक्स के रूप में चिकित्सा विज्ञान भी इसे मान्यता दे चुका है।

जानकारी प्राप्त कर लेना एक बड़ी बात है, पर महत्वपूर्ण तो उपचार है। शारीरिक, मानसिक, रोगों के रूप में उभरती रहने वाली आधि व्याधियाँ बिना उपचार के जाती नहीं। चिकित्सा आवश्यक है, रोग भले ही किसी प्रकार का क्यों न हों? प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में नवीनतम यह है कि हाथ के किसी भाग विशेष को गुदगुदा कर उसमें उभरे असंतुलन को दूर किया जाय।

इतना तो सभी जानते हैं कि शरीर में फैले हुए पतले ज्ञान तन्तु मस्तिष्क से संबंधित हैं। वे मेरुदण्ड मार्ग से मस्तिष्क को सूचनाएँ पहुँचाते हैं और वहाँ से जो निर्देश मिलते हैं उसके अनुसार विभिन्न अवयवों को काम करने के लिए सहमत करते हैं। पर यह अब कुछ ही समय पहले खोजे गये हैं कि शरीर की ही नहीं मन की भी अस्त-व्यस्तता होने पर उसके प्रतिबिम्ब हाथ पर भी उभरने लगते हैं। अंगों एवं घटकों की सूक्ष्म संबद्धता हाथों के साथ भी रहती है। हाथों में दाहिना हाथ अधिक संवेदनशील होता है। उसी की प्रमुख रूप से जाँच पड़ताल का अथवा चिकित्सा प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जाता है। बांया हाथ काम में भी कम आता है और संवेदनशील भी कम होता है। इसलिए प्रायः सभी महत्वपूर्ण कार्यों में जिनके कार्य का केन्द्र बायें मस्तिष्क में होता है, दायें हाथ का ही प्रयोग होता है।

हाथों में दबाने, गुदगुदाने, चिकोटी काटने, मसलने, दबाने की एक विशेष विधा है। जिसे प्रमोद की कला नहीं एक महत्वपूर्ण उपचार पद्धति समझना चाहिए। प्रयोगों से सिद्ध होता जा रहा है कि मात्र हाथ के साथ छेड़खानी की एक्युप्रेशर की विधियों की समुचित जानकारी प्राप्त करके मनुष्य को रोग मुक्त ही नहीं सुविकसित भी बनाया जा सकता है।


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