चीन में एक बौद्ध भिक्षुणी थी। उसने भगवान की एक छोटी स्वर्ण प्रतिमा बनाई। उसी की पूजा अर्चना में निरत रहती। एक दिन महाबुद्ध उत्सव हुआ। दूर-दूर की बुद्ध प्रतिमाएँ सजा–धजा कर लाई गई। उनकी सामूहिक पूजा अर्चना करने का कार्यक्रम बना।
भिक्षुणी पूजा की सामग्री तो लाई थी, पर वह अपनी ही प्रतिमा की उससे अर्चना करना चाहती थी। धूप, दीप, नैवेद्य समारोह में जलाने पर उसे भय था कि दूसरी प्रतिमा उसकी सुगन्ध लूट ले जायगी।
इस हानि से बचने के लिए उसने अपनी धूप का धुँआ एक बाँस की पोंगली द्वारा अपनी प्रतिमा की नाक से सटा दिया। थोड़ी ही देर में प्रतिमा का मुँह धुएँ से काला हो गया।
दर्शकों को वह कुरूप लगी और पूजने तथा लाने वाले तक की भर्त्सना हुई। खिन्न भिक्षुणी से समारोह के अधिष्ठाता ने कहा “संकीर्णता के रहते पूजना, पुजारी और पूजा दोनों का मुँह काला ही करता है।”