वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं अब परब्रह्म की सत्ता को

May 1987

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नास्तिकवादियों का कथन यह है कि “इस संसार में ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं, क्योंकि उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष उपकरणों से सिद्ध नहीं होता। अनीश्वरवादियों की मान्यता है कि जो कुछ प्रत्यक्ष है, जो कुछ विज्ञान सम्मत है, केवल वही सत्य हैं। चूँकि वैज्ञानिक आधार पर ईश्वर की सत्ता का प्रमाण नहीं मिलता इसलिये उसे क्यों मानें, यह उनका तर्क है।

इस प्रतिपादन पर विचार करते हुए हमें यह सोचना होगा कि अब तक जितना वैज्ञानिक विकास हुआ है, क्या वह पूर्ण है? क्या उसने सृष्टि के समस्त रहस्यों का पता लगा लिया है? यदि विज्ञान को पूर्णता प्राप्त हो गई होती तो शोध कार्यों में दिन-रात माथा पच्ची करने की वैज्ञानिकों को क्या आवश्यकता रह गई होती?

सच बात यह है कि विज्ञान का अभी अत्यल्प विकास हुआ है। उसे काफी कुछ जानना बाकी है। कुछ समय पहले तक भाप, बिजली, पेट्रोल, एटम, ईथर आदि की शक्तियों को कौन जाता था? पर जैसे-जैसे विज्ञान में प्रौढ़ता आती गई यह शक्तियाँ खोज निकाली गई। यह जड़ जगत की खोज हैं। चेतन जगत सम्बन्धी खोज तो अभी प्रारम्भिक अवस्था में ही है। बाह्य मन और अंतर्मन की गतिविधियों की शोध से ही अभी आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं है। यदि हम अधीर न हों तो आगे चलकर जब चेतन जगत में मूल तत्वों पर विचार कर सकने की क्षमता मिलेगी तो आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व भी प्रमाणित होगा। ईश्वर अप्रमाणित नहीं है। हमारे साधन ही स्वल्प हैं जिनके आधार पर अभी उस तत्व का प्रत्यक्षीकरण सम्भव नहीं हो पा रहा है। परमसत्ता के अनुशासन को मानने से क्या प्रतिक्रिया जीवन में होती है, यह स्वयं में प्रत्यक्ष प्रमाण है।

पचास वर्ष पूर्व जब साम्यवादी विचारधारा का जन्म हुआ था, तब वैज्ञानिक विकास बहुत स्वल्प मात्रा में हो पाया था। उन दिनों सृष्टि के अन्तराल में काम करने वाली चेतन सत्ता का प्रमाण पा सकना अविकसित विज्ञान के लिए कठिन था। पर अब तो बादल बहुत कुछ साफ हो गये हैं। वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ मनीषियों के लिए चेतन सत्ता का प्रतिपादन कुछ कठिन नहीं रहा है। आधुनिक विज्ञानवेत्ता ऐसी संभावना प्रकट करने लगे हैं कि निकट भविष्य में ईश्वर का अस्तित्व वैज्ञानिक आधार पर भी प्रमाणित हो सकेगा। जो आधार विज्ञान को अभी प्राप्त हो सके हैं, वे अपनी अपूर्णता के कारण आज ईश्वर का प्रतिपादन कर सकने में समर्थ भले ही न हों पर उसकी संभावना से इनकार कर सकना उनके लिए भी शक्य नहीं है।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक जॉन रिचर्डसन ने लिखा है-”विश्व की अगणित समस्यायें तथा मानव की मानसिक प्रक्रियाएं वैज्ञानिक साधनों, गणित तथा यंत्रों के आधार पर हल नहीं होती। भौतिक विज्ञान से बाहर भी एक अत्यन्त विशाल दुरूह, अज्ञात क्षेत्र रह जाता है जिसे खोजने के लिए कोई दूसरा साधन प्रयुक्त करना पड़ेगा। भले ही उसे अध्यात्म कहा जाय या कुछ और?”

विख्यात विज्ञानी डॉ. हाइज़ेनबर्ग का कथन है कि-”जो चेतना इस सृष्टि में काम कर रही है, उसका वास्तविक स्वरूप समझने में अभी हम असमर्थ हैं। इस संबंध में हमारी वर्तमान मान्यतायें अधूरी अप्रामाणिक और असंतोषजनक हैं। अचेतन अणुओं के अमुक प्रकार के मिश्रण के चेतन प्राणियों में काम करने वाली चेतना उत्पन्न हो जाती है, यह मान्यता संदेहास्पद ही रहेगी।”

विज्ञान अब धीरे-धीरे ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने की स्थिति में पहुँचता जा रहा है “जान स्टुअर्ट मिल” तथा काण्ट का कथन सच्चाई के बहुत निकट है कि-”विश्व की रचना में प्रयुक्त हुई नियमबद्धता और बुद्धिमत्ता को देखते हुए ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जा सकती है। मिल, हेल्स, होल्टस, लाँग, हक्सले, काम्टे आदि वैज्ञानिकों ने ईश्वर की असिद्धि के बारे में जो कुछ लिखा है वह अब बहुत पुराना हो गया है, उनकी वे युक्तियाँ जिनके आधार पर ईश्वर का खण्डन किया जाया करता था, अब असामयिक होती जा रही हैं। डॉ. फिलन्ट ने अपनी पुस्तक “थीइज्म” में इन युक्तियों का वैज्ञानिक आधार पर ही खण्डन करके रख दिया है।

भौतिक विज्ञान का विकास आज आशाजनक मात्रा में हो चुका है। यदि विज्ञान की यह मान्यता सत्य होती कि “अमुक प्रकार के अणुओं के अमुक मात्रा में मिलने से चेतना उत्पन्न होती है” तो उसे प्रयोगशालाओं में प्रमाणित किया गया होता। कोई कृत्रिम चेतन प्राणी अवश्य पैदा कर लिया गया होता, अथवा मृत शरीरों को जीवित कर लिया गया होता। यदि वस्तुतः अणुओं के सम्मिश्रण पर ही चेतना का आधार रहा होता तो मृत्यु पर नियंत्रण करना मनुष्य के वश के बाहर की बात न होती।

विज्ञान का क्रमिक विकास हो रहा है। उसे अपनी मान्यताओं को समय-समय पर बदलना पड़ता है। कुछ दिन पहले वैज्ञानिक लोग पृथ्वी की आयु केवल सात लाख वर्ष मानते थे और भारतीय ज्योतिर्विदों की उस उक्ति का उपहास उड़ाते थे, जिसके अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 17 करोड़ वर्ष मानी गई है। अब रेडियम धातु तथा यूरेनियम नामक पदार्थ के आधार पर जो शोध हुई है उससे पृथ्वी की आयु लगभग दो अरब सिद्ध हो रही है और वैज्ञानिकों को अपनी पूर्व मान्यताओं को बदलना पड़ रहा है। ऐसी अनेक मान्यताएँ हैं, जिन्हें चार वर्षा में “रिसर्च” के बाद बदला जा रहा है।

विज्ञान के सृष्टि के कुछ क्रिया-कलापों का पता लगाया है। क्या हो रहा है? इसकी कुछ जानकारी उन्हें मिली है। पर कैसे हो रहा है? क्यों हो रहा है? यह रहस्य अभी भी अज्ञात बना हुआ है। प्रकृति के कुछ परमाणुओं के मिलने से प्रोटोप्लाज्म-जीवन तत्व बनता ही है, पर इस बनने के पीछे कौन से नियम काम करते हैं, इसका पता नहीं चल पा रहा है। इस असमर्थता की खोज को यह कहकर आँखों से ओझल नहीं किया जा सकता कि इस संसार में चेतन सत्ता कुछ नहीं है।

विकासवादी जार्ज डार्विन ने कहा-”जीवन की पहेली आज भी उतनी ही रहस्यमय है जितनी पहले कभी थी।” प्रोफेसर जे.ए. टामसन ने लिखा है-”हमें यह नहीं मालूम कि मनुष्य कहाँ से आया? कैसे आया? और क्यों आया? इसके प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं होते और न यह आशा ही है कि विज्ञान इस संबंध में किसी निश्चयात्मक परिणाम पर कभी पहुँच सकेगा।”

“ऑन दि नेचर ऑफ दी फिजीकल वर्ल्ड” नामक ग्रन्थ में वैज्ञानिक एडिंगटन ने लिखा है-”हम इस भौतिक जगत से परे की किसी सत्ता के बारे में ठीक तरह कुछ जान नहीं पायें हैं, पर इतना अवश्य है कि इस जगत से बाहर भी कोई अज्ञात सत्ता कुछ रहस्यमय कार्य करती रहती है जिसे हम नहीं जानते।”

विज्ञानवादी इतना कह सकते हैं कि जो स्वल्प साधन अभी उन्हें प्राप्त हैं, उनके आधार पर ईश्वर की सत्ता का परिचय वे प्राप्त नहीं कर सके, पर इतना तो उन्हें भी स्वीकार करना पड़ता है कि जितना जाना जा सकता है, उससे असंख्य गुना रहस्य अभी छिपा पड़ा है। उसी रहस्य में एक ईश्वर की सत्ता भी है। नवीनतम वैज्ञानिक उसकी संभावना स्वीकार करते हैं। वह दिन भी दूर नहीं जब उन्हें उस रहस्य के उद्घाटन का अवसर भी मिलेगा। अध्यात्म एक प्रकार का विज्ञान ही है और उसके आधार पर आत्मा-परमात्मा तथा अनेकों अज्ञात शक्तियों का ज्ञान प्राप्त कर सकना अगले दिनों सम्भव होगा।


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