सेवा से अरुचि क्यों?

May 1987

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“मैंने इतना तो कर लिया, क्या अब सदा मैं ही करता रहूँगा। दूसरों को सेवा कार्य करना चाहिए।” ऐसा सोचना उचित नहीं। सेवा कार्य आत्मा की आवश्यकता का पोषण है। उसको निरन्तर और निर्बाध गति से करते रहना इसलिए आवश्यक है कि हम जीवित रहें-हमारी आत्मा और उसकी सुरुचि जीवित रहे। किसी पर एहसान करने के लिए-दूसरों के सहायक और उपकारी बनने के लिए अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भी नहीं, यश के लिए भी नहीं-सेवा का प्रयोजन आत्मा की गरिमा को अक्षुण्ण रखने और उसका जीवन साधन जुटायें रखने के लिए है।

जो सेवा की आवश्यकता और महत्ता को समझता है, उसे उससे कभी भी ऊब नहीं आती। जो ऊबता हो समझना चाहिए कि अभी उसे सेवा का रस नहीं आया। जब एक बार उस परम-धर्म का रसास्वादन कर लिया जाता है, तो उसे छोड़ सकना सम्भव ही नहीं होता। फूलों में कैसा रस है? इसे मधुमक्खी जानती है और वह जन्म से लेकर मरण पर्यन्त अनवरत रूप से उसी मधुरिमा में निमग्न रहती है। न थकती है न ऊबती हैं और कभी यह नहीं सोचती कि इतना लम्बा समय मधु संचय के प्रयोजन में लग गया अब कोई और धन्धा ढूँढ़ेंगे। विश्राम करेंगे। वह ऐसा सोच इसलिए नहीं सकती कि उसकी अन्तरात्मा उस क्रिया-कलाप की गरिमा को समझ ही नहीं, स्वीकार भी कर चुकी है।

भ्रमर का आश्रय और कहाँ है? पराग से विमुख होकर वह और क्या खोजे? तितली को अपने सौंदर्य के समतुल्य पुष्प के अतिरिक्त और कुछ दीखता भी तो नहीं। आखिर वह जाय भी कहाँ? बैठे भी कहाँ? करे भी तो क्या? जिनका दृष्टिकोण उत्कृष्टता का अभ्यस्त हो गया, उन्हें निकृष्टता की दुर्गन्ध में साँस ले सकना सम्भव भी नहीं है। सेवा धर्म छोड़कर अन्यत्र आत्मा की गरिमा के अतिरिक्त और कोई कार्य है भी तो नहीं।

हम साँस आजीवन लेते रहते हैं। इतने दिन साँस लेते रहे, अब हम विश्राम करेंगे, दूसरों की यह भार उठाना चाहिए कोई हमीं ने ठेका लिया है। बात ठीक है। मन न करे तो साँस लेना कभी भी बन्द किया जा सकता है, पर यह स्मरण रखना चाहिए कि यह विचार जिस क्षण कार्य रूप में परिणत होगा उसी क्षण दम घुट जायगा।

अन्न बहुत दिन खाया अब नहीं खायेंगे। पानी इतने दिन से पीते चले आ रहे हैं अब नहीं पियेंगे। स्वतन्त्र कर्तव्य के धनी मनुष्य के ऊपर फल पाने का ही बन्धन है कर्म करने का नहीं। सो अन्न, जल ग्रहण करना छोड़ा भी जा सकता है, पर यह भूलना न चाहिए कि यह ऊब जीवन के प्रति ऊब ही सिद्ध होगी। यह अनशन हमें विश्राम का आनन्द नहीं लेने देगा, मृत्यु के मुख में धकेल देगा।

हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े, गुर्दे, जिगर आदि भी विश्राम की माँग कर सकते हैं। जब तक कहते सुनते भर रहे, तब तक तो काम चल सकता है। पर जब अड़ कर विश्राम करने ही बैठ जायँ तो फिर सारा सरंजाम ही विश्राम करेगा। इनका विश्राम, चिरनिद्रा ही अखण्ड शान्ति-श्मशान जैसी नीरवता में परिणत होगा।

सूर्य ने कब छुट्टी मानी, चन्द्रमा ने कब विश्राम लिया, पृथ्वी का चलना कब बन्द हुआ, हवा कब रुकी, समुद्र कब शान्त हुआ? जीवन इसीलिए जीवित है कि वह अनवरत रूप से चल रहा है। सौर मण्डल की तरह परमाणु मण्डली भी अथक रूप से कार्य में संलग्न है। क्षुद्रता सो सकती है, पर महानता के लिए जागरण के अतिरिक्त दूसरा विकल्प नहीं। सूर्य का अन्धकार के साथ तालमेल बैठ ही नहीं सकता। सेवा आत्मा का स्वभाव है। गुण है, इसलिए वह कर्म में स्वभावतः परिणत होता रहेगा, फूल और गंध पृथक नहीं हो सके। मछली पानी के बिना रह ही नहीं सकती है। आत्मा का स्वभाव है-प्रेम। और प्रेम की परिणति है-सेवा। उससे छुट्टी कैसी? उससे ऊब क्यों? उसे छोड़ा कैसे जा सकता है?


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