कर्ण के बाण चले। अश्वसेन वाला बाण भी। कृष्ण ने वस्तुस्थिति को समझा और रथ को धीरे से जमीन पर बैठा दिया। बाण मुकुट काटता हुआ ऊपर से निकल गया। असफलता से क्षुब्ध अश्वसेन प्रकट हुआ और कर्ण से बोला। अब की बार अधिक सावधानी बरतना, साधारण तीरों की तरह मुझे न चलाना। इस बार अर्जुन का वध होना ही चाहिए। मेरा विष उसे जीवित न रहने देगा। इस पर कर्ण को भारी आश्चर्य हुआ। उसने उस काल सर्प से पूछा-”आप कौन हैं? और क्यों अर्जुन को मारने में इतनी रुचि रखते हैं?”
सर्प ने कहा-”अर्जुन ने एक बार खाण्डव वन को आग लगाकर मेरे परिवार को मार दिया था। मैं उसका प्रतिशोध लेने के लिए व्याकुल रहता हूँ। उस तक पहुँचने का अवसर न मिलने पर आपके तरकस के बाण रूप में आ गया हूँ। आपके माध्यम से अपना आक्रोश पूरा करूंगा?”
कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वापस लौट जाने के लिए कहा ‘भद्र, मुझे अपने ही पुरुषार्थ से नीति युद्ध लड़ने दीजिए आपकी अनीति युक्त सहायता लेकर जीतने से तो हारना ही अच्छा।काल सर्प कर्ण की नीति-निष्ठा को सराहता हुआ वापस लौट गया।