जीव विज्ञान के अनुसार मनुष्य को बन्दर जाति का एक प्राणी माना गया है। पर उसके अन्तराल में परमात्मा ने इतनी विशिष्ट शक्तियों का जखीरा भर रखा है, कि उसे सृष्टि का मुकुटमणि कहा जाना बहुत अंशों में सही है। शरीर संरचना में प्रयुक्त हुए असंख्यों जीवकोशों में से प्रत्येक घटक ऐसा है जो नन्हें-नन्हें गोलक जैसे प्रतीत होते हुए भी असाधारण क्षमता सम्पन्न हैं। पदार्थ के परमाणु का वैज्ञानिक विधि से नाभिकीय विस्फोट करने पर उससे निकलने वाली प्रचण्ड ऊर्जा समूचे क्षेत्र को प्रभावित करती है। ठीक इसी प्रकार जीवकोशों की सम्मिलित शक्ति भी एक आयन मण्डल बनाती है, जिसे अंग्रेजी में ‘आँरा’ कहते हैं और संस्कृत में स्थूलतः तो प्रायः एक जैसा ही दिखता है। उनमें रंगों भर का अन्तर पाया जाता है। किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो उसमें रंगों का ही नहीं, शक्ति का भेद भी पाया जाता है। इसमें जैव चुंबकत्व के गुण भी होते हैं।
मोटे तौर से बिजली दो प्रकार की होती है। एक खींचने वाली, दूसरी धकेलने वाली। प्रकारान्तर से इसे उसका गुण कह सकते हैं। इलेक्ट्रोमैग्नेटिज्म के रूप में यह दूसरों के शरीर, मन आदि को अपनी ओर आकर्षित करती है। धक्का मारने वाली दूसरी शक्ति त्रास पहुँचती है। यह जैव विद्युत सामने वाले को तोड़ती व पतन के गर्त्त में गिरा देती है। माँत्रिकों और ताँत्रिकों में यही भेद होता हैं वेद मंत्रों की दिव्य ध्वनियों का गुँजन मनुष्य को मोहित, झंकृत, प्रसन्न और प्रफुल्लित करता है। इससे शक्ति, बलिष्ठता मिलती है, जिससे वह आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में ऊँचा उठता व आगे बढ़ता है।
शक्ति के आदान-प्रदान का यह क्रम मित्रों, बालकों अभिभावकों के बीच भी चलता है, पर सबसे अधिक सामर्थ्य गुरु के शक्तिपात में होती है। जिसने तप साधना द्वारा अपने में शक्ति का भण्डार एकत्रित किया है, वह उसका अनुदान भी किसी को दे सकता है। जिसकी कमाई का आधार रोटी भर है, अपना खर्च ही मुश्किल से चला पाता है, वह क्या किसी को दे सकता है? लिया तो किसी से, कहीं से भी जा सकता है किन्तु दे पाना उन्हीं के लिए संभव है, जिनके पास कुछ जमा पूँजी हो। यह जमा पूँजी अध्यात्म क्षेत्र में तप साधना, संयम, सेवा के आधार पर ही कमाई गई होती है। अपने को पवित्र बनाकर, अनगढ़ से सुगढ़ बनाकर मनुष्य निरोग बनता है और पुण्य की प्रखरता से बलिष्ठ बनता है। यों साधना में जप-तप भी करना पड़ता है। किन्तु सबसे बड़ी बात है आत्मशोधन, स्व का परिष्कार-परिमार्जन। यह सब जितना अधिक और गहरा बन पड़ता है, मनुष्य उतना ही गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से शक्तिशाली होता जाता है। जो विभूतिवान है, वही किसी को कुछ दे भी सकता है। अन्यथा बहकाने वाले बाजीगर और ठग तो गली कूचों में रंग-बिरंगे कपड़े पहने, बड़ी जटाएँ रखे या सिर घुटाये कहीं भी जाल बिछाये चिड़िया पकड़ते देखे जा सकते हैं।
साधना का पूरा अर्थ है-जीवन साधना। इस प्रयोजन के लिए जहाँ अपने गुण, कर्म, स्वभाव की देखभाल की जाती है, वहाँ साथ ही उस प्रसंग से जुड़े हुए कर्मकाण्डों का भी अभ्यास करना पड़ता है। इस प्रकार व्यक्तित्व एक विशेष ढाँचे में ढल जाता है। उसका जैसा भी चाहे भला-बुरा प्रयोग हो सकता है। साधना से सिद्धि का सिद्धान्त जुड़ा हुआ है। पर साथ-साथ यह शर्त भी जुड़ी हुई है कि व्यक्ति ने अपना समग्र जीवन तद्नुकूल बना लिया हो।
ताँत्रिक प्रयोगों के कर्त्ता अभिचार स्तर के निकृष्ट कार्य करते हैं। उन्हें अपनी चर्या में “मद्यं मासं च मींन च मुद्रा, मैथुन एवं च” जैसे अनैतिक कृत्य करते हुए व्यक्तित्व को उसी ढंग से ढालना होता है। इसके अतिरिक्त श्मशान साधना शव साधना जैसे घिनौने कलापों में निरत रहना पड़ता है। कालिक, अघोरी भी प्रायः ऐसा ही करते हैं। इससे उनकी आत्माएँ उचित-अनुचित का भेद करने में असमर्थ हो जाती हैं। आत्म प्रताड़ना के कारण जो वैसा नहीं कर पाते, उनकी ताँत्रिक साधना भी सफल नहीं होती, ऐसा कहा जाता है। दूसरों को मारण, मोहन उच्चाटन, वशीकरण आदि कृत्यों के द्वारा हानि पहुँचाने से पूर्व अपने आपको जघन्य कृत्यों को करते समय घृणा, जुगुप्सा न करने की स्थिति में ढालना होता है। यही बात दक्षिण मार्गी, सदाशयता पर, धर्मोपदेश देने वालों पर भी लागू होती है। सत्कर्म करने वालों को अपना जीवन भी साधना, संयम, स्वाध्याय, सेवा आदि का माध्यम अपना कर भीतर के देवत्व को जगाना पड़ता है। शाप-वरदान देने की सामर्थ्य के मूल में मात्र अभिचार कृत्य ही काम नहीं करते, कर्मकाण्ड ही काम नहीं दे जाते वरन् अपने जीवन का ढाँचा भी तद्नुकूल ही विनिर्मित करना पड़ता है।
कर्मकाण्ड अपना कथित प्रतिफल दिखा सकने में तभी समर्थ होते हैं, जब कर्त्ता का जीवन व्यवहार उस ढाँचे में ढला हुआ हो। इसलिए जहाँ विभिन्न प्रकार की साधनाओं के विधि विधानों और उनके माहात्म्यों का वर्णन है, वहाँ यह बात भी समझनी चाहिए कि साधक को अपनी जीवन चर्या का रूप भी वैसा ही ढाँचे में ढालना पड़ता है। यह उपचार विज्ञान का प्राण है और कर्मकाण्ड प्रयोग उसका कलेवर। प्राण रहने पर ही कलेवर का महत्व है।
व्यक्तित्व के अनुरूप ही सफलता प्रदान करने वाली अन्य विशेषताओं की भी अभिवृद्धि होती है। आध्यात्मिक क्षेत्र की भाँति ही भौतिक क्षेत्र में भी कितने ही प्रगति मार्ग हैं। उनका द्वार सभी के लिये खुला है। पर हर कोई उसे समझ या कर नहीं पाता। इसमें अभ्यास का अभाव ही प्रधान कारण रहता है। विद्वान, धनवान, प्रतिभावान बनने के लिए व्यक्ति को परिश्रमी, परिस्थितियों को समझने वाला मृदुभाषी तथा गुत्थियों को सुलझाने की सूझ-बूझ वाला होना चाहिए। यह सद्गुण किसी में अनायास ही प्रकट नहीं हो जाते, वरन् अभ्यास का सिलसिला जारी रखना पड़ता है। कुछ ही दिन प्रयास चला कर बन्द कर देने पर जो लोग थोड़ा अभ्यास करके छोड़ देते हैं, उनका स्वभाव उस ढाँचे में ढल नहीं पाता और उथले प्रयत्न परिस्थितियों के दबाव में ऐसे ही बिखर जाते हैं।
मनुष्य एक विशेष प्रकार का चुम्बक है, विधाता का बनाया हुआ। साधारण चुम्बक की अपेक्षा उसमें यह एक अतिरिक्त विशेषता है कि उसे जिस भी स्तर का बनाना हो, उस स्तर का बनाया जा सकता है और इस विश्व में विद्यमान किसी भी भली बुरी क्षमता को खींचकर अपनी ओर खींचा और धारण किया जा सकता है। व्यक्ति यों प्रत्यक्षतः अकेला ही होता है, पर उसके साथ इतनी विशेषताएँ, आकर्षक क्षमताएँ जुड़ी होती हैं कि वह जिस स्तर की वस्तुओं को साधनों को चाहे, अपने समीप एकत्रित कर सकता है। उसी स्वभाव वाले समधर्मी मनुष्यों एवं प्राणियों से भी घनिष्ठता स्थापित कर सकता है।
यह सही है कि कर्मकाण्डों में अपनी शक्ति है। यंत्र-तंत्र अपने प्रतिफल देते हैं। शास्त्रोक्त प्रतिफल जरूर मिलते हैं। किन्तु मात्र उन्हीं का विधि विधान सीख लेने से प्रयोक्ता कोई उपयुक्त फल उत्पन्न नहीं कर सकता। भक्ति मार्ग में भी यह बात लागू होती है। कर्म मार्ग में भी-व्यवसाय में भी-और व्यवहार में भी-सफलता का यही सारभूत तथ्य है कि जिस भी दिशा में अग्रसर होना हो, उस स्तर की विभूतियाँ और विशेषताएँ अपने में उत्पन्न एवं परिपक्व करनी चाहिए। इस क्षेत्र में कोई किसी प्रकार का शार्टकट सिद्धान्त लागू नहीं होता।