धर्म संस्थापकों एवं प्रचारकों में ईसा का अपना अनोखा स्थान है। उनकी जीवनी पर गम्भीरतापूर्वक दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि उन्होंने पारलौकिक, काल्पनिक लाभों की विवेचना में अपना बहुत समय नहीं लगाया और न उस संबंध में विशेष रूप से प्रवचन परामर्श ही दिये वरन् सामयिक प्रचलनों में जो दुष्प्रवृत्तियाँ भरी पड़ी थी उनके विरुद्ध उन्होंने जनमानस को जगाया और संपर्क क्षेत्र में प्रभावित लोगों को उन बुराइयों से बचने और जूझने की प्रेरणायें दीं।
यही कारण था कि रूढ़िवादी प्रतिगामी, अनाचारी वर्ग के लोग उन्हें तरह-तरह की धमकियाँ देते रहे और भर्त्सना भरा विरोध भी करते रहे। यों उनने अपनी ओर से ऐसा कुछ नहीं किया था, जिससे दूसरों को चोट पहुँचती हो, पीड़ा पहुँचती हो। नम्रता और सज्जनता को भली प्रकार अपनाये रहने वाला व्यक्ति ऐसा कुछ कर ही नहीं सकता, जिसमें आक्रमण, प्रतिशोध एवं द्वेष का समावेश हो, ईसा का व्यक्तित्व इन सभी दोष दुर्गुणों से बचा हुआ था। उनका आचार, व्यवहार ऐसा नहीं था जिसमें जादू चमत्कारों का समावेश करके लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की कला का समावेश हो। उन्होंने लोक सेवा का व्रत अपनाया और उसी में आजीवन लगे रहे।
ईसाई धर्म के आदि संस्थापक महाप्रभु ईसा अत्यन्त निर्धन और विपन्न स्थिति में जन्मे। कुमारी माता के पेट से जन्मने के कारण वे लोकापवाद का निमित्त कारण भी बने हुए थे। अतः बचपन में माता-पिता के साथ जहाँ-तहाँ घूमना पड़ा। इन विपन्न परिस्थितियों में उन्हें शिक्षा की सुविधा न मिली। सुख सुविधा के साधन तो ऐसी दशा में मिलते ही कहाँ से? समझा जाता है कि उन्हीं कारणों से व्यक्ति सरलतापूर्वक उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचते हैं। ईसा इसके अपवाद थे। उन्होंने अपनी सत्यनिष्ठा व्रतशीलता, सादगी, मिलनसारी और सेवा भावना के आधार पर संपर्क क्षेत्र की जनता के मन में असाधारण स्नेह और सद्भाव के अंकुर उगाये।
ईसा ने धर्म प्रचार के लिए लम्बी यात्राएँ नहीं की। वे अपने जन्म स्थान से प्रायः दो सौ मील की परिधि में ही क्रियारत रहे। सत्य-अहिंसा जैसे उच्च आदर्शों के प्रति उनके अन्तराल में इतनी गहरी निष्ठा थी कि उनके द्वारा किया जाने वाला प्रत्येक कार्य अनुकरणीय एवं अभिनन्दनीय ही होता था। उनका चरित्र बोलता था। वाणी के हर शब्द से शालीनता ही टपकती थी। उसे जो भी सुनता प्रतिपादनों को स्वीकार करने की तुलना में उनके व्यक्तित्व का अनन्य भक्त बन जाता।
ईसा पारिवारिक झंझटों में नहीं फँसे। उनने माता-पिता को भी स्वावलम्बी जीवन के लिए समुचित दबाव देकर तैयार किया। विवाह की बात उनने सोची ही नहीं। इतना अवकाश भी न था कि परिवार के निर्वाह के लिए अनेकानेक आवश्यकताओं को जुटाते रहें। और साथ ही वंश वृद्धि का कुम्हार जैसा चाक घुमाते रहें।
उन दिनों संसार के अन्य प्रदेशों की तरह ईसा के कार्यक्षेत्र में भी नशेबाजी का बोलबाला था। उस कुटेव से बाल-वृद्ध सभी ग्रसित थे। ईसा ने इस दुष्प्रवृत्ति के कारण होने वाली हानियों का इस भाव संवेदना के साथ प्रचार किया कि अभ्यस्त आदमियों में ऐसे भी असंख्यों थे जिन्होंने अपनी उस कुटेव को सदा सर्वदा के लिए छोड़ देने का साहस दिखाया। यह समझदारी एक से दूसरे को पकड़ती गई और नशेबाजी के विरुद्ध एक समर्थ मुहीम खड़ी हो गई।
सामन्ती अधिनायकवाद में आये दिन लड़ाइयाँ होती थी। उनका कारण कोई समस्यापरक न था। लुटेरों का गिरोह बना कर समीपवर्ती क्षेत्र पर वे अधिनायक चढ़ दौड़ते थे जो राजा-प्रजा की सम्पदा को मार काट का आतंक मचाते हुए लूट लेते थे। इसी में युवकों और युवतियों को पकड़ लाना भी एक काम था। यह पकड़े हुए युवक-युवती सारे बाजार जानवरों की तरह बेचे जाते थे। गुलाम प्रथा का बोलबाला था। पालतू पशुओं जैसा काम उनसे लिया जाता था। इस कुप्रचलन के विरुद्ध भी ईसा ने वातावरण तैयार किया। गुलामों को आजाद करने और दूसरों से कराने का कार्य ईसा ने जन साधारण का भाव संवेदन जगाकर ही बहुत हद तक पूरा कर लिया था, जबकि बिना विद्रोह किए आक्रमण का जवाब आक्रमण में देने के अतिरिक्त सामान्य जनों को कोई और उपाय सूझ नहीं पड़ रहा था। ईसा का भावनात्मक उभार उन कठोर तरीकों की अपेक्षा कहीं अधिक कारगर सिद्ध हुआ।
रोगियों की, पीड़ितों की, सताये हुए लोगों की, सेवा करने में, उनके घावों पर मरहम लगाने की उन्हें व्यावहारिक औपचारिक ही नहीं भावनात्मक क्रिया प्रक्रिया का भी उन्हें ज्ञान था। अपनी इस विभूति का उन्होंने भरपूर प्रयोग किया। रोगी उनके पास दौड़ते हुए चले आते वे जहाँ उनकी दयनीय दुर्दशा सुन पाते, दौड़े जाते। जो उपाय सूझता, उसे करते। श्रद्धा विश्वास की अपनी प्रतिक्रिया प्रकट होती। प्रयोक्ता की करुण भरी सेवा भी अपना चमत्कार दिखाती। इसका परिणाम यह होता कि उनके संपर्क में आने वालों में से अधिकाँश रोग मुक्त हो जाते। जो लाभान्वित होते, वे दूसरों से प्रशंसा करते। फल स्वरूप उस सेवा भरी चिकित्सा परिचर्या, की ख्याति फैलती गई और वे “मसीहा” (त्राता) समझे जाने लगे। अगणित व्यक्ति थोड़े ही समय में उनके अनुयायी बन गये। यों विधिवत् दीक्षा लेने वालों में से तो थोड़े से ही व्यक्ति थे। उनमें से भी एक ने लोभ वश धोखा दिया और झूठी चुगली करके जेल में बन्द करवा दिया।
उन्होंने अमीरों को गरीबों की तरह रहने के लिए सहमत किया और अपनी दौलत वहाँ लगाने के लिए उद्यत किया, जहाँ कि उसकी आवश्यकता थी। अमीर और गरीब के बीच के भेदभाव, की किस प्रकार अभिलाषा भड़कती है और ईर्ष्या का दौर पड़ता है। यह दोनों ही पक्षों के लिए हानिकारक है। वजन से लदा हुआ जानवर जिस प्रकार दबता खिंचता और कराहता हैं उसी प्रकार दौलत जिस पर लदती है, उसको चिन्ताओं-व्यसनों में डुबा देती है। इसलिए उसका विपरीत करते रहना ही उत्तम है। ईसा के इन प्रवचनों ने जादू जैसा काम किया और व्यस्त लोगों को स्वार्थ प्रयोजनों में जकड़े हुए लोगों को धर्म परायण और लोक सेवी बना दिया।
ईसाई पादरियों और महिला ननों की परम्परा ईसा की उसी शिक्षा का प्रतिफल है। इन दिनों इन दोनों प्रकार के धर्म प्रचारकों की संख्या लाखों में है। वे विश्व के कोने-कोने में फैले हुए हैं। उनने पिछड़े दरिद्र लोगों के बीच डेरे डाले हैं। उन्हें शिक्षित और सुयोग्य बनाने के लिए भरपूर काम किया है। जो जहाँ बैठा, वह वहाँ मन लगाकर जड़े जमाकर रहा है। ईसाई धर्म की वर्तमान प्रगति का यही कारण है। उसका उत्थान न राजाश्रय से हुआ न डरा धमका कर धर्म-परिवर्तन के लिए विवश किया गया। इतने पर भी विस्तार होने की तूफानी गति को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि इन धर्म प्रचारकों के निजी जीवन की पवित्रता और उपदेशों के सेवा सहायता का समावेश वह तथ्य है जिसके कारण लोगों के मनों में उस क्षेत्र के कार्यकर्त्ताओं के प्रति गहरी सहानुभूति है। भले ही वे उनके धर्म में दीक्षित न हुए हों। विज्ञ समाज में ईसा का ईश्वर पत्र होना और समुदाय में प्रवेश करने वालों के पाप ओढ़ना उतना प्रामाणिक नहीं है जितना कि संयम और सेवा की परम्परा का क्रियान्वयन। किसी भी धर्म सम्प्रदाय संस्कृति के प्रतिपादकों का निजी जीवन कैसा होना चाहिए यह ईसा के उदाहरण से सीखा जा सकता है।