यह संसार जड़ और चैतन्य दो तत्वों से मिलकर बना है। जड़ सृष्टि अर्थात्-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के न्यूनाधिक सम्मिश्रण से बने पहाड़ नदियाँ, जंगल, समुद्र, ग्रह-नक्षत्र आदि। जड़ प्रकृति अपने आप में कितनी उपयोगी और कितनी समर्थ है? आज स्कूलों में पढ़ाये जाने वाले विज्ञान से उसे भली प्रकार समझा जा सकता है। यान्त्रिकी, शल्य-शिल्प, रसायन, औषधि विज्ञान आदि के क्षेत्र में हुई प्रगति इतनी आश्चर्यजनक है कि उसके सहारे आज का मनुष्य दूरवर्ती ग्रह नक्षत्रों तक जा पहुँचा। परमाणु विद्या पकड़ में आ जाने से एक ही झटके में सारे संसार का विनाश कर डालने वाली शक्ति मनुष्य के हाथ में आ गई है।
चेतना-सृष्टि का दूसरा पक्ष है। इसके अंतर्गत वे सभी जीव आते हैं जिनमें इच्छा, अनुभूति, अहंभावना पाई जाती है। जीव जगत को प्राणधारी भी कहते हैं। संकल्प, विचारणायें और भावनायें प्राण तत्व में भरी हुई हैं। जीवनी शक्ति के रूप में यह प्राण ही सक्रिय है। इसी की कमी से व्यक्ति निस्तेज मुर्दा-सा दिखने लगता है। और इसी के संचार से तेजस्वी बनता है। इसी को समझने, बढ़ाने के, नियंत्रण और मनोवाँछित उपयोग करने का अध्यात्म विज्ञान कहा जाता है। आज इस विज्ञान की सर्वथा उपेक्षा हो रही है। आज इस विज्ञान की सर्वथा उपेक्षा हो रही है, पर यह बात बहुत आसानी से समझ में आने वाली है कि जड़ का उपयोग करने वाली शक्ति चेतना ही है। अतएव इस विधा को भौतिक विज्ञान की अपेक्षा बहुत अधिक शक्तिशाली और समर्थ कहा गया है। इसी विज्ञान की प्रगति के आधार पर प्राचीन काल के लोगों ने ऋद्धियों-सिद्धियों के भंडार प्राप्त किये थे।
इन दिनों भौतिक विज्ञान को तो बहुत महत्व दिया गया, पर चेतना के गुण, कर्म, स्वभाव के परिष्कार की ओर से आंखें मूँद ली गई। परिणाम यह हुआ कि भौतिक विज्ञान ने जितनी प्रगति की, अन्तःचेतना उतनी ही अधःपतित हुई। औषधियाँ बढ़ी, उससे हजार गुने अधिक बीमारियाँ बढ़ गई। जितने भौतिक साधन बढ़े, मनुष्य उतना ही विपन्न हो गया। जबकि प्राचीन काल में अध्यात्म साधनाओं पर बहुत अधिक जोर दिया जाता था। आश्रम, आरण्यक, तीर्थ इसी प्रयोजन के लिए विनिर्मित हुए थे। जहाँ पर अन्तश्चेतना के विकास की साधनाओं का शिक्षण और अभ्यास किया जाता था। आश्रम परम्परा जीवित तो अभी भी है। पर वे केवल मूर्तिदर्शन, कथा कीर्तन, रामधुन या अधिक से अधिक योगाभ्यास कहे जाने वाले आसनों प्राणायामों तक सीमित हैं। यह योग व्यायाम निरर्थक नहीं उनकी उपयोगिता अपने स्थान पर यथावत है परन्तु योग का असली भाव तो उच्चतम से जुड़ना है। इसके लिए तप भी करने पड़ते हैं। तपश्चर्या अर्थात् अन्तश्चेतना में गहराई तक प्रवेश कर गये कुसंस्कारों का दमन और निष्कासन।
अध्यात्म तत्वज्ञान का प्रारम्भिक चरण है-”व्यावहारिक जीवन में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश। इसे चेतना का सुसंस्कारीकरण कह सकते हैं। लौकिक प्रगति इसी पर निर्भर है। इसे जीवन जीने की कला, संजीवनी विद्या भी कहा गया है। इतना कर गुजरने पर ही गहराई में प्रवेश करना बन पड़ता है।
चेतना के समुद्र में काफी गहराई तक अनेक समृद्धियाँ भरी पड़ी हैं। इन्हें अतीन्द्रिय क्षमताएँ भी कहा जाता है। जिस प्रकार वैभव का धनी अपना ठाट-बाट बना सकता है और दूसरों को भी सहायता देकर निहार कर सकता है, उसी प्रकार चेतना को योगाभ्यास और तप साधना द्वारा इतना परिष्कृत किया जा सकता है कि साधक हर किसी को चमत्कृत कर सके, अनेकों को विशेष लाभ दे सकने का द्वारा खोल सकें, स्वयं सिद्ध पुरुषों जैसा देवोपम जीवन जी सके। यह सफलता उपासना विज्ञान के अवलम्बन से उसे श्रेष्ठ मार्गदर्शन एवं दैवी संरक्षण में किए जाने पर ही मिलती है। चेतना के उदात्तीकरण की इस प्रक्रिया हेतु, प्रारम्भ से ही उच्च स्तर की साधनाओं के लिए किसी को नहीं कहा जाना चाहिए, न किसी को वैसा दुस्साहस ही करना चाहिए। यही व्यावहारिक है। संजीवनी विद्या वाले पक्ष को जीवन में उतार कर यदि अपने को सुविकसित कर लिया जाता है तो अन्तराल की गहराई में छिपे पंचकोशों, षट्चक्रों, उपत्यिकाओं, गुच्छकों को उभारने वाली और अनेक ऋद्धि-सिद्धियों को सामने उपस्थित करने वाली विभूतियों का अर्जन संभव भी हो जाता है और सरल भी।
प्रत्यक्ष शरीर की व्यावहारिक साधना का प्रसंग चलने पर मानवी सत्ता के तीन पक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। जैसे केले के तने में एक के भीतर दूसरी परत होती है, ऐसे ही शरीर में क्रियातंत्र रूपी काय-कलेवर, विचारतंत्र रूपी मनःक्षेत्र एवं भावतंत्र रूपी अन्तःकरण इन तीन की सत्ता समाई हुई है। इन्हें आध्यात्मिक शब्दावली में क्रमशः स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर कहा गया है। तीनों के मिलने से ही समग्र मनुष्य बनता है। इन्हें सुविकसित बनाने के लिए जो अनुशासन अपनाना पड़ता है, उसे अध्यात्मशास्त्र, तत्वदर्शन या उपासना विज्ञान कहते हैं।
हम प्रायः स्थूल काया से परिचित हैं, उसी को सब कुछ समझते हैं। उसी के लिए सोचते और करते रहते हैं। अपनी समग्रता उसी में समाहित देखते हैं। इसलिए जो कुछ सोचा करते हैं, वह उसी परिधि की स्वार्थ साधन के निमित्त होता है। वासनाएँ इसी क्षेत्र में धुँध की तरह छायी रहती हैं। शरीर का ही एक भाग मन है। उसे ग्यारहवीं इन्द्रिय अपने भोग तलाशती रहती हैं। मन का विचार तंत्र लिप्साग्रस्त होकर लोभ, मोह और अहंता की पूर्ति हेतु ताने-बाने बुनता रहता है। समूची क्रिया शक्ति इसी परिधि में समाप्त हो जाती है। वह एक भी काम बन नहीं पड़ता जिसके लिए सृष्टा ने अपनी इस सर्वोपरि कला-कृति को धरोहर के रूप में सुपुर्द किया है। आत्म-परिष्कार के बिना न पुण्य परमार्थ सधता है, न लौकिक सिद्धियों एवं आत्मिक ऋद्धियों का द्वार खुलता है।
अध्यात्म-विज्ञान का अनुशासन है कि स्थूल शरीर पर अंकुश नियंत्रण रखा जाय। उसे संयम बरतने के लिए संकल्पपूर्वक विवश किया जाय। इसके लिए तपश्चर्या अपनानी होती है। बड़े उद्देश्यों के लिए योगी यती पंचाग्नि विद्या जैसी प्रत्यक्ष और परोक्ष तपश्चर्या करते हैं। किन्तु सर्वसाधारण के लिए तो उसे सुलभ स्तर पर सीमित मात्रा में ही लागू किया जा सकता है। हलकी तपश्चर्या को संयम साधना कहते हैं।
संयम के चार भाग बताये गये हैं :- (1) इन्द्रिय संयम (2) समय संयम (3) अर्थ संयम (4) विचार संयम। इन्द्रिय संयम में चटोरेपन और कामुकता से पीछा छुड़ाया जाता है और वाणी को साधा जाता है। समय संयम में जागने से सोने तक का सुव्यवस्थित कार्यक्रम बनाना और उस पर दृढ़तापूर्वक चलना होता है। अर्थ संयम में अपव्यय के हर पक्ष पर रोकथाम करनी पड़ती है। अहंकारी प्रदर्शन से बचकर ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का आदर्श हृदयंगम करना पड़ता है। विचार संयम का तात्पर्य है कि कल्पनाओं को स्वच्छन्द उड़ानें ने भरने दें। मात्र सामने प्रस्तुत उपयोगी प्रयोजनों का ताना-बाना बुनने तक ही विचारणाओं को सीमाबद्ध रखा जाय।
छलनी में दूध दुहकर सारा दूध जमीन पर गिरा देने जैसी मूर्खता हमें नहीं करनी चाहिए। असंयमों को छिद्र कहा जाता है। अभ्यास में आ जाने पर ईश्वर प्रदत्त अनुदान और स्व उपार्जित वैभव इन्हीं असंयम रूपी छिद्रों में से बहकर बर्बाद हो जाता है। असंयमी पर आलस्य छाया रहता है, कुकल्पनाओं और दुर्व्यसनों का आवेश चढ़ा रहता है। परिणाम स्वरूप व्यक्ति-सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन की गरिमा गिराता है और उसके सहारे मिल सकने वाली उपलब्धियों से वंचित रह जाता है। संजीवनी विद्या के शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है कि इन विडम्बनाओं से बच कर चारों प्रकार के संयमों को अपनाकर विभूतियाँ जगाये और उन्हें सत्प्रयोजनों के लिए ही लगाया जाय।
व्यावहारिक अध्यात्म की निष्ठापरक चार धारणाएँ और भी हैं :- (1) समझदारी (2) ईमानदारी (3) जिम्मेदारी (4) बहादुरी। इन्हीं हो अपनाते हुए साधक सामान्य स्तर का जीवन-यापन करते हुए भी असंख्यों के लिए अनुकरणीय-अभिनन्दनीय बनता है। यह ऐसी सम्पदाएँ हैं जिनका प्रतिफल तृप्ति, तुष्टि, शान्ति के रूप में मिलता है। जीवन में अध्यात्म अनुशासनों का समावेश कितने चमत्कारी प्रतिफल देता है इसे तीनों शरीरों की साधना के माध्यम से प्रत्यक्षतः जीवन में कायाकल्प के रूप में देखा जा सकता है।
मनुष्य के तीनों ही शरीर एक से एक अधिक शक्तिशाली है, किन्तु प्रत्यक्ष शरीर की तुलना में सूक्ष्म की महत्ता कहीं अधिक होती है। वैज्ञानिक, चिकित्सक, एडवोकेट, आर्टिस्ट, साहित्यकार, इंजीनियर आदि बुद्धि कौशल के आधार पर प्रख्यात भी होते हैं, सम्मान पाते और सम्पन्न बनते हैं।
विचार शक्ति का जितना गुणगान किया जाय, उतना ही कम है। मनःक्षेत्र एक बाजीगर है। यही काया के अंग−प्रत्यंगों को कठपुतली की तरह नचाता और उनसे भले-बुरे काम कराता रहता है। उसे साधना के माध्यम से परिष्कृत एवं सशक्त बनाया जा सकता है। मनोबल के आधार पर ही व्यक्तित्व निखरता है। प्राणवान आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति ही प्रतिभावान बनते हैं, और अपनी प्रखरता, प्रामाणिकता के आधार पर असंख्यों का कल्याणकारी नेतृत्व करते हैं।
सूक्ष्म शरीर मनुष्य की काया में प्राण शक्ति के रूप में नापा व आँका जा सकता है। वह प्राण विद्युत से भरा है। शरीर के चारों और विशेषतया चेहरे पर तेजोवलय के रूप में इसे देखा जा सकता है। प्रतिभा-प्रखरता, साहसिकता के रूप में उसी विशिष्टता को न्यूनाधिक मात्रा में देखा जाता है। यह जैव चुम्बकत्व भी है, जो अपने प्रभाव से आस-पास वालों को आकर्षित प्रभावित करता है। सत्संग-कुसंग की प्रतिक्रिया के रूप में इसके प्रभाव को प्रकट होते हुए देखा जा सकता है। मन और प्राण का समन्वय ही सूक्ष्म शरीर है। उसमें व्यावहारिक जीवन में असाधारण काम कर दिखाने की सामर्थ्य तो है ही, इसके अतिरिक्त अतीन्द्रिय क्षमताओं का भी वहीं भण्डार है। यह दिव्य शक्तियाँ प्रायः प्रसुप्त स्थिति में रहती हैं। इन्हें जागृत किया जा सके तो वे हर क्षेत्र में चमत्कार दिखाती हैं।
सूक्ष्म शरीर की व्यावहारिक साधना तो मनोविकारों से छुटकारा पाने के प्रयत्नों से ही पूरी हो जाती है। हल्की-फुल्की हँसती-हँसाती जिन्दगी उतने भर से ही बन जाती है। उद्वेगों महत्वाकाँक्षाओं, आक्रोशों, अवसादों की अनेक मानसिक व्याधियों से छुटकारा मिल जाता है। इसके अतिरिक्त प्रसन्न मुख रहने की आदत चेहरे का सौंदर्य अनेक गुना बढ़ा देती है, भले ही नख, शिखा की दृष्टि से बनावट कुरूप ही क्यों न हो। शरीरगत सशक्तता को ओजस् और मानसिक शक्ति को तेजस् कहते हैं। ओजस् की अपेक्षा तेजस् की सूक्ष्मता की सामर्थ्य अनेक गुनी मानी गयी है। जिसने सूक्ष्म शरीर विकसित कर लिया, समझना चाहिए कि कोई सामर्थ्यवान देव सिद्ध कर लिया और उसकी असाधारण सहायता निरन्तर प्राप्त करने रहने का सुयोग प्राप्त कर लिया। प्रसुप्त एवं अनगढ़ स्थिति में तो वह शरीर यात्रा एवं अनगढ़ कल्पनाओं में ही अपनी क्षमता का समापन करता रहता है। इस हीरक हार को आम आदमी तो काँच के टुकड़ों वाला कूड़ा-करकट ही समझता है।
कारण शरीर समग्र काय-सत्ता का अंतिम तीसरा शरीर है। इसे यों प्रथम भी कहा जा सकता है, क्योंकि वह आत्मा और परमात्मा के मध्यवर्ती झीनी चादर का काम करता है। इसकी पृष्ठभूमि पर ही परब्रह्म का, ब्रह्माण्डीय चेतन धारा का अवतरण होता है। व्यावहारिक भाषा में यह भाव शरीर है, इसमें सबल संवेदनायें निवास करती हैं। आत्मीयता, करुणा, मैत्री, सेवा, सहायता, संवेदना का इसे केन्द्र कहा जा सकता है। उत्कृष्ट आदर्शवादिता भी उसी में जड़ जमाये रहती है। जब यह क्षेत्र विकसित होता है। तो नन्दनवन की कल्पवृक्ष, उपवन की तरह सुन्दर लाभदायक सिद्ध होता है।
आत्मीयता जिस भी वस्तु या व्यक्तित्व के साथ जुड़ती है उसी को परम प्रिय आनन्ददायक बना देती है। भगवान के साथ भक्ति के रूप में जब वह जुड़ती है, तो प्रभु सान्निध्य जैसी दिव्य अनुभूति होती है। स्वजन संबंधों में वह प्रेस भावना बनती है। प्रियपात्र की समीपता सदा आनन्ददायक लगती है। उस आत्मभाव का विस्तार विराट ब्रह्म के साथ जुड़ने से ही संभव होता है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की आस्था जब प्रगाढ़ होती है, तब संसार का कण-कण देवता जैसा अनुभव होने लगता है। भाव संवेदनाओं को आदर्शवादिता के साथ जोड़ते हुए उन्हें उभारना ऐसा ही है, मानों हर घड़ी सोमपान का, अमृत तत्व के रसास्वादन का अवसर मिल रहा हो।
साधारण रूप से यह समझा जाता है कि ऐसा आनन्द तो मरने के बाद स्वर्ग-मुक्ति प्राप्त होने पर ही मिल सकता है। पर यदि परायेपन की नीरसता को जीता जा सके, तो सर्वत्र आत्म तत्व ही बिखरा दिखता है और प्रभु मिलन जैसा सरस अनुभव बराबर होता रहता है। भाव संवेदनायें जिस उद्गम से उभरती हैं उसे गंगोत्री, गोमुख जैसा पावन बनाती है। वह धारा जब अग्रगामी होती है तो सारे संपर्क क्षेत्र का सरसता से, शीतलता से ओत-प्रोत करती हैं। इसका प्रत्यक्ष स्वरूप सेवा-साधना के रूप में प्रकट होता है। इस दैवी उभार ही कहा जा सकता है। देवताओं के मानस एवं क्रिया-कलाप सदा सर्वदा वरदान, अनुदान, बरसाने वाले ही होते हैं। जिनका भाव क्षेत्र संवेदनशील हो चला है, वे देव मानव भी इसी आत्मीयता भरी सेवा साधना को अपनी जीवन धारा बनाते हैं। इसी आधार पर दिव्य आनन्द का लाभ प्राप्त करते हैं।
कारण शरीर कहा जाने वाला भावक्षेत्र यदि विकसित हो उठे तो शरीर के साथ सच्चा प्यार करने उसे स्वस्थ सक्रिय बनाने का विवेक जगाता है। परिवार के प्रति उच्चस्तरीय भाव जगे, तो उसके सदस्यों को सद्गुणी बना कर उज्ज्वल भविष्य को गढ़ने का प्रयास चल पड़ता है। मित्र पड़ौसी संबंधियों को विचार परिष्कार की प्रेरणा मिलती है, तथा उनका वास्तविक हित साधन करने के लिए जी उमगता है। पाप, अनाचार, छल, प्रपंच के लिए तो पैर उठते ही नहीं। इस स्थिति में न केवल अपना अन्तःकरण आनन्द से ओत-प्रोत होता है वरन् संपर्क क्षेत्र में भी वह अमृत वर्षा होती देखी जा सकती है। प्रकृति, पदार्थ एवं दृश्य भी चित्र जैसे सुन्दर और खिलौने जैसे मनमोहक लगने लगते हैं। इन उपलब्धियों का सहयोग ऐसा मंगलमय है कि अपने को स्वर्ग में पहुँचाने या स्वर्ग को अपने अन्दर प्रकट कर लेने जैसी अनुभूति होने लगती है।
प्रस्तुत पंक्तियों में प्रत्यक्ष शरीर सूक्ष्मशरीर और कारण शरीर के व्यावहारिक उत्कर्ष का अनुभव अभ्यास तीन शरीरों की विशिष्ट साधना प्रक्रिया के प्रशिक्षण के अंतर्गत सुझाया गया है। यह आवश्यक तो है और प्रथम चरण के रूप में अनिवार्य भी। पर बात इतने से समाप्त नहीं हो जाती। इसके लिए सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों के जागरण हेतु विशिष्ट साधनाएँ भी करनी पड़ती है। श्रद्धा संवर्धन के विविध कर्मकाण्ड किए जाते हैं। अन्तःकरण की चिकित्सा हेतु संस्कारित औषधिकारक से लेकर प्रायश्चित इच्छापूर्ति के विभिन्न उपचार करने होते हैं।
तीन शरीरों की एक उथली स्वल्प मात्रा दैनिक जीवन में कार्यरत रहती है पर उस समर्थता को तीनों क्षेत्रों में प्रचण्ड करना हो तो यह भी अनिवार्य हो जाता है कि इस प्रयोजन के निमित्त जपयोग प्राणयोग भावयोग रूपी उन अध्यात्म विज्ञान सम्मत उपचारों को अपनाया जाय, जिन्हें विशिष्ट साधनाएँ कहते हैं। तीनों शरीरों की अन्तरंग क्षमता को प्रचण्ड बनाने के लिए भिन्न प्रकार की साधना-विधियाँ हैं जिन्हें हर साधक स्तर के परिजनों के लिए इन साधना सत्रों में सुगम बनाया गया है।