भक्ति भावना का सही पैमाना

May 1987

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शरीरगत इन्द्रियाँ हमेशा प्रत्यक्ष पर विश्वास करती हैं। जो उन्हें दीखता है, सुनाई देता और स्पर्श संपर्क में आता है, उसे वे प्रत्यक्ष एवं सही मानती हैं। इस कार्य में यंत्र उपकरण भी सहायक होते हैं। सूक्ष्म दर्शन में माइक्रोस्कोप, दूरदर्शन में टेलिस्कोप आदि यंत्र उपकरण इन इन्द्रियों की सहायता करते हैं और अपेक्षाकृत अधिक छोटी एवं दूरवर्ती वस्तुओं को दिखा देते हैं। यह इन्द्रिय ज्ञान की परिधि हुई।

इसके आगे मस्तिष्क है। उसमें कल्पना, तर्क, तथ्य, निर्णय, परिणाम आदि के संदर्भ में अधिक गहराई तक विचार करने की क्षमता है। चिन्तन में सहायता करने के लिए कम्प्यूटर स्तर के यंत्र बन गये हैं। पुस्तकों और परामर्शों के आधार पर भी इन प्रयोजनों में सहायता मिलती है।

प्रत्यक्ष काया को स्थूल शरीर और मस्तिष्क में अवस्थित चिन्तन तंत्र को सूक्ष्म शरीर कहते हैं। यह दोनों एक दूसरे के साथ बहुत अंशों में घुले मिले हैं। काय कष्टों से पीड़ित होने पर मस्तिष्क मूर्छित हो जाता है। मस्तिष्क को नींद आ जाने या क्लोरोफार्म आदि सुँघा देने पर शरीर निश्चेष्ट हो जाता है। मस्तिष्क की दुर्भावनाएँ शरीर को प्रभावित करती हैं और उसे रुग्ण, अशक्त बनाती हैं। इसी प्रकार कोई असाधारण प्रसन्नता होने पर, सुविधा साधन प्रचुर मात्रा में हस्तगत होने पर मस्तिष्क में प्रसन्नता-प्रफुल्लता का ठिकाना नहीं होता। शरीर और मन के बीच तारतम्य बिठाने में ज्ञानेन्द्रियाँ बहुत सहायक होती हैं। वे दोनों के बीच सेतु का काम करती हैं।

अध्यात्म-संवेदनाओं, आस्थाओं, आकाँक्षाओं से संबंधित क्षेत्र है। ये सभी भावनाओं पर निर्भर हैं। भावनाओं की अस्तित्व न शरीर में है, न मन में। वे तो अन्तःकरण की गहन परतों में उत्पन्न होती हैं। प्रेम मन का गुण नहीं है। वह तो जिन्हें जब तक उपयोगी समझता है, तब तक उनसे उतना ही उथला गहरा लगाव बनाये रखता है। समय बीतने पर स्मृति झीनी पड़ जाती है और साथ ही वह प्रेम भी क्रमशः समाप्त हो जाता है।

इन्द्रियों की ललक और भी उथली है। उसका रसास्वादन नितान्त क्षणिक और सामयिक है। जब तक जीभ का स्वाद मिल रहा है, तब तक वह स्वादिष्ट पदार्थ प्रिय है। पेट भरते ही उससे तृप्ति या घृणा हो जाती है। बहुत आग्रह करने पर भी उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। कामेंद्रियों पर भी यही बात लागू होती है। जब तक रतिक्रिया चलती है, उतने ही क्षण उत्तेजना का अस्तित्व रहता है। क्षरण होने के उपरान्त उस ओर से मन हट जाता है और उपेक्षा, अरुचि उस स्थान को ले लेती है। अन्य इन्द्रियों की भी यही गति है।

मन को भी इसी परिधि में बँधा हुआ माना जाता है। धन जब तक नहीं मिला है, तब तक उत्कंठा रहती है। उसके अभीष्ट मात्रा में मिल जाने पर सुरक्षित रखने की चिन्ता पड़ती है। साथ ही अगले क्षण उस उपलब्धि का उल्लास तिरोहित हो जाता है। पत्नी-पुत्र आदि के संबंध में भी यही बात है। वे जब तक नहीं मिलते; तब तक विपुल वरदान की तरह कल्पना क्षेत्र पर चढ़े रहते हैं, किन्तु जैसे ही वे मिल जाते हैं, एक बोझिल उत्तरदायित्व की तरह लद जाते हैं और जैसे तैसे उनके प्रति कर्त्तव्य निबाहते हुए समय गुजारा जाता है। स्थायी प्रेम भावना या उत्कट अभिलाषा इन प्रसंगों के बीच बिजली की तरह कौंधती और क्षण भर में तिरोहित हो जाती है।

भावनाओं का अपना अलग स्तर और पृथक उद्गम है। वे उत्कृष्टता और आदर्शवादिता के साथ जुड़ती हैं और स्थिति के अनुरूप चिरकाल तक बनी रहती हैं। इतना ही नहीं, तारतम्य एक लहर द्वारा दूसरी उठाये जाने की तरह तट के अंतिम छोर तक पहुँचने की तरह बना रहता है किन्तु आहत को व्याकुल देखकर जो करुणा उत्पन्न होती है, वह मौखिक सहानुभूति का शिष्टाचार निभाकर विलुप्त नहीं हो जाती, वरन् उसकी शारीरिक सेवा आर्थिक सहायता के लिए कुछ किये बिना चैन नहीं पाती यह भावना है। भाव संवेदना उसी को कहते हैं और यह कारण शरीर से अन्तःकरण में उद्भूत होती है।

यह भावुकता की चर्चा नहीं हैं। भावुकता एक आवेश है, जो उभरकर कभी किसी को सर्वस्व दान भी कर सकता है। कभी क्रोध में ऐसा आक्रमण कर बैठता है जिसका दुष्परिणाम चिरकाल तक भुगतना पड़े। इसी प्रकार के आवेश में लोग आत्महत्या कर बैठते हैं। कोई कपड़े रंग कर साधु बाबा हो जाते हैं और नशा उतरते ही उस आतुरता को साँप छछूँदर की तरह गले की फँसी हुई अनुभव करते हैं। भावुकता के अनेक रूप हैं। पर हैं वे सभी अविवेकपूर्ण, आतुर और क्षणिक।

भावनाओं की गणना इस श्रेणी में नहीं की जा सकती। उसके पीछे श्रद्धा, त्याग, विवेक और साहस का सम्मिश्रण होता है। दधिचि, भागीरथ, हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, हनुमान, गाँधी, बुद्ध जैसे महामानवों की स्थिति ऐसी ही थी। उनने उच्च आदर्शों का महत्व समझा। उसके लिए समय की पुकार को सुना। अपनी सामर्थ्य को तौला और धीर, वीर, गंभीरों की तरह निर्धारण की ओर चल पड़े। मार्ग में अवरोध, प्रलोभन और दबाव उन्हें विचलित न कर सके।

भक्ति भावना का यही स्वरूप है। वह ईश्वर के प्रति लगाव से आरम्भ होती है। अंकुरित होने का उसका एक छोटा केन्द्र बिन्दु है। पर उस स्थिति में सदा नहीं ठहरती। विकसित होने पर आम्र वृक्ष की तरह बनती है और अपने फलों से, पल्लवों से अनेकों की सहायता करती है। उसकी टहनियों पर पक्षी घोंसला बनाते हैं। छाया में पशु और पथिक विचरते हैं। लकड़ी तक शीत मिटाने और कपाट बनाने के काम आती है। भक्ति के रूप में प्रस्फुटित हुआ अंकुर ईश्वर की साक्षी से प्रकट होता है, पर वह उतने ही दायरे में सीमित नहीं रहती। किसी देवता विशेष तक उसकी लगन लगी नहीं रहती, पर व्यापक क्षेत्र में आत्मीयता के रूप में विकसित होती है। यह आत्म-भाव ही सच्चा प्रेम है। इसमें सेवा सहायता का गहरा पुट होता है। इस गहराई को इसी पैमाने में नापा जाता है कि उस भाव संवेदना के सहारे कितनों की कितनी सेवा सहायता बन पड़ी। इस विश्व उद्यान को अधिक सुन्दर-समुन्नत बनाने के लिए कितना श्रम और त्याग किया जाय?

भक्ति शब्द प्रायः ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता है। महानता सम्पन्न गुरुजनों के लिए भी। उनके प्रति अगाध प्रेम का होना ही वास्तविकता का प्रतीक है। गहरा प्रेम माँगता नहीं, वरन् देने के लिए आतुर रहता है। यह आतुरता इतनी उत्कृष्ट होती है कि उसकी प्रतिक्रिया प्रत्यक्ष सेवा सहायता के रूप में प्रकट हुए बिना रह ही नहीं सकती।

ईश्वर कोई अपंग, आहत एवं दीन-दुःखी नहीं है, जिसे अन्न-वस्त्र की सहायता करके संकट से उबारा जा सके। वह सामंत भी नहीं है, जिसका यशगान करके चरणों की तरह पुरस्कार पाया जा सके। उसकी मनुष्य से दो ही अपेक्षा हैं, एक तो वह अपनी गरिमा गिराकर सृजनकर्ता को बदनाम न करे और दूसरी यह कि उसके लगाये इस विश्व उद्यान को अधिकाधिक सुरम्य बनाने में अपना पसीना बहाये, साधन खपाये और बुद्धिबल को जितना नियोजित कर सकता हो, उसमें कमी न रखे।


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