शुकदेव जी राजा जनक के यहाँ राजगृह में विद्या सीखने गये। विद्याध्ययन पूरा हुआ तो उन्होंने गुरुदक्षिणा देने की इच्छा प्रकट की। राजा जनक ने कहा-”मुझे कोई दक्षिणा नहीं चाहिये। फिर भी तुम्हारा आग्रह है तो कोई निरुपयोगी लगने वाली वस्तु दे दो।”
निरुपयोगी वस्तु की तलाश में शुकदेव निकले, मिट्टी, पत्ते, इत्यादि सभी अपनी-अपनी जगह उपयोगी लगे। पदार्थों में कोई निरुपयोगी नहीं दिखता। भावों का लेखा जोखा लेने लगे। उन्हें लगा यह देहाभिमान ही निरुपयोगी है। जनक जी से बोले “मैं आपको देहाभिमान अर्पित करना चाहता हूँ।”
राजा ने कहा “अब तुम कृतार्थ हो गये। संसारी देहाभिमान को ही सर्वप्रिय मानकर उससे चिपटा रहता है। तुम्हें यह सर्वथा निरर्थक लगा, यह दृष्टि प्रभु कृपा से जिसे मिल जाय, वही कृतार्थ।”