अन्तराल की प्रचण्ड ऊर्जा

May 1987

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पृथ्वी की गहराई में प्रवेश करते जाने पर पता चलता है कि वहाँ अनादि काल जैसी गर्मी अभी भी मौजूद है। आरम्भ काल में पृथ्वी भी अन्य ग्रहों के जन्म काल में पाई जाने वाली स्थिति में थी। उन दिनों वह आग का गोला थी। ठंडी होने का क्रम चला तो छोटी बड़ी दरारें बन गई। वर्षा ने उन्हें भरा और जलाशय बना दिया। यह हलचलें ऊपर परतों को ही प्रभावित करती रहीं। वनस्पति और प्राणियों का उद्भव तथा विकास इसी ऊपर परत पर हुआ।

पृथ्वी, वायु और पानी के कारण क्रमशः ठंडी हुई है। उसके मध्यवर्ती अन्तराल में प्रचण्ड गर्मी मौजूद है। वह बहते हुए गर्म लाल लोहे की तरह है। ऊपर से ठंडा घेरा उस गर्मी को कैद किये हुए है। उसकी मोटाई और मजबूती भी बहुत है। इतने पर भी प्रकृति के नियम उस आतप को भी प्रभावित किये बिना नहीं रहते। गर्मी से हर वस्तु फैलती है। पृथ्वी का गहरा भीतरी भाग की स्वभावतः फैलाना आगे बढ़ना चाहता है। ऊपरी परत उसे कसे रहती है। फिर भी भीतर का लावा चैन से नहीं बैठता और वह अपने विस्तार के लिए रस्सा-कसी करता रहता है। बाहर निकलने के लिए कोई खिड़की चाहता है। यह प्रयास निरन्तर चलता है। तनाव की यह खोज रहती है कि उसे फूट पड़ने के लिए अवसर मिले। जहाँ वह कमजोरी देखता है वहीं चढ़ दौड़ता है और छेद बनाकर बाहर निकलता है। ज्वालामुखी इसी स्थिति का नाम है। वे जब फटते हैं तो लावा उगलते हैं। भीतर की आग ऊपर की ठंडी परतों को ऊपर उछालती है तो जमीन पर लावा बहने लगता है। वह सुरंग फटने की तरह आकाश में भी उछलता है और बड़े क्षेत्र को अपनी चपेट में ले लेता है, वहाँ विनाशलीला खड़ी हो जाती है। वृक्ष, वनस्पति, मकान आश्रय, जलाशय सभी उस मलबे से भर जाते हैं।

इस विस्फोट के समय प्रभावित होने वाले क्षेत्र थरथराते भी है। उस हड़कम्प को भूकम्प कहते हैं। धरती कीमती जैसी प्रतीत होती है। जमी हुई वस्तुएँ उलट-पलट जाती है। इस उलट-पलट में जो गिरता है, वह नीचे वालों को दाब दबोच देता है। साथ ही यह भी होता है कि जो कुछ भला बुरा नीचे दबा था, वह उलट कर ऊपर आ जाय और धरातल की स्थिति इतनी बदल जाय कि पूर्व स्वरूप का अता पता भी न चले।

आँका गया है कि हर वर्ष प्रायः 24 हजार सशक्त भूकम्प आते हैं। एक हजार के करीब ज्वालामुखी फटते हैं। चूँकि समुद्र पृथ्वी का दो तिहाई हिस्सा घेरे हुए है, इसलिए ज्वालामुखियों से भूकम्पों की संख्या में अनुपात क्रम की अपेक्षा वहाँ कुछ अधिक ही रहता है। कारण कि समुद्र की गहराई वाला जल मध्य भूतल की आग्नेय परत के समीप पड़ता है, वहाँ से सीलन नमी रिसन क्रमशः नीचे उतरती रहती है। आग में पानी का स्पर्श होने से भाप बनती है। भाप में अपेक्षाकृत दबाव अधिक होता है। यही कारण है कि भाप से बादल रेल गाड़ियों के इंजन एवं घरेलू प्रेशर कुकर तक छोटे उपकरण काम करते हैं। भाप स्नान से मैल फूलने और छूटने का अधिक उपयुक्त लाभ मिलता है। उससे रोम कूप खुलते और स्वेद बिन्दु निकलते हैं। इसी को जमीन द्वारा साँस लिया जाना कहते हैं। मात्र ऊपर से ही हवा के झोंके, अन्धड़, चक्रवात नहीं आते अविज्ञात रूप से धरती भीतर से भी उफनती रहती है। झरने फूटते हैं। नदियों के स्रोत खुलते हैं। बहुत जगह गर्म जल के स्रोत भी पाये जाते हैं। खोदने पर चलने वाली गैसें निकल पड़ती हैं। खनिजों की जो परतें कभी बहुत गहरी थीं, वे नीचे के दबाव से ऊपर उठती हैं और धरातल के इतनी समीप आ जाती हैं कि उनका आसानी से पता लगाया जा सके। खोदकर खनिजों को ऊपर निकाला जा सके।

उपरोक्त वस्तुस्थिति को भूगर्भ विधा के उच्च कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं। भूकम्पों ज्वालामुखियों एवं अन्य प्रकार से नीचे की सम्पदा ऊपर आने के विषय में बहुत कुछ जान सकते हैं। पर यह रहस्य किन्हीं विरलों को ही प्रतीत हैं कि विराट् ब्रह्म की तरह मनुष्य की एकाकी सत्ता भी पृथ्वी की तरह ही विशाल रहस्यमय और समानान्तर है।

पृथ्वी की भीतरी आग्नेय परत ही बाहर आकर समीपवर्ती स्थिति को प्रभावित करती है और उसी से गुरुत्वाकर्षण उत्पन्न होता है। गुरुत्वाकर्षण न केवल धरातल पर चलने वाली गतिविधियों को प्रभावित करता है, वरन् स्वयं पृथ्वी को भी अपनी धुरी पर घूमने तथा सूर्य परिक्रमा के लिए चल पड़ने के लिए आगे धकेलता है। उस परिभ्रमण की एक कक्षा भी बनती हैं, ताकि सौर मण्डल के अन्याय ग्रहों के मार्ग में व्यवधान न पड़े, टकराव न हो। यह गतिशीलता ही पदार्थों में प्रवेश करके उनके अणु परमाणुओं को गति देती है और संसार का उत्पादन अभिवर्धन, परिवर्तन क्रम चलाती है। संसार में जो कुछ सम्पदा, प्रगति, सुन्दरता दीख पड़ती है, उसका निमित्त कारण पृथ्वी के अन्तराल की ऊर्जा और उसके कारण उत्पन्न होने वाले दबाव को ही माना जाना चाहिए।

मनुष्य के अन्तराल में भी ऊर्जा केन्द्र है। उन्हें शरीर क्षेत्र में हृदय एवं मनःक्षेत्र में ब्रह्मरंध्र कहा जा सकता है। यह ऊर्जा जब प्रबल प्रखर होती है, तो शरीरगत समर्थता बलिष्ठता, सुन्दरता के रूप में उगती है। मस्तिष्क क्षेत्र में जब वह सक्रिय होती है तो बुद्धिमत्ता, गुणवत्ता और विवेकशीलता के रूप में काम करते देखा जा सकता है। मानवी अन्तराल में दबी ऊर्जा को ही आत्मा, चेतना, प्रेरणा के रूप में समझा जा सकता है। वही उमंग, आकाँक्षा, भावना के रूप में उभरती है। जब उसका स्तर उत्कृष्ट एवं ऊर्ध्वगामी होता है तो से श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा के रूप में भाव संवेदन स्तर की देखा जाता है। शरीर क्षेत्र में वही पराक्रम, कौशल, संयम बन कर काम करती है, उसकी समग्रता ओजस्, तेजस् और वर्चस् के रूप में जानी जाती है। यह उसका सौम्य पक्ष है-सृजनात्मक। यही जब विद्रूप होने लगता है तो शरीर में आधि व्याधि बनकर फूटता है। स्वभाव एवं चरित्र में दुष्टता, भ्रष्टता, अनाचार, आतंक दुर्व्यसन, जैसे आसुरी कहे जाने वाले लक्षणों के रूप में प्रकट होता है। इस प्रकार का प्रकटीकरण ज्वालामुखी या भूगर्भ के भयावह उपद्रवों के समतुल्य समझा जाता है।

भीतरी अग्नि अन्तःचेतना है। यही प्राण है, जिसके रहने तक शरीर जीवित रहता है। उसमें सौम्य पक्ष, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्ट आदर्शवादिता बनकर छलकता है। उसी के परिपोषण हेतु व्रत नियमों का निर्धारण, परिपालन आध्यात्मिक अग्नि क्षेत्र कहा जाता है।

पृथ्वी के अन्तराल की अग्नि का किस दिशा में निष्क्रमण हो, यह प्रकृति परमेश्वर के हाथ में हैं। वह उसके सौम्य, भयावह निष्क्रमण की उपयोगिता समझता और व्यवस्था बनाता है। किन्तु मनुष्य अपनी ऊर्जा और उसकी दिशाधारा का इच्छित उपयोग करने में स्वतंत्र है। वह अनुशासन में रहकर अपने जीवन काल और बुद्धिबल का उत्साहवर्धक उपयोग भी कर सकता है और उसके लिए भी सम्भव है कि घुटन, असंयम, विद्रोह का मार्ग अपना कर न केवल अपने लिए संकट उत्पन्न करे, वरन् संबंधित लोगों को भी उस विनाश लीला की चपेट में ले ले। आत्मिक अग्नि ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति और सम्पदा है। उसे सही दिशा देना विवेकशील मनुष्य का अपना काम है।


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