विज्ञान और ज्ञान क्षेत्र की अपनी अपनी उलझनें

May 1987

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शारीरिक श्रम पराक्रम के उपरान्त मनुष्य के लिए करने को जो सबसे बड़ा काम बच रहता है, वह है-मानसिक चिन्तन। शरीर और मन दोनों के मिलने से ही समग्रता बनती है। तत्परता और तन्मयता का संयोग ही ऐसी उपलब्धियाँ हस्तगत कराता है, जिसके आधार पर सुविधाएँ बढ़ती, प्रसन्नतायें फलती और प्रगति की संभावनाएँ मूर्तिमान होती हैं। मानवी प्रगति के इतिहास में मूल तत्व यही सन्निहित है। पशु और मनुष्य के बीच में यही अन्तर है। अन्य प्राणी मात्र शरीर से काम लेते हैं। प्रकृति प्रेरणाओं का अनुसरण कहते हैं और शरीर रक्षा से जुड़ी हुई समस्याओं का समाधान करते हैं। उन्हें चिन्तन की आवश्यकता नहीं पड़ती। समस्याओं की पेचीदगी में नहीं उतरना पड़ता। गुत्थियों को सुलझाना नहीं पड़ता और न कोई महत्वाकाँक्षाएँ ही उनके सामने रहती हैं, जिनकी पूर्ति के लिए असाधारण दौड़ धूप करनी पड़े। मनुष्य ही है जो आकाश, पाताल के कुलावे मिलाता, दलदलों में फँसता और उनसे उबरने के लिए अनेक स्तर के प्रयत्न करता देखा जाता है॥

सामान्य प्राणी हँसता हँसाता, कुदकता फुदकता, हलका फुलका जीवन जी लेता है। उसके लिए समय काटना और आवश्यकताओं को पूरा करना कोई समस्या नहीं है। प्रसन्नतापूर्वक उठता और संतोषपूर्वक सो जाता है। किन्तु मनुष्य को वैसा सुयोग उपलब्ध नहीं है। उसकी कल्पनाएँ इच्छाएँ, आदतें और योजनाएँ ऐसी विकृत, बेढंगी होती हैं जिन्हें सही रीति से हल करना तो दूर उनका स्वरूप समझना तक सम्भव नहीं होता। हैरानी सबसे बड़ी विपत्ति है। उनसे मानसिक और शारीरिक शक्तियों का, समय, श्रम एवं मनोयोग का इतना अधिक क्षरण होता है कि उनकी पूर्ति के लिए वह सब उपर्याप्त ही रहता है, जो कौशलपूर्वक बनाया या कमाया गया है। नाप तौल कर देखा जाय तो सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य कहीं अधिक समस्याग्रस्त और उलझनों में भटकता हुआ-खिन्न-विपन्न पाया जाता है।

सुविधाओं और क्षमताओं की इतनी अधिकता और उस पर भी इतनी विपन्नता? इस पहेली का कारण और निराकरण ढूँढ़ने के लिए हमें गहराई में उतरना होगा। देखना होगा कि गणित की लम्बी चौड़ी प्रश्नावली सामने रखकर उनका हल निकालते समय उन फार्मूलों को तो विस्मृत नहीं कर दिया गया है, जिनके आधार पर छोटे बालकों से लेकर निष्णात प्रोफेसरों तक अपनी-अपनी प्रश्नावलियों को सही समाधान तक पहुँचाते हैं।

अन्य प्राणियों में से कितनों की ही तुलना में मनुष्य पिछड़ा हुआ है। वह घोड़े, चीते, हिरन की तरह नहीं दौड़ सकता। हाथी और गेंडे जैसा बलिष्ठ भी नहीं है। दीमक, चींटी, मधुमक्खी जैसी क्रमबद्धता भी उसमें नहीं है। घ्राण शक्ति में वह कुत्ते, बिल्लियों तक से पिछड़ा हुआ है। फिर भी मनुष्य सृष्टि का शिरोमणि है। उसने ज्ञान विज्ञान के दोनों ही क्षेत्रों में इतनी दूरी तक प्रवेश पा लिया है कि उसे देवपुत्र या प्रकृति का राजकुमार कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

दो पैरों के सहारे चल कर दूरी तय की जाती है और मंजिल तक पहुँचा जाता है। मानवी प्रगति की विशिष्टता का श्रेय जिसे दिया जा सकता है, उसे ज्ञान और विज्ञान का नाम देना उपयुक्त ही है। मनुष्य ने इन्हीं दोनों की साधना की है, फलतः वे ऋद्धि सिद्धियाँ उसके सामने हाथ जोड़कर आ खड़ी हुई हैं, जिन्हें समृद्धि और प्रगति भी कहा जा सकता है। समृद्धि से तात्पर्य है पदार्थ पाकर सुविधा साधन। मनुष्य की क्षमता, सुविधा और प्रसन्नता इसी आधार पर बढ़ी है। प्रगति का अर्थ है चिन्तन की वह उत्कृष्टता, जिसके आधार पर उसने शास्त्र का, दर्शन का, व्यवहार का ढाँचा खड़ा किया है और अनेक दिशाओं में कल्पनाओं की उड़ानों ने उनके लिए रंगीले पंख प्राप्त किये हैं।

मनुष्य पदार्थ सम्पदाओं से अपने उपयोग की वस्तुएँ खोजता और बढ़ाता है, साथ ही उनके उपयोग की उपभोग की विद्या भी निर्धारित करता है। विज्ञान यही है। इसके आविष्कारों से पृथ्वी पर अनगढ़ स्थिति में पड़ा हुआ पदार्थ, परिष्कृत होकर उपयोगी स्थिति में सामने आया है। धरातल से नीचे के खनिज इसी आधार पर खोज निकाले गये हैं। धातुएँ, रसायनें, तेल, पत्थर, कोयला आदि न जाने क्या-क्या विज्ञान ने हमारे सामने प्रस्तुत किये हैं। पेय जल का अधिकाँश भाग धरती की परत खोद कर ही प्राप्त किया जाता है। अनगढ़ झरनों और नदी नालों को कृषि कार्य में प्रयुक्त हो सकने योग्य स्थिति में विज्ञान ने ही बनाया है। कृषिकार्य, बागवानी, पशुपालन की क्रिया प्रक्रिया विज्ञान ने ही दिखाई है। उसी ने वह जानकारी दी है, जिसके आधार पर वस्त्र, मकान एवं वाहन, यंत्र उपकरण औजार बन सके। आग जलना और उसके विविध उपयोग करना विज्ञान की सहायता से ही सम्भव हुआ है। यह समृद्धि की आरम्भिक दिनों की चर्चा है। बाद में तो वह कारखाने खड़े करने लगा, जलयान वायुयान बनाने लगा और अस्त्र-शस्त्रों के ऐसे जखीरे जमा करने लगा जिनके द्वारा पौराणिक प्रलय का नूतन संस्करण प्रस्तुत खड़ा किया जा सके। कम्प्यूटरों से लेकर रोबोटों तक के, रेडियो-टेलीविजन से लेकर एक्स और लेसर किरणों तक के वे साधन उपलब्ध कर लिए गये हैं जिनके आधार पर उसने प्रकृति पुत्र न रहकर उसका अधिष्ठाता होने पर दावा करना आरम्भ कर दिया है। सौर मण्डल को लाँघकर समूचे ब्रह्माण्ड तक अपनी पहुँच बनाने तक की उसकी अभिलाषा है। विज्ञान का यह विशालकाय क्षेत्र है, जिसके आधार पर चिकित्सा से लेकर प्लास्टिक सर्जरी तक के-कृत्रिम खाद्यों तक के-अनेक आधार हस्तगत कर लिए गये हैं।

दूसरा क्षेत्र है-ज्ञान। जिसे शिक्षा कहा जाता है। भाषा, लिपि, प्रेस, पुस्तक जैसे प्रत्यक्ष आधारों से लेकर चिन्तन की इतनी अधिक दिशाधाराएँ सामने आई हैं कि उनकी विचित्रता और भिन्नता आश्चर्यचकित कर देती हैं। धर्म सम्प्रदायों का कलेवर इतना बड़ा है, जिसने सभ्य असभ्य सभी को अपने अंचल में ढक लिया है। ईश्वर से लेकर देवताओं तक की सृष्टि इसी ज्ञान उद्यान की उपज है। धर्म, दर्शन, अध्यात्म, साधना, सिद्धि जैसे अनेकानेक प्रकरण इसी क्षेत्र में जन्मे हैं। राजनैतिक, सामाजिक, नैतिक, बौद्धिक क्षेत्र की अनेकानेक पद्धतियाँ, प्रणालियाँ, दिशाधाराएँ यद्यपि एक दूसरे के विपरीत चलती हैं। और तालमेल न बिठा सकने वाला विलगाव रखती हैं, तो भी उन सबका अस्तित्व “ज्ञान” की खदान से ही निकल कर चित्र विचित्र रूप में सामने आया है।

तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण ढूँढ़कर अपने-अपने पक्ष का समर्थन करने और उसे सत्य ठहराने का कौतुक ज्ञान की पिटारी से ही निकल कर बाहर आया है। सत्य एक है। पर उसे इतने लोगों ने इतनी तरह से प्रस्तुत प्रतिपादित किया है कि उस समूचे जंजाल को देखते हुए हँसते-हँसते लोट पोट हो जाने का मन करता है। अपना-अपना सूर्य यदि हर कोई ऐसा गढ़ने लगे जिसकी दूसरे के साथ कोई संगति न बैठती हो तो उस वहम को मानसिक विक्षिप्तता ही कहा जायगा। इस अन्नकूट में से एक-एक दाना बीनकर अलग करना और फिर उसका कौन कितने अंश में उपयोगी किस अंश में अनुपयोगी है यह सिद्ध करना टेढ़ी खीर है। फिर भीम न को इसी जंजाल की उधेड़ बुन करने में लगाये रहना पड़ता है। अक्सर इन दुराग्रह भरी भिन्नताओं को लेकर विवाद मनोमालिन्य ही नहीं होते, विग्रह और रक्तपात तक के क्रम चल पड़ते हैं।

विज्ञान को इस अर्थ में एक सीमा तक निर्भ्रान्त माना जा सकता है कि उसके प्रतिपादन सिद्धान्त सतही तौर पर परस्पर मिलजुल कर एक सूत्र में बँधते हैं। एक सिद्धान्त का एक ही तरह का प्रतिपादन करते हैं। कारण, आधार, सिद्धान्त, तथ्य एक ही बताते हैं। इसलिए विज्ञान के प्रतिपादन पक्ष को समस्त विश्व में समान रूप से प्रामाणिकता एवं मान्यता मिली है। इसे संतोष और हर्ष का विषय माना जा सकता है। विग्रह तब खड़ा होता है जब विज्ञान की उपलब्धियों का किस प्रकार उपयोग या उपभोग किया जाय। इस प्रसंग पर निर्धारण करना पड़ता है। शक्ति एक यथार्थता है। उसे सहज ही मान्यता मिलती है। पर इस सामर्थ्य का किस प्रकार, किनके लिए, किस प्रयोजन के लिए प्रयोग किया जाय, मतभेद यहाँ से खड़ा होता है। यदि वैज्ञानिकों ने आविष्कारों के लिए श्रम करने के साथ यह निश्चय भी कर लिया होता कि इसे किस निमित्त किस प्रकार प्रयोग करना है? तो उस उभयपक्षीय निर्धारण से विज्ञान ऐसे अकाट्य तथ्य और सत्य के रूप में प्रकट होता कि भौतिक क्षेत्र में किसी को भी किसी प्रकार की असुविधा न रहती। जो भूल हो चुकी है, उसे सुधारना है। पिछली पीढ़ी आविष्कारों का प्रश्नपत्र सही हल कर गई। उससे भूल दूसरे प्रश्नपत्र का जवाब देने में हुई है। उनने विज्ञान को चतुरों और समर्थों की लिप्साएँ पूरी करने के लिए प्रयुक्त होने दिया और पिछड़े लोगों की जिन आवश्यकताओं को पूरा किया जाना था, उनकी ओर से आंखें फेर लीं। इस अनौचित्य का समाधान विज्ञान क्षेत्र की नई पीढ़ी को करना है। पदार्थ का उत्पादन, परिष्कृतीकरण ही नहीं, उपयोग और उपभोग की भी सीमा निर्धारित करनी है ताकि समूची मनुष्य जाति विज्ञान को सराह सके, उसका लाभ सर्व साधारण को मिल सके।

ज्ञान के क्षेत्र में भी भ्रान्तियों का समावेश संभवतः प्रगति के आरम्भ काल से ही हुआ होगा और अब वह बढ़ते बढ़ते इस स्तर तक पहुँचा है कि व्यापक क्षेत्र पर दृष्टिपात करते हुए इस असमंजस में पड़ना पड़ता है कि उस कुहासे को बेधते हुए सही दिशा में निर्धारण किस आधार पर किया जाय? वस्तु के वास्तविक स्वरूप को किस प्रकार पहिचाना जाय? सत्य और असत्य के बीच साक्षी रूप में किस कसौटी को खड़ा किया जाय? इस दृष्टि से विज्ञान की तुलना में ज्ञान अधिक अप्रामाणिक सिद्ध हो रहा है। विज्ञान की यथार्थता जाँचने के लिए कुछ कसौटियाँ हैं। उसे अपने प्रतिपादन को सही सत्य सिद्ध करने के लिए कुछ प्रमाण देने पड़ते हैं। परन्तु ज्ञान का तो समूचा ढाँचा ही ढकोसली कल्पनाओं पर आधारित माना जाता है। कल्पनाएँ स्वच्छन्द हैं। वे मनमानी उड़ानें उड़ सकती हैं और किसी भी सपने को सही कहने लग सकती हैं। ज्ञान को वैज्ञानिक धरातल पर प्रतिपादित किया जाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यदि यह सफलतापूर्वक प्रतिपादित किया जा सके, तो मनीषा द्वारा युग की यह सबसे बड़ी सेवा सिद्ध होगी।


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