मनुष्य की बहुज्ञता को क्षुद्र जीवों की चुनौती

May 1987

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प्रवृत्ति के अन्तराल में अनेकानेक घटनाएँ घटित होती रहती हैं, जिन्हें हम आकस्मिक रूप में कार्यान्वित होते देखते रहते हैं। वे भी अपने अस्तित्व का सृजन बहुत पहले से ही आरम्भ कर देती हैं। किन्तु उनका परिचय हमें तभी मिलता हैं, जब घटनाक्रम अपने समीपवर्ती क्षेत्र में घटित होता है।

मौसम संबंधी सम्भावनाओं का पता लगाने वाले गुब्बारे आकाश में छोड़े जाते हैं। उनके द्वारा दूर-दूर क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों एवं प्रवाहों की जानकारी मिलती है। वायु की नमी-दबाव की गति, गति दिशा-धारा आदि के सहारे यह जाना जाता है कि अगले दिनों कितने समय बाद, किस प्रकार का, परिवर्तन संभावित है और उसका प्रभाव मौसम पर क्या पड़ेगा?

इसी प्रकार धरातल पर या समुद्र क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों की ऐसी जानकारियाँ जो आँखों देखी, कानों से सुनी नहीं जा सकती। सूक्ष्म ग्राही यंत्रों की सहायता से यह पता लगाया लिया जाता है कि कितने समय में, किस क्षेत्र में, किस प्रकार की उथल-पुथल होने की सम्भावना है। इस प्रकार के खोजी यंत्र उपकरणों को वैज्ञानिकों द्वारा सूक्ष्म ग्राही सिद्धान्तों एवं पदार्थों की सहायता से विशेष विधि द्वारा बनाया जाय। राकेट प्रणाली में काम आने वाले घटक प्रायः इसी प्रकार के होते हैं। उपग्रहों की अन्तरिक्ष यात्रा में संरचना में भी इसी उच्चस्तरीय प्रणाली का प्रयोग होता है। समुद्र की गहराई में रहने वाली पनडुब्बियों में भी ऐसी ही विधा का समन्वय किया जाता है।

सृष्टा ने मनुष्य को अनेकानेक विभूतियों से विभूषित किया है। शारीरिक संरचना में जितना लचीलापन और सूक्ष्मता है उसका एक भोंड़ा स्वरूप ही अन्यान्य जीव जन्तुओं में देखा जाता है। मानवी मस्तिष्क भी असाधारण है। उसकी तुलना अब तक के बने कम्प्यूटरों में से कोई नहीं कर सका। भविष्य में भी इस प्रकार की कोई आशा नहीं है कि प्रकृति के उन रहस्यों का पता लगाया जा सकेगा जो मनुष्य की बुद्धि एवं पदार्थ सम्पदा की पकड़ में नहीं आते। ज्ञानेंद्रियां जितनी गहराई में पहुँच नहीं पाती इनके बारे में मनुष्य अपने को असहाय ही अनुभव करता रहा है। उसके बनाये यंत्र उपकरण भी उस सीमा तक पहुँच नहीं पाते, जिस सीमा तक की प्रकृति के अन्तराल की गहराई है।

किन्तु देखा गया है कि सृष्टि के अन्यान्य प्राणियों में कितनी ही ऐसी क्षमताएँ हैं, जिन्हें देखते हुए मनुष्य को उस क्षेत्र में पिछड़ा हुआ ही समझा जा सकता है। ऋतु-परिवर्तन की पूर्व हलचलों को अन्यान्य जीव जन्तु पूर्वाभास के रूप में जान लेते हैं, जबकि मनुष्य उस संबंध में कुछ जानकारी परम्पराओं के आधार पर ही अनुमान लगाकर संतोष कर लेता है। उस संबंध में वह कुछ निश्चित रूप से नहीं जान सकता। व्यतिरेक उत्पन्न होने पर तो वह चकित भर होकर रह जाता है। कारणों के संबंध में परम्परागत ज्ञान पर ही अवलम्बित रहता है, जो अनेक बार अपने को झुठलाता भी रहता है। किन्तु अन्य जीव जन्तुओं में से कितने ही ऐसे हैं, जिनका पूर्वाभास बहुत गहरा ही नहीं होता वरन् सुनिश्चित भी देखा गया है।

वर्षा की सम्भावना निकट आते ही मकड़ी अपना जाला खुले क्षेत्र में से समेट कर किसी सुरक्षित कौने में जा छिपती है। बिल्ली अपने छोटे बच्चों को उठाकर ऐसे आच्छादन की आड़ लेती है जहाँ वे भीगने न पायें। बरसने वाले बादलों की सीलन अपने शरीर को स्पर्श करती देख कर मोर नाचने लगता है। पपीहा सफेद उघड़े और खाली बादलों को देखकर रट नहीं लगाता वरन् उसका गूँजना तब आरम्भ होता है, जब बादल बरसने वाले होते हैं और ऊपर से नीचे उतरने लगते हैं। कोयल की कूक आमों के कुँज में उस समय से ही आरम्भ हो जाती है जबसे कि टहनियों में बौर उभरने की शुरुआत होने को होती है। यह पता उसे आँख से देखने पर नहीं वरन् गंध का प्रारूप उभरते ही विदित हो जाती है। बसन्त में उन पक्षियों कृमि, कीटकों की भरमार रहती है, जो फूल न खिलने पर कभी दृष्टिगोचर नहीं होते फूल खिलने की संभावना है इसका पता उन्हें समय से पूर्व ही लग जाता है। मधु मक्खियों के झुण्ड, तितलियाँ, भौंरों आदि को बसन्त के दिनों ही नहीं उसकी सम्भावना निकट आते देखकर थिरकना आरम्भ हो जाता है। वे अपने-अपने कोतरों से निकल कर बिना निमंत्रित अभ्यागत की तरह अपने यजमानों के इर्द गिर्द मंडराने, कुहराम मचाने लगते है।

भूकम्प, तूफान, अन्धड़, बाढ़ आदि आने की बात मनुष्य को तो तब विदित होती है, जब दृश्य सामने आ खड़ा होता है, या उसकी जानकारी किन्हीं संचार साधनों से मिलती है। पर उस प्रकार की विपत्ति वाले क्षेत्रों में वहाँ के निवासी कुत्ते, सियार, बिल्ली पहले से ही भगदड़ मचाते और पलायन करते देखे जाते हैं। वे कुहराम भी मचाते और पागलों जैसी हरकतें भी करते हैं। यह मात्र अपनी घबराहट प्रकट करने के लिए नहीं होता, वरन् इसीलिए भी होता है कि दूसरे प्राणी उनकी दी हुई जानकारी का लाभ उठाकर समय रहते अपनी आत्म रक्षा का प्रबन्ध कर सकें।

चीन में इस प्रकार की शकुन विद्या कई सहस्राब्दियों पहले खोजी गई थी। वहाँ जिस क्षेत्र में भूकम्प अधिक आते थे, वहाँ के पालतू पशुओं की हरकतों पर सतर्कतापूर्ण नजर रखी जाती है। जैसे ही वे घबराने, पगलाने लगते हैं वैसे ही भूकम्प की सम्भावना को ताड़ लिया जाता है और उस विपत्ति से होने वाली हानि का बचाव करने के लिए जो सूझ पड़ता है किया जाता है। जापान में भूकम्पों का प्रकोप प्रायः संसार के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक होता है। पर वे किसी बहुत बड़े क्षेत्र को चपेट में लेने वाले भयंकर विस्फोट से ही हानि उठाते हैं। छोटे भूकम्पों को वे कुत्ते, बिल्ली जैसे घरेलू जानवरों की हरकतों के आधार पर ही समझ जाते हैं और अपने लकड़ी के बने मकानों को तारों से रस्सों जकड़ कर गिरने से बचा लेते हैं। इस संदर्भ में इन प्राणियों की अतीन्द्रिय क्षमता सामान्य मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी मानी जाती है।

शिकारी पशु पक्षियों में से अधिकाँश की आँखें इतनी तीक्ष्ण नहीं होती कि अपने शिकार को आसानी से ढूँढ़ और पकड़ सके। यह कार्य उन्हें गंध की न्यूनाधिकता के आधार पर करना होता है। ये सेंटर्स उनके मस्तिष्क में कूट-कूट कर भरे हुए हैं।

छोटे कृमि कीटकों में नर मादा साथ-साथ रहते हैं। अपने अपने काम से वास्ता रखते हैं, किन्तु जब मादा ऋतुमती होती है तो उसकी गंध भर से नर का समूह उसके ईद गिर्द मँडराने लगता है। इसके लिए उसे लम्बी यात्रा भी करनी पड़ती है और प्रतिद्वन्द्वियों से संघर्ष भी इस प्रणय मिलन में मात्र गंध ही संदेशवाहक का काम करती है।

ऐसी-ऐसी अनेक विशेषतायें हैं, जो पशु-पक्षियों तथा अन्य क्षुद्र समझे जाने वाले प्राणियों में पाई जाती हैं जो मनुष्य की वरिष्ठता, बहुज्ञता को कड़ी चुनौती देती हैं।


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