सिन्ध प्रान्त में जन्मे सन्त टी.एल. वास्वानी एम.ए. पास करने के उपरान्त अपने ही कॉलेज में अँग्रेजी तथा दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर हो गये। अनेक कॉलेजों की उनने छुट-पुट सेवाएँ की और पटियाला के महेन्द्र कॉलेज के प्रिंसिपल बन गये। कूँच, बिहार और लाहौर कॉलेजों के भी वे प्रिंसिपल रहे।
जिन दिनों उनकी ख्याति चरम सीमा पर थी, उन्हीं दिनों उनकी आत्मा ने लौकिक कार्यों को विराम देकर युग धर्म की पुकार पर अधिक आवश्यक समस्याओं के समाधान में जुट गये। उन्होंने संन्यास ले लिया और स्वतंत्रता संग्राम के लिए निरन्तर वातावरण बनाने के कारण सरकार के कोपभाजन बने और जेल में बन्द कर दिये गये।
जेल जीवन में उन्हें युग चिन्तन का अधिक अवसर मिला। सोचते रहे जितनी स्वतंत्रता प्राप्ति की आवश्यकता है, उतनी ही जन जीवन को समुन्नत बनाने की भी। उन्होंने गाँधी जी की नीति अपनाई और मात्र स्वतंत्रता सैनिक न बने रहकर जन जागृति की विधा भी अपनाई।
उन्होंने सिन्धी भाषा में विपुल साहित्य सृजा। धर्मों का समन्वय सम्मेलन बुलाया। शान्ति आश्रम बना कर लोक सेवी प्रशिक्षित करने का क्रम चलाया। व्यापक प्रचार यात्राएँ की और एक आदर्श संन्यासी की तरह अपना जीवन अध्याय पूरा किया।