ओजस्, तेजस् एवं वर्चस् के जागरण हेतु उच्चस्तरीय साधनाएँ

May 1987

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स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों का अस्तित्व भिन्न होने पर भी तीनों परस्पर जुड़े हुए हैं। एक शरीर जिस स्थान पर दूसरे से जुड़ता है उसे ग्रन्थि या चक्र भी कहते हैं। पहला दरवाजा मकान में प्रवेश पर होता है उसे खोलकर ही मकान के अन्दर की यथार्थ स्थिति को समझा जा सकता है। मकान के अन्दर भी दूसरा ताला, आलमारी पर लगा होता है। सामान्य वस्तुएँ तो घर के बाहर फैली रहती है; पर विशिष्ट वस्तुओं को आलमारी या तिजोरी के अन्दर रखने का विधान है। कीमती आभूषण तिजोरी के अन्दर भी किसी तीसरे आवरण में-लॉकर में रखे जाते हैं इतने दरवाजे खोल लेने पर ही वहाँ तक पहुँचा जा सकता है।

ब्रह्म की वैभव विभूतियों को इसी तरह कारण शरीर के अन्तराल में छिपा कर रखा गया है। जो इन तालों को खोल सकता है, वही उन्हें प्राप्त कर सकता है। आध्यात्मिक भाषा में इसी को ग्रंथिभेद चक्रवेधन कहते हैं। इसके लिए कुछ विशिष्ट क्रियाएँ और अभ्यास करने पड़ते हैं। यह क्रियाएँ ही साधना उपचार या योगाभ्यास कहलाती हैं। हठयोग में इन साधनाओं को समर अर्थात् युद्ध कहा गया है। इन साधनाओं में कोई त्रुटि रह जाए तो वह हानिकारक हो सकती है। इसलिए कठिन साधनाओं का आग्रह हर किसी को नहीं करना चाहिए। सिद्ध महापुरुष ऐसे शिष्यों को स्वयं तलाशते हैं। रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द स्वामी विरजानन्द ने, स्वामी दयानन्द, मछिन्द्रनाथ गोरखनाथ को स्वयं तलाश कर उच्चस्तरीय साधनाएँ कराई थीं। यह उत्तरदायित्व तो प्रवर्तक पर छोड़ना चाहिए। वह जिसे चाहेंगे उसे स्वयं ही यह कठोर साधनाएँ करायेंगे।

विभूतियाँ प्राप्त करने का एक सौम्य उपाय भी है। अधिकारों के लिए कानूनी लड़ाई की अपेक्षा अनुग्रह प्राप्त करके, अपने माता-पिता से उत्तराधिकार प्राप्त कर लेना, हर किसी के लिए सरल और सुगम होता है। तीनों शरीरों की वैभव विभूतियाँ प्राप्त करने की ऐसी ही रीति-नीति शान्ति कुँज द्वारा विकसित की गई हैं। इसमें साधकों का अपना प्रयत्न पुरुषार्थ तो नाम मात्र का होगा, पर यहाँ के वातावरण का, समर्थ गुरुदेव के अनुग्रह का योगदान इतना होगा जिसके सहारे सामान्य स्तर के साधक भी मात्र अपनी जीवनचर्या में परिवर्तन करके अधिकतम अभीष्ट लाभ प्राप्त कर सकेंगे। सरल सौम्य साधनाओं का प्रारम्भिक अभ्यास नौ दिन तक शान्ति कुँज में कराया जाता है, जिसे अपने घरों पर रहकर भी किया जा सकता है और धीरे-धीरे लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है।

उच्चस्तरीय साधनाओं का उद्देश्य तीनों शरीरों में छिपी हुई दिव्य क्षमताओं को उभारना और उनका प्रभाव पूर्ण उपयोग करना होता है। व्यक्तिगत प्रचण्ड साधना अथवा दिव्य अनुदान दोनों ही क्रमों से उन्हें प्रभावित जागृत किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के लिए उनसे सम्बद्ध केन्द्रों, कमल चक्रों का प्रयोग करना लाभप्रद होता है। स्थूल शरीर का केन्द्र नाभि कमल, सूक्ष्म का हृदय कमल तथा कारण शरीर का केन्द्र सहस्रार कमल है। इन्हीं के जागरण में क्रमशः प्राण प्रवाह, ज्ञान प्रवाह भाव प्रवाह पैदा होते हैं, सशक्त बनते हैं।

स्थूल शरीर की सुन्दरता, सक्रियता सामर्थ्य आदि सभी विशेषताएँ प्राण से जुड़ी हैं। उसके बिना तो चमड़ी, माँस, रक्त, सब सड़ांध फैलाते हैं। उन्हें देखने से अरुचि पैदा होती है। शरीरगत प्राण तत्व और अन्तःकरण गत आत्मतत्व के संयोग से मनस्तत्व बनता है। साधना के प्रभाव से प्राण तत्व ‘ओजस्’ मनस्तत्व ‘तेजस्’ और आत्म-तत्व वर्चस् के रूप में प्रकट होता है। नाभि कमल का क्षेत्र मूलाधार चक्र तक है। इस क्षेत्र में स्थित महाशक्ति को कुण्डलिनी भी कहा जाता है। इस शक्ति की उपलब्धि वृद्धि है। सामान्य स्थिति में यह केवल पाचन और प्रजनन का ही काम करती है। इस स्थिति में वृद्धि शरीर पोषण तथा वंश वृद्धि तक ही सीमित रहती है। पर जब यह जागती है तो छः ऊर्जा स्रोतों षट्चक्रों को वेधती हुई सहस्रार तक जा पहुँचती है। इसे शिव से शक्ति का मिलन कहते हैं। तब ओजस् के रूप में चमत्कारी वृद्धि होती है।

जिस प्रकार स्थूल शरीर के केन्द्र नाभि कमल का क्षेत्र मूलाधार तक है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर के केन्द्र हृदय कमल का क्षेत्र आज्ञाचक्र तक है। इस क्षेत्र की उपलब्धि है ‘सिद्धि’। सामान्य स्थिति में इस क्षेत्र से केवल प्राण संचार, जीवन रक्षा के जैसे प्रयोजन सिद्ध होते हैं। जागृत होने पर अतीन्द्रिय शक्तियों का विकास, यश, गौरव का अनुपम विस्तार होता है।

कारण शरीर सहस्रार कमल ब्रह्मरंध्र से सम्बद्ध है। इस चक्र का क्षेत्र ब्रह्माण्डव्यापी ब्राह्मी चेतना तक है। इसकी उपलब्धि ऋद्धि है। सामान्य स्थिति में इसके प्रभाव से सर्व समर्थ सत्ता की हल्की स्मृति भर बनी रहती है। अपनी महानता का हल्का-सा बोध बना रहता है। इस क्षेत्र के जागरण से, सत् चित् आनन्द से एकत्व की अनुभूति होने लगती है। वृद्धि, सिद्धि और ऋद्धि के भंडार साधना से ही खुलते हैं, और मनुष्य नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम बन सकता है।

तीनों शरीरों के जागरण की परम्परागत साधनाएँ बड़ी कठिन दुरूह हैं। समय की आवश्यकता देखते हुए पूज्य गुरुदेव ने सर्वसुलभ साधना क्रम विकसित किया है। शान्ति कुँज के साधना सत्रों में उन्हीं का प्रशिक्षण दिया जाता है, अभ्यास कराया जाता है। स्थूल शरीर के लिए जपयोग, सूक्ष्म के लिए प्राणयोग और कारण के लिए ध्यान योग का निर्धारण है। इसे अखण्ड-ज्योति के जनवरी अंक के कुण्डलिनी योग-ग्रन्थि भेदन एवं अप्रैल अंक की ‘कुण्डलिनी केन्द्र की साझेदारी’ का सुगम संस्करण समझा जा सकता है। मार्च की अपनों से अपनी बात में जिन नौ दिवसीय सत्रों की घोषणा की गयी है उनमें यही साधनाएँ सिखायी करायी जायेंगी।

गायत्री जप को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। प्राण को चिनगारी से ज्वाला बना देने की इसमें चमत्कारी क्षमता है। शरीर के ऊर्जा केन्द्रों पर इसके अक्षरों के भाव भरे उच्चारण का सीधा प्रभाव पड़ता है। जैसे टाइप राइटर की चाबी दबाने से संबंधित अक्षर टाइप होता है, वैसे ही इसके अक्षरों के उच्चारण का, संबंधित केन्द्रों पर सीधा दबाव पड़ता है। शरीरगत प्राण शुद्ध और प्रखर बनकर, सौंदर्य, शक्ति सामर्थ्य, आरोग्य सभी को बढ़ाता है। इन सत्रों में गायत्री मंत्र के 24000 जप का अनुष्ठान कराने की व्यवस्था है।

सूक्ष्म शरीरों की तेजस्विता के लिए प्राणाकर्षक प्राणायाम का निर्धारण है। तीर्थ में युग ऋषि के प्राण अनुदानों को इस माध्यम से साधक बड़ी मात्रा में धारण कर सकता है। पहले प्राण के सरोवर में स्थित होने का भाव किया जाता है। फिर श्वास खींचते हुए दिव्य प्राण के प्रवेश का बोध किया जाता है। इसे 10 मिनट से प्रारम्भ करके क्रमशः आधे घंटे तक बढ़ाया जा सकता है। इससे मेधा, प्रज्ञा, विवेकशीलता, प्रखरता जैसी तेजस्विताएं बढ़ती हैं।

कारण शरीर सहस्रार कमल के विकास के लिए सूर्य की स्वर्णिम आभा का ध्यान किया जाता है। वह दिव्य प्रवाह, रोम-रोम में कण-कण में समाता हुआ देखा जाता है। स्वर्णिम प्रकाश और आत्मज्योति एक रूप होते अनुभव होते हैं। श्रद्धा संवेदनाओं, सदिच्छाओं, सद्भावनाओं के जागरण स्थापन के लिए यह उद्भूत प्रयोग है। इन तीनों साधनाओं को शरीर के लिए अन्न जल, वायु की तरह, अध्यात्म क्षेत्र के त्रिवेणी संगम की तरह लाभकारी कहा जा सकता है।

भावयोग के अंतर्गत ही एक साधना उपचार और आता है, जिसे देवाधि देव-आत्मदेव की साधना कहा गया है। इसमें दर्पण के माध्यम से आत्मपरिष्कार की साधना की जाती है। दर्पण में दिख रहे अपने प्रतिबिम्ब को अपनी छाया नहीं, अपना कोई निकटवर्ती घनिष्ठ संबंधी-परिजन मानते हुए यह भाव करना चाहिए, कि इसमें विद्यमान त्रुटियों का परिमार्जन करना है। सत्प्रवृत्तियों के बीज विकसित करना है। अपना प्रतिबिम्ब गंभीरता से देखा जाय व ‘स्व’ के परिष्कार का, उसे समुन्नत, सुसंस्कृत बनाने का दृष्टिकोण अपनाया जाय। दर्पण में विद्यमान व्यक्ति का भूत, वर्तमान सभी विदित है। यह भावना करते हुए उसका सही पर्यवेक्षण कर आदर्शों की कसौटी पर जितनी खोट पर मिले, उसे हटाने सुधारने का प्रयास अपनाने का संकल्प किया जाय। संजीवनी विद्या के अंतर्गत यह एक महत्त्वपूर्ण साधना है, जिसका अवलम्बन प्रस्तुत शिक्षण में लिया जाना है।

साधना काल में उपवास का व्रत भी अपनाना पड़ता है। अपने परिश्रम की, स्व-उपार्जित कमाई ही ग्रहण करने का तपश्चर्याओं में सर्वोपरि विधान है, जिससे अन्त से जुड़े कुसंस्कार तंग न करें। आहार में जौ, तिल, चावल का विशिष्ट धान्य तथा औषधि कल्क भी इसी निमित्त शामिल किए जाते हैं। व्रत और उपवास के सभी आवश्यक सिद्धान्तों का समावेश होने के कारण अमृताशन का बहुत अधिक महत्व है। यह सुपाच्य भी होता है। सात्विक भी। नौ दिन की तपश्चर्या में आहार साधना को स्थूल शरीर शोधन का महत्वपूर्ण अंग मानकर उसे अपनाना पड़ता है।

अन्तःकरण में छुपे हुए पापों की खोज करने के लिए साधक के भूतकाल का इतिहास जानना आवश्यक होता है। पिछले जीवन में क्या भूलें हुई हैं, उन्हें जानने के बाद ही प्रायश्चित्त साधनाओं का निर्धारण हो सकता है। आभूषण की सामान्य टूट-फूट को थोड़े में ठीक किया जा सकता है, पर टूट-फूट अधिक हो तो भट्ठी में गलाये बिना काम नहीं चलता। प्रायश्चित्त साधनाएँ प्राचीन काल में बहुत कठोर होती थी। इन सत्रों में उसे सुलभ तो बनाया गया है, पर पाप कर्मों का खुलासा तो करना ही पड़ता है। पिछली गाँठें खुले नहीं, बन्धन टूटें नहीं, तो साधक मुक्तावस्था का आनन्द कैसे ले सकता है? इसके लिए साधकों को अपने जीवन में हुई भूलों को विस्तार से लिखना पड़ता है। उन्हें वंदनीय माताजी या गुरुदेव ही देखते हैं। किन परिस्थितियों में कब कौन से पाप बन पड़े यह जानना ठीक उसी तरह आवश्यक होता है, जिस तरह डॉक्टर चिकित्सा से पूर्व रोग के कारणों को बार-बार पूछकर ज्ञात करता है। सारी स्थिति जान लेने पर साधक के पक्ष में कठोर प्रायश्चित तो पू. गुरुदेव अपने पर लेकर स्वयं जलाते हैं, प्रतीक प्रायश्चित भर, साधकों से कराते हैं। स्वयं कुछ किये बिना साधक उऋण भी नहीं हो सकते।

महाभारत का सूत्र है “पूर्व जन्मकृतं पापं व्याधि रूपेण निस्त्रितः” अर्थात्-पूर्व जीवन में किए पाप रोगों, कष्टों के रूप में प्रकट होते हैं। उन पापों का शमन, प्रायश्चित एवं साधना विधान से किया जाय तो अनेक रोगों, शोकों, कष्टों से मुक्ति मिलती है। पाप निष्कासन, परिष्कार की व्यवस्था, नौ दिवसीय सत्रों की अत्यधिक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है।

कारण शरीर की उच्चस्तरीय तपश्चर्या का नाम समर्पण योग है। इसके अंतर्गत अपनी इच्छाएँ परमात्मा को सौंपनी पड़ती है। यह अभ्यास गुरु के प्रति श्रद्धा समर्पण से पूर्ण होता है। उसके लिए प्रत्येक साधक को शान्ति कुँज को माँ का पेट, आवा समझ कर निर्धारित नौ दिन तक यहाँ का साधना, क्रिया कलाप और अनुशासन का पालन करना पड़ता है; ताकि यहाँ प्राण ऊर्जा पूरी तरह साधक के रोम-रोम में पच जाए। यह ऊष्मा ही अगले दिनों खाद पानी की तरह अन्तरंग की शक्तियों को पुष्पित पल्लवित और फलीभूत करती है। परम पू. गुरुदेव की संकल्प शक्ति और ऊर्जा ऐसी ही स्थिति के साधक की साधना पकाने में समर्थ होती है।


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