क्षमा वीरस्य भूषणम्

May 1987

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क्षमा को वीरों का आभूषण कहा गया है। यह सूत्र अपनी जगह सही है। इतिहास की घटनाओं पर दृष्टि डालने से वह आभूषण की तरह साहस के धनी महामानवों की शोभा बढ़ाती दिखती भी है। परन्तु कहीं-कहीं वही हाथों की बेड़ी या गले का फन्दा बनी भी दिखाई देती है।

झाँसी की रानी, शौर्य-साहस की प्रतिमूर्ति लक्ष्मी बाई ने राज्य के दुर्घर्ष डाकू सागर सिंह को पकड़ा। दण्ड व्यवस्था के अंतर्गत उसे मृत्युदण्ड दिया जाना चाहिए था। किन्तु रानी ने उसकी वीरता व जीवट का पूरा सम्मान करते हुए उसे क्षमा कर दिया। वह अपने अनुयायियों को भी ले आया। महारानी ने उन्हें सेना में भर्ती कर लिया। अँग्रेजों के साथ मुठभेड़ में पहली उल्लेखनीय शहादत सरदार सागरसिंह की थी। क्षमा का यह प्रसंग महारानी की उदारता, शौर्य-साहस को चार चाँद लगा देता है।

महमूद गजनबी ने भारत पर हमला किया। दिल्लीपति पृथ्वीराज ने उससे जमकर मोर्चा लिया व पराजित किया। क्षमा माँगने पर उसे छोड़ दिया गया। आक्रान्ता अपनी धूर्त्तता के बल पर फिर सेना लेकर आया, पराजित हुआ व फिर क्षमा माँगी। छूट गया। यही क्रम चलता रहा। यही क्षमा पृथ्वीराज के गले का फन्दा एवं बृहत्तर भारत के लिए आक्रान्ताओं का स्थायी मुकाम बन गयी। भारत को सैकड़ों वर्षों तक गुलाम बने रहना पड़ा।

अपराध दण्डनीय है, पर अपराधी यदि अंतर से सुधरने की इच्छा रखता है तो उसे मौका दिया जाय। क्षमा में खतरा भी है। यदि उसे दिशा न मिली व पुनः अपराध की ओर प्रवृत्त हो गया तो? इस बार तो काबू में आ चुका है, पुनः पकड़ा न गया तो? सुधार का अवसर दिए जाने को नाम पर धूर्त को स्वच्छन्द होकर समाज के लिए खतरा नहीं बनने दिया जाना चाहिए।

इसीलिये क्षमा को वीरों के आभूषण के रूप में मान्यता दी गयी, जिसे वे विवेक के साथ धारण करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने शिशुपाल की उच्छृंखलता को उसके सौ बार गाली देने तक सहन किया। यही वचन वे अपनी बुआ को दे भी चुके थे। किन्तु उसकी दुर्मति जब सारी सीमाएँ लाँघ गई, राजसूय यज्ञ में उसने भगवान की लपेट में भीष्म पितामह आदि सब को ले लिया तो तुरन्त उसे मृत्यु की गोद में पहुँचा दिया। वीरता पर सबसे बड़ा दायित्व यह है कि वह निर्णय बुद्धि का समुचित प्रयोग करे। क्या वास्तव में परिवर्तन की संभावना है? यदि संभावना गलत निकली तो क्या वीरता स्वच्छन्द दुष्टता को पुनः पराजित करने की स्थिति में है? यदि इन दोनों प्रश्नों के उत्तर “विवेक” को हाँ में मिलते हैं, तो ही क्षमा का आभूषण वीरता को पहनाया जा सकता है। उद्धत अहंकार या अविवेक की स्थिति में क्षमा का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। यह नीति सूत्र है।

श्रीराम लंका पर चढ़ाई की तैयारी कर रहे थे। रावण का भाई मंत्रीपरिषद का वरिष्ठ सदस्य विभीषण उनकी शरण में आया। वानर योद्धाओं ने पकड़ कर शत्रु की तरह उसे अपने स्वामी के समक्ष प्रस्तुत किया। अब राम क्या करते हैं, सबकी दृष्टि इसी पर थी। क्षमा या दण्ड।

मर्यादा पुरुषोत्तम वीरोचित दूरदर्शिता का प्रयोग कर कहते हैं कि “विभीषण को शरणागत रूप में रहने दिया जाय। शत्रु पक्ष का या भेदिया समझकर दण्ड नहीं दिया जाय। यदि कोई चाल वह चलेगा ही तो उसे भाँपने योग्य दृष्टि हमारे पास है। घर में घुसकर आक्रमण करने का दुस्साहस करने वाली दुष्टता से जूझने योग्य सामर्थ्य भी हमारे पास है।”

श्रीराम की समीक्षा का कोई जवाब नहीं। यदि सुधरने का अवसर न दिया जाय तो इतिहास वीरता को लांछित करेगा, जिसमें खतरा उठाने का भी साहस नहीं था, यह जानने पर कि दुष्ट उदारता का दुरुपयोग करेगा, तब भी क्षमा का उपयोग दिमाग को दिवालियापन बताता है। वीर कहलाने की शेखी में क्षमा के ऐसे प्रयोग अंततः घातक फंदे साबित होते हैं। उचित-अनुचित समय पर क्षमा रूपी विभूति का क्या नियोजन किया गया यही विवेकशीलता की सच्ची परीक्षा है।


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