बाप मूर्तिकार था। बेटे को भी उसने कला सिखाई। सोचता था बेटा बढ़-चढ़ कर निकले। सो उसे हर दिन नए सुझाव देता। नए सुधार करता।
कला निखरी। मूर्तियाँ महँगी बिकने लगीं। पहले एक रुपए की बिकती थी। फिर दो की, तीन की, चार की पाँच तक की कीमत मिलने लगी। बाप, तो भी उसमें कुछ कमी बताता और सुधार कराता।
बेटा एक दिन झल्लाने लगा। आपकी मूर्ति एक रुपए की बिकती थी। मेरी पाँच रुपए में बिकने लगी। तो भी दोष ही बताते चले जाते हैं। बाप सन्न रह गया। अब आगे की प्रगति रुक गई न। दस रुपए तक पहुँचने का रास्ता बन्द हो गया न। निरन्तर के पर्यवेक्षण और सुधार के क्रम को जारी रखे बिना, प्रगति क्रम आगे बढ़ता कहाँ है?