संगीत तरंगों का प्रभाव जड़, चेतन पर समान रूप से पड़ता है। लय और ताल में बँधे हुए स्वर प्रवाह को संगीत कहते हैं। यह गायन के रूप में स्वर प्रवाह के साथ भी जुड़ा हुआ हो सकता है और वाद्य यंत्रों की तद्नुरूप ध्वनि भी संगीत में गिनी जा सकती है। गायन और वादन दोनों का सम्मिश्रण उसकी पूर्णता निर्मित करता है। गायन के साथ गुँथी हुई भावनाएँ चेतना को प्रभावित करती हैं। अन्तरंग में उल्लास उत्पन्न करती हैं। गायक के मनोभाव श्रवण कर्त्ता के कानों में प्रवेश करके गहराई तक पहुँचते हैं और तद्नुरूप स्रोता के अन्तराल को प्रभावित करते हैं। चेतना क्षेत्र में इस प्रकार की हलचलें गायक के साथ उन तरंग प्रवाह को अपनाने वाले को अपने साथ चलने, उड़ने के लिए बाधित करती हैं। भक्ति भावना से लेकर जोश आवेश या कामुक आतुरता को इसी आधार पर उभारा जा सकता है। भक्ति भाव की समर्पित आत्म-विभोरता भी उस आधार पर उत्पन्न की जा सकती है। उत्थान को पतन में और पतन को उत्थान में बदलना भी इस माध्यम के आधार पर सम्भव हो सकता है। अपराधी को संत और संत को अपराधी बनाने की क्षमता उसमें है। नदी प्रवाह में तिनके पत्ते बहते लगते हैं। संगीत प्रवाह में तरंगित होने वालों की मनःस्थिति भी इसी प्रकार तैरने डूबने लगता है।
इन्हीं विशेषताओं के कारण संगीत को शास्त्रकारों ने नादब्रह्म कहा है। शिव का ताण्डव नृत्य और महाप्रलय का दुर्धर्ष प्रकरण साथ-साथ चलते हैं। नारद वीणा वादन के साथ-साथ भक्ति विभोर होते हैं। संगीत कभी चेतना के उच्च पद पर था, तब ईश्वर प्राणिधान में स्वरयोग का, नादयोग का समावेश होता था। पर अब तो बात ही दूसरी है। उसे कामुकता का प्रतीक प्रतिनिधि बना दिया गया है। वीरभाव उभरने और आदर्शों के प्रति समर्पित होने की चेतना उत्पन्न करने वाले न कहीं गायक रखते हैं और न उसके लिए तरसने वाले गुणी भावनाशीलों का समुदाय ही कहीं दीख पड़ता है। ऐसे ही कारणों से क्षुब्ध होकर औरंगजेब ने अपने राज्य से संगीतकारों को, गायक, वादकों को उनके उपकरणों सहित देश निकाला दे दिया था। यदि वह अपनी उच्चस्तरीय गरिमा से च्युत न होता तो उसे क्यों जनसमुदाय के लिए अहितकर माना गया होता और क्यों ऐसी अवमानना की जाती? आज भी इस वर्ग के लोगों को सम्मानितों की गणना में नहीं गिना जाता। गवैये, बजैये, नचकैये, मनोरंजनकर्त्ता विदूषकों की श्रेणी में ही गिने जाते हैं। यह अवमानना इसलिए हो चली है कि उसमें से उत्कृष्टता का प्राण धीरे-धीरे धीमा और तिरोहित होता चला गया। जहाँ पुरातन गरिमा को अक्षुण्ण रखा गया है वहाँ उसका अभी भी समुचित सम्मान है।
मात्र एकाकी वादन की भी अपनी महत्ता है। इस आधार पर भी सशक्त ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता और अपना प्रभाव प्रदर्शित करता है। युद्ध काल में आगे-आगे ‘वीररस’ से भरे-पूरे गीत वादक गाते चलते थे। उससे न केवल सैनिक वरन् उस प्रयोजन में काम आने वाले घोड़े हाथी तक मस्ती में भरकर नाचने लगते थे और अपना जौहर दिखाने का प्रयत्न करते थे। दीपक राग और मेघ मल्हार की जनश्रुति सर्वविदित है। संगीत मुर्दों में प्राण फूँकता है, यह सत्य है। यह भी मिथ्या नहीं कि वह बुझों को जलाता है और समर्थों को बरस पड़ने के लिए विवश करता है। विगत चार दशाब्दियों में प्रयोगकर्ताओं ने रोग निवारण के लिए संगीत ध्वनि प्रवाहों की चमत्कारी विशेषता सिद्ध की है। शारीरिक एवं मानसिक रोगों में किन ध्वनि प्रवाहों को प्रभावी उपचार की तरह काम में लाया जा सकता है, इसकी विधा निर्धारित की गई और अपने प्रयोजन में आश्चर्यजनक परिणाम में उपयुक्त सिद्ध हुई। आगे इस संदर्भ में और भी कड़ी सम्भावनाएँ सोची जा रही हैं। समझा जा रहा है कि अन्य चिकित्सा पद्धतियों से कहीं अधिक समर्थ संगीत चिकित्सा रोगियों की असाधारण सहायता कर सकेगी।
पशु पक्षियों और जीव जन्तुओं पर भी संगीत का उत्साह-वर्धक प्रभाव देखा गया है। मछलियाँ और मुर्गियाँ अधिक संख्या में अधिक बड़े अण्डे देने लगीं और उनसे परिपुष्ट बच्चे प्रकट होने लगे। गायों ने अधिक दूध दिया। वे अवधि से पूर्व गर्भिणी हुई और बच्चे देने में, दूध देने में, अन्यों की अपेक्षा अग्रणी ही रहीं। यही बात अन्य पशुओं के बारे में भी देखी गई। उनने संगीत की मस्ती में अधिक पराक्रम किया। धावकों ने दौड़ में बाजी जीती। जिन्हें संगीत के संपर्क में रखा गया, उनकी बुद्धिमत्ता अपेक्षाकृत अधिक विकसित हुई देखी गई।
संगीत के प्रयोगों में वनस्पतियों पर अच्छा प्रभाव पड़ने देखा गया है। घास तेजी से बढ़ी। सब्जियों में बड़े और अधिक स्वादिष्ट फल लगे। उत्पादकों को इस प्रयोग से अतिरिक्त लाभ मिला। फलदार वृक्ष भी अधिक फले। जिनसे लकड़ी ली जाती थी उनकी अभिवृद्धि से मोटाई तथा मजबूती में वादन सुनने वाले कहीं अधिक सफल रहे।
धातुएँ संगीत का प्रभाव सोखती हैं। ऐसे प्रभाव में बने आभूषण अधिक चमकते और उपकरण अधिक सुदृढ़ होते हैं। जिन इमारतों में गायन वादन होता रहता है, उनमें वह मस्ती वाला प्रभाव चिरकाल तक बना रहता है। कालान्तर में भी जो वहाँ पहुँचे और टिके उन्हें यह अनुभूति होने लगी कि यहाँ उल्लास और उत्साह का मस्ती का दौर अधिक है। उदास, निराश प्रकृति के लोगों ने भी वहाँ अपने में उमंगें उठती अनुभव की। ऐसे वातावरण में निराश मनों में भी आशा का संचार हुआ। आदतों में आशाजनक परिवर्तन आया।
संगीत कोलाहल को नहीं कहते। उसमें मधुरता मृदुलता होनी चाहिए। कोलाहल तो कारखानों में भी होता रहता है। रेल के पहिये और जहाजों के डैने भी क्रमबद्ध ध्वनि करते हैं। पर उनकी कर्कशता सीमा से अधिक इस स्तर पर पहुँचती है कि कान उन्हें सहन नहीं कर पाते। इसी प्रकार विवाह बरातों में बजने वाले बाजे कई बार इतनी अधिक ध्वनि करते हैं कि रास्ता चलते लोगों को उसे सुनना भारी पड़े। शंख, घड़ियाल, ढोल, नगाड़े भी यदि विसंगत स्वर में बजे तो उनमें कर्कशता ही प्रधान होती है। ऐसा वादन लाभ के स्थान पर हानिकारक ही सिद्ध हो सकता है। अत्यधिक शोर वाले क्षेत्रों में रहने वाले जल्दी बहरे होते हैं। कई बार तो उनके मस्तिष्क को विक्षिप्तता से प्रभावित होते देखा गया है। तोप के गोलों की भयंकर आवाजों से जलाशयों में रहने वाली मछलियों का हृदय फट जाता है और वे मरकर पानी पर तैरने लगती हैं। युद्धकाल में भयंकर ध्वनि करने वाले अस्त्रों के ध्वनि कम्पन गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात कर देते हैं। उस क्षेत्र के लोगों की धड़कन बढ़ जाती है और रक्त चाप से लेकर नींद उड़ जाने बेचैनी अनुभव होने जैसी व्यथा त्रास देने लगती है। अनेकों मनोविकार इसी कारण जन्म लेते हैं।
लाभकारी संगीत वही होता है जो मृदुल एवं मधुर हो। कर्ण प्रिय लगे एवं आकर्षण उत्पन्न करे। निद्रा को भगाये नहीं वरन् बुलाने में सहायता करे। वादकों का कौशल इसी में है कि वे उत्साह-वर्धक, आनन्ददायक स्वर लहरियाँ उत्पन्न करें। गायकों की गरिमा इसी में है कि वे अपने गीतों को पशुता से छुटकारा दिलाने वाले और देवत्व उभारने वाले तत्वों से सराबोर रखें। जो संगीत मधुरिमा उत्पन्न करें, उसे ही सराहा जाना चाहिए।