देख खुला है द्वार पुजारी

May 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अम्बपाली का कायाकल्प हुआ एवं वह वेश्या से साध्वी बन गयी। अपना वैभव बुद्ध को समर्पित कर वह बुद्ध की हो गयी। बुद्ध ने जो पाया था, उसे पाने के लिये-आस्तिक प्रगति के सोपानों को पार करने के लिए-वह छोड़ना आवश्यक था, जिसे वे स्वयं छोड़कर आये थे।

वैभव से अम्बपाली को कोई मोह न रहा, पर वैभव के नाते लोग जिस आदर भरी दृष्टि से उसे देखते थे, वह दृष्टि न रही। अंदर ही अंदर यह कामना बनी रहती थी कि सम्मान मिलना चाहिए। कहीं कोई कमी है, एवं यही उसे दुःखी करती रहती थी।

एक दिन यह अभाव गहरी धुँध के रूप में अंतराल पर छाया रहा। उदास मन से वह एकान्त में लम्बे समय तक बैठी रही। तथागत ने अन्तःदृष्टि से सब कुछ देखा व समझ गये। स्नेह से पूछा तो वह धुँध पानी की बूँदों के रूप में आँसू बन कर टपक पड़ी।

स्नेह भरे स्वर में भगवान बोले-”भद्रे! तुम संसार को जो दे रही थीं वह देना तुमने बन्द कर दिया है। उसके बदले में-संसार तुम्हें जो दे रहा था वह भी देना बन्द करेगा ही? भौतिक सुख के चले जाने का क्या दुःख मनाना?”

अम्बपाली कुछ आश्वस्त हुई, पर प्रश्न भरी दृष्टि तथागत के चेहरे पर डालकर पुनः नीचे देखने लगी। तथागत पुनः बोले “देवि! दैवी चेतना जब किसी को दिशा विशेष में बढ़ाना चाहती है तो वह एक द्वार बन्द करती है, दूसरा खोलती है। बन्द होते द्वारा पर ध्यान देकर दुःख मत बढ़ाओं। उसे किसी खुलते नये द्वारा का संकेत मानकर अपनी चेतना को उधर ही ले जाने का प्रयास करो। खुलते द्वारा की कल्पना मात्र में उल्लास बढ़ता है और उधर ध्यान देने से दिव्य अनुदान प्राप्त होते हैं।”

निर्धारित क्रम से साधना चलती रही। एक दिन साध्वी निर्धारित प्रव्रज्या करके लौट रही थी। मार्ग में अँधेरा हो गया। निकट के गाँव में पहुँची और रात बिताने के लिए किसी भवन में आश्रय चाहा। वहाँ कोई उसे जानता नहीं था। साध्वी वेश में ही सही एक अनजान युवती को कौन आश्रय दे?

साध्वी सहज भाव से गाँव से लगे सरोवर के किनारे वृक्ष के नीचे सो गयी। आधी रात के बाद शीत बढ़ी, ठण्ड लगी तो नींद खुल गयी। अम्बपाली ने कसम खायी “यदि कोई भवन---” पर तभी तथागत का कथन याद आया-”बन्द होते द्वारा को नहीं,-खुलते द्वारा को देख।”

दृष्टि खोज में चारों और घूमी। अचानक उसका ध्यान सरोवर पर गया। पूर्णचन्द्र मध्य आकाश में आ चुका था। सरोवर की कुमुदनी खिल गयी थी। दृश्य रोचक लगा। कुमुदनी से भरा सरोवर मन्द वायु के साथ झूमी खिली कुमुदनी, हल्की-हल्की लहरें, प्रत्येक लहर पर नृत्य करती चाँदनी तभी स्मृति में बिजली-सी कौंधी। दृश्य बदल गया। साध्वी को दिखा कि एक दिव्य आदान-प्रदान चल रहा है-स्थूल तथा सूक्ष्म प्रकृति के बीच। हर कुमुदनी निर्मल चाँदनी को गोद में भरे उल्लसित हो रही है। वायु के साथ सरोवर की हर लहर थिरक रही है। चन्द्रमा अनन्त रूपों में प्रत्येक कुमुदनी, प्रत्येक लहर के साथ अठखेलियाँ कर रहा है।

उसे लगा मेरी हृदय कुमुदनी भी खिल रही है। प्राण सरोवर की लहरों की तरह तरंगित हो रहे हैं। मेरा इष्ट दिव्य प्रकाश बनकर प्राण की रह तरंग पर, श्वास की हर गति पर, हृदय की प्रत्येक धड़कन के साथ चंद्रिका की तरह एक हो रहा है। कण-कण झिलमिला रहा है--! साध्वी को पता नहीं लगा, इस दिव्य आदान-प्रदान में वह कब समाधिस्थ हो गयी?

प्रातः पक्षियों के कलरव ने सूर्य रश्मियों के ऊष्मा भरे स्पर्श ने उसे ध्यान समाधि से जगाया। साध्वी उठी एक नये बोध के साथ। उस बोध में अंबपाली पूरी तरह घुल चुकी थी। अब साध्वी ही शेष थी-बोध की आभा से दीप्त मुखमंडल और शान्त अन्तःकरण युक्त।

वह पुनः उन स्थानों पर गयी जहाँ रात्रि में स्थान नहीं मिला था। धन्यवाद देने----उन्हें जिनने द्वार बंद रख था। यदि वह द्वार बन्द न होते तो बुद्ध द्वारा बताये गये दिव्य बोध कराने वाले द्वार तक कैसे पहुँचती?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118