ससीम से असीम की ओर

May 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

लहर बड़ी निराश और दुखित बैठी थी। समुद्र उसे आगे बढ़ने और बिखरने के लिए कह रहा था। किन्तु वह डर रही थी। अपने आश्रयदाता के अंचल में छिपकर बैठे रहना ही प्रिय था। वह इतने में ही सन्तुष्ट रहना चाहती थी।

समुद्र ने उसे समझाया, भद्रे! आगे बढ़ो। मिलन का आनन्द जड़ता में नहीं, गति के साथ जुड़ा है। विद्रोह के बिना प्रणय की सरसता की अनुभूति कैसे होगी? शीत के अभाव में आतप का स्वाद कैसे चखा जा सकेगा?

लहर चाहती नहीं थी कि उसे आगे बढ़ने के झंझट में पड़ना पड़े। भविष्य न जाने कैसा होगा? इस अनिश्चितता की कल्पना उसे भयभीत कर रही थी। उसने संतृष्ण नेत्रों से अपने प्रियतम को देखा चाहा कि उसे जहाँ का तहाँ रहने दिया जाय।

समुद्र गम्भीर हो गया, उसने कहा-देखती नहीं, मेरे अन्दर कितना दर्द है, जो मुझे क्षणभर भी चैन से नहीं बैठने देता। उस दर्द में हिस्सा बँटाये बिना तुम कैसे मेरी प्रियतमा बन सकोगी? अन्तर को छूना चाहोगी तो दर्द भी तुम्हारे हिस्से में आवेगा। ज्वार-भाटों के रूप में उछलती मेरी पीड़ा में से क्या तुम लहराती हलचल जितना हिस्सा भी नहीं बँटा सकोगी? प्रेम के साथ क्या मेरा दर्द भी अंगीकार न करोगी?

लहर सुबक रही थी। अतीत की सरसता और आगत की अनिश्चितता के बीच वह असमंजस में खड़ी थी-उस स्तब्धता को तोड़ती हुई आगे वाली लहरें हँस पड़ी और बोली-सहेली हमें देखो न, उद्गम से बिछुड़ कर ही तो हम भी अनन्त की ओर जा रही हैं। प्रियतम की महानता के अंतर्गत ही तो क्रीड़ा कल्लोल कर रही हैं-हम उससे बिछुड़ी कहाँ हैं? सीमित से असीम बनकर हमने प्रणय की सरसता को खोया कहाँ? बढ़ाया ही तो है। फिर तुम क्यों डरती हो?

चर्चा बड़ी मधुर थी। सो उसे सुनकर सूर्य की किरणों भी ठिठक गई। प्रौढ़ाओं के समर्थन में सिर हिलाते हुए उनने भी कहा-हमें अपने प्रियतम की विशालता में विचरण करते हुए तब की अपेक्षा अब अधिक उल्लास है, जब हम निकटता की निष्क्रियता को जकड़े बैठी थीं।

प्रसंग पूरा नहीं हो पाया था कि महकती गन्ध भी वहीं आ पहुँची और बोली-पुष्प की गरिमा के सुविस्तृत क्षेत्र को बढ़ाती हुई हम बिछुड़न का नहीं, पुलकन का अनुभव करती हैं, फिर छोटी सहेली! तुम्हीं क्यों कर रुक बैठने के लिए मचल रही हो?

समुद्र इस बोध चर्चा को मनोयोगपूर्वक शान्त चित्त से सुन रहा था। इतने में इन्द्र में द्वार खटखटाया और कहा-चलने में विलम्ब न करो। प्यारी दुनिया तुम्हारी प्रतीक्षा में कब से बैठी है।

सागर सकपका कर उठ खड़ा हुआ। मेघ का वाहन तैयार था। भाप बनकर वरुण ने उस पर आसन जमाया और इन्द्र के इशारे पर सुदूर यात्रा पर चल पड़ा।

नवोढ़ा ने संतृष्ण नेत्रों से देखा और पूछा-मेरे आश्रयदाता, क्या तुम्हें भी वियोग सहना पड़ता है? क्या बिछुड़न तुम्हारा भी पीछा नहीं छोड़ती?

सागर की आँखें छलक पड़ी। उसने कहा-भद्रे! यह बिछुड़न नहीं-नवीनीकरण है। जीवन इसी का नाम है। मैं मेघ बनकर आकाश में गमन करता हूँ और सरिताओं की जल राशि बनकर फिर वापस लौट आता हूँ। इस गतिशीलता से किसी जीवित को छुटकारा नहीं। गमन का परित्याग करने पर तो मरण ही हाथ रह जायगा। सड़ना मुझे कब सुहाता है-कल्याणी!

लहर की आँखें खुल गई। उसने गतिशीलता की सजीव सरसता का मर्म समझा और अनन्त यात्रा पर चल पड़ी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118