हमेशा मुस्कराते रहो (Kahani)

May 1987

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आरम्भ में चन्द्रमा बहुत सुन्दर था। हर घड़ी हँसता रहता। चेहरा खिले कमल जैसा सुन्दर लगता। कुछ दिन बाद वह उदास रहने और खीजने लगा। अतएव कलाएँ घटने लगीं। चेहरा मुरझाने और सिकुड़ने तथा क्षीण होने लगा।

दिन बीतते गए। अमावस्या आते-आते वह काला कुरूप हो गया। कलाएँ समाप्त हो गई और अँधेरी कोठरी में दिन काटने लगा।

ब्रह्मा जी इस दुर्दशा को देखकर बोले मूर्ख! हँसना, मुस्कराना फिर आरम्भ कर। उसके बिना किसी की जिन्दगी पार नहीं होती। खीजने से तो बेमौत मरेगा।

चंद्रमा ने अपनी भूल सुधारी, उसने प्रसन्नता बिखेरना आरम्भ किया और बढ़ते-बढ़ते फिर पूर्णिमा को खिले कमल जैसा हो गया।


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