सूर्य की सविता शक्ति का विवेचन

May 1987

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दृश्यमान सूर्य को कविता कहते हैं और उसकी शक्ति को सावित्री। सविता और सावित्री का युग्म है। रथ के दो पहियों की तरह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। सावित्री को गायत्री भी कहते हैं। सविता को आदित्य या भर्ग भी। दोनों की संयुक्त शक्ति का आविर्भाव जब होता है, तो उस समन्वय को उपलब्ध करके साधक धन्य बन जाता है। सविता की सर्वोपरि यहाँ तक की ब्रह्म कहा गया है।

आदित्या-ज्योतिर्जायते। आदित्याद्देवा जायन्ते। आदित्या द्वेदा जायन्ते। असवा दित्यो ब्रह्म। -सूर्यापनिषद

अर्थात् “आदित्य से प्रकाश उत्पन्न होता है। आदित्य से देवता उत्पन्न हुए हैं। आदित्य से वेद उत्पन्न हुए, यह सूर्य ही प्रत्यक्ष ब्रह्म है।

आगे शास्त्र इसी कथन की पुष्टि करते है।

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कंद प्रजापतिः। महेन्द्रो धनदः काले यमः सोमो ह्यषाँ पतिः -बाल्मिकी. रामा.

अर्थात्- ‘‘यह सूर्य ही ब्रह्मा है। विष्णु है। शिव है। स्कंद है। प्रजापति है। इन्द्र है। कुबेर है। काल है। यम है। सोम है और इन सबका स्वामी भी है।

संद्यानो देवः सविता साविशद् अमृतानि -अथर्ववेद

अर्थात्-”वह सविता देव अमृत तत्वों से भरा पूरा है।

तेजोमयोऽमृतमयः पुरुषो।

अर्थात्-”यह परम पुरुष सविता तेज का भण्डार है और अमृतमय है।”

वस्तुतः अमृत घट के रूप में सविता का ही अलंकारिक वर्णन पुराण शास्त्रों में निरूपित किया गया है।

मुंडकोपनिषद् में कहा गया है-

आदित्या-ज्योति जायते।

अर्थात्-”आदित्य से ही ज्योति उत्पन्न होती है। संसार में जिस किसी रूप में प्रकाश दृष्टिगोचर होता है, वह सूर्य का ही अनुदान है।”

प्रातःकाल का सूर्य सुनहरी आभा वाला होता है, इसलिए उसे स्वर्णिम, स्वर्णाभ आदि नामों से जाना जाता है। ऊषाकाल पूर्व दिशा में सुनहरी रंग के साथ उदय होता है। इसे ब्रह्म मुहूर्त भी कहते हैं। इस समय को सूर्य उपासना के लिए अधिक उपयुक्त माना गया है। इसी समय सविता देव की प्रेरणा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। तालाबों में कमल खिलते हैं। उद्यान में पुष्पों की खिलखिली दृष्टिगोचर होती है। चिड़ियाँ घोंसलों से निकल कर चहचहाती, कुदकती–फुदकती दृष्टिगोचर होती है। वन्य पशु आहार की तलाश में एक दिशा से दूसरी में चलते-भागते दीख पड़ते हैं। रात्रि की स्तब्धता के उपरान्त सवेरे का पवन शीतल, मंद, सुगंध से भरा-पूरा होता है। उसमें प्राण-तत्व अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पाया जाता है। यह सूर्य का प्रत्यक्ष अनुदान है। सविता को प्राण या प्राण प्रदाता भी कहा गया है। उस समय का खुले क्षेत्र में विचरण करते हुए जो लोग उपयोग करते है। उनके उस समय किये हुए सभी काम अधिक अच्छी तरह सम्पन्न होते हैं। इस समय का टहलना सामान्य व्यायामों की तुलना में कहीं अधिक शक्ति वर्धक पाया गया है। व्यायामशालाओं में स्वास्थ्य संभालने वाले पहलवानी के शौकीन इसी समय जा पहुँचते हैं। विद्यार्थी इस समय जितनी अच्छी तरह अपना पाठ याद कर लेते हैं, वैसा सुयोग उन्हें दिन के किसी अन्य समय में नहीं मिलता। लेखन की साधना का भी यही सर्वोत्तम समय है। उपासना साधना के लिए तो यह समय सर्वोपरि है। कारण कि वातावरण में नवोदित सूर्य द्वारा प्रेरित प्राण तत्व की मात्रा का परिणाम अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है।

सूर्य के सप्त अश्व वस्तुतः सात प्रकार की सात रंगों वाली किरणों के समुच्चय का प्रतीक है। सात द्वीप, सात सागर, सात पर्वत, सात सरिता इसके धरातल पर होने का उल्लेख है, यह भूगोल पुरातन काल का है। कालान्तर में वे प्रकृतिगत दबावों के कारण घटते बढ़ते रहे हैं। फिर भी उन्हें सप्तधा ही कहा गया है। सौर मण्डल में सात ग्रह ही प्रधान हैं। उन्हीं के आधार पर सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया गया है। सप्त ऋषि प्रख्यात हैं। यों ऋषि मुनियों की संख्या समयानुसार घटती-बढ़ती रहती हैं। पर जिन्हें ऋषि तत्व का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है, उनकी संख्या सात ही है। वे आकाश में अवस्थित हैं। रात्रि को तारागणों के मध्य चमकते हैं। लोक सात हैं। इन्हें आध्यात्मिक आयाम भी कह सकते हैं और ब्रह्माण्ड का सप्तधा वर्गीकरण भी। इन्हें सात लोकों के नाम से निरूपित किया गया है (1) भूः (2) भुवः (3) स्वः (4) महः (5) जनः (6) तपः (7) सत्यम्। इन्हें एक से एक ऊँची मनःस्थिति एवं परिस्थिति समझना चाहिए।

सूर्य को महाकाल भी कहा गया है। काल गणना उसी के आधार पर होती है। दिनमान प्रथम इकाई है। सात दिनों का सप्ताह होता है इसके उपरान्त पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष, युग कल्प आदि का सिलसिला चलता है। ज्योतिषशास्त्र का आविर्भाव इसी आधार पर हुआ है। सूर्य को प्रधानता देते हुए उसके परिवार के अन्यान्य ग्रह उपग्रहों की भी गति गणना की गई है। साथ ही यह देखा गया है कि आकाशस्थ किस राशि पर किस ग्रह की क्या स्थिति होने पर प्राणियों, पदार्थों पर उस स्थिति का क्या प्रभाव पड़ता है? वातावरण में क्या हेरफेर हो रहा है।

आदिम काल से लेकर आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति काल तक मनुष्य समय-समय पर अपने-अपने ढंग से सूर्य का आश्रय लेता रहा है और वह श्रृंखला अभी भी अपने क्रम में चल ही रही है। आरम्भिक काल में उसे देवता माना गया था। प्रातःकाल और सायंकाल के उदय-अस्त काल में उसकी अभ्यर्थना होती थी। पूजा सामग्री का चयन न होने के कारण जल को ही उपचार माध्यम निर्धारित किया गया था। नाम, जप, रूप-ध्यान के अतिरिक्त श्रद्धाभिव्यक्ति के लिए सूर्य को ही जलाँजलि दी जाती थी।

पीछे प्रतीक प्रतिमाओं का निर्माण आरम्भ हुआ। सभ्यता के उदय काल से लेकर उसके विकास काल तक सूर्य की प्रतिमाएँ विनिर्मित होती रहीं। पुरातत्व खोजियों ने संसार के उन सभी क्षेत्रों का बारीकी से पर्यवेक्षण किया है, जहाँ वन्य सभ्यता से आगे बढ़कर, शहरीकरण शुरू हो गया था और जहाँ प्रतिमाएँ बनने लगी थीं। अति प्राचीन काल की समझी जाने वाली प्रतिमाओं में से अधिकाँश सूर्याकृति की ही हैं। मिट्टी की बनी प्रतिमाओं और गुफाओं के भित्ति चित्रों में सूर्य आकृति का ही प्रधानतया चित्रण है। इसके बाद पाषाण प्रतिमाओं और धातु प्रतिमाओं का समय आया। उन दिनों की स्थिति के अनुसार निर्माण पदार्थों में तो अन्तर होता गया, पर प्रतिमाएँ सूर्य की ही रहीं। अतिपुरातन काल में प्रत्यक्ष गोलक की तरह प्रतिमाएँ भी गोलाकार ही बनती थी। उसे मुख माना जाता था और उस पर मुख, नेत्र नाक, कान आदि का अंकन किया जाता था। चारों और किरणें बिखेरने का भी उपक्रम किया जाता था। इसके बाद जब देवता मनुष्याकृति में बनने लगे, उनके साथ वाहन, आयुध जुड़ने लगे तब मनुष्याकृति में देवता बने। वाहन रूप में सप्त अश्व निरूपित किये गये। किन्हीं-किन्हीं प्रतिमाओं में अरुण सारथी भी बिठाया गया है। उस काल में देवताओं की अधिक भुजाएँ, अधिक शक्तियों के प्रतीक रूप में मानी जाती थीं। दो भुजा वाली मूर्तियाँ कम ही मिली हैं। अधिकाँश में चार भुजाएँ हैं। आयुधों में अन्तर है। लगता हैं, जिस क्षेत्र में जिन आयुधों की वरिष्ठता और बहुलता थी, वहाँ उन्हीं वाहनों का अंकन किया जाता रहा है।

सूर्य को ज्योतिर्लिंग कहा गया है। ज्योतिर्लिंगों के नाम पर अनेक तीर्थ और देवालय रहे हैं। इन दिनों उन सभी में शिवलिंग स्थापित हैं। धार्मिक भावना के उदयकाल में शिव और सूर्य को एक ही माना जाता था। शिव का इतिहासकार अनार्य देवता मानते हैं। उनकी वेषभूषा, परिधान आच्छादन, वाहन, आयुध सभी आदिवासियों जैसे हैं। प्रतिमा निर्माण की कला उस वर्ग के अभ्यास में नहीं आई थी। इसलिए नदियों में बहने वाले गोल पत्थर ही शिव के प्रतीक माने गये। अविकसित लोगों ने इस परम्परा को आत्मसात कर लिया और शिवलिंग को सूर्य गोलक की कल्पना दे दी। समन्वय की आवश्यकता समझी गई और शिव सूर्य के बीच का जो अन्तर था, वह हट गया।

मिस्र की विशालकाय सूर्य प्रतिमा सबसे पुरातन है। फराऊ बादशाह रैसेमस द्वितीय ने इस पहाड़ी को कटवाकर उसे सूर्य रूप दिया था। यह प्रतिमा 225 फुट ऊँची है। इसे ईस्वी सन् से 4 हजार वर्ष पूर्व की माना जाता है। इसी प्रकार उन दिनों की विकसित सभ्यताओं के चिन्ह जहाँ भी मिले हैं, वहाँ सूर्य के प्रतीक अनिवार्य रूप से उपलब्ध हुए हैं। यों धीरे-धीरे अन्य देवी देवताओं का भी प्रचलन विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में होने लगा था। किन्तु सूर्य का स्तर और सम्मान गिरा नहीं। उनके प्रतीक हर जगह विद्यमान मिले।

विश्व के पुरातत्व विज्ञानी अपने-अपने क्षेत्रों की खोजों के निकले निष्कर्षों के आधार पर इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि प्रतिमाओं की स्थापना और पूजा का प्रचलन जब से आरम्भ हुआ, तब उसमें प्राथमिकता सूर्य प्रतीकों की ही रहीं। कहीं उन्हें स्मारक रूप में सम्मान दिया गया, कहीं उन्हें देवालयों के रूप में विनिर्मित करके पूजा अर्चा का सिलसिला चलाया गया। जिन गुफाओं में मनुष्य परिवारों के निवास करने का पता चला है। सूर्य, चित्र एवं विविध विधि प्रतीकों का स्थापन चित्रण या उत्खनन के रूप में होता रहा है।

अग्रगामिता ने देवताओं में बहुलता का समावेश किया और उनके सम्प्रदाय भी चल पड़े। पौराणिक काल से कुछ पहले शिव, दुर्गा, गणेश, विष्णु के भी सम्प्रदाय बनने लगे थे, पर पाँचवे सूर्य को इनमें प्राथमिकता रही। देव सम्प्रदायों और उनके भक्तों की संख्या और विभिन्नता तो बढ़ती रहीं, पर सूर्य की प्रमुखता पर कहीं से भी उँगली नहीं उठी। वरन् कहा तो यह भी जाता रहा कि सूर्य की प्रथम पूजा किये बिना अन्य सब देवताओं की अर्चना अधूरी ही रहती है। सूर्य का दृश्यमान होना और मात्र जलाँजलि से उनकी अभ्यर्थना बन पड़ना इस वरिष्ठता का प्रधान कारण रहा।

विभिन्न समयों पर विदेशी यात्री भारत की समृद्धि आध्यात्मिक प्रगति और विचित्रता का पता लगाने आते रहे हैं। इनमें इब्नबतूता और हेनंसाग का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उनने अपनी यात्रा विवरणों में भारत में विद्यमान, अनेक विशालकाय सूर्य मंदिरों का उल्लेख किया है। मध्यम श्रेणी के देवालय तो असंख्यों थे। मुलतान के मन्दिर के बारे में लिखा गया है कि उसकी प्रतिमा 200 मन सोने की ढली थी। मोंढे़रा मंदिर का भी आश्चर्यजनक विस्तार लिखा गया है। उत्तर भारत की तरह दक्षिण भारत में भी उसका बाहुल्य था।

समय की लम्बी अवधि बीत जाने पर उन विशालकाय देवालयों के तो अब ध्वंसावशेष ही शेष रह गये हैं। मध्यकालीन मन्दिर आकार में छोटे थे और उनका निर्माण भी उतनी मजबूत सामग्री तथा कुशलता के साथ नहीं हुआ था तो भी उनके ऐसे ध्वंसावशेष जहाँ-तहाँ विद्यमान हैं, जिनमें सूर्य की प्रतिमा और उनके वाहन अश्वों का सजीव परिचय मिलता है विद्यमान मंदिरों में कोणार्क (उड़ीसा) का सूर्य मन्दिर अब भी अपेक्षाकृत अच्छी हालत में है। उसकी ऊँचाई 225 फुट है। सूर्यग्रहण के समय इस स्थान से उस स्थिति को अधिक अच्छी तरह से जानने के लिए देश-विदेशों के अनेक वैज्ञानिक अपने बहुमूल्य यंत्रों समेत वहाँ एकत्रित होते हैं।

सम्पूर्ण भारत में ऐसे ध्वंसावशेषों की 4000 से ऊपर संख्या हैं, जिनमें सूर्य की निमित्त उन्हें बनाये जाने का पता लगता है। पर यह सभी टूटी फूटी स्थिति में हैं। इससे पता चलता है कि चिर पुरातन काल के उपरान्त ऐसा मध्यकाल भी आया है जिसमें अन्य देवताओं की मान्यता बढ़ गई और सूर्य की उपेक्षा होने लगी। साथ ही आक्रमणकारियों का भी वर्चस्व रहा, जो मूर्तिपूजा के विरोधी थे। इस स्थिति में बने सूर्य मंदिरों का निर्माण एक प्रकार से रुक ही गया। लोग ज्योतिर्लिंगों के रूप में शिवलिंग को ही मान्यता देने लगे।

जिनकी अच्छी स्थिति है, जो नये बने हैं। जिनकी आयु पाँच छः सौ वर्ष से अधिक नहीं है, ऐसे सूर्य मन्दिर भारतवर्ष में एक हजार के लगभग आँके गये हैं। विदेशों में जो ध्वंसावशेष मिले हैं, उनकी संख्या भी हजारों में है। इन सब प्रमाणों द्वारा ऐतिहासिक दृष्टि से भी नहीं विदित होता है कि भारतीय संस्कृति में सूर्य की मान्यता को अतीव ऊँचा स्थान चिरपुरातन काल से दिया जाता है।

प्राचीन धर्म ग्रन्थों में से एक भी ऐसा नहीं है, जिसमें सूर्य का विवेचन, माहात्म्य एवं पूजा विधान का वर्णन न हो। पुराणों और उप पुराणों में से सभी में किसी न किसी रूप से सूर्य संबंध उपाख्यान विद्यमान हैं। मंत्र विज्ञान और तंत्र विधान के दोनों पक्षों में ही अपने-अपने ढंग से सूर्य की अभ्यर्थना का विवरण है। प्रतीत होता है कि चिर काल तक योग, तप, अनुष्ठान के रूप में विविध प्रकार की सिद्धियों के लिए सूर्य तप किये जाते रहे हैं।

कुन्ती ने सूर्य की आराधना करके उन्हीं के समान तेजस्वी पुत्र कर्ण प्राप्त किया था। सूर्य उपासना से ही द्रौपदी को ऐसा अक्षय पात्र मिला था जिसकी भोजन सामग्री कभी समाप्त ही नहीं होती थी। हनुमान को सूर्य का तेजाँश प्राप्त हुआ था और उन्हीं की कृपा से वे अनेक विभूतियों के अधिनायक बने थे। सीता के वाल्मीकि के आश्रम में सूर्य साधना करके ही लव-कुश को जन्म दिया था। राजा इक्ष्वाकु ने सूर्य साधना की थी। वहीं से उनके वंशधर सूर्यवंशी कहलाते चले गये। शकुन्तला ने अपनी परित्यक्ता स्थिति में सूर्य साधना करके ही चक्रवर्ती भरत को जन्म दिया था। ऐसे अनेक कथानक हैं, जिनमें सूर्योपासना से तेजस्वी संतानों का वरदान मिलने का उल्लेख है। यही नहीं सूर्योपासना से अभीष्ट मनोरथों के पूरा होने का उल्लेख शास्त्रों में विस्तार से आता है।

स्कन्द पुराण में कहा गया है-

किं किं न सविता दयात् सम्यगुपासितः। आयुरारोग्यमैर्श्वयं र्स्वगं चाप वर्गकम्।

अर्थात्-”भली प्रकार उपासना करने पर सूर्य क्या-क्या प्रदान नहीं करते। आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, स्वर्ग, अपवर्ग सभी कुछ उनसे मिलते हैं।

“शरीरारोग्य कृच्चैव धन वृद्धि यशस्करः जायते नात्र संदेहों यस्य तुष्ये दिवाकर” -पद्म पुराण

अर्थात्-”शरीर के आरोग्य, धन वृद्धि, यश यह सब उसे प्राप्त होते हैं जिस पर सूर्य प्रसन्न है।

महाभारत में वर्णन आता है कि जब वनवास काल में पाण्डव बुरी तरह परिस्थितियों में घिर गये, तब उन्होंने महर्षि धौम्य से पूछा कि इस विपत्ति से कैसे निकलें? तब उत्तर में धौम्य ने कहा-तुम लोग सूर्य की उपासना करे। उन्हीं की कृपा से कष्टों का निवारण और सुयोग का आगमन हो सकता है।

गायत्री महामंत्र वस्तुतः सविता देव का शक्ति स्रोत है। भौतिक प्रयोजनों में जब गायत्री का उपयोग होता है तो उसे सावित्री कहते हैं। अध्यात्म प्रयोजनों में वह दिव्य रूप धारा गायत्री ही रहती है। स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि प्रदान करती हैं किन्तु सावित्री रूप में वह महारानी, महाचण्डी, महाकुण्डलिनी का रूप धारण करती हैं शक्ति सम्प्रदाय सावित्री उपासकों का है। वैष्णव, सम्प्रदाय गायत्री उपासकों का। फिर भी यह कोई विभाजन रेखा नहीं है। आवश्यकतानुसार कोई भी साधक इनमें से किसी का भी आश्रय ले सकता है।

गायत्री को सूर्य मण्डल मध्यस्थ कहा गया है। वह सूर्य मण्डल के बीच में अवस्थित है। गायत्री ध्यान में सविता देव का ही ध्यान किया जाता है। सविता स्वर्णिम आभा वाले हैं। प्रातः और सायं दोनों समय उनका वही रूप रहता है। दिन और रात्रि के मिलन काल यह दोनों ही हैं। इसलिए इन बेलाओं को संध्या काल कहा जाता है। यों कहीं-कहीं मध्याह्न समेत त्रिकाल संध्याओं का वर्णन है। पर मुख्यतः संध्याएँ प्रातः सायं की दो ही है। इन समयों पर किसी न किसी रूप में संध्या वंदन करना आवश्यक माना गया है। भले ही वह स्वल्प काल का ही क्यों न हो?

सविता की निष्काम उपासना से अन्तराल में सन्निहित दिव्य विशेषताओं का विभूतियों का अभिवर्धन होता है। सकाम उपासना से प्रतिकूलताएँ टलती हैं और अनुकूलताएँ बढ़ती है। शारीरिक रोग, मानसिक उद्वेग, शत्रुता का आक्रमण, दुर्बुद्धिजन्य अनाचरण, व्यसन, प्रायः प्रतिकूल परिस्थितियों के रूप में सामने आते रहते हैं। इनसे किस प्रकार पीछा छुड़ाया जाय, इसकी अंतःप्रेरणा सूर्योपासना से जन्म लेती है। उपाय सूझ पड़ते हैं और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए जिस विवेक और साहस की आवश्यकता पड़ती है उनका उद्भव भी अन्तःक्षेत्र में से अनायास ही उदय होने लगता है। स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन, के उपायों को अन्तःचेतना के अभिवर्धन में सहायक माना गया है। पर यह बाह्य प्रयोग ही पर्याप्त नहीं है। उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने वाले जिस आन्तरिक उल्लास की आवश्यकता है उसमें सूर्याराधना विशेष रूप से सहायक होती है।


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