चर्म चक्षु, मनः चक्षु एवं ज्ञान चक्षु

May 1987

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किन्हीं देवी देवताओं की प्रतिमाओं में तीन नेत्र दिखाये जाते हैं। यह मनुष्यों में भी पाये जाते हैं। इनमें से दो दीख पड़ते हैं, तीसरा अदृश्य रहता है। बनावट की दृष्टि से दृश्यमान नेत्र एक जैसे लगते हैं और तीसरे की सत्ता के संबंध में संदेह ही बना रहता है। पर तात्विक दृष्टि से विवेचना करने की उनके अस्तित्व के चेतना के साथ जुड़े हुए होने की-बात सहज ही समझी जा सकती है। उनका अस्तित्व बोधगम्य हो जाता है।

एक को चर्म चक्षु दूसरे को मनः चक्षु तीसरे को विवेक चक्षु कहा जा सकता है। चर्म चक्षु को भौंहों के नीचे अवस्थित देखा जा सकता है। वे समीपवर्ती पदार्थों का स्वरूप देखते हैं। व्यक्तियों और पदार्थों की भिन्नता, विशेषतया इन्हीं प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा देखी समझी जाती है। यह सभी में होते हैं। दृष्टि इनकी विशेषता है। इसी के माध्यम से जो पहचान होती है। उसी के आधार पर रुचि, अरुचि उत्पन्न होती है। जो दीख पड़ता है उसके साथ संपर्क साधना या बचना सम्भव होता है। दूसरा मनः चक्षु कल्पना करता है। चिन्तन उसका प्रधान गुण है। मन की भाग दौड़ सर्वविदित है। वह अनेकों उचित अनुचित कल्पना जल्पना करता रहता है। बालू के महल बनाता है। इच्छाएँ, आकाँक्षाएँ उभारता है और फिर उनके पीछे-पीछे भागता फिरता है। बच्चे जिस प्रकार तितली पकड़ने के लिए दौड़ लगाते हैं, पर उनसे ऊँची रहने और उड़ने में प्रवीण होने के कारण उन बालकों के हाथ नहीं आती। इसी प्रकार काल्पनिक पदार्थों, परिस्थितियों को हस्तगत करने के पीछे कोई सुनियोजित कार्य पद्धति न होने के कारण वे उपलब्ध नहीं होती। झाग या बबूले की तरह अगणित मनोरथ उठते और विलुप्त होते रहते हैं। अनगढ़ कल्पनाओं से मानसिक शक्तियों का अपव्यय ही होता है। किन्तु यदि कल्पनाओं को सुनियोजित ढंग से दिशा विशेष में उठाया दौड़ाया जाय, तो उसी कल्पना सागर में से बहुमूल्य मणि-मुक्तक भी हाथ लग जाते हैं। वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार, योजनाकार, इंजीनियर आदि बुद्धिजीवी जो उपलब्धियाँ हस्तगत करते हैं वे सर्वप्रथम उनके कल्पना क्षेत्र में ही आती हैं। पीछे बुद्धि पूर्वक उनका ढाँचा खड़ा किया जाता है। काट-छाँट करके किसी सुनिश्चित आधार को ढूँढ़ निकाला जाता है।

तीसरा नेत्र विवेक चक्षु है। जिसे दूसरा नाम भाव चक्षु भी दिया जाता है। संवेदनाएँ उसी में उठती हैं। अन्य प्राणियों में स्वार्थ सिद्धि एवं आत्म रक्षा की दो प्रवृत्तियाँ भी प्रधान रूप से काम करती हैं, पर मनुष्य भावनाशील भी हैं। उसे दूसरों के दुःख में हिस्सा बँटाने और अपने सुखों में दूसरों को साझीदार बनाने की इच्छा भी होती है। वह अन्यान्यों की व्यथा वेदनाओं के प्रति संवेदनशील होता है। दया, करुणा, सेवा-सहायता, सहानुभूति, संवेदना आदि भावनाएँ उदार चेता ही में विशेष रूप से पाई जाती हैं। वे अपने साधनों को उपयोग परमार्थ में करते रहते हैं। जन कल्याण का-विश्व कल्याण का उन्हें ध्यान रहता है। भावनाओं की न्यूनाधिकता ही मनुष्य को निष्ठुर या प्रेमयोगी बनाती है।

विवेक चक्षु के रूप में इसी को समझा जाता है। उचित अनुचित का नीर-क्षीर-विवेक इसी की शक्ति से बन पड़ता है। आमतौर से लोक प्रचलन में भलाई बुराई का इतना सघन सम्मिश्रण है कि उन्हें पृथक कर पाना कठिन पड़ता है। इसके लिए कोई राजहंस परमहंस स्तर के लोग ही सफल होते हैं। किन्तु अभ्यास से सब कुछ सरल हो जाता है।

साथी सहयोगी जिस प्रकार सोचते हैं, उसी प्रवाह में अपना चिन्तन भी बहने लगता है। बारीकी में प्रवेश करने के झंझट से बचने की आदत होती है। उथली दृष्टि से देखकर काम चला लिया जाता है। घटना-क्रम जिस दृश्य के रूप में सामने प्रस्तुत है, उसी को पर्याप्त मान लिया जाता है। यथार्थता क्या है? इसे सोचने जानने की किसी को फुरसत तक नहीं। एक बार एक दार्शनिक कहीं तथा कथित विद्वानों की गोष्ठी में बैठा था। उसने उनकी तत्व-दृष्टि जानने के लिए एक उपक्रम किया। खड़ा हो गया। एक कपड़ा उसके पास था। उसे मोड़ मरोड़ कर सिर पर बाँध लिया और पूछा-इसका नाम बतायें। सभी ने कहा “पगड़ी” फिर उसने उसी कपड़े को तह करके कंधे पर रख लिया। पूछा तो उत्तर मिला “दुपट्टा”। फिर उसने उसे कमर में लपेट लिया। दर्शकों ने उसे “फेंटा” बताया। प्रश्नकर्ता ने फिर पूछा कि वस्तु तो एक ही थी, फिर उसके इतने नाम कैसे हो गये? यह तो कपड़ा मात्र है। जिस रूप में वह प्रयुक्त होता है, उसी नाम से उसे जाना जाता है। यह परिस्थितियाँ स्थायी नहीं हैं। वे थोड़े से प्रयत्नभर से बदली जा सकती हैं। मनुष्य आत्मा भर है। वह जिन परिस्थितियों में रहना आरम्भ कर देता है, जिन गतिविधियों को अपना लेता है, उसी के अनुरूप उसकी पहचान बन जाती है। कलेवरों के इस भ्रम में न पड़कर यथार्थता को समझा जाना चाहिए।

बच्चे मुखौटे लगाकर दूसरों को डराते हैं। कई बार अनजाने होने पर स्वयं भी डर जाते हैं। उनके लिए वह दृश्यमान ही सत्य है। पर समझदार बच्चे जानते हैं कि जो आच्छादन चेहरे पर बाँधा हुआ है, वह नकली है। शेर का आवरण ओढ़कर कोई शेर नहीं बन सकता। वस्तुस्थिति प्रायः पर्दे की आड़ में रहती है। रंग मंच पर अनेकों नट-नर्तक विभिन्न वेश-भूषाएँ धारण करके अभिनय करते रहते हैं। प्रत्युत वे वैसे ही लगते भी हैं, पर विचारवान जानते हैं कि राजा या ऋषि बनकर मंच पर सजधज कर बैठा हुआ व्यक्ति वस्तुतः एक साधारण कला कर्मचारी है। यही विवेक दृष्टि है, जिसके उदय होने पर जीवन का स्वरूप समझ में आता है और कर्त्तव्यों का बोध होता है। अन्यथा मनुष्य आकर्षणों और दबावों के बीच कटी पतंग की तरह जिधर-तिधर छितराता हुआ अन्ततः कीचड़ में गिरकर अपनी सत्ता समाप्त कर देता है। दूरदर्शी विवेकशीलता के अभाव में ऐसी ही दुर्गति होती है।

लोक कथा प्रसिद्ध है, कुछ अनगढ़ नदी पार करे किसी बड़े नगर के लिए चले। नदी पार करते ही उनने सोचा कि गिन लेना चाहिए। घर से चले थे तब दस थे। कोई हममें से बह तो नहीं गया। हर एक ने गिना तो नौ निकले। बैठकर रोने लगे। एक समझदार उधर से गुजरा, उसने कारण पूछा, तो बात सामने आई। उसने झुण्ड को खड़ा किया और अलग खड़ा करते हुए सबके सिर पर धौल जमाते हुए गिनती गिनी तो पूरे दस थे। समाधान करते हुए उस विज्ञजन ने कहा-आप लोग अपने को गिनना भूल जाते थे फलतः एक की कमी पड़ती थी।

हम सब की स्थिति भी ऐसी ही है। औरों के गुण दोष देखते हैं। औरों की निन्दा प्रशंसा करते हैं। दूसरों को उत्तरदायी बताते हैं पर यह भूल जाते हैं कि अपनी मनःस्थिति और क्रिया प्रक्रिया ही उन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार है जिसका कि दोष या श्रेय दूसरों को देते हैं। यह विवेकशीलता ही है जो परावलम्बन छोड़कर आत्मनिर्भर होने के प्रभाव परिणाम से अवगत कराती है।

एक निपट देहाती ने कभी हाथी नहीं देखा था। संयोगवश कोई राजा हाथी पर बैठ कर उस गाँव से गुजरा। देहातियों को भौंचक्का देख कर उसने समझ लिया कि इन लोगों ने हाथी कभी देखा नहीं है। चलना रोक दिया गया। दर्शकों को पास बुलाया और प्रश्न पूछा गया कि ध्यान से देखो-इसमें अजनबीपन क्या है? सभी ने देखा और एक ही उत्तर दिया कि इसके आगे पीछे मोटी पतली पूँछें तो दो हैं, पर मुँह कहीं दीखता ही नहीं। यह खाता कहाँ से होगा? राजा ने हँसते हुए हाथी आगे बढ़ा दिया साथ ही सूँड़ उठवा कर हाथी का छिपा हुआ मुँह भी उन्हें दिखा दिया।

मनुष्य को दो पूँछें दिखाई पड़ता है। शरीर के साथ जुड़ी हुई ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के रूप में। किन्तु उसका वह पक्ष नहीं दीखता, जिसे चेतना या आत्मा कहते हैं। उसे विवेक दृष्टि से ही देखा जा सकता है।

चर्म चक्षुओं में दृष्टि दोष न होने पर भी वे सतही जानकारी ही प्राप्त कर सकते हैं। चेहरे पर लिपटी हुई चमड़ी की बनावट देखकर हम किसी के सौंदर्य पर मुग्ध होते और कुरूप के प्रति अरुचि प्रकट करते हैं। किन्तु वास्तविकता यह है कि चमड़ी की झिल्ली से नीचे वाला मसाला देखने पर सभी में हाड़-माँस रक्त, मज्जा, मल-मूत्र आदि भरा ही दीखता है। सभी की काया उस चमकदार पन्नी चिपकाये हुए घड़े की तरह है जिसमें भीतर सड़ी कीचड़ भरी पड़ी है। आत्मा ही जीवन का आधार है पर वह यथार्थता चर्म चक्षुओं से किसी भी प्रकार दीख नहीं पड़ती। जमीन पर रेत पत्थर बिछे दीखते हैं। पर उसकी गहराई में पानी के स्रोत और बहुमूल्य खनिज पदार्थ भरे पड़े हैं। यह खुली आँखों से पलक उठा कर नहीं देखा जा सकता। चर्म चक्षु आमतौर से दैनिक जीवन के काम चलाऊ प्रयोगों में सहायता करने तक सीमित हैं। वे आकाश में टँगे विशाल काय ग्रह पिण्डों का झिलमिल चमकने वाली बिन्दियों के रूप में देखते हैं। इन्द्र धनुष जैसे अवास्तविक दृश्यों को प्रत्यक्ष एवं सही होने की धारणा बना लेते हैं। सिनेमा के पर्दे पर चलती बोलती छाया के उभार प्रत्यक्ष जैसे लगते हैं और असाधारण रूप से प्रभावित करते हैं। इन तथ्यों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि चर्म चक्षु समीपवर्ती पदार्थों की ऊपरी सतह ही देख पाते हैं। गूलर के फल में भरे हुए भुनगों तक को उनके सहारे नहीं देखा जा सकता। यह विश्व अणुओं और तरंगों का समुच्चय मात्र है। पर हमें तरह-तरह की आकृतियों के का समुच्चय मात्र है। पर हमें तरह-तरह की आकृतियों के रंगों के रूप में उनका समुच्चय दृष्टिगोचर होता है। स्थिति को देखते हुए चर्म चक्षुओं द्वारा दी गई जानकारी को अधूरी एवं भ्रमपूर्ण ही कहा जा सकता है।

मनःचक्षु अपने आप में विलक्षण हैं। वे कल्पना के घोड़े गढ़ते और उन पर चढ़कर आकाश पाताल की सैर करते रहते हैं। सुप्तावस्था में दीख पड़ने वाले सपनों की तरह उनके द्वारा जागृत स्थिति में भी दिवा स्वप्न देखे जाते रहते हैं। इसके लिए देशकाल की भी कोई सीमा मर्यादा नहीं। चिर अतीत के संबंध में जो सुना है, उनके यथार्थ जैसे चित्र गढ़े जा सकते हैं। भविष्य की सम्भावनाओं को इच्छित स्तर की बनाकर उन्हें डरावनी या लुभावनी छवि दी जा सकती है। अवास्तविक कल्पनाओं को वास्तविकता का बना पहनाना मनः चक्षुओं का ही काम है। उनके दिखायें दृश्यों को सही मान बैठने की बात बनती ही नहीं।

वास्तविकता युक्त तो ज्ञान चक्षु ही हैं। ये अदृश्य की गहराई में उतर कर पनडुब्बों की तरह बहुमूल्य मणि मुक्तक खोज सकते हैं इन्हीं के द्वारा आत्मा को-परमात्मा को-कर्त्तव्य को देखा समझा जा सकता है। इस जादू नगरी की भूल भुलैयों में से बाहर निकलने का वास्तविक रास्ता ढूँढ़ निकालने में यह ज्ञान-चक्षु ही काम देते हैं। उन्हीं की दृष्टि को तत्व दर्शन नाम दिया जा सकता है। यह नेत्र जब तक मुंदा रहता है, तब तक चर्म चक्षु और मनःचक्षु खुले रहने पर भी हम तत्व, तथ्य और सत्य को देखने समझने में असमर्थ ही रहते हैं।


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