दर्पण के माध्यम से आत्म परिष्कार की साधना

May 1987

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पशु-पक्षियों और कीट, पतंगों की तुलना में अशिक्षित एवं अनगढ़ व्यक्ति भी कहीं अधिक साँसारिक जानकारियाँ संग्रह किये होता है। पर वे होतीं सब बाहरी क्षेत्र की ही हैं। अपने संबंध में प्रायः सभी महत्वपूर्ण जानकारियों से वह अनभिज्ञ ही रहता है। कुछ जानता भी है तो वह मात्र प्रयोगात्मक ही होता है। वस्तुस्थिति समझ सकने योग्य गहराई में प्रवेश पाना प्रायः उससे बन ही नहीं पड़ता। जो आँखें केवल सामने की हलचलों, स्थापनाओं को ही देख पाती हैं वे उलट कर भीतर कैसे देखें? गह्वर में कैसे प्रवेश करें? पर्दे के पीछे छिपी हुई यथार्थताओं को कैसे समझें?

त्वचा के भीतर किस अंग अवयव में क्या गड़बड़ है, उसे जानने के लिए टटोलना भर पर्याप्त नहीं होता। इसके लिए कितने ही पैथालॉजीकल टेस्ट कराने पड़ते हैं। एक्सरेज तथा थर्मोग्राफी के माध्यम से अन्दर की स्थिति का मापन कर परिस्थितियों को समझा जाता है। यही बात मानव जीवन के अन्तराल पर भी लागू होती है। दूसरों की समीक्षा में प्रवीण अपनी निजी जाँच-पड़ताल में व्यक्ति उतनी ही असफल रहता है। समझा जाता है कि संसार भर में बुद्धि का परिमाण डेढ़ है। इसमें से एक अपने हिस्से में आई है और बाकी आधी से संसार के सब लोग मिल बाँट कर काम चलाते हैं। यही बात दोष, दुर्गुणों के संबंध में भी है। दो तिहाई दोष दूसरों में हैं और अपने में तो वे नगण्य सी मात्रा में हैं। इसी भ्रम में सारी दुनिया आकण्ठ मग्न है। अपने दोष और दूसरों के गुण तो किसी की समझ में आते ही नहीं।

किन्तु जब तक वस्तुस्थिति न समझी जाय, तब तक अवगति से उबरना और प्रगति पथ पर आगे बढ़ चलना सम्भव कैसे हो? सुधार परिष्कार यदि अभीष्ट हो तो उसके लिए आत्म-समीक्षा नितान्त आवश्यक है। यह बन पड़े तो ही परिमार्जन बन पड़े और उसी स्थिति में अभ्युदय के लिए आवश्यक सरंजाम जुटे।

इस प्रयोजन के लिए साधना क्षेत्र का एक सरल उपाय है-दर्पण का अवलम्बन। एक बड़ा-सा शीशा इसके लिए प्रयुक्त करना चाहिए। दर्पण ऐसा हो कि पालथी मार कर बैठने पर पूरा शरीर दीख सके। किन्तु दूरी अधिक न हो। ऐसे बड़े आकार का वह मिल सके तो सर्वोत्तम, अन्यथा छोटे साइज से भी काम चलाया जा सकता है। गरदन तक चेहरा साफ-साफ दीखे तो भी समझना चाहिए कि काम चल गया।

दर्पण में दीखने वाले अपने प्रतिबिम्ब को अपना नहीं अपने किसी निकटवर्ती घनिष्ठ संबंधी का मानना चाहिए और भाव यह रखना चाहिए कि इसकी त्रुटियों का परिमार्जन करना है। सत्प्रवृत्तियों के बीजाँकुर विकसित करना है। सही राह पर चलने से यदि भटकाव हो गया है, तो उसे यथार्थता समझा कर सही रास्ते लाया जाता है। जो सम्पदा पास में है, उसके सदुपयोग का अभिवर्धन का उपाय समझाया जाता है। इन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर अपना प्रतिबिम्ब गंभीरतापूर्वक देखा जाय और उसे समुन्नत सुसंस्कृत बनाने का दृष्टिकोण अपनाया जाय। आदर्शों की कसौटी पर जितनी खोट मिले, उसे सुधारने के लिए उपयुक्त प्रयास करने हेतु संकल्पित हुआ जाय।

सबसे बड़ी भूल आम आदमी से यह होती है कि वह अपने स्वरूप, जीवन के उद्देश्य और शरीर के साथ इसके प्रयोजन संबंध के बारे में जो समझना चाहिए, जिस प्रकार तालमेल बिठाने चाहिए उसे प्रायः पूरी तरह भूल जाता है। मनुष्य जीवन एक ऐसा सुयोग है, जो चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करने के उपरान्त एक बार अमानत के रूप में मिला है। यह सृष्टा की सर्वोपरि कलाकृति है। इसे सौंपा इसीलिए गया है कि निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति में उसका उपाय समग्र सतर्कता के साथ किया जाय। प्रसुप्त विभूतियों को जगाने के लिए तपश्चर्या का आश्रय लिया जाय। जन्म जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कारों को धोने के लिए आत्मशोधन का प्रबल प्रयास किया जाय। अपूर्णता को पूर्णता में बदला जाय। साथ ही सेवा, संवेदना को उभार कर अपने स्वभाव में अधिकाधिक पुण्य परमार्थ का समावेश किया जाय। मानव की गरिमा इसी में सन्निहित है कि वह संकीर्ण स्वार्थपरता के भव बंधनों से निकल कर लोक हित में जन कल्याण में-कितना निष्ठापूर्वक संलग्न होता है। सृष्टा के विश्व उद्यान को सींचने, सँजोने में कितनी तत्पर तन्मयता का परिचय देता है। जीवन के इस उच्च उद्देश्य को निबाहने में जो जिस सीमा तक सफल होता है, वह उसी सीमा तक मनुष्य जन्म को सार्थक बनाने में सफल होता है। इस सफलता का उपहार पुरस्कार उसे देव मानव बनने के रूप में और सब प्रकार भविष्य को उज्ज्वल बनाने के रूप में उपलब्ध करता है। शालीनता अपनाने के फलस्वरूप व्यक्ति अपने लोक और परलोक दोनों को सुधारता है। निजी क्षेत्र में उल्लास भरा संतोष, संपर्क क्षेत्र में सम्मान भरा सहयोग और दैवी क्षेत्र में अदृश्य अनुग्रह के रूप में उतना कुछ मिलता है जिससे कि तुष्टि, तृप्ति और शान्ति का-हर घड़ी उल्लास भरे आनन्द का-रसास्वादन किया जा सके।

दर्पण में दीख पड़ने वाले अपने परम आत्मीय छाया पुरुष से यही पूछना चाहिए। उसके उत्तर न देने पर भी अपनी तीव्र दृष्टि से यह परखना चाहिए कि इन प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर इसके पास है या नहीं? यदि नहीं तो उसे परम प्रिय होने के नाते इस हितैषिता की शिक्षा देनी चाहिए कि मृत्यु का कोई ठिकाना नहीं। बिस्तर किसी भी समय गोल करना पड़ सकता है। ऐसी दशा में यही उचित है कि जो बीत गया, उसमें हुई भूलों के लिए पश्चाताप करते हुए शेष है, उसे श्रेष्ठतम बनाने के लिए इसी क्षण से मुड़ पड़ा जाय। समय को आलस प्रमाद में न बिताया जाय। यह वर्तमान ही है, जिसमें दिशा बदलने का काम अविलम्ब आरम्भ किया जा सकता है और तेजी से कदम बढ़ाते हुए निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है।

माता बच्चे को गोद में उठाने से पहिले उसके शरीर से लिपटी हुई गंदगी को साफ कर लेती है। कीचड़ से, मल मूत्र से सने हुए व्यक्ति को कोई व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक पास नहीं बैठने देता। उससे वार्त्तालाप, व्यवहार करने से पूर्व यह चाहता है कि वह शुद्ध होकर आये। स्वच्छ घर, स्वच्छ पात्र, स्वच्छ परिधान, स्वच्छ शरीर सभी को सुहाता है, भगवान को भी। इसलिए प्रथम दृष्टि यही डाली जानी चाहिए कि गुण, कर्म, स्वभाव में कहाँ-कहाँ ऐसी दुष्प्रवृत्तियों का समावेश हो रहा है, जो मानवी गरिमा के अनुरूप नहीं हैं। इन्हें खोजने के लिए तनिक भी पक्षपात नहीं बरतना चाहिए। निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह स्वयं ही अपने छाया पुरुष की समीक्षा करनी चाहिए और उसका अतिशय शुभ चिन्तक परमप्रिय होने के नाते हित कामना से इतना दबाव देना चाहिए कि वह परामर्श मात्र सुनकर इस कान से सुने उस कान से न निकाल दे वरन् अभ्युदय की महत्ता समझने हुए अपने सुधार परिवर्तन के लिए सुनिश्चित संकल्प और सुदृढ़ संकल्प करे। यह प्रयास निरन्तर जारी रखा जाय, तो उसका प्रतिफल आश्चर्य जनक होता है। वाल्मीकि, अंगुलिमाल, बिल्व मंगल, जैसे कारण नहीं कि दर्पण में विराजमान अपना अभिन्न आत्म परिष्कार के द्वारा उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में निरत न हो सके।


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