योग वशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ ने श्री राम को मानव जीवन की महत्ता व गरिमा समझाते हुए कहा है-”हे राम! मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताता हूँ कि सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य से श्रेष्ठ कोई जीवधारी नहीं हैं” आखिर वह कौन सी विशिष्टता है जो मनुष्य को विलक्षण क्षमता सम्पन्न, असीम संभावनाओं का स्वामी बनाती है, जिससे वह पशुओं से भी श्रेष्ठ बन जाता है। इस विषय में ऋषि-मनीषियों का मत है कि संरचना ही नहीं, कार्य पद्धति के क्षेत्र में भी जब हम मानवी काया, विशेषतः मानव मस्तिष्क पर दृष्टि डालते हैं, तो वह अन्य जीवों से सर्वोपरि एवं विभूति सम्पन्न नजर आता है।
आज विज्ञान विकास की सभी सीमाएँ पार कर चुका है। आधुनिकतम यंत्रों की खोज हो चुकी है, जो सूक्ष्म से सूक्ष्म की जानकारी कराते हैं। फिर भी मानव मस्तिष्क के बारे में हमें मात्र सात से तेरह प्रतिशत की जानकारी है। शेष सारा जखीरा अविज्ञात के गर्त में पड़ा है। वह अपनी चमत्कृतियाँ दिखाता रहता है, पर कारक घटकों की खोज अभी तक नहीं हो पायी है। न्यूरोलॉजी, न्यूरोहिस्ट्री केमिस्ट्री, न्यूरोएण्डोक्राइनाँलाजी, न्यूरोफिजियोलॉजी नाम से अनेक विधाऐं इन दिनों सक्रिय हैं। पर वे भी अविज्ञात की साइलेंट एरिया की कोई विशेष जानकारी नहीं करा पाती हैं। मस्तिष्कीय विकार या मानसिक विकृति से शारीरिक व्याधि का कारण क्या हो सकता है, यह तो वे बताते हैं, पर क्यों? यह नहीं बता पाते।
जहाँ तक संरचना का प्रश्न है, मानव एवं पशु दोनों के मस्तिष्क की बनावट कुछेक अपवादों को छोड़कर मिलती है। वे एक समान आकृति, संरचना और संघटन वाले होते हैं। चिंपांजी का मस्तिष्क सर्वाधिक विकसित बताया जाता है, एवं विकास क्रम की दृष्टि से मानव के सर्वाधिक निकट भी। सीखने की दृष्टि से अन्य जानवरों से यह अधिक कौशल सम्पन्न है। चिंपांजी का मस्तिष्क मनुष्य के मस्तिष्क से थोड़ा छोटा होता है, किन्तु हाथी और डाल्फिन के मस्तिष्क उससे बड़े होते हैं। घ्राण की उच्च विकसित इन्द्रियों के होने के बावजूद भी पशु बुद्धिमत्ता, तर्कक्षमता, लॉजिक आदि के क्षेत्र में मनुष्य से पीछे हैं। वे अक्षर, शब्द, वाक्य, व्याकरण का उपयोग करना नहीं जानते, नहीं उन्हें सिखाया जा सकना संभव है। पशुओं का मस्तिष्क ज्यामिति, त्रिकोणमिति जैसी जटिलताओं को समझने में अक्षम होंगे, पर उसका प्रकटीकरण काव्य या लेखन के रूप में मनुष्य ही कर पाता है। यहीं मनुष्य व पशुओं में अन्तर का पता लगाता है। अमीबा से बन्दर व बन्दर से मनुष्य के विकास का सिद्धान्त प्रतिपादित करने वाले यहाँ यह समझाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं कि चेतना के विकास के दो सोपानों में इतना अन्तर क्यों?
वस्तुतः अन्तर उस मनस्तत्व के कारण है, जिसे समष्टि का एक अंग ‘माइण्ड स्टॉफ’ बताया गया है। जानवरों का मस्तिष्क मूल प्रवृत्तियों (इंस्टीक्ट्स) के आधार पर कार्य करता है, जबकि मानवी मस्तिष्क इनसे भी इतर विकसित विभूतियों के आधार पर काम करता है जो कि मानव-मानव में विकास क्रम के व प्रसुप्त के उभार के कारण भिन्न-भिन्न परिणाम में सक्रिय पायी जाती है।
इसके विपरीत मनुष्य के विकास में उसे मिली एक दिव्य विभूति एक विशेष भूमिका निभाती है। वह है-मानव की स्वतंत्र चयन बुद्धि। इसकी परिधि अत्यन्त विशाल-अपरिमित है। मनुष्य सीखता है और विकसित होता जाता है। अनुभूतियों के आधार पर सृजन में निरत देखा जाता है। उसकी जिज्ञासु बुद्धि भाँति-भाँति के आविष्कार उससे करा लेती है। ज्ञान-विज्ञान, कला, लालित्य, संगीत, काव्य आदि अनेक क्षेत्रों में मानवी मस्तिष्क सक्रिय देखा जाता है। यह मस्तिष्क भाव संवेदनाओं से प्रभावित भी होता है व स्वयं तथा औरों को भी भावना मिश्रित विचारणा से प्रभावित करता देखा जाता है। पूर्वार्त्त दार्शनिकों ने ‘मन’ होने के कारण ही उसे मनुष्य कहा है। प्रकारान्तर से मनुष्य और पशु के बीच यह मन ही एक विशिष्ट एवं काफी महत्वपूर्ण अंतर स्थापित करता है।
मनुष्य पेट-प्रजनन के ढर्रे वाले पाशविक स्तर से ऊपर उठना चाहता है। यह ‘इच्छा-शक्ति’ उसके अन्तराल में हमेशा न्यूनाधिक रूप में क्रियाशील रहती है। अपने आपको नर, मानव, महामानव और देव मानव बनाने के लिए उसे ‘फ्री-च्वाँयस’ का परमात्मा द्वारा अधिकार मिला हुआ है। इस अधिकार का सदुपयोग भले ही वह न करे। आलस्य और प्रमाद में पड़कर आदमी अपने नर मानव के सामान्य स्तर से पतित भी हो सकता है। और नर पामर, नर पशु और नर-पिशाच की पदवी भी हासिल कर सकता है। मनुष्य अपने स्वरूप को अपनी गौरव-गरिमा को भली प्रकार जानता है, पर पशु नहीं। मनुष्य अपने आध्यात्मिक और भौतिक-वैभव को अपने उपासना साधना के प्रबल पुरुषार्थ से सहस्रों गुना बढ़ा सकता है। और चाहे तो पतन पराभव के गर्त्त में भी जा सकता है।
यह इच्छा शक्ति या मनस्तत्व वैज्ञानिकों की दृष्टि में अस्तित्वहीन है। पाश्चात्य मनोविज्ञान एवं पदार्थ विज्ञान मन एवं मनुष्य को भौतिक पदार्थ-कणों का समुच्चय भर मानता है। उनके अनुसार विचारणा तथा भावनाएँ यथा प्रेम, क्रोध, प्रसन्नता, निराशा स्नायुओं में रासायनिक परिवर्तन की प्रतिक्रिया मात्र हैं। इन्हें इलेक्ट्रोड द्वारा विद्युत प्रवाह से अथवा ड्रग्स द्वारा बदला जा सकता है। चार्ल्स डार्विन का विकासवादी सिद्धान्त एवं फ्रायड का मनोविज्ञान का सिद्धान्त इसी धुरी पर घूमता है। इस प्रकार पशु व मनुष्य उनके अनुसार मात्र ‘मैटर’ हैं। जॉन हाँपकिन्स यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग के शोधकर्ता अध्यक्ष डॉक्टर सोलेमन स्नाइडर से एक पाश्चात्य पत्रकार ने इंटरव्यू के दौरान पूछा-’क्या स्वतंत्र इच्छा शक्ति को मस्तिष्क के विद्युत प्रवाह अथवा स्नायु रासायनिक क्रिया में परिवर्तित किया जा सकता है? ‘तब डॉक्टर स्नाइडर का उत्तर था कि ‘हम नहीं जानते कि मन मस्तिष्क से किस प्रकार जुड़ा है। आधुनिकतम यंत्रों के बावजूद हम यह बता पाने में असमर्थ हैं कि मन की प्रक्रियाओं का संचालनकर्ता कौन है व मस्तिष्क का स्थूल ग्रेमैटर उसमें कितनी भूमिका निभाता है?”
यह उत्तर विज्ञान को एक छोटी परिधि में सीमाबद्ध कर देता है। इससे यही भाव निकलता है कि मात्र प्रत्यक्ष की खोज तक वैज्ञानिक सफल हो पाये हैं। प्राणशक्ति, चेतन शक्ति, इच्छाशक्ति, संकल्प बल, जिजीविषा जैसी विधाएँ ग्रेमैटर रूपी लिबलिबे पदार्थ में विद्यमान हैं। वे प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देतीं पर उनके मानवी चिंतन, व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं। योगवशिष्ठ में मन को संकल्पात्मक शक्ति बताया गया है। कहा गया है कि मन बुद्धि के निश्चयों से प्रेरित होता है और बुद्धि अहंकार से नियंत्रित की जाती है। यही नहीं संकल्प व मन को अभिन्न बताया गया है-
रामास्य मनसो रुपं न किचिंदपि दृश्यते। संकल्पनं मनो विद्धि कल्पान्तन्नमिद्यते॥
इस प्रकार मन ही संकल्पों द्वारा संसार की रचना करता बताया गया है। इस सूत्र में हमें सारी जिज्ञासाओं का समाधान मिल जाता है। मन अनुभूति का विषय है। पुराणों में इस मनस्तत्व को ‘मनोमय’ कहा गया है। शिव संकल्प मंत्रों में उसे ‘ज्योतिषाँ ज्योतिः’-विद्युत शक्ति के समान माना गया है।
भारतीय मनोविज्ञान एवं आर्ष वांग्मय द्वारा प्रदत्त मनस् संबंधी विशिष्ट ज्ञान को यदि आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों से जोड़कर प्रस्तुत किया जा सकना संभव हो तो उन सभी सिद्धियों, विभूतियों का रहस्योद्घाटन होने लगता है जिनसे महामानव सम्पन्न देखे जाते हैं। विलक्षण प्रतिभा, स्मरण शक्ति, अजेय संकल्प बल एवं प्रखरता के मूल में विकसित मनस्तत्व को कारण माना जा सकता है। सभी में प्रसुप्त रूप में बीज के समान ये छिपी पड़ी रहती हैं। जो इन्हें जगा लेते हैं, वे अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न, प्रतिभा-मेधा सम्पन्न महापुरुषों के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं।
मनुष्य पशु रूप में जीवन जीने के लिए नहीं ऊर्ध्वगामी यात्रा करते हुए कुछ विशिष्ट कर दिखाने के लिए जन्म लेता है। हर नवजात बच्चे में यह प्रकाश पुँज देखा जा सकता है। जीवन यात्रा में कषाय-कल्मषों के कारण यह प्रक्रिया मंद होती जाती है। यदि आत्मबोध द्वारा अपने वैभव को जाना व समुन्नत बनाया जा सके तो योगवाशिष्ठ के रहस्योद्घाटन को सत्यापित किया जाना असम्भव नहीं।