प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -1

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द्वितीयस्य दिनस्यात्र संगमे मुनय: समे । 
मनीषिणो यथाकालं संगता उत्सुका भृशम ।। १।। 
मौद्गल्य: प्रश्नकर्त्ताऽभूद्षिरद्यतनो महान् । 
पप्रच्छ भगवन् ह्म्स्तु महामानवनिर्मिति: ।।२।। 
अभिवृद्धिरिह प्रोत्के महिमा महिमाऽस्यास्तथोदिता । 
अनिवार्यत्वमतत्रैद विषये ज्ञातुमस्ति ।।३।। 
कान व्रतान पालयन मर्त्य: देवता जायते धुवम । 
महामानव आदेयं तेन किं त्याज्यमत्र च ।। ४।। 
विचार्यं किं विधेयं च किं किमेतत्तु विस्तरात । 
उच्यतां येन मतर्या: स्युर्महामानवतां गता: ।। ५ ।। 

आश्वलायन उवाच-विषये

मौद्गल्यप्रमुखा मान्या ऋषय: संगतारित्वह। 
सर्वे श्रृण्वन्तु धर्मोउस्ति केवलं ह्मवलम्बनम् ।। ६ ।। 
तथाविधं यदाश्रित्य मानवा: शान्तिमाप्रुयु: । 
सुखं चापि वसेयुस्ते रक्षिता: सर्वत: स्वत: ।। ७ ।। 

टीका-दूसरे दिन के संत-समागम में सभी उत्सुक मुनि-मनीषी यथा समय उपस्थित हुए । आज केप्रश्नकर्ता मनीषी मौद्गल्य थे। उन्होंने पूछा-''हे भगवन ! कल महामानवों के उत्पादन-अभिवर्द्धन की महिमा और आवश्यकता बताई गई थी । उसे सुनकर यह जानने की उत्सुकता बड़ी है कि किन व्रतों को अपनाने से मनुष्य देवमानव बनता है । उसे क्या छोड़ना और क्या अपनाना होता है ? क्या सोचना और क्या करना पड़ता है ? सो विस्तारपूर्वक कहें, जिससे मनुष्य महामानव बन सकें ।। १-५ ।।  

आश्वलायन जी ने कहा-''हे मौद्गल्य समेत सभी ऋषि वर्ग, आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें। धर्म ही एकमात्र अवलंबन है, जिसका आश्रय लेकर मनुष्य सुख- शांति पाते, सुरक्षित रहते, आगे बढ़ते और श्रेय 
पाते हैं ।।६-७।। 

अर्थ-यहाँ स्पष्ट है कि नरपशु, नरपिशाच, देवमानव एवं महामानव-अवतार आदि का स्पष्ट अंतर समझने के बाद ऋषिगण भारतीय तत्वदर्शन के उस व्यावहारिक स्वरूप की जानकारी चाहते हैं । जो किसी
भी व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव में परिष्कार कर उसे ऊँचा उठाती, नर से नारायण बनाती है । कोई भीऊर्ध्वगामी चरण तभी उठ पाता है जबकि कर्ता स्वयं को व्रतों से बाँध लेता है । व्रत अर्थात् संकल्प की शक्ति प्रचंड मानी गयी है । वाल्मीकि, अजामिल, आम्रपाली, अंगुलिमाल जैसे पूर्व के नरपिशाच- सा जीवन बिताने वाले व्रत से बँधने पर ही महानता के पथ पर अग्रसर हो सके । सर्वसाधारण को इन व्रतों के अर्थ जानना ही पर्याप्त नहीं है, उन्हें इनका व्यापक अर्थ, माहात्म्य सहित समझाया जाना चाहिए तभी उस दिशा में कुछ 
कदम उठाने की ललक उठती है । 

सत्राध्यक्ष मुनिश्रेष्ठ आश्वलायन समग्र प्रगति, जन-जन के लिए हृदयंगम किये जाने योग्य सूत्रों का रहस्योद्घाटन यहाँ कर रहे हैं । गुण रूपी सम्पदा अपने भीतर ही निहित है, किन्तु जानकारी के अभाव में मनुष्य दर-दर भटकता, ठोकरें खाता और भ्रांतियों का शिकार होता है । मनुष्य का शरीर एक दीपक की भाँति है और चेतना (आत्मा) दीपक में जलती हुई ज्योति की भाँति है । 

मिट्टी के दिए में ध्यान रहा तो जीवन व्यर्थ है । दीपक की ज्योति में ही ध्यान रहना चाहिए । यही धर्म का वास्तविक स्वरूप है । यदि धर्म के व्यावहारिक रूप का मनुष्य को बोध हो सके तो प्रगति की 
असीम संभावनाओं का पथ प्रशस्त हो जाता है । सुखदा मणि और चोर प्राचीनकाल में एक संत थे । धर्म श्रद्धा के कारण सदा प्रसन्न रहते; चेहरे से उल्लास टपकता रहता । चोरों ने समझा उनके पास कोई बड़ी दौलत है, अन्यथा हर घड़ी इतने प्रसन्न रहने का और क्या 
कारण हो सकता है । 

अवसर पाकर चोरों ने उनका अपहरण कर लिया, जंगल में ले गये और बोले-'' हमने सुना है कि आपके पास सुखदा मणि है, इसी से इतने प्रसन्न रहते हैं, उसे हमारे हवाले करो, अन्यथा जान की खैर नहीं । 

संत ने एक-एक करके हर चोर को अलग-अलग बुलाया और कहा-''चोरों के डर से मैंने उसे जमीन में गाड़ दिया है । यहाँ से कुछ ही दूर पर एक स्थान है । अपनी खोपड़ी के नीचे चंद्रमा की छाया में खोदना, मिल जायगी ।'' 

संत पेड़ के नीचे सो गए । चोर अलग- अलग दिशा में चले और जहाँ-तहाँ खोदते फिरे । जरा-सा ही खोद पाते कि छाया बदल जाती और उन्हें जहाँ-तहाँ खुदाई करनी पड़ती । रात भर में सैकड़ों छोटे- बड़े गड़े बन गए; पर कहीं मणि का पता न लगा । 

चोर हताश होकर लौट आये और संत पर गलत बात कहने का आरोप लगाकर झगड़ने लगे । 

संत हँसे, बोले-''मूर्खो ! मेरे कथन का अर्थ समझो । खोपड़ी तले सुखदामणि छिपी है; अर्थात् धार्मिक विचारों के कारण मनुष्य प्रसन्न रह सकता है । तुम भी अपना दृष्टिकोण बदलो और प्रसन्न रहना सीखे ।'' 

चोरों को यथार्थता का बोध हुआ, तो वे अपनी आदतें सुधारकर प्रसन्न रहने की कला सीख गए । यही थी वह सुखदा मणि। 

इस बोध की ही कमी है कि बहुसंख्यक व्यक्ति आत्मिक क्षेत्र में वह प्रगति कर नहीं पाते जो कि स्रष्टा को अभीष्ट है । यदि धर्म के कर्मकांड दर्शन में न उलझकर धारण करने योग्य गुण संपदा रूपी मणि को खोज लिया जाय तो इस क्षेत्र में किया गया पुरुषार्थ फलित भी होता है । अनावश्यक श्रम, अनख में समय काटने में तो अनेक लगे 
दिखाई देते है; पर अंत: संपदा को पहचानकर उसे उपलब्ध करने के प्रयास कहीं दिखाई नहीं पड़ते । 

वर्द्धन्ते चाऽधिगच्छन्ति श्रेय: सर्वविधं सदा। 
धर्मो येषां प्रिय सर्व जगत् स्त्रिह्यति तेषु च ।। ८ ।। 
बलिष्ठों जायतेप्यात्मा कृपा वर्षति च प्रभो: ।
त्यक्तो धर्मस्तु येनामुं त्यजज्येव जना समे  ।। ९ ।। 
स्वीकरोति च धर्म यो नर: स्वागम्यते नरै:। 
धर्म रक्षति यः साक्षाद्रक्षित: स्वयमेव सः  ।। १० ।। 
विकरोति च धर्मं यो विकृति याति स्वयम् । 
महत्त्वस्योपलब्धेर्ये नम: सन्तीच्छुकास्तु ते ।। ११ ।। 
धारणा धर्मजां सर्वे गृह्नन्त्वेव तथैव च ।
धर्मात्मभि: समं स्वं ते कुर्युश्चाचरणं सदा  ।। १२ ।। 

टीका-जिन्हें धर्म-प्रिय है, वे वृद्धि को प्राप्त करते हैं और सब प्रकार के कल्याण को भी । उन्हें समस्त संसार प्यार करता है । उनकी आत्मा बलिष्ठ होती है और ईश्वर का अजस्र अनुग्रह उपलब्ध होता है । इसलिए महानता उपलब्ध करने के इच्छुकों को धर्म-धारणा अपनानी चाहिए और अपना आचरण धर्मात्माओं जैसा 
बनाना चाहिए । जिसने धर्म को छोड़ दिया, उसे सब छोड़ देते हैं । जो धर्म को अपनाता है, उसे सब अपनाते हैं, जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी अपनी रक्षा होती है । जो धर्म को हराने का प्रयास करता हैं, वह स्वयं हार जाता है ।।८- १२।। 

अर्थ-धर्म ही वह आदर्श है जिसे लक्ष्य मानकर महामानव स्वयं सफलता पाते एवं अनेक के लिए दिशा-धारा छोड़ जाते हैं । यदि स्वयं उदारहण प्रस्तुत किया गया तो अन्य अनेक सामान्यजन कैसे प्रेरणा ग्रहण करेंगे ? अनुकरणीय कर्तृत्व धर्म के सूत्रों को जीवन में उतार कर ही बन पड़ता है, आचरण को श्रेष्ठ, उत्कृष्ट आदर्शवादिता का पक्षधर बनाना पड़ता है । धर्म का आचरण महामानवों का स्वयं का जीवन तो धन्य बनाता ही है, मेंहदी पीसने वाले के हाथ स्वत: रंग जाने के समान उन्हें तो लाभान्वित करता ही है, समाज में सत्प्रवृत्तियों से भरा श्रेष्ठता का वातावरण भी बनता है । 

धर्म को जो सही अर्थों में समझते हैं, वे अनावश्यक क्रिया-कृत्यों, परंपरागत मान्यताओं में स्वयं को नहीं उलझाते । धर्म के तत्वदर्शन को जीवन में उतारते हैं। स्वयं को आत्मबल संपन्न बनाकर अन्य 
अनेक के लिए प्रेरणा पुंज बनते हैं । 

धर्म प्रचारक कुमारजीव 

मन की शांति के लिए कुमारजीव ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया । वे अपने योगाभ्यास में लगे रहते थे; पर उन्हें मन की शांति नहीं मिलती थी । 

मेधा और प्रतिभा का उपयोग लोक कल्याण में होना चाहिए-यह सिद्धांत जैसे- जैसे-हृदय में घुसता गया, वैसे ही महापंडित कुमरायण ने मिथिला के दीवान का पद छोड़कर धर्म प्रचार के लिए परिभ्रमण करने का निश्चय किया । बालक कुमारजीव को भी उनने यही शिक्षा दी । कश्मीर प्रवास में कुमरायण का स्वर्गवास हो गया । उनकी पत्नी ने बौद्ध भिक्षुणी की दीक्षा ले ली और बालक कुमारजीव की शिक्षा का प्रबंध-करती हुई उसी क्षेत्र में धर्म प्रचार का कार्य करती रही । 

कुमारजीव जैसे ही समर्थ हुए, वैसे ही चीन चले गए । वहाँ उनने और साथी बनाये और बौद्ध ग्रंथों का चीनी 
भाषा में अनुवाद कर डाला, साथ ही भ्रमण करके प्रचार करने लगे । उनके प्रयत्न से स्थिति ऐसी बन गयी थी, मानो बौद्ध धर्म का केन्द्र भारत न होकर चीन ही हो । राजाओं की लड़ाई में कुमारजीव नजरबंद भी हुए; पर जल्दी ही छोड़ दिए गए । बौद्धमठों का निर्माण, धर्मशास्रों का अनुवाद तथा प्रचारकों की एक बड़ी सेना का गठन करने के साथ- साथ लाखों शिष्य बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। इस सफलता में प्रधानतया कुमारजीव की ही प्रमुख भूमिका थी । इस पुण्यकार्य से कुमारजीव स्वयं तो इतिहास में एक वंद्य पुरुष बन ही गए, अन्य सामान्यजनों के लिए एक प्रकाश स्तंभ के रूप में कीर्ति पा गए, साथ ही उनके समकालीन वसुधावासियों को सही मार्ग पर चलने की एक शाश्वत दिशाधारा मिल गयी । 

पानी के चिराग 

दिल्ली में एक संत थे-हजरत निजामुद्दीन। उनके यहाँ ईश्वर की वंदना वाला संगीत चलता ही रहता था । उन दिनों दिल्ली के बादशाह थे गयासुद्दीन तुगलक । उनने संत को गाना-बजाना बंद करने का हुक्म 
भेजा । संत ने फरमान मानने से इन्कार कर दिया । 

तुगलक ने सीधा दंड तो न दिया; पर उन्हें हैरान करने की ठानी । 

निजामुद्दीन एक बावड़ी बनवा रहे थे । उसमें लगे मजदूरों को उसने किले में काम करने के लिए बुला लिया, ताकि काम रुक जाये । 

मजदूर दिन में किले का काम करते और रात को चुपके से बावड़ी बनाने आ जाते। 

रात को दिये की जरूरत पड़ती ।। तेल के ढेरों दिये जलाते और बावड़ी बनती ।
 
तुगलक ने हुक्म दिया-"हजरत के हाथों कोई तेल न बेचे  '' 

हजरत ने पानी भरकर दिये जलाना शुरू कर दिया और बावड़ी बनती रही । 

इस चमत्कार से तुगलक का सिर नीचा हो गया । बावड़ी पूरी होने तक पानी से चिराग जलते ही रहे ।
 
तब से उस बावड़ी का और दरगाह का नाम चिराग निजामुद्दीन पड़ गया ।
 
धर्म के मार्ग पर चलने वालों को कोई बाधा रोक नहीं सकती । स्वयं परमसत्ता उनके साथ- साथ चलती है । 
धर्म को हराने की चेष्टा करने वाले की अंतत: हार होकर ही रहती है । 

रावण अधर्म के कारण 

पतित के रावण का पराभव हुआ और विभीषण का राज्याभिषेक । राजा विभीषण भगवान राम के समक्ष कर्तव्य पालन संबंधी निर्देश प्राप्त करने की जिज्ञासा से जा खड़े हुए । भगवान् राम बोले-"अपने अग्रज पंडितराज की ज्ञान- विज्ञान परंपरा का रक्षण और विकास 
करना, पर अपना चिंतन क्रम हमेशा धर्म परायण, आदर्शनिष्ठ रखना ।'' 

विभीषण ने जानना चाहा कि रावण से चिंतन के स्तर पर क्या भूलें हुईं? तो करुणानिधि बोले-''उसने ऋषि 
परंपरा का व्यवस्थित चिंतन क्रम छोड़कर लोलुपों का अस्त-व्यस्त क्रम अपनाया । इसलिए अपने ज्ञान के ठोस लाभ समाज को न दे सका । संकीर्ण स्वार्थगत चिंतन ने उसे हीन कर्मों में लगा दिया और दुर्गति करा दी । धर्म की रक्षा करने के स्थान पर उसने अनीति का, अधर्म का ही पोषण किया । यही उसके पतन का कारण बना ।"

राजा कालस्य कारणम् एक राजा जंगल में भटक गया । प्यास से आकुल-व्याकुल होकर वह इधर- उधर घूमने लगा । उसे एक झोपड़ी दिखाई दी । वह वहाँ पहुँचा। वहाँ एक बूढ़ा आदमी बैठा था । पास ही ईख का खेत था । राजा ने पानी माँगा । बूढ़े ने दो-चार ईख तोड़े, कोल्हू में उन्हें पेरा । ईख के रस से एक कटोरा भर गया। राजा ने वह पिया और उसका मन पुलकित हो गया । उसने के से पूछा-'' क्या ईख पर 'कर' भी लगता है ?'' बूढे़ बूढ़े ने कहा- ''नहीं, हमारा राजा दयालु है। वह भला हमसे क्या 'कर' लेगा ?'' राजा ने मन ही मन सोचा-''ऐसी मीठी चीज पर अवश्य कर लगना चाहिए ।'' मन में संकल्प- विकल्प उठने लगे । आखिर 'कर' लगाने का निश्चय कर लिया। राजा ने चलते- चलते बूढ़े से कहा- '' एक प्याला रस और पिलाओ ।'' बूढ़े ने फिर दो-चार ईख तोड़े । उन्हें कोल्हू में पेरा । पर रस से कटोरा नहीं भरा । राजा अचंभे में पड़ गया । उसने पूछा- '' यह क्या? पहले ईख के रस से कटोरा भर गया था, अब नहीं भरा, यह क्यों?'' बूढ़ा दूरदर्शी था । उसने कहा-''लगता है मेरे 
राजा की नीयत बिगड़ गई । अन्यथा ऐसा नहीं होता ।'' राजा मन ही मन पछताने लगा । 

राजा की नीयत का इतना असर होता है तो क्या धर्माध्यक्षों, राजनेताओं, अधिकारियों एवं गण्यमान्य व्यक्तियों 
के आचरण का प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता ? 

कन्फ्यूनियस का आदर्श 

चीन के महामानवों में कन्फ्यूसियस का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है । आरंभ में वे सरकारी मंत्री पद पर थे; पर किसी बात पर सरकार से मतभेद होने के कारण उन्हें वह पद छोड़ना पड़ा । बाद में उनने एक विद्यालय चलाया । उसकी ख्याति दूर- दूर तक फैली और राजकुमार तक पढ़ने आने लगे । चीन के राजा ने उन्हें सहायता देनी चाही और आकर पूछा-''आपको किसी वस्तु की आवश्यकता है क्या? उनने उत्तर दिया- ''पेट को रोटी, पहनने को कपड़ा मिल जाता है । इसके बाद मुझे क्या चाहिए?'' 

वेतन न लेकर भी सरकार को अनेक परामर्श देते रहे । उन्हें एक आदर्श नगर बसाने का काम सौंपा गया, जो उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया । उस नये बसाये हुए नगर की सारे चीन में चर्चा रही। कन्फ्यूसियस ने नीति और सदाचार पर एक ग्रंथ लिखा है, जिसे उन दिनों उस देश में धर्मशास्त्र की तरह पढ़ा जाता था । 

गाँधी जी का धर्म

बात सन् ११३६ की है। गाँधी जी अस्पृश्यता निवारण के लिए देश भर में दौरे कर रहे थे। उड़ीसा के एक कस्बे में गाँधी जी ठहरे थे कि पंडितों का दल उनसे शास्त्रार्थ करने आ गया । कह रहा था शास्त्र में अस्पृश्यता का समर्थन है । 

गाँधी जी ने मंडली को सम्मानपूर्वक बैठाया और कहा-''मैं शास्त्र तो पढ़ा नहीं हूँ, इसलिए आप से हार मान लेता हूँ । पर यह विश्वास करता हूँ कि संसार के सब शाख मिलकर भी मानवी एकता के सिद्धांत को झुठला नहीं सकते । मेरा धर्म तो यही है एवं मैं इस पर अडिग हूँ व जीवन भर रहूँगा ।

उनके अटूट विश्वास को देखकर पंडित मंडली निरुत्तर होकर वापस लौट गई । 

धर्म की परिभाषा किये जाने वाले कार्य के उद्देश्यों पर निर्भर, है, न कि परंपरागत मान्यताओं पर । 

यश्चलेद्धर्ममार्गं च संस्थितोऽप्यत्र भूतले । 
स्वर्गस्थदेवा इव स श्रेष्ठतां यास्यति स्वयम् ।। १३ ।। 
श्रुत्वा ध्यानेन तत्सर्वं विचार्यापि दृढं तत: । 
औत्सुक्यात पुनरेवायं मौद्गल्यायन आह च ।। १४ ।। 

टीका-जो धर्म मार्ग पर चलेगा, वह इस धरती पर रहते हुए भी स्वर्ग में रहने वाले देवताओं की तरह श्रेष्ठ बनेगा । इस बात को सुनकर तथा विचारकर मौद्गल्य अपनी उत्सुकता प्रकटकरते हुए बोले-।। १३ १४ ।। 

मौद्गल्यायन उवाच-

धर्मा अनेके सन्त्यत्र संसारे देव तंत्र च ।
निर्धारणानि भिन्नानि समेषां निर्णय: कथम् ।। १५ ।। 
कर्तव्यश्चैषु किं ग्राह्मं त्याज्यं पुरुषेण च । 
संदेहेऽस्मिन् मतिस्तेन भ्रमतीव निरन्तरम् ।। १६ ।।  

टीका-मौद्गल्यायन ने कहा-हे देव ! संसार में अनेकानेक धर्म हैं । सबके निर्धारणों में भिन्नता है । इनमें से किसे अपनाया जायय, किसे नहीं-इसका किस आधार पर निर्णय किया जाय? इस संदेह में हमारी 
बुद्धि भ्रमित हो रही है ।। १५- १६ ।। 

अर्थ-अपनी स्वार्थ संकीर्णता और वर्ग विशेष के लिए गढ़ी गई मान्यतायें और परंपरायें धर्म के यथार्थ रूप को विकृत बना देती हैं और संप्रदायवाद को जन्म देती हैं । उसे पूर्ण नहीं समझना चाहिए । 

दृष्टिकोण व्यक्तित्व का दर्पण है 

किसी धर्मात्मा ने जंगल में एक सुंदर मकान बनाया और उद्यान लगाया ताकि उधर आने वाले उसमें ठहरे और विश्राम करें । 

समय-समय पर अनेक लोग आते और ठहरते रहे । दरवान हरेक से पूछता- बताइए मालिक ने इसे किन लोगों के लिए बनाया है,।

आने वाले अपनी-अपनी दृष्टि से उसका उद्देश्य बताते रहे । 

चोरों ने कहा-''एकांत में सुस्ताने, हथियार जमा रखने और माल का बँटवारा करने के लिए ।''

व्यभिचारियों ने कहा-''बिना किसी खटके और रोक टोक के स्वेच्छाचारिता बरतने के लिए ।'' 

जुआरियों ने कहा-''जुआ खेलने और लोगों की आँखों से बचे रहने के लिए ।''
 
कलाकारों ने कहा-''एकांत का लाभ लेकर एकाग्रता पूर्वक कला अभ्यास करने के लिए ।'' 

संतों ने कहा-''शांत वातावरण में भजन करने और ब्रह्म लीन होने के लिए ।'' 

धर्म के संदर्भ में भी जब इसी तरह अलग-अलग व्याख्यायें होने लगें, तो उसे संप्रदाय समझना चाहिए । धर्म तो मनुष्य मात्र के लिए एक ही हो सकता है । 

शिक्षा प्रचारक यति परिव्राजक 

बुंदेलखंड के एक साधारण जैन परिवार में जन्मे गणेश प्रसाद वर्णी शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत परिव्राजक जीवन व्यतीत करने लगे । यों उनका समुदाय पूजा−पाठ को ही सब कुछ मानता था पर वर्णी जी ने देश की स्थिति का सूक्ष्म अन्वेषण करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि इन दिनों शिक्षा प्रचार ही सबसे बड़ा धर्म कर्म है । 

उन्होंने सागर में दिगंबर जैन विद्यालय की स्थापना की पर पीछे वे अपना यति स्वरूप यथावत बनाये रहते हुए भी जन साधारण में शिक्षा प्रचार करने लगे । उनके प्रयत्न से कितने ही यति परिव्राजकों ने अध्यापन कार्य संभाला और गाँव-गाँव विद्यालयों की स्थापना करने में जुट गए । 

अंध विश्वासी यति को मोक्ष प्रयासों से कुछ हटकर कामं करते देखकर नास्तिक तक कह बैठते थे पर उनके विवेक ने जो उचित समझा उसी पर जीवन भर डटे रहे। वे कभी भी तथाकथित धर्माचार्यों के आक्षेपों-उपालम्भों से विचलित नहीं हुए । अंतत: उनके प्रयासों को जन प्रशस्ति मिली । लोगों ने धर्म का सही अर्थ समझा। 

अकेले योद्धा 

बुद्ध महात्मा बुद्ध के सामने निजी समस्या कुछ न थी । उन्होंने अपने चारों ओर यज्ञ के नाम पर चल रही हिंसा का, साधन के नाम पर मद्य, माँस, मीन, मुद्रा, मैथुन जैसे अनाचार का बोलवाला देखा 
तो तिलामला गए । पूछा-''यह क्या हो रहा है, क्यों हो रहा ?'' तो उत्तर मिला-'' धर्म का यही शाश्वत रूप है, वेद का आदेश हैं और वेद ईश्वर विनिर्मित हैं ।'' उनने वेद और ईश्वर दोनों को मानने से इन्कार कर दिया । एक ओर वे अकेले, दूसरी ओर मूढ़ता के आवेश में ग्रस्त विशाल जन समुदाय था । लोगों को बदलने के लिए तप शक्ति की आवश्यकता समझी । वे आत्म शोधन का तप करने लगे । एक वट वृक्ष के नीचे उन्हें आत्म बोध हुआ । उस पेड़ को बोधि वृक्ष कहा गया । वही उनका गुरु था । 

बुद्ध ने जन संपर्क साधने और लोक मानस के परिशोधन का निश्चय किया । इसके लिए उन्होंने अपने भक्त जनों को परिव्राजक बनाया और कुछ समय शिक्षण देकर उन्हें प्रव्रज्या पर भेज दिया । सत्प्रयोजनों के लिए साधनों की कमी नहीं रहती उन्हें भी नहीं रही । अनेक ने प्रायश्चित्य किया, अनेक ने पुण्य कमाया । प्रचुर साधन उनके पास जमा हो गए । न केवल भारत की वरन् समूचे एशिया की अनाचारपरक परिस्थितियों का कायाकल्प कर दिया । वे चमत्कारवाद के विरुद्ध थे। सदाचारण, विवेक और संगठन उनका पुण्य प्रयास था । जो उनके संपर्क में आया यही सीखकर गया । वे के देवता थे। 

ऋषिवर का विभिन्न धर्म-मतों, संप्रदायों संबंधी ऊहापोह अपने स्थान पर सही है। यदि धर्म शाश्वत है तो मतों मैं, वैयक्तिक मान्यताओं में इतना अंतर क्यों? यदि सभी संप्रदाय अपने स्थान पर सही हैं, तो फिर सामान्य मनुष्य के लिए ग्रहण करने योग्य सूत्र क्या हो, वे किस मार्ग पर चलें-यह मार्गदर्शन भी अनिवार्य है । भ्रम जंजाल मिटें, स्वरूप स्पष्ट हो तो साधारण व्यक्ति भी विवेक का अवलंबन लेकर व्यष्टि एवं समष्टि का हित साधन कर सकते हैं । 
प्रस्तुत जिज्ञासा इसी कारण उचित भी है, समयानुकूल भी । 
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