प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-8

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श्रेष्ठा: परंम्परा ग्राह्या न च कुप्रचलानि तु ।
स्वीकार्याणि न चाऽनीति: कार्या सह्याऽपि या पुन:॥७८॥
अवाञ्छनीयता नाशं कर्तुं संधर्षशीलता।
तथैव पुण्यदा पुण्यं नीतिन्यायार्जनं यथा ॥७९॥
अनीतिपीडितोद्धारस्तथा श्लाघ्यो यथा च तत् ।
पीडितोद्धारसाहाय्यं कष्टदूरकरं नृणाम् ॥८०॥

टीका-कुप्रचलनों को स्वीकार न किया जाय । मात्र श्रेष्ठ परंपराएँ ही अपनाई जाँय । अनीति न करें और न अनीति सहे । अवांछनीयताओं का विरोध-उन्मूलन करने के लिए संघर्ष करना भी उतना ही बड़ा पुण्य है जितना
कि नीति-न्याय को अर्जित करना । अनीति के उत्पीडितों को बचाना भी उतना ही सराहनीय हैं, जितना कि दुखियों की उदार सहायता करके उन्हें कष्टों से निवृत्ति दिलाना॥७८-८०॥
 
अर्थ-स्वयं अपना विवेक प्रयोग न कर अंध परंपराएँ स्वीकार कर लेना, अनीति सहना एवं ऐसे किसी अभियान से अपना सहयोग दर्शाना भी एक प्रकार से कायरता का एवं अनीति सहयोग का परिचायक है । हर व्यक्ति को समाज में रहना है, तो अवाछनीयता का प्रतिकार भी करना होगा एवं संघर्ष हेतु तत्पर भी होना होगा । सज्जनता पराक्रम के साथ ही शोभा देती है । शौर्यरहित सौम्यता एक प्रकार की कायरता है । जिसमें मन्यु जाग्रत नहीं है, वह मानवी काया में होते हुए भी मनुष्य नहीं है । महामानव इसीलिए न केवल
सत्प्रयोजनों में स्वयं को नियोजित करते हैं, अन्य दुखियों की सहायता करते हैं, वरन् दुष्टों-पीड़ितों से उनकी
रक्षा भी करते हैं । यह बल-पराक्रम ही सच्चा शील है, मानवी गरिमा का द्योतक है।

अछूतोद्धारक नारायण गुरु

दक्षिण भारत में कन्याकुमारी के निकट श्री नारायण गुरु जन्मे । कुछ ही दिन वे जप-तप में लगे कि उस क्षेत्र के अछूतों की दुर्दशा देखकर उनका जी भर आया और उस समुदाय को ऊँचा उठाने के  लिए उन्ही में धुल-मिलकर काम करने लगे। नय्यर, पतवाह, छिया, उलिया, मरिहा आदि कितनी ही जातियाँ ऐसी थी, जिन्हें कोई छूता भी न था और काम पर भी न लेता था । उन्हें संगठित करके कुछ उद्योग चलाने और अपने अधिकारों के लिए अड़ जाने का उन्होंने प्रशिक्षण दिया । अछूतों के लिए उनने एक मंदिर बनवाया, जहाँ वे उपासना भी करते और शिक्षा भी प्राप्त करते ।

स्वामी नारायण गुरु को सवर्णों का कठिन विरोध सहना पड़ा पर वे अपने काम में सुनिश्चित भाव से लगे रहे ।
उन्हें आशाजनक सफलता भी मिली। उनके आश्रम और कार्यक्रम की  प्रशंसा सुनकर महात्मा गाँधी और ऐण्ड्रयूज दर्शनों को गए । अकेला व्यक्ति भी ऊँचे उद्देश्य के लिए कार्यरत रहकर क्या कुछ कर सकता है, इसकी प्रत्यक्ष प्रतिमा थे स्वामी नारायण गुरु ।

इसके अतिरिक्त हरिजनों को खादी उद्योग में लगाने की विशेष व्यवस्था की । जिससे हजारों को आजीविका उपलब्ध होने लगी ।

सीमांत गाँधी-सीमांत प्रांत पर भी तब अँग्रेजो का ही कब्जा था । उन्हें किसी भी सुधारवादी प्रयास में अराजकता की गंध आती थी । उन दिनों कांग्रेस की हवा उस क्षेत्र में पहुँच चुकी थी। खान अब्दुल गफ्फार खाँ खुदाई-खिदमतगार संगठन बनाकर उस क्षेत्र में फैली हुई अभाव व कुरीतियों को दूर करने तथा शिक्षा प्रसार का प्रयत्न कर रहे थे । अंग्रेजों को वह भी सहन न हुआ और अब्दुल गफ्फार खाँ को आए दिन धमकियाँ देने लगे । उन्हें उस समय तक उस क्षेत्र के लोग बादशाह खान कहते थे ।

गांधी, नेहरू के संपर्क में आने के पश्चात् बादशाह खान पूरी तरह कांग्रेस के आंदोलन में कूद पड़े । सीमांत से
हजारों स्वयं सेवक जेल गए । उनने अपना जीवन भी पूर्णतया अहिंसक बना लिया था । निजी जीवन में भी मद्य, माँस का पूरी तरह त्याग कर दिया था । खादी धारण करने लगे थे, सूत कातते थे । उनके अनुयायी उस क्षेत्र में तेजी से बढ़ते गए और बादशाह खान सीमांत गाँधी के नाम से प्रसिद्ध देशभक्त हुए ।

न माना, तो नहीं माना

अग्रेजों के शासन शासनकाल में लाहौर के मिशन हाईस्कूल में नवीं कक्षा में एक विद्यार्थी पढ़ता था । एक
अंग्रेज अध्यापक पढ़ाते-पढ़ाते हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर अनेकानेक तरह के आक्षेप करने लगा, जिनमें यथार्थता का कोई अंश भी न था । एक किशोर बालक को यह सब कुछ सहन न हुआ । वह तुरंत उठ कर खड़ा हो गया । अध्यापक के आक्षेप का विवेकसंगत ढंग से बड़ी विनम्रतापूर्वक विरोध किया । प्रसंगवश ईसाई धर्म की गलत मान्यताओं का खंडन भी करने लगा । धर्मांध अंग्रेज अध्यापक यह सहन न कर सका । अपने
अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए अध्यापक ने किशोर को बेंतों से बेरहमी के साथ पीटा और अपनी गलती स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया । किशोर बालक ने मार सहते हुए भी अनौचित्य के सामने सिर नहीं झुकाया । यही बालक आगे चलकर महात्मा हंसराज के नाम से जाना जाने लगा । जिसने जीवनपर्यंत हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार का कार्य किया और पूरे पंजाब में अनेक आर्य वैदिक महाविद्यालयों की स्थापना कर डाली।

वस्तुत: सच्चा धर्म, सच्ची महानता यही है । औषधि कडुई होती है पर बालक को वह जबरदस्ती न पिलाई जाये तो उसका जीवन ही संकट में पड़ सकता है । सामाजिक व्यवस्था को ऐसे सच्चे धर्मावलंबी ही बचाते हैं।

कौन खरीदेगा?

राजा सर्वमित्र को मदिरा के बिना चैन न था । राजमहल हो या राजदरबार, किसी भी स्थान पर सुरापान करने में उसे संकोच न था । अपने साथ-साथ वह दूसरों को भी पिलाता था । परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनों में राज कार्य ठप्प हो गया। अधिकारी प्रजा को सताने लगे । प्रजा दु:खी रहने लगी । जब राजा ही आचरणहीन हो, तो प्रजा की बात सुने भी कौन?

एक ब्राह्मण से प्रजा का राह दु:ख न देखा गया । उसने राजा की इस आदत को छुड़ाने का संकल्प लिया। एक दिन राजा की सवारी जा रही थी, तो उन्होंने देखा कि राजपथ पर भीड़ लगी हुई है । कारण पूछने पर पता लगा कि कोई व्यक्ति मदिरा बेच रहा है । राजा ने सोचा कि देखें उस व्यक्ति की मदिरा में कौन-सी ऐसी विशेषता है, जिसके कारण इतने व्यक्ति इकट्ठे हो गए है । राजा ने उसके पास अपना रथ रुकाने का आदेश दिया । राजा ने निकट आने पर ब्राह्मण की आवाज सुनी-"जिसे पतन के गर्त में जाना है, वह इस मदिरा को अवश्य ले । इसे पीते ही अपना होश खो बैठोगे, नाली में
मुँह दोगे, कीचड़ मुँह पर लपेटोगे, कुत्ते मुँह में पेशाब करेंगे । इसे पीकर स्त्री अपने पति को पीटेंगी । धनवान् गरीब हो जायेंगे, पैसे-पैसे के लिए दूसरे का मुँह देखेंगे । इसे पीकर अपना काम भूल जाओगे और बौराते फिरोगे ।"

राजा ने ब्राह्मण की बात सुनकर पूछा- "आप तो इसके अवगुण निरंतर बताये जा रहे हे । इस तरह कौन मदिरा
खरीदेगा ।"

ब्राह्मण बोला-"राजन्! जब वस्तु में अवगुण ही हैं, तो मैं गुण कहाँ से बताऊँ । मैं स्पष्टवादी हूँ, जो सच है वहीकहूँगा ।" "पर इस तरह तो तुम्हारी तनिक भी बिक्री न होगी ।" -राजा ने कहा ।

"सामान्य प्रजा नहीं खरीदेगी, पर प्रशासक और अधिकारीगण तो खरीदेंगे, जिससे इसे पीकर वे प्रजा पर और भी अत्याचार कर सकें ।"

पल भर में राजा के सम्मुख अपने राज्य का सारा चित्र स्पष्ट हो गया । वह ब्राह्मण के चरणों पर गिरते हुए
बोला-"महाराज! आपने मुझे पतन के रास्ते से बचा लिया है । आपकी बातें सुनकर मेरी आँखें खुल गयी है । आज से मैं इस पाप की जड़ को छूऊँगा भी नहीं ।"

"वत्स, तुम्हारा कल्याण हो ।"- मुस्कराते हुए ब्राह्मण देवता ने आशीर्वाद दिया । उनका प्रयोग पूरा हो
चुका था ।

जीवन को संकट में डालकर भी अनुचित का साहसपूर्वक विरोध करने वाली संत परंपरा नष्ट हो गई, तो धरती
को भी नष्ट हुआ समझना चाहिए ।

फकीर मरने से नहीं डरते

मैसूर के सुलतान ने एक कीमती तोप बनाई । उस क्षेत्र के एक बड़े फकीर को बुलाकर उनने तोप की सफलता के लिए आशीर्वाद माँगा । फकीर ने स्पष्ट इन्कार कर दिया ।

गुस्से से सुलान ने फकीर को पकड़वाकर तोप में भरकर उड़ा देने का हुक्म दिया । ऐसा ही किया गया । तोप चली, तो फकीर बगल में खड़े हाथी की पीठ पर जा गिरा । इस आश्चर्य को देखकर उसे तोप में फिर भरा गया और उठाया गया । अबकी बार वे एक झोपड़ी पर जा बैठे । तीसरी बार वे एक गाड़ी पर सवार हो गए ।

सुलतान इस आश्चर्य को देखकर चकित हो गए और साधु को बंदगी करके छोड़ दिया ।

अमेरिकी गाँधी डा० किंग

नीग्रो समुदाय को अफ्रीका महाद्वीप से पकड़कर गोरों द्वारा गुलाम बनाने और बेचने का धंधा शताब्दियों तक चला । इस प्रथा के विरुद्ध अमेरिकी उदारमना विचारकों ने आंदोलन भी चलाए और कानून भी बनाए । पर इतने भर से कुछ बात बनी नहीं । स्वार्थपूर्ण कुप्रथाएँ तब तक उखड़ती नहीं, जब तक पीड़ित पक्ष उनके विरुद्ध तनकर खड़ा नहीं होता ।

अमेरिका के डॉ० किंग ऐसे ही प्रभावशाली व्यक्ति हुए, जिनने देश की स्वजाातियों को न केवल संगठित किया, वरन् गाँधी का अनुकरण कर असहयोग-आंदोलन भी चलाया । बसों में नीग्रो लोगों के बैठने पर भेदभाव बरता जाता था । इन लोगों ने बसों में बैठने का बहिष्कार कर दिया, फलत: बसें खाली चलने लगीं और कंपनियों का दिवाला निकलने लगा । फलत: बस कानून में ही नहीं, अन्य सुधार भी हुए ।

गोरों और कालों के बीच विग्रह खड़ा न होने देने के लिए डॉ० किंग ने भरसक प्रयत्न किया, फिर भी कटुता फैली।

उन्होंने अल्पायु में इतने सुधार किए जिनकी सर्वत्र सराहना होती है । उन्हें नोबेल पुरुस्कार भी मिला; किन्तु भगवान ने उन्हें लंबी आयु नहीं दी, तो भी वे अधेड़ होते-होते इतना काम कर गए, जिनकी चर्चा चिरकाल तक की जाती रहेगी ।

उपासना का अर्थ भगवान् के नाम की माला फेरना ही नहीं है, आदर्शों को, नीतियों को जीवन में प्रतिष्ठित रखने
का कार्य ही सच्ची उपासना है ।

आवाज बुलंद रहे

खडाऊँ सदा पैरों तले रहती, फिर भी कदम उठाने पर खट-खट की आवाज करती रहती ।

पहनने वाले ने पूछा-"तुम इतने नीचे स्थान पर हो, फिर भी चुप क्यों नहीं रहती?"

खडाऊँ ने कहा-"परिस्थितियाँ ईश्वर के हाथ में हैं, पर आवाज को बुलंद रखने को तो वह भी नहीं रोक सकता । अपने अधिकार का उपयोग नहीं करुँगा क्या?"

दूसरों की भूल ही नहीं अपनी भूल हो, तो उसे स्वीकार करने का प्रायश्चित भी उच्चकोटि का साहस है । यह पतंग अपनाने वाले भी महान बने है ।

प्रायश्चित का साहस 

गुजरात के रविशंकर महाराज ने अपराधी प्रवृत्तियों के लोगों से उनकी गलती कबूल कराई और प्रायश्चित
कराये । एक अपराधी रात भर सोया नहीं । सबेरे महाराज के पास पहुँचा और कहा-"उसने पडोसी के यहाँ शराब की बोतलें रखवा कर पकड़वा दिया और जेल में हैं।

महाराज ने उसे प्रायश्चित बताया कि जब तक वह छूटकर न आवे, तब तक उसके घर का खर्च तुम उठाओ और बम्बों की देखभाल करो । उसने ऐसा ही किया । जब वह जेल से छूटा तो घनिष्ठ मित्र बन गया ।

ईश्वर का भक्त

अनीति का प्रतिकार करने के साथ-साथ परदु:खकातरता का विकास होना महामानवों का एक विशेष गुण है। 'कुबेर हो या रंक, जब तक परिश्रम से कमाये धन का एक अंश लोकहित में समर्पित नहीं करता, वह अधर्म खाता है।  इतने से अक्षर महर्षि अनमीषि के लिए शास्त्र हो गए। उन्होंने पत्नी सहित यह प्रतिज्ञा की कि वे दीन-दु:खी को भोजन कराकर भोजन ग्रहण करेंगे ।

उन्हें संकल्प निबाहते हुए वर्षो बीत गए । तप परीक्षा के बिना खरा सिद्ध हो गया हो-ऐसा कभी हुआ नहीं। एक
दिन ऐसा आया कि उनके द्वार तक कोई झाँका भी नहीं। दोनों बहुत दु:खी हुए । तभी उन्होंने देखा-वृक्ष के नीचे एक वृद्ध कुष्ठ रोगी पीडा से खडा काँप रहा है । शरीर में घाव हो जाने से वह कराह रहा है । अनमीषि ने आगे बढ़कर कहा-"भोजन तैयार है, ग्रहण कर कृतार्थ करें ।" वृद्ध ने कराहते हुए कहा-"आर्य श्रेष्ठ! मैं आपकी उदारता का अधिकारी नहीं, क्योंकि मैं जाति का चांडाल हूँ । संभव हो तो घर में कुछ रोटियाँ बची हों, उन्हें यहाँ फेंक जायें । उन्हें उठाकर अपना पेट भर लूँगा ।" वृद्ध की यह दशा देखकर अनमीषि की करुणा उमड़ उठी, आँखों से अश्रुधारा बहने लगी । वह बोले-"ऐसा न कहें तात! हम जाति के पुजारी नहीं, जीव मात्र में व्याप्त आत्मा के उपासक है । आपके अंदर जो चेतन है, वही तो परमात्मा है । उसे छोड़कर हम अन्न ग्रहण करने का पाप कैसे कर सकते हैं ।"

वह उसे सादर अपनी कुटिया पर ले गए । स्नान कराकर, नूतन वस्त्र पहनाये, उसे भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन ग्रहण किया ।

जब रात्रि में अनमीषि सोये तो अग्निदेव प्रकट हुए और बोले-"तू ही ईश्वर का सच्चा भक्त है, जो ब्राह्मण,
चांडाल, हाथी व कुत्ते में कोई भेद नहीं करता ।"

रुको मत आगे बढ़ चलो

जब अंदर साहस खोया बैठा रहता है, पराक्रम नहीं जागता, तो सत्प्रेरणा नया जीवन, नया संदेश लेकर
आगे आती है ।

उस दिन लहर बड़ी उदास और निराश बैठी थी । समुद्र उसे आगे बढ़ने व बिखरने के लिए कह रहा था,
किन्तु वह डर रही थी । वह इतने में ही संतुष्ट रहना चाहती थी।

समुद्र ने उसे समझाया-"भद्रे! आगे बढ़ो, मिलन का आनंद जड़ता में नहीं, गति में है ।" लहर अनिश्चितता
की कल्पना से भयभीत हो रही थी ।

समुद्र गंभीर हो गया उसने कहा-" देखती नहीं, मेरे अंदर कितना दर्द है। उस दर्द में हिसा बँटाये बिना तुम कैसे
मेरी प्रियतमा बन सकती हो?" उससे अगली लहर ने समझाया और बोली-"सहेली हमें देखो न, बिछुड़कर ही हम अनंत की ओर बढ़ रहे है । सीमित से असीमित बनकर हमने प्रणय की सरसता को खोया नहीं, बढ़ाया ही तो है ।"

चर्चा बड़ी मधुर थी, सुनकर सूर्य की किरणें भी ठिठक गईं । उन्होंने कहा-"हमें अपने प्रियतम की विशालता
में विचरण करते हुए अधिक उल्लास आता है ।"

प्रसंग पूरा भी न हो पाया था कि महकती गंध भी वहाँ आ पहुँची और वह बोली-"पुष्प की गरिमा को विस्तुत क्षेत्र की ओर अग्रसर करते हुए बिछुड़न का नहीं, पुलकन का अनुभव करती हूँ तुम क्यों रुक बैठने के लिए मचल रही हो ।"

समुद्र इस चर्चा को शांत चित्त सुन रहा था । इतने में इंद्र ने द्वार खटखटाया और कहा-"चलने में विलम्ब न करो दुनियाँ तुम्हारी प्रतीक्षा में कब से बैठी है ।" मेघ का वाहन तैयार था । इंद्र के इशारे पर सुदूर यात्रा पर चल पड़ा । गमन का त्याग करने पर सड़न हाथ लगता है । लहर की आँखें खुलीं उसने चलना प्रारंभ कर दिया ।

पराक्रमश्च सौजन्यं विपरीतमिव द्वयम्।
भिन्नं प्रतीयमानं तदवच्छिन्नं परस्परम्॥६१॥ 
रहस्यं नव्यरूपेण श्रोतृभिस्तच्छुतं समै:।
द्वयोर्महत्वमादातुं प्रयोक्तुं च समं द्वयम् ॥८२॥
सहमतिं स्वां समे व्यक्तां व्यधु: पूर्णतया नरा:।
युगनिर्माणपन्थाश्च दष्टस्तै: सम्मुखे स्फुरन् ॥८३॥
सत्रे विसर्जिते सर्वेऽप्यभिवादनपूर्वकम् ।
मनीषिणः प्रयान्तस्ते सार्थक्येऽस्य समेऽप्यलम् ।
अन्यभुवँश्च सन्तोषं हर्षं प्राप्येव सन्निधिम् ॥८४॥

टीका-सौजन्य और पराक्रम एक दूसरे से भिन्न एवं विपरीत जैसे लगते हैं, पर वे दोनों किस प्रकार परस्पर अविच्छिन्न हैं-इस रहस्य को श्रवणकर्त्ताओ ने नए रूप में समझा है । वे दोनों को समान महत्व देने और साथ-साथ प्रयोग में लाने के लिए पूर्णतया सहमति व्यक्त करने लगे । युग निर्माण का मार्ग उन्हें स्पष्ट रूप से दीखने लगा । सत्र विसर्जित हुआ । अभिवादनपूर्वक विदा लेते हुए सभी मनीषियों को इस सुयोग की सार्थकता पर बड़ा हर्ष और संतोष अनुभव हो रहा था । मानों कोई श्रेष्ठ निधि हाथ लग गई हो ॥८१-८४॥


इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मद्यिद्ययो:, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्रीआवश्वलायन-आरुणि ऋषि सम्वादे "सौजन्य:पराक्रमश्वे", ति
प्रकरणो नाम षष्ठोध्ध्याय: ॥६॥

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