प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-4

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तुलिता मणिमुक्ताभि: शोभना: श्रमसीकरा: ।
लग्नता सिद्धयधिष्ठात्री प्रोक्ता कामदुधा बुधै:॥४९॥
तत्परत्वं तन्मयत्वं सुयोगं यत्र गच्छत: ।
साफल्याप्तौ न सन्देहस्तत्र कश्चिद् भवेन्नृणाम्॥५०॥
कालश्रममनोयोगत्रयाणां यः समन्वय:।
स्त्रोत: सर्वविधानां तत् साफल्यानां मतं स्वत:॥५१॥
रहस्यमेतज्जानन्ति नरा: स्वीकुर्वते च ये ।
इयं भाग्यमहालक्ष्मीश्छायेवैतानुपासते॥५२॥ 
जोवतुं तु कियत्केन नेदं वर्षैस्तु गण्यते ।
परं पौरुष संलग्नश्रममाश्रित्य गण्यताम्॥५३॥
 
टीका-स्वेदकणों की मणि-मुक्ताओं से तुलना की गई है । लगन को सिद्धियों की अधिष्ठात्री कहा गया है । यह कामधेनु है । तत्परता और तन्मयता का जहाँ भी सुयोग बनता है, वहाँ सफलता मिलने में कोई संदेह नहीं रह
जाता है । समय, श्रम और मनोयोग का समन्वय ही समस्त प्रकार की सफलताओं का स्रोत है, जो इस रहस्य को अपनाते हैं, भाग्य लक्ष्मी उन्हें चारों ओर से घेरे रहती है । कौन कितना जिया, इसका मूल्यांकन वर्षों के हिसाब से नहीं, वरन् पुरुषार्थ में लगे श्रम के आधार पर किया जाता है॥४९-५३॥

अर्थ-अकेला श्रम भी निरर्थक है । समय प्रचुर मात्रा में हो पर श्रम का माद्दा न हो, काम के प्रति तन्मयता न हो, तो वह भी व्यर्थ ही जाता है । जहाँ आदमी के पसीने की बूंद गिरती हैं, वह धरती धन्य हो जाती है । सार्थक श्रम भले ही वह सीमित समय में किया है । समृद्धि लाता है, उस व्यक्ति के जीवन को सार्थक बना देता है ।

स्वामी विवेकानंद, आद्य शंकराचार्य एवं संत ज्ञानेश्वर बहुत कम समय जिए, पर जितना कार्य इस
अवधि में वे कर गए, वह इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया । पुरुषार्थ एवं मनोयोग जहाँ हों, वहाँ कम
समय में भी बहुमूल्य विभूतियाँ अर्जित की जा सकती हैं।

स्काटलैंड में जेम्स क्रिस्टन नाम के एक बालक ने १२ वर्ष में ही अरबी, ग्रीक, यहूदी तथा फ्लेमिश सहित विश्व की १२ भाषाएँ सीख ली थीं । २० वर्ष तक वह विज्ञान की सभी भाषाओं का पंडित हो गया था ।

उसके और सामान्य व्यक्ति के आहार और जीवन क्रम में कोई विशेष अंतर नहीं था । फ्रांस में जन्मे लुईस
कार्डक मात्र ९ वर्ष की आयु के थे, तभी अंग्रेजी, फ्रांसीसी, जर्मनी तथा अन्य यूरोपीय भाषाएँ बोल लेते थे ।
इससे भी बड़ा आश्वर्य यह था कि वह ६ माह की आयु में ही बाइबिल पढ़ लेते थे । ६ वर्ष की आयु तक पहुँचने
पर कोई भी प्रोफेसर गणित, इतिहास और भूगोल में इनकी बराबरी नहीं कर पाता था । जो ज्ञान और
बौद्धिक क्षमताएँ इतने अधिक अध्ययन और अभ्यास से विकसित हो पाती हैं और वैज्ञानिक मान्यता के
अनुसार जिन्हें पदार्थ की परिणति होनी चाहिए थीं, वह शारीरिक विकास के अभाव में ही इतने विकास तक
कैसे जा पहुँची ?

ब्लेइस पास्कल ने १२ वर्ष की आयु में ही ध्वनि-शास्त्र पर निबंध प्रस्तुत कर सारे फ्रांस को आश्वर्य में
डाल दिया था । जीन फिलिप बेरोटियर को १४ वर्ष की आयु में ही डाक्टर ऑफ फिलॉसफी की उपाधि मिल
गई थी । उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि दिन याद कराने की देर होती थी उस दिन की व्यक्तिगत,
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाएँ भी टेप की भांति दुहरा सकते थे । जोनी नामक आस्ट्रेलियाई बालक को जब
तीन वर्ष की आयु में विद्यालय में प्रवेश कराया गया तो वह उसी दिन से ८ वीं कक्षा के छात्रों की पुस्तकें पढ़
लेता था । उसे हाईस्कूल में केवल इसलिए प्रवेश नहीं दिया जा सका क्योंकि उस समय उसकी आयु कुल ५
वर्ष थी जबकि निर्धारित आयु १२ वर्ष न्यूनतम थी ।

ये उदाहरण बताते हैं कि आयु कभी प्रतिभा-सफलता में बाधक नहीं होती । यदि लगन हो तो संचित
संस्कारों को जगाकर कम आयु में भी वे उपलब्धियाँ हस्तगत की जा सकती हैं जो बड़ी आयुष्य पाने वाले भी
पाने की लालसा लिए हाथ मलते चले जाते हैं ।

दांते ने नौ वर्ष की आयु में भावपूर्ण कविताएँ लिखी थीं । कांट ने दस वर्ष की आयु में ही अपने दार्शनिक प्रतिपादनों से विद्वानों को चकित कर दिया था । गेटे ने भी दस वर्ष की आयु में एक कहानी गढ़ी थी
और उसे सात भाषाओं में लिख डाला था । बायरन आठ वर्ष की आयु में ही अच्छे कवियों की पंक्ति में बैठने
लगे थे । भारतेंदु हरिभद्र ने भी नौ वर्ष की आयु में ही कविताओं की समस्या पूर्ति करने में ख्याति अर्जित कर
ली थी । महाकवि तुलसीदास का जन्मते ही राम नाम लेना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं अपितु अकाट्य सत्य है ।

पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी- साधन कितने ही न्यून हों, परिस्थितियाँ कितनी ही प्रतिकूल हों, मनस्वी अपने पराक्रम-पुरुषार्थ से, मनोयोग की साधना से असंभव भी संभव कर दिखाते हैं ।

अमेरिका के टामसन बहुत गरीब परिवार में जन्मे थे । रोटी के लाले पड़े रहते थे पर उनमें वे गुण
आरंभ से ही थे, जिनके सहारे गरीबी दूर की जाती है । पैसा आते ही दुर्व्यसनी उसे स्वाहा कर देते है या जिन्हें आगे बढना है वे उन्नतिशीलों की परंपरा अपनाते हैं । टामसन ने वही किया । एक-एक कदम आगे बढे और व्यवसाय क्षेत्र में इतने बड़े कि युवावस्था के अंत तक वे करोड़पति हो गए । उनने अपने साथियों को साथ लिया और उन्हें भी गरीबी से छुडाया ।

बैसाखी के सहारे चलने वाले प्रतिस्पर्द्धाएँ नहीं जीत सकते । इसी तरह संयोगजन्य सफलताओं पर कोई देर तक टिका नहीं रह सकता । प्रगति के स्वनिर्मित मार्ग पर ही मनुष्य देर तक आनंदपूर्वक चलता रह सकता है।

पुरुषाभ के बल पर- दुर्भाग्य ने आदि से अंत तक पीछा न छोड़ा । एक व्यक्ति ने पुरुषार्थ की लड़ाई आजीवन जारी रखी। पारसी समाज में पैदा हुए रुस्तम जी अपंग जैसी स्थिति में थे । बड़े होने पर ऑखों ने भी
जबाव दे दिया । थोड़े और बड़े हुए तो आधे शरीर में लकवा मार गया तो भी वे हिम्मत न हारे ।

अंधों की ब्रेललिपि इन दिनों प्रारंभिक अवस्था में थी और दोषपूर्ण थी । उसे सुधारने और उसके सहारे पढ़ते रहने का उन्होंने प्रयत्न किया । उनके प्रयत्नों की हँसी उड़ाई जाती रही, तो भी वे निराश न हुए । भारत के अंधों का संगठन उन्होंने बनाया । राष्ट्र संघ की सहायता से ब्रेललिपि में भी सुधार कराया । भारत सरकार द्वारा अंधों को उद्योगशील बनाने के प्रयत्नों में सफलता
पाई ।

रुस्तम जी की लगन, हिम्मत और सेवा के उपलक्ष्य में भारत सरकार ने उन्हें पद्यश्री से विभूषित किया । जब
तक जिए, दुर्भाग्य से निरंतर लड़ते रहे ।

आत्म देव की आराधना- जो भी हमारी स्थिति है । उसमें अपनी भूमिका प्रमुख होती है । श्रमिक पत्थर काटते-
काटते थक गया तो सोचने लगा किसी बड़े मालिक का पल पकड़ लें, ताकि अधिक आय मिले और कम परिश्रम करना पडे़ ।

सोचते-सोचते वह पहाड़ पर चढ़ गया और शिखर पर अवस्थित देवी की प्रतिमा से याचना करने लगा । उसने
भी बात सुनी नहीं, तो सोचा बड़े देवता की आराधना करें । बड़ा कौन? तो उसे सूर्य सूझा । सूर्य की आराधना करने लगा । एक दिन बादल आये और सूर्य को अपने
आँचल में छिपा दिया । सोचने लगा- ' सूर्य से बादल बड़ा है । ' उसने अपना इष्ट बदला और बादल की आराधना करने लगा । फिर सोचा बादल तो पहाड़ से टकराते और सिर फोड़ कर वहीं समाप्त हो जाते हैं । इसलिए पहाड़ का भजन क्यों न करें ।

बाद में सूझा कि पहाड़ को तो रोज हमी काटते है । अपने आप को सबसे बड़ा क्यों न मानें ? इसके बाद वह सब को छोड़कर अपने आप को सुधारने लगा और कुछ दिन बाद पुरुषार्थ के सहारे उस क्षेत्र के बडो़ में गिना जाने लगा । यह कार्य लगन और अध्यवसाय के सहारे पूर्ण होता है । भले ही थोड़ा समय लगे ।

जहाज बनकर रहे- उन दिनों नौकायन ही प्रचलित था । बड़े जलयान नहीं बने थे । उनकी कल्पना और योजना राबर्ट फुल्टन ने नैपोलियन के सामने रखी, तो वह आग-बबूला हो गया और एक शब्द कहकर प्रस्तोता को भगा दिया कि मेरे पास ऐसी बकवास सुनने के लिए समय नहीं है ।

डबलिन की रॉयल सोसाइटी के इंजीनियर लारेसकर उन दिनों जाने-माने शिल्पी थे । जलयान के बारे में उनने भी यह मत व्यक्त किया कि इस आधार पर मनोरंजन का खिलौना भर बन सकता है । पर इसके द्वारा अटलांटिक पार करने की बात सर्वथा बचकानी है । सभी जानते है कि इस प्रकार के विरोध और उपहास के बावजूद जलयान बने और पूरी तरह सफल हुए ।

लगन ने बढा़या- विज्ञान के क्षेत्र में अनेकानेक अनुसंधान, आविष्कार करने वाले जान हंटर से किसी शल्य ने पूछा-''आपकी इतनी सफलताओं का कारण क्या है?''
उन्होंने कहा- 'मैं पूरी गहराई से यह विचार करता हूँ कि कल्पना और क्षमता की दृष्टि से वह काम संभव
और सही है क्या ? जो आज की परिस्थितियों में शक्य है, उसी में हाथ डालने की आदत ने मुझे अनेक सफलताएँ दिलाई है । कल्पनाओं की व्यावहारिकता को, कसौटी पर कसने में कभी उपेक्षा नहीं बरती ।

किसी युग में हमारे जातीय जीवन को इन्हीं विशेषताओं ने हमें स्वर्णिम शिखर तक पहुँचाया था । दुनिया के जिन
देशों ने यह परंपराएँ सीखीं, वे आज भी मूर्धन्य हैं । 

मर कर बोले- आक्रमणकारी जर्मनों के विरुद्ध चैक लोग अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए कट-कट कर लड़
रहे थे । तो भी जर्मन की सेना और साधन अधिक होने से उनमें उदासी छाने लगी ।

चैक जनरल हैटमैन लड़ाई में बुरी तरह घायल हुआ। मरने से पूर्व उनने अपने साथियों से कहा, मरने के बाद
मेरी चमड़ी उखाड़ ली जाय और उसका ढोल मड़कर सारी चैक सेना में यह मुनादी करायी जाय कि कोई हिम्मत न हारे, अंतत: जीत चैक सेना की ही होगी ।

वैसा ही किया गया। उस ढोल की आवाज सुनकर सेना में दूना उत्साह उपजा और वे इतनी बहादुरी से लड़े कि जर्मनों के पैर उखड़ गए और जीत चैक सेना की ही हुई।

चमत्कार लगने वाले कार्य वस्तुत: पराक्रम के ही प्रतिफल है । संसार में कोई जादू ऐसा नहीं जो प्रकृति के
सिद्धांतों की अवहेलना करे, मात्र इस पराक्रम के ।

पराक्रमी हनुमान

हनुमान ब्रह्मचारी थे । उनका पराक्रम सर्वविदित है । पर्वते उठाने, समुद्र लाँघने, लंका जलाने जैसे असंभव
कार्यो को संभव कर दिखा सके । लंका दहन के उपरांत वे ताप मिटाने के लिए समुद्र में कूदे, तो पसीने को मछली निगल गई । कथा के अनुसार उस पसीने की शक्ति से मछली ने मकरध्वज को जन्म दिया था ।

अत्येति साहसं सर्वान् पुरूषार्थफलं महत् ।
प्राप्यते मानवै: सवैंरलसा भाग्यवादिन: ॥५४॥
भवन्ति दोषारोपं च नरेष्वन्येषु कुर्वते।
वर्द्धयन्ति नरा: स्वां तु योग्यतां पुरुषार्थिन:॥५५॥
ना चाञ्चल्यं श्रयन्त्येते स्वीकुर्वन्ति च कर्म यत्।
प्रतिज्ञापूर्वक तच्च पूर्ण ते कुर्वते ध्रुवम्॥५६॥
असाफल्यमिह प्रोक्तं लग्नेन मनसा तथा।
पूर्णेनाथ श्रमेणापि न कृतं कर्मनिश्चितम्॥५७॥
समयावधिपर्यन्तमिति तथ्यं विदन्ति ये।
नासाफल्ये निराशास्ते कुर्वतेऽपि तु कर्म तत्॥५८॥
मनोयोगेन ते सर्वे द्वैगुण्येन व्रजन्ति च ।
सिद्धिं सुखानि सर्वाणि करस्थानि च कुर्वते॥५९॥

टीका-साहस बाजी मारता है। पुरुषार्थ का फल सभी को मिलता है। आलसी भाग्य की दुहाई देते और दूसरों पर दोष लगाते रहते हैं । पुरुषार्थी अपनी योग्यता बढ़ाते हैं । चंचलता को फटकने नहीं देते । जिस काम को
हाथ में लेते हैं, उसे प्रतिज्ञापूर्वक करते रहते हैं । असफलता का तात्पर्य है-पूरे मन और पूरे श्रम के साथ पूरे समय तक काम न करना। जो इस तथ्य को जानते हैं, वे असफलता मिलने पर निराश नहीं होते, वरन् दूने मनोयाग के साथ काम करते हैं और सिद्धि को प्राप्त कर समस्त सुखों को अपनी मुट्ठी में कर लेते हैं॥५४-५९॥ 

अर्थ-संसार में आज तक किसी को कुछ अनायास ही नहीं मिल गया । इसलिए किसी को दोष देने, ईर्ष्या करने की अपेक्षा सफलता का पथ पहचानना हर किसी के लिए आवश्यक है ।

तप का प्रतिफल

वृक्ष ने पथिक से कहा-"तुम जितनी बार पत्थर मारोगे, उतनी ही बार उपहार में मैं फल दूँगा । यह तो
मेरा व्रत है । पत्थर का उत्तर पत्थर से देना मुझे नहीं आता, भले ही मुझे क्षत-विक्षत होना पड़े ।" पथिक ने कुढ़ कर रहा-"तुम यों फूलो-फलो और मैं भूखा फिरूँ, क्या यह तुम्हारा और तुम्हारे भगवान का अन्याय नहीं है ।"

वृक्ष ने हँसकर कहा-"ईर्ष्या क्यों करते हो पथिक! मेरे पतझड़ के कष्टों को देखते तो पता चलता कि वह फल
मैंने कितनी तपश्चर्या से प्राप्त किए है। तुम भी वैसा पुरुषार्थ कर देखो ।"

जंगल में जन्मे पौधे तक जब विशाल वृक्ष बन जाते हैं तो कोई कारण नहीं, मनुष्य जैसे विचारशील प्राणिजगत् में जन्म लेकर कोई उन्नति के लिए औरों का मुँह जोये-राह तके । पुरुषार्थी अपनी सफलता का पथ आप प्रशस्त करते हैं ।

अपना आपा ही आपना गुरु

डेनमार्क के प्रख्यात मूर्तिकार योवार्दसन अपने समय के अद्वितीय कलाकार थे।

मित्रमंडली ने एक दिन पूछा-"आपने किस गुरु से यह कला सीखी और किस विद्यालय में प्रवीणता
प्राप्त की?"

उत्तर देते हुए उनने कहा-"आत्मा ही मेरा गुरु है और आत्म सुधार मेरा विद्यालय । मैंने सदा अपनी कृतियों में त्रुटि खोजी और अधिक उपयुक्त करने के लिए जो समझ में आया अविलंब अपनाया । इस अवलंबन को
अपनाकर कोई भी सक्कता के उच्च शिखर तक पहुँच सकता है ।

कर्मयोग अय्यर

स्वामी अय्यर बहुत छोटे थे । उनके पिता अंधे थे । माता चक्की पीसना जैसे भारी काम करके कुछ पैसे
कमा लेती थी । उसी से तीनों का गुजारा होता था । अय्यर थोड़े बड़े हुए और पढ़ने-लिखने लगे तो, एक
रुपया मासिक की नौकरी मिल गई । साथ ही वे पढ़ते भी रहे । बारह वर्ष इसी प्रकार कटे । पढ़ाई ऊँची
चली गई, तो उन्हें ५०० रुपये पुरस्कार मिले । कंगाली दूर हो गई । साथ ही उन्हें तहसील में क्लर्क का काम १०) रुपया मासिक का मिल गया । अय्यर पढ़ते भी रहे और जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें हाईकोर्ट के जज का स्थान मिला । पुरुषार्थ और प्रामाणिकता के अय्यर जी जीवित-जागृत नमूने थे ।

जो औरों से न बन पड़े वह कार्य भी ऐसे पुरुष सिंहों ने संपन्न किए है। एक नहीं इतिहास ऐसे उदाहरणों से पटा
पड़ है ।

साहसी कोलम्बस

जिन दिनों समुद्र की लंबाई-चौड़ाई एशिया के इर्द-गिर्द एक हजार मील तक मानी जाती थी और समुद्र को छोर ही न समझा जाता था । उन दिनों १८ वर्षीय कोलंबस की कल्पना अमेरिका तक जा पहुँची थी । पर अकेला क्या करता । कोई सहायक भी तो चाहिए । पुर्तगालियों ने आश्वासन देकर उसके नक्शे चुरा लिए । ऐसी परेशानियों में बुद्धिमत्तापूर्ण हल निकालते हुए कोलंबस ने अमेरिका ढूँढ़ निकाला और वहाँ तक जा पहुँचने का निश्चय कर लिया । इस निश्चय में खतरे ही खतरे थे फिर भी महत्वाकांक्षी संकल्प रुका नहीं । उसने उस महाद्वीप के आवागमन का रास्ता खोज निकाला जो इससे पूर्व अविज्ञात बना हुआ था । ऐसे साहसी और बुद्धिमान की खोज सदा-सर्वदा सराही जाती रहेगी ।

वीर नेलसन

नार्वे का नेलसन जोखिम भरे काम करने के लिए विख्यात था । पहले उसने मामूली जहाजी नौकरी की, फिर वही उत्तरी ध्रुव के अविज्ञात क्षेत्र का पूरा परिचय प्राप्त करने के लिए कुछ साथियों सहित निकल पड़ा। पग-पग पर मौत का खतरा था, पर उसने वह खोज यात्रा पूरी कर ली । सबसे पहले उसी ने उस क्षेत्र में
नार्वे का झंडा फहराया ।

इसके बाद एक से एक बडी चुनौतियाँ उसके सामने आयी । स्वीडन से नार्वे को स्वतंत्र कराया । साइबेरिया से लाखों बंदियों को मुक्त कराया । रूस में उन दिनों भारी अकाल पड़ा । लाखों लोग भूख से मर रहे थे । उनके लिए संसार भर से भूख का इंतजाम करके प्राण बचाये । उसे नोबल पुरस्कार मिला । वह पैसा उसने अकाल पीड़ितों को दे दिया । ऐसे साहस भरे काम करने के लिए नेलसन का नाम प्रसिद्ध है । ऐसे महापुरुषों का कष्ट और कठिनाइयाँ भी मार्ग अवरुद्ध नहीं कर सकतीं ।

सच्चा अभिनेता

अमेरिकी फिल्मों में कई बार जोखिम भरे दृश्य फिल्माये जाते हैं । उनकी ख्याति और आमदनी ऐसे ही दुस्साहस
के सहारे होती है

वाव मार्गन को एक ऐसा दृश्य सौंपा गया कि वे लट्ठों से भरी मालगाड़ी के डिब्बों पर से कूदें । आमतौर से ऐसे दृश्यों में नकली अभिनेता गिराया जाता है, पर उस दिन कुछ भूल ऐसी हुई कि असली अभिनेता गिर पड़ा और उसके ऊपर लट्ठों का टनों भारी बोझ आ गया । बड़ी कठिनाई से उन्हें निकाला गया । हड्डी-पसली चूर-चूर हो गयी । तीन दिन बाद होश आया । कोई नहीं जानता था कि वे इतनी भयंकर चोट खाकर भी जीवित रह सकेंगे । पर बचाने वाले की महिमा अपार है । वे बच गए । इतना ही नहीं इसके बाद भी जोखिम भरी फिल्मों में काम करते रहे ।

उद्यमी विल्सन

व्यक्तिगत ही नहीं, समाज को उल्लेखनीय अनुदान भी ऐसे ही पराक्रमी दे पाते हैं । कल्पनायें तो
कोई भी करता रह सकता है । ऐसा ही एक उदाहरण ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी विलियम विल्सन का भी है ।

 
ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें टकसाल का अध्यक्ष बनाकर भेजा । पदवी ऊँची काम कम था । इस बचे हुए समय में उनने भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन किया । धर्म शोधों में से अनेक का उनने इतना गहरा अध्ययन किया कि उन्हें अनुवाद करने में सहायता देने वाले संस्कृत के पंडित जहाँ-तहाँ ही मिले ।

उन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया, जो उनके शिष्य मैक्समूलर के नाम से छपा । इस ग्रंथ ने सारे यूरोप में तहलका मचा दिया । जब तक वे जीवित रहे, भारतीय प्राचीन साहित्य का अनुवाद और प्रकाशन कार्य करने में ही लगे रहे । समय खाली रहने पर उसका श्रेष्ठतम उपयोग करने में विल्सन का उदाहरण अनौखा है ।

मुर्गीपालन से अरबपति

संसार के जिन चार बड़े धनिकों की गणना होती है, उनमें एक का नाम रॉक फेलर है । यह उन्होंने कठिन परिश्रम और अध्यवसाय से कमाया । उनकी माँ एक छोटा मुर्गीखाना चलाती थी । तबीयत से माँ के काम में हाथ बँटाने पर एक डालर मासिक अतिरिक्त मजूरी मिलने लगी। एक के बाद एक कदम उठाते हुए तेल-व्यवसाय में अरबपति बने । उनने कितनी ही संस्थाओं के जन्म देने में अरबों डालर खर्च किया । चलती हुई संस्थाओं की सहायता के लिए उनने करोड़ों की राशि दान दी । फिर भी उनकी नम्रता और
मितव्ययिता देखने योग्य थी ।

परमार्थ पथ के इन पराक्रमियों की 'बाटन बारे को लगै ज्यों मेंहदी का रंग' कहावत के अनुसार संसार उच्च
सम्मान और वैभव प्रदान करता है ।

ऐसे बने राष्ट्रपति

नदी पूरे चढाव चढ़ाव पर थी । एक स्त्री के दो बच्चे किनोर से खिसक कर बहने लगे । महिला चिल्ल रही थी, पर निकालने में जान जोखिम में डालने को कोई तैयार न था ।

एक युवक कोट उतारकर धड़ाम से नदी में कूद पड़ा और दोनों बच्चों को पीठ पर लादकर किनारे पर
ले आया ।

इस युवक का नाम जार्ज वाशिंगटन था, जो अपने ऐसे ही गुणों के कारण अमेरिका का राष्ट्रपति बना ।

भगवान ने मनुष्य जीवन को निरीह और दीन-हीन नहीं बनाया, महानता के संस्कार हर व्यक्ति को दिए है।
अंतर सिर्फ इतना ही है कि कौन इस धरोहर का किस तरह उपयोग करता है ।

पूँजी एक करोड़ की

कहते हैं टालस्टाय के पास एक जवान आदमी भीख माँगने आया । उनने कहा-"तुम्हारे पास करोड़ों रुपयों की संपत्ति है, फिर भी भीख माँगते हो ।" भिखारी ने कहा-"मेरे पास कहाँ है?" टाँलस्टाय ने कहा-"तुम अपने दोनों हाथ, दोनों आँखें, दोनों पैर बीस-बीस हजार में बेच सकते हो।" उसके मना करने पर उसने कहा कि एक करोड़ क्मा तुम्हारा शरीर है, उसका उपयोग करके काम क्यों नहीं चलाते?

थोड़ी बहुत बाधिता भी पराक्रम के धनिकों के लिए कोई अवणेध उत्पन्न नहीं कर सके, तो सामान्यों का प्रगति
पथ पर न बढ़ पाना, उन्हीं का कोई अभाव माना जायेगा।

तीन पदक जीते

एक चार वर्षीय लड़की के पैरों में लकवा हो गया । बैसाखी के सहारे वह कठिनाई से चल पाती ।
लड़की ने हिम्मत नहीं छोड़ी, वह चलने से भी बढ़कर दौड़ने का अभ्यास करने लगी । एक समय ऐसा
आया, कि वह ओलंपिक खेलों की दौड़ में शामिल हुई और तीन पदक जीते ।

इस लगनशील लड़की का नाम था-गोल्डीन रूलाफ । वह अमेरिका के टेनेसी प्रांत की रहने वाली थी ।

अंधे टंकक

श्री लाल अडवानी की आँखें बचपन से ही चली गई थीं, पर उनका साहस न गया । ब्रेललिपि के सहारे एम०ए० किया । विदेशों में कई अंध सम्मेलनों में भाग लेने गए । कई भाषाओं की उन्होंने अंध लिपि बनाई । समाज कल्याण विभाग के वे उच्च अधिकारी बने । टाइप राइटर के प्रयोगों में उनकी ख्याति सामान्य टाइपिस्टों से कहीं अधिक है ।

अंधापन बाधक नहीं

सुबोधराय का जन्म पक्षिम बंगाल में हुआ । ७ वर्ष की आयु में ही एक दिन लेटे-लेटे उनकी नेत्र ज्योति चली गई । उनने निश्चय किया कि ज्ञान-चक्षुओं का उपयोग करेंगे । अंध विद्यालय में भर्ती हुए और एक के बाद दूसरा क्लास पास करते हुए एम०ए० प्रथम श्रेणी में पास कर
लिया । छात्रवृत्ति मिली, तो इंग्लैंड, अमेरिका पढ़ने चले गए । उनकी कुशाग्र बुद्धि देखकर एक बंगाली विदुषी ने उनसे विवाह कर लिया । डा० सुबोधराय ने पी०एच-डी० करने के उपरांत अपना जीवन अंधों के विद्यालय बनाने तथा उनके कल्याण की संस्थाएँ बनाने में लगाया ।

एक विश्वविख्यात अँग्रेज उपन्यासकार की बचपन में एक टाँग टूट गई । लोग उसकी दयनीय स्थिति के लिए
दुर्भाग्य को कोसते और भविष्य को अंधकारमय बताते ।

अपंग से विश्वविख्यात साहित्यकार

एच०जी० वेल्स ने किसी की बात पर ध्यान न दिया और जैसी भी स्थिति थी, उसी में आगे बढ़ने का उपाय खोजता रहा । साहित्यकार बनने का उसका स्वप्न पूरा हुआ । उसकी कृतियों की गणना विश्व के उत्कृष्ट साहित्य में होती हैं। क्या कोई कल्पना कर सकता था कि यूरोपिया जैसे विषय पर विशद् साहित्य रचने का कार्य एक ऐसे व्यक्ति द्वारा हो सकता है, जिसे परिस्थितियाँ हमेशा प्रतिकूल मिली हों?

वस्तुत: दुर्भाग्य-सौभाग्य सभी पुरुषार्थ की ही परिणति है । यदि पुरुषार्थ के प्रति विरक्ति हो जाय, मनोबल गिर
जाये, तो भवितव्यता कुछ की कुछ हो जाती है ।

आशीर्वाद नहीं पराक्रम प्रधान

दो राजाओं में युद्ध ठना । दोनों ही एक संत के शिष्य थे और एक देवता के पुजारी । दोनों ही विजय का आशीर्वाद पाने आगे-पीछे पहुँचे।

एक राजा को संत ने देवता से पूछकर उत्तर दिया-"तेरी जीत होगी ।" वह निश्चिंत होकर तैयारियों को छोड़ बैठा।

दूसरा राजा पहुँचा और आशीर्वाद माँगा, तो पुजारी ने कहा-"आपका जीतना कठिन है ।"

दूसरे राजा ने जोर-शोर से तैयारी शुरू कर दी और कहा-"जब मरना ही है तो शान से मरेंगे और दुनिया को
दिखा देंगे कि लड़ने का जौहर कैसा होता है ।"

युद्ध ठना और पुजारी के कथन के विपरीत परिणाम निकला । जिसे जीतने की आशा दिलाई गयी थी, वह हारा और जिसे हारने का भय दिलाया गया था वह जीता।

युद्ध समास होने पर दोनों पक्ष अपने गुरु को उलाहना देने गए । उनने गंभीर मुद्रा में कहा-"देवता और
आशीर्वाद से पराक्रम अधिक समर्थ है।"

दो आलसी दो अभागे 

सांसारिक रोग-शोक और बंधन भी आलसी-अकर्मण्यों के लिए होते हैं । ऐसे लोग तो निंदा और तिरस्कार के पात्र ही होते है और वही उन्हें मिलता भी है ।

दो आलसी थे । एक बगीचे में पड़े रहते थे । दूसरों से सहायता माँगने की ताक में रहते थे। एक दिन एक घुड़सवार उधर से निकला । पुकारा- "भाई, जरा ठहरना । मेरा एक जरूरी काम करते जाओ ।" सवार रुका, पास आया और पूछा-"क्या काम है?'' बोला-"पेड़ पर से गिरा हुआ आम छाती पर पड़ा है । इसे मेरे मुँह में निचोड़ दो ।" इस पर सवार बहुत बिगड़ा और इतने आलसीपन पर नाराज होकर दो लात जमायी ।

पास में ही एक और बड़ा आलसी पड़ा था । उसने कहा-"भाई साहब, दो लातें मेरे बदले की भी लगा दें । यह बड़ा आलसी है । यह मेरे एक छोटे से काम में बुलाने पर भी नहीं आया ।"

सवार ने पूछा-"वह काम मुझे भी तो बताइये, मैं कर दूँगा ।"

उसने कहा-"कल की बात है एक कुत्ता मेरा मुँह चाट रहा था । मैं इसे पुकारता रहा कि कुत्ते को भगा जाओ,
पर यह आया ही नहीं और कुत्ता जब गया, तब चाटने के बाद मेरे मुँह पर पेशाब भी कर गया ।"

सवार ने उसकी भी पिटाई की और उनके आलसीपन को गाली देता हुआ चला गया ।

अपना काम आप कर सकने वाले भी, छोटे-मोटे कार्यों के लिए ईश्वर-याचना करते है । उनकी सहायता तो दूर;
उल्टे गाली खानी और पिटाई सहनी पड़ती है ।
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