प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-4

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विवेकिन: परं ये तु लध्वीं हानि विलोक्य ते।
हानिमादिसौद्भुतां स्वीकृत्यापि प्रयोजने ।। ३५ ।।
शोभने लग्नचित्ताश्च मोदन्ते परिणामत: ।
व्यवसायरता मल्ला कृषका वा यथा च ते ।। ३६ ।।
विद्यार्थिनस्तपोवेषा मालाकारा अथापि च ।
एतेषां धैर्यमेवैतान् कुरुते लक्ष्यगान् सदा ।। ३७ ।।

टीका-जो विवेकवान् हैं, वे तुरंत ही छोटी हानि को देखकर कृषक, माली, विद्यार्थी, व्यवसायी, पहलवान की तरह आरंभिक घाटा एवं कष्ट सहकर भी सत्य्रयोजनों में लगे रहते हैं और अंत में उस प्रयास के
सत्परिणाम का आनंद लेते हैं । इनका धैर्य ही इन्हें लक्ष्य तक पहुँचाता है॥३५-३७॥

अर्थ-विवेक का लक्षण है-तत्काल के लाभ के आकर्षण अथवा प्रारंभिक कष्ट के भय से श्रेष्ठतम उपलब्धियों की ओर बढ़ने से रुके नहीं । इसके लिए दूरदर्शिता के साथ सुनियोजन की भी आवश्यकता पड़ती है । कृषक, माली, विद्यार्थी, व्यवसायी और पहलवान आदि इसी कोटि के साधक होते हैं । कृषक भूखा होने पर भी पास में रखे हुए बीज बोने के अन्न को खाने के आकर्षण से बचा रहता है । बीज को मिट्टी
में डालते समय प्रत्यश हानि दिखती है, श्रम भी बहुत पड़ता है, पर फसल के लिए वह यह सब स्वीकार करता है, तभी फसल पाता है । माली कृषक की तरह सर्दी-गर्मी भूलकर पौधों को लगाता और पालता-पोषता है । अपने ही लगाये पौधों को एक स्थान से उखाड़ना, दूसरी जगह लगाना बेकार का श्रम-सा दीखता है । अपने लगाये-पोषे पौधों को कैंची से काटना बेदर्दी का काम दीखता है, परंतु बगीचे की सुंदरता, पौधों की सुसज्जा इसी से उभरती है ।

विद्यार्थी भर के काम-काज छोड़ता है, समय-बेसमय जागता और अध्यापक की कड़ाई सहन करता है । जिन पैसों से अच्छा खाना-कपड़ा पा सकता था, वह पुस्तक-कापियों आदि में खर्च करता है । यह सब प्रत्यक्ष घाटा और परेशानी जैसे क्रम दिखते हैं परंतु इन्हीं के आधार पर वह सुसभ्य नागरिक बनता और समाज का ऋण चुकाता है ।

व्यवसायी अपनी पूँजी व्यवसाय में फँसा देता है, जिसमें घाटे का भी भय होता है । स्वयं कठिनाई से गुजारा करके भी व्यवसाय में पूँजी बढ़ाता है और इसी प्रत्यक्ष घाटे से जीवन भर मुनाफा कमाता है ।

पहलवान, जिस संमय लोग आराम करते हैं, वह पसीना बहाता है, संयम बरतता है। खुराक और व्यायाम पर ढेरों साधन और समय खर्च करता है । उस्ताद की रगड़ और घिस्से खाता है । इन
परेशानियों के बीच से शक्तिशाली रोबीला व्यक्तित्व अजेय होने पर यश पाता है ।

विवेकी महापुरुष भी श्रेय साधना में प्रारंभिक कष्ट-परेशानियाँ सहज ही स्वीकार कर लेते हैं ।

न सिंहासन मिला, न फाँसी 

एक भविष्य वक्ता थे । लोगों को उनकी नियति बताते, साथ ही कर्म द्वारा उसमें घट-बढ़ होने की संभावना से भी अवगत करते ।

एक दिन दो मित्र उनके पास आयें । भविष्य पूछने लगे । उनने एक को एक महीने बाद फाँसी होने तथा दूसरे को राज्य सिंहासन मिलने की भवितव्यता बताई ।

जिसे राज सिंहासन मिलना था, वह अहंकार में डूबा और मनमाने आचरण करने लगा । इस अवधि में कुकर्मों की अति कर दी । एक महीना होने को आया, तो सड़क पर रुपयों की एक थैली पड़ी मिली । उसे उसी दिन सुरा-सुंदरी के घर पहुँचा दिया ।

जिसे फाँसी लगनी थी उसने शेष थोड़ी-सी अवधि को दिन-रात सत्कर्मों में निरत रहने के लिए लगा दिया । पुण्य-परमार्थ जो संभव थे, उसमें कमी न रहने दी । महीना पूरा होने को आया तो पैर में एक काँटा चुभा और थोड़े दिन कष्ट देकर अच्छा हो गया ।

महीना निकल गया, पर न एक को फाँसी लगी और न दूसरे को सिंहासन मिला, तो वे भविष्य वक्ता के पास पहुँचे और कथन मिथ्या हो जाने का कारण पूछा ।

उत्तर में उनने कहा-''भवितव्यता को कर्मों से हल्का- भारी भी किया जा सकता है । फाँसी, काँटा लगने जितनी हल्की हो गई और सिंहासन हल्का होकर रुपयों की थैली जितना छोटा रह गया । कष्ट साध्य सेवा-भावना ने फाँसी का कष्ट घंटा दिया और मनमानी उद्दंडता ने राज्य सिंहासन में कमी कर दी । जो शेष रह गया वही मिला ।''

नरक के भय से कर्तव्य न छोड़ा 

मालवीय जी उन दिनों अछूतोद्धार के काम में लगे थे । सहयोग देने के लिए उन्होंने विद्वान पंडितों की एक सभा बुलाई। पुराणखंडी पंडित सहमत न हुए और कहने लगे इससे तो नरक
जाना पड़ेगा । मालवीय जी ने गंभीरतापूर्वक कहा-''आज की सामाजिक और राष्ट्रीय समस्यायें सुलझती हैं तो बाद में भी हर्ज नहीं है ।'' नरक का भय अथवा रूढिवादियों के विरोध से भयभीत न होकर दूरदर्शी निर्णय लेने की प्रवृत्ति ने ही उन्हें 'महामना' बनाया ।

जहरीले फलों से बचे 

रेगिस्तान में एक काफिला जा रहा था । शाम होते-होते एक स्थान पर कुछ वृक्ष दीखे, वहीं पड़ाव करने का निश्चय किया गया । स्थान पर पहुँचने पर लोगों ने देखा कि एक पेड़ पर बहुत से अच्छे पके फल लगे हैं । सभी दौड़ पड़े खाने की लालसा से । तभी सरदार ने रोक दिया, उसने कहा-''कार्य करने से पूर्व विवेक का उपयोग करना चाहिए । यदि यह फल उपयोगी होते तो पहले वाले काफिले ही इन्हें समाप्त कर देते । अनायास मिली वस्तु की उपयोगिता-अनुपयोगिता पर विचार कर लेना चाहिए । पहले फलों की परीक्षा कर लें ।'' परीक्षण से ज्ञात हुआ कि फल जहरीले थे ।

तत्काल खाने पर येक लगाने तथा विवेकपूर्ण निर्णय, धैर्यपूर्ण परीक्षण ने उन्हें अकाल मृत्यु से बचा दिया ।

कष्ट सहिष्णु डॉ० नाग 

डॉ नाग उच्च कोटि के चिकित्सक थे, साथ ही गांधी जी के आदोलन में पूरे सर्वोदयी बन गए थे। उन्हें कलकत्ता भेजा जाना था। टिकट के ८) रु० उनके पास थे ।

स्टेशन पर एक दरिद्र महिला अपने बच्चों समेत भूखी और बिना कपड़ों के बैठी थी। उसकी याचना पर किसी ने ध्यान न दिया। नाग बाबू ने ८) रु० उस महिला को दे दिए और कलकत्ते के लिए पैदल चल
दिए । २८ दिन पैदल चलते हुए कलकत्ता पहुँचे । खाने के लिए स्टेशनों पर कुली का काम करते हुए रोटी के लायक पैसे कमा लेते । उन्होन रास्ते में पता न चलने दिया कि न यह इतने बड़े डॉक्टर है । पैसा किसी से माँगा भी नहीं ।

नेपोलियन की साधना 

नैपोलियन को सैनिक बनने की लगन थी। वह विद्यार्थी जीवन में अपना अच्छा खाना
सिपाहियों को देकर उनका खाना स्वयं प्रसन्नतापूर्वक खाने का अभ्यास करता था। अन्य विद्यार्थी परस्पर महिलाओं की बीच मौज-शौक में समय बिताते थे, वह उस समय को कठोर श्रम और गहन अध्ययन में लगाता था । इसी दूरदर्शितापूर्ण साधना ने उसे विश्व का अद्वितीय योद्धा बना दिया।

ठक्कर बापा की विवेकशीलता 

अमृतलाल ठक्कर गुजरात के भाव नगर में जन्मे । पढ़-लिखकर इंजीनियर हो गए। बंबई करना पड़ता था उनकी बडे़ पद पर नौकरी लग गयी। पर जिन हरिजन मुहल्लों मे उन्हें काम करना पड़ता था उनकी दुर्दशा सुधारने के लिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी और आजीवन उसी काम में लगे रहे। गाँधी जी ने उन्हें हरिजन संस्था का प्रधान बनाया। वे दफ्तर में बैठकर काम करने पर विश्वास नहीं करते थे वरन् घर-घर जाकर जन-जन से मिलने की कार्य पद्धति अपनाते थे । गाँधी जी ने एक बार कहा था-'मेरे लिए संभव होता तो मैं ठक्कर बापा की तरह काम करता । यदि इंजीनियर की नौकरी का आकर्षण अमृत लाल ने न छोड़ा होता तो वे उस स्थिति तक न पहुँच पाते जिसमें वे वंदनीय महामानव बन गए ।

अदूरदर्शिनो जाले स्पशित्वा लोभसंगता: । 
विहगानां च मत्स्यानां गतिं गच्छन्ति मानवा: ।। ३८ ।।
ते स्मरन्ति न लोभेन जायमानां सुदुर्गतिम् ।
शार्करेष्वप्सु गच्छन्त्या मक्षिकाया अपीदृशी ।। ३९ ।।
दुर्गतिर्जायते यस्मादुचित नुचितस्थितिम् ।
सत्याऽसत्य विविक्तिं च विवेक: कुरुते स्वयम् ।। ४० ।।
भिन्नाभ्यस्ता जना अत्र प्रवाहे वहदेव तत् ।
असत्यं सत्यरूपेण गृह्मन्ति भ्रममोहिता: ।। ४१ ।।
स्वंय तिष्ठन्ति तेठन्याश्च तथैवोपदिशन्त्यपि ।
बहव: किं नरा: कार्यं कुर्वते चिन्तयन्ति किम् ।। ४२ ।।

टीका-अदूरदर्शी जाल में फँसने वाली मछली-चिड़िया की तरह प्रलोभन पर आतुर होकर यह भूल जाते हैं कि अंधा लालच क्या हानि करता है? चासनी पर टूट पढ़ने वाली मक्सी की भी ऐसी ही दुर्गति होती है । विवेक ही उचितानुचित का, सत्यासत्य का निर्णय कर पाता है, अन्यथा अभ्यस्त प्रवाह में बहने वाले तो
असत्य को ही सत्य मान लेते हैं । अधिकांश लोग क्या करते हैं और क्या सोचते हैं, इसी भ्रम में मोहित वे स्वयं
भी भ्रमित हो जाते हैं और दूसरों को भी भ्रमित करते हैं ।। ३८-४२ ।।

अर्थ- मनुष्य के लिए बिना विवेक की शरण लिए यह निर्णय लेना कठिन हो जाता है कि कौन सौ रास्ता अनुकरणीय है। दैनिक जीवन में जो भी घटनाक्रम देखने में आते हैं, उनमें अभ्यस्त ढर्रा ही
दृष्टिगोचर होता है । यदा-कदा अपवाद रूप में कहीं कोई औचित्य के रूप में वरण करने योग्य प्रसंग होता भी है तो विवेक-बुद्धि के अभाव में उसे पहचान पाने में सामान्य मबुथ्य असमर्थ ही रहते हैं। यह तथ्य मोटे तौर से अधिकांश जन मानस पर वह लागू होता देखा जा सकता है ।

      ढर्रे के चिंतन के कारण ही मनुष्य एक प्रकार के खसम्मोहन के शिकार देखे जाते हैं, जिसमें जो कुछ भीं अपने आस-पास धट रहा है, उसमें काट-छाँट किए बिना, हंस की तरह नीर-क्षीर विवेक अपनाए बिना भेड़ चाल अपनाना उन्हें सरल, सुविधाजनक प्रतीत होता हैं । ढर्रे को तोड़ना, मछली के धारा को
चीरकर उल्टा चल देने के समान है । ऐसा साहस बहुधा देखने में नहीं आता ।

ऊँट एवं आदमी 

ऊँटों का एक बड़ा काफिला सौदागरी माल लाद कर सफर पर निकला । मालिकों ने रात बिताने के लिए एक सराय खोजी । मालिकों को चारपाइयाँ मिल गई। पर ऊँटों को तो जमीन पर ही आदमी सुस्ताना था ।

आदत के मुताबिक ऊँटों की रस्सी बाँधने के लिए खूँटियाँ गाढी गई । जो बँध गए वह चैन से सुस्ताने लगे । एक खूँटी कम पड़ रही थी । ऊँट कैसे बाँधा जाय । इसके बिना वह बैठने तक को तैयार नहीं हो रहा था । सराय मालिक समझदार था। उसने सलाह दी-झूठ-मूठ जमीन में खूँटी गाढी और झूठ-मूठ ही उससे रस्सी
बाँध दो । ऐसा ही किया गया । तरकीब काम दे गई । ऊँट बैठ गया और सुस्ताने लगा । अब सबेरा होते-होते वही
समस्या आई । खूँटी उखाड़ने पर और सब ऊँट तो उठ बैठे पर वह उठने को राजी न होता था । सराय मालिक ने
सलाह दी कि झूठ-मूठ खूँटी उखाड़ी और रस्सी हिलाकर उठाओ । ऊँठ उठ बैठा और काफिले के साथ चलने लगा ।

काफिले में एक बुजुर्ग थे । उनने ज्ञान चर्चा करते हुए साथियों से कहा-'' आदमियों की आदत भी इस ऊँट
जैसी ही हैं । वे भी ढर्रे के आदी हैं । उन्हें झूठ भी सच और अच्छा लगता है । सच को जानने और समझने की कोशिश ही नहीं करते इसी कारण जो कुछ भी सरल, सुगम व अभ्यास में आ गया है, वह स्वभाव से छूटता नहीं ।''

अविवेकी मानव 

विष्णु भगवान ने अपनी सर्वोत्तम कृति पृथ्वी निवासी मनुष्यों का हाल-चाल देखने की इच्छा प्रकट की । लक्ष्मी जी ने मना किया और कहा मनुष्य बड़े धूर्त हो गए हैं। यह समाचार मुझे नारद से मिल
चुका है ।

लक्ष्मी जी के मना करने पर भी जब विष्णु भगवान पृथ्वी पर जाने लगे, तो लक्ष्मी ने कहा-''मनुष्य धूर्त न निकले तो ही लौट कर, आना, नहीं तो उन्हीं के बीच रहना । विष्णु तुनक कर चल दिए ।''

धरती निवासी मनुष्यों को जब विष्णु के आगमन का समाचार मिला, तो वे ठट्ठ के ठट्ठ जमा हो गए । विष्णु द्वारा पूछे गए धर्म-कर्म के पालन का प्रश्न उपेक्षा में डालकर उनसे मनोकामना पूर्ति का आग्रह करने लगे ।

विष्णु को उनकी लोभ-लिप्सा पर क्रोध आया । वे उठकर बद्रीनाथ पर्वत पर जा छिपे आगमन का समाचार मिला तो लोग हजारों की संख्या में वहाँ भी जा पहुँचे । चर्चा चली । यहाँ भी पिछले स्थान की पुनरावृत्ति हुई । लोगों ने विविध मनोकामनाओं की पूर्ति का आग्रह किया ।

विष्णु दुःखी होकर वहाँ से भी चल पड़े और समुद्र के बीच बसी द्वारिका में आसन जमाया । लोगों ने उन्हें वहाँ भी खोज लिया और वही कामनापूर्ति
के लिए पहले जैसी हठ ठानी।

विष्णु अदृश्य हो गए । पर लज्जावश लक्ष्मी जी के पास न गए । असमंजस में पड़े विष्णु से नारद ने कारण
पूछा, तो विष्णु ने अपनी पीड़ा कह सुनायी-''यह लोग कर्तव्य की उपेक्षा करते हैं और लालच की रट लगाये हैं । कोई ऐसा स्थान बताओ जहाँ मैं धरती पर शांतिपूर्वक रह सकूँ ।''

नारद ने कान में कहा-''आप मनुष्यों के हृदय में छिप जाइये । वे बहिर्मुखी हैं । बाहर ही आपको ढूँढे़गे । भीतर दृष्टि ही नहीं जायेगी । ढर्रे की चाल चलने वाले आप तक पहुँचेंगे ही नहीं तथा आत्मदर्शी विवेकशीलों को पाने में कठिनाई भी नहीं होगी ।''

तब से भगवान मनुष्य के हृदय में रहते हैं। लोग इन्हें बाहर ढूँढ़ते फिरते हैं, लक्ष्मी जी का सहारा लेकर वे उन्हें ढूँढ़ते भी हैं तो इनके ये प्रयास निष्फल ही रहते हैं । अंदर झाँकने की फुर्सत किसे है?

सत्य और असत्य का वरण 

श्रद्धा और प्रतिष्ठा ब्रह्मा जौ की दो पुत्रियाँ समय पाकर विवाह योग्य हुईं । ब्रह्मा जी ने उनके लिए सत्य और असत्य नामक दो वर ढूँढे़ । एक दिन शुभ घड़ी में पसंद के लिए वर श्रद्धा और प्रतिष्ठा को दिखाए गए। सत्य परिश्रमी और ईमानदार था, किन्तु निर्धन था । देखने में उतना सुंदर भी
नहीं, उसे देखते ही प्रतिष्ठा ने अपनी आँखे फेर लीं । असत्य आलसी था और बेईमान तो भी सम्पन्न, सुंदर, प्रतिष्ठा ने वरमाला उसी के गले में डाल दी । श्रद्धा ने सत्य को देखा और उसे अपना पति बना लिया।

प्रतिष्ठा विवाह के बाद से ही अशांत और दु:खी रहती है । किन्तु सत्य को पाकर श्रद्धा निहाल हो गई । वरण करते समय की भूल और विचारशीलता अपना-अपना प्रभाव जीवन भर दिखाती रहती हैं ।

सम्पदा त्यागी लोकसेवा अपनायी 


एक उदारमना व्यक्ति ने अपनी सम्पदा परमार्थ प्रयोजनों के लिए दान कर दी और लोक सेवा के कार्यों में निरत रहने लगा ।
उसकी सर्वत्र प्रशंसा होने लगी । इस परिवर्तन के लिए लोग उसकी भूरि-भूरि सराहना करते और बधाई देने अत्यै ।

उत्तर में उदार व्यक्ति एक प्रश्न करते, आपके झोले में कंकड़-पत्थर भरे है और अनायास कोई बहुमूल्य वस्तु मिले, तो उन पत्थरों को फेंक कर मूल्यवान वस्तु उसमें भरेंगे या नहीं? लोग उत्तर में सिर हिला देते ।

उदारमना समझते हैं मैंने कोई त्याग नहीं किया, मात्र विवेकशीलता का, चयन की दूरदर्शिता का परिचय दिया है । जो व्यर्थ ही बटोर रखा था, वह बोझ बढ़ाता और अनर्थ सिखाता था । अब उस जंजाल को फेंक देने पर मन: स्थिति परमार्थ करने जैसी बन गयी और वे कार्य हो सके जिनकी प्रशंसा आप सब करते हैं और मुझे संतोष पाने तथा भविष्य उज्ज्वल बनाने का अवसर मिला है ।

आधारमिममश्रित्य सत्याऽसत्यविनिर्णय: ।
भवितुं युज्यते नात्र नृगरिम्णोऽनुकूलगम् ।। ४३ ।।
किमिहास्ति समावेश आदर्शित्वस्य कुत्र सः।
सत्यस्योत्कष्टतायाश्च त्वसत्यास्ति विवेचनम् ।। ४४ ।।
एतदाश्रित्य कर्तव्यं भवतीह परीक्ष्यताम् ।
तर्कप्रमाणशाणे तदौचित्यं हेम नान्यथा ।। ४५ ।।

टीका-सत्य-असत्य का निर्णय इस आधार पर करना चाहिए कि मानवी गरिमा के अनुरूप क्या है? आदर्शवादिता का समावेश किसमें है? सत्यासत्य की विवेचना इसी उकृष्टता के आधार पर होनी
चाहिए । तर्क और प्रमाण की ऐसी कसौटी बनानी चाहिए, जिससे सत्य रूपी स्वर्ण की सही परीक्षा हो सकना संभव हो ।। ४३ -४५ ।।

अर्थ-पिछले प्रतिपादनों में प्रचलित ढर्रे में न बहने की सलाह दी गयी थी । सत्याजुयायी जन-प्रवाह की नहीं, मानवीय गरिमा और आदर्शवादिता के पदा में तर्क-तथ्य की कसौटी की प्रयोग करते हैं। सत्य की ही नहीं, सत्य पथ के पथिक की परीक्षा भी इसी कसौटी पर होती है । जन-प्रवाह के वेग में असुविधाओं
और यश के आकर्षणों की अग्नि परीक्षा में से सत्य का साधक केवल उत्कृष्ट आदर्शों के पक्ष में निर्णय लेता हुआ अपने खरे होने का प्रमाण देता है ।

गाँधी जी की वकालत 

गाँधी जी ने वकालत प्रारंभ की । उन्होंने केवल सही अधिकारों के लिए ही पैरवी करने का फैसला किया । उनके एक मुवक्किल ने उन्हें अपना गलत पक्ष नहीं बतलाया और उन्होंने केस ले लिया । बाद में जब पता लगा, तो कोर्ट में उन्होंने बहस नहीं की, तारीख बढ़ गयी । कोर्ट से लौट कर उन्होंने उस मुवक्किल को उसकी दी हुई फीस वापस कर दी ।

लोगों ने कहा आप फीस ले चुके हैं, अब केस वापस मत कीजिए । वकीलों को थोड़ा-बहुत तों इधर-उधर करना ही पड़ता है । गाँधी जी ने कहा-''लोग क्या करते हैं, वह मेरा आदर्श नहीं, मुझे क्या करना चाहिए, वह मुझे अच्छी तरह याद है। मैं परंपरा या धन के लोभ में सिद्धांतों को बट्टा नहीं लगाऊँगा ।''

उच्च आदर्श के प्रति इस निष्ठा ने ही उन्हें महात्मा और राष्ट्रपिता का पद दिलाया ।

राणा का कर्तव्य निर्धारण 

महाराणा प्रताप ने अकबर से सुलह नहीं की । राजा मानसिंह आदि ने उन्हें समझाया समय का प्रवाह देखिए । सभी रियासतें अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए शहंशाह से सुलह कर रही हैं ।
महाराणा ने कहा-''मेरे हिस्से में बापा रावल की परंपरा आयी है । अन्य राजा रईस अपनी परंपरा और ईमान देख कर निर्णय लें । मुझे मेरी परंपरा और अपना ईमान देखकर निर्णय लेना है । मुझे मेरी
परंपरा और मेरा अंत:करण राष्ट्रीय गौरव खोकर सुख-सुाविधा जुटाने की इजाजत नहीं देता। सुलह की बैत समझानी
है, तो बादशाह को समझाओ । हमने उसकी इजजत पर आँख नहीं गड़ाई है । अपने सांस्कृतिक गौरव की रक्षा हमारा
कर्तव्य है, वह हम कर रहे है ।''

महाराणा प्रताप ने आदर्शों की कसोटी पर अपना कर्तव्य निर्धारित किया । जन-प्रवाह की कसौटी पर करते तो इतिहास कें मूल्यवान नग न कहलाते ।

तिलक की विदेश यात्रा 

लोकमान्य तिलक सनातन धर्म पर पूरी निष्ठा रखते थे । राष्ट्रीय कार्यों के दौरान विदेश जाने की आवश्यकता पड़ी । पुरानी मान्यता के अनुसार ब्राह्मण को समुद्र यात्रा करना वर्जित माना जाता था । पंड़ितों से राय ली गई । उन्होंने शास्त्र विरुद्ध कहा । पर कुछ खर्च करने पर व्यवस्था बना देने की बात कही ।

लोकमान्य ने सुना और पंडितों की व्यवस्था लिए बिना ही यात्रा करने का निर्णय कर लिया । उन्होंने कहा-''जाने के उद्देश्य को महत्व न देकर पैसा खर्च करने से जो व्यवस्था बनती है, उसे मैं अनैतिक मानता हूँ । धर्म पर मेरी आस्था है और रहेगी । मैं उच्च उद्देश्यों के लिए जा रहा हूँ । उस पुण्य के आगे सामान्य परंपरा का उल्लंघन कोई अधर्म नहीं है ।''

तुलसी ने सत्य अपनाया 

उस समय भगवत् कथा संस्कृत में ही लिखने की परंपरा चली आ रही थी । समय की आवश्यकता देखते हुए तुलसी दास जी ने राम कथा हिन्दी में लिखने का निर्णय किया । पंडितोंने घोर जाति बहिष्कार से लेकर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष यातनाएँ देने तक के प्रयास किए ।

लोगों ने तुलसी को समझाने का प्रयास किया । कहा-''यह सत्य है कि राम कथा संस्कृत में ही लिखी जाती है । मान जाओ क्यों हठ करते हो?'' तुलसी ने कहा-''यह सत्य है कि अभी तक राम-कथा संस्कृत में लिखी गयी । पर यह भी सत्य है कि अब आम लोग संस्कृत नहीं समझते । उन तक रामचरित्र की प्रेरणा पहुँचाने, उनके कल्याण का रास्ता खोलने के लिए उसे हिन्दी में, लोक भाषा में लिखा जाना आवश्यक है । उस सत्य कें साथ मात्र
रूढ़िवादिता है । इस सत्य के साथ लोकमंगल का आदर्श है, इसलिए यह सत्य बड़ा है । मैं इसी को अपनाऊँगा ।''

तप से बड़ा सत्य 

भगवान महावीर उधर से गुजर रहे थे । रास्ते में किसी एक ग्रामीण ने उनके चरणों पर गिर कर प्रमाण किया उत्तर में अर्हंत ने भी उसके चरणों पर मस्तक टेका।

ग्रामीण सकपका गया । बोला-''आप तपस्या के भंडार हैं, उस विभूति को मैंने नमन किया; पर मैं तो कुछ भी नहीं हूँ मेरा नमन किसलिए ?''

अर्हंत ने कहा-''तेरे भीतर जो पवित्र आत्मा है, मैं उसी को देखता हूँ और नमता हूँ । मेरे तप से तुम्हारा सत्य बड़ा है ।''

माली और इंद्र देवता 

तर्क और प्रमाण जब अनौचित्य के पक्ष में प्रस्तुत किए जाते हैं, तो वे अधिक समय तक टिकते नहीं । ठोस आधार न होने से उनकी पोल खुल ही जाती हैं । 

एक माली ने बगीचा लगाया और उसे हरा-भरा बनाया । एक दिन कोई गाय बगीचे में घुसी और पौधे चर गयी । माली ने क्रोध में उसे ऐसे जोर से लट्ठ मारा कि वहीं चक्कर खाकर गिर पड़ी और ढेर हो गयी ।

गौ हत्या का पाप आया और उसके सामने आकर खड़ा हो गया, बोला-''मैं आ गया और अब तुम्हारा सर्वनाश करूँगा । ''

माली घबराया । बचने का कोई उपाय सोचने लगा-''उसे एक कथा याद आयी । पंडित के मुँह से उसने सुना था कि मनुष्य के हर एक अंग का मालिक एक देवता है, उसी की शक्ति से अवयव काम करते हैं । उस प्रसंग में हाथ का देवता इन्द्र को बताया गया था । वह स्मरण आते ही माली की चिंता दूर हो गयी ।

गौ-हत्या के पाप से उसने कहा-''भाई, मैने नहीं इंद्र ने हत्या की है । तुम उसी के पास जाकर दंड दो ।''

पाप चल पड़ा । इंद्रलोक पहुँचा । सारा घटनाक्रम सुनाया और कहा-''जब आपने गौ हत्या की है, तो दंड भी आप ही को भुगतना होगा ।''

इंद्र चकित रह गए । उनने तो वैसा किया नहीं था, फिर माली ने उन पर किस कारण दोष लगाया । वे माली के पास चल पड़े । पाप को कुछ समय प्रतीक्षा करने के लिए मना लिया ।

इंद्र अजनबी का रूप बनाकर उस बगीचे में पहुँचे; सुंदर उद्यान की भरपूर प्रशंसा की और उपस्थित लोगों से पूछा-''वह माली कौन है, जिसने इतनी कुशलता का परिचय दिया; देखने का मन है ।''

माली के कान में भनक पड़ी, तो वह दौड़ गया और विस्तारपूर्वक बताने लगा-'' पहले यहाँ जंगल था । उसने इन्हीं हांथों से भूमि उर्बर बनायी । दूर-दूर से पौधे लाया। इन्हीं हाथों से उसे सींचा-सँजोया । यह मेरा ही पुरुषार्थ है और अब मैं इन्हीं हाथों से फल-फूल की फसल बटोरता और कोठे भरता हूँ ।'' उसने गर्वपूर्वक हाथ बढ़ाए और अपरिचित को दिखाए ।

अपरिचित के रूप में आए इन्द्र अपने असली स्वरूप में प्रकट हुए और बोले-'' जब इन हाथों की कमाई का श्रेय और लाभ आप लेते हैं, तो गौ-हत्या के पाप का दंड क्यों इन्द्र पर लादते हैं । उसे भी आप ही भुगतिये ।''

माली को अपनी जरूरत से ज्यादा समझदारी का दंड अंतत: भुगतना ही पड़ा ।
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