उदारमानसैर्लोकैर्बहु विश्वाय चाऽर्पितम्।
दानमेकं समर्ष्यासावमुदानानि विंशतिम् ॥७९॥
अधिगन्तुमभूदहों नात्मसन्तोष आप्यते ।
लोकमानं तथा दैवोऽनुग्रहो मानवै: समै:॥८०॥
उदारमानसा: सन्ति ये मतास्तेऽधिकारिण: ।
दैवानामनुदानानामुदारा ये नरा: स्वयम् ॥८१॥
तेषु वर्षति चोदार्यं विश्वस्यापि नरेष्यलम्।
कृपणेषु समाजस्य प्रभो: कोपश्च वर्षति ॥८२॥
पापकृत्यमिदं प्राहु: संसारक्रमपद्धतौ ।
व्यतिरेकसमुत्यादितया दुर्गतिकं नृणाम् ॥८३॥
टीका-उदारमना लोगों ने विश्व वसुधा को बहुत कुछ दिया है। जिसने जितना दिया है, वह उसी अनुपात में 'एक दान के बदले अनुदान' अर्जित करने में सफल हुआ है। आत्म-संतोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह हर किसी को नहीं मिलते । इन दैवी अनुदानों के अधिकारी मात्र उदारमना ही होते हैं । जो स्वयं उदार हैं, पर संसार की उदारता बरसती है । कृपणता अपनाने से समाज भी रुष्ट रहता है और भगवान का कोप भी बरसता है । यह संसार क्रम मे व्यतिरेक उत्पन्न करने के कारण तथा मनुष्यों की दुर्गति करने वाला होने से पापकृत्य
माना गया है ॥७९-८३॥
अर्थ-दैवी अनुदान अनायास ही नहीं मिलते । जो परमार्थ में स्वयं को नियोजित करते हैं, जिनकी दृष्टि उदार होती है, दूसरों के प्रति जिनके मन में करुणा होती है, उन्हें परमपिता अजस्त्र अनुदानों से लाद देते हैं ।
चक्रवृद्धि ब्याज
द्रौपदी जमुना स्नान कर रही थी । दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि कुछ दूर पर एक साधु स्नान कर रहा है । हवा से
उसकी किनारे पर रखी लँगोटी पानी में बह गई और जिसे वह पहने था, पुरानी होने से कारण संयोगवश
वह भी उसी समय फट गई । बेचारा असमंजस में था । नंगी-उघारी स्थिति में लोगों के बीच से कैसे गुजरे ।
उसने दिन भर झाड़ी में छिपकर समय काटने और अँधेरा होने पर कुटी में लौटने का निश्चय किया । सो छिप गया ।
द्रौपदी को स्थिति समझने में देर न लगी । वे झाड़ी तक पहुँचीं । अपनी साड़ी का एक तिहाई भाग फाड़ कर
साधु को दे दिया। कहा-इसमें से दो लँगोटी बना लीजिए । दो तिहाई से मेरी भी लाज ढँक जायगी । एक तिहाई से आप भी लाज बचा लें । मनुष्य की लाज एक है । साधु ने कृतज्ञतापूर्वक वह अनुदान स्वीकार किया ।
दुर्योधन की सभा में द्रौपदी की लाज उतारी जा रही थी । उसने भगवान को पुकारा । भगवान सोचने लगे इसका
कुछ पुण्य जमा हो, तो बदले में अधिक दे सकना संभव है । देखा तो साधु की लँगोटी वाला कपड़ा ब्याज समेत अनेक गुना हो गया । भगवान ने उसी को द्रोपदी तक पहुँचाया और उसकी लाज बची ।
देवता शब्द बना ही दान से है अर्थात् जो सदैव देता रहता है, वही देवता है। देवताओं के पास परमात्मा ने शक्ति का अक्षय कोष भर दिया, ताकि परंपरा बंद न हो।
देने का आनंद
देवताओं ने विष्णु भगवान् से कहा-" स्वर्ग में रहते हुए बहुत दिन हो गए, सो ऊब आने लगी है । किसी इससे भी अच्छे लोक को भेज दीजिए ।" विष्णु ने 'हाँ' कह दी और मनुष्य लोक भेज दिया, साथ ही यह भी कहा-" सुख और सौंदर्य तभी दृष्टिगोचर होगा, जब तुम लोग करुणा जीवित करोगे और सेवा धर्म का रसास्वादन करोगे।"
देवता विमानों में बैठकर मनुष्य लोक चल पड़े; पर वहाँ तो सभी लोग दु:खो में डूबे थे । देवताओं ने उनकी
सेवा करने का निश्चय किया । कोई मेघ बनकर बरसने लगा । किसी ने ऊष्मा बिखेरी । कोई रात्रि को शीतलता भरा प्रकाश बाँटने लगा । किन्हीं ने वनौषधियों का रूप बनाया और अपरिग्रही बनकर लोगों कौ कष्ट मुक्ति का उपाय बताते हुए परिभ्रमण करने लगे ।
बहुत दिन बाद विष्णु भगवान ने नारद को देवताओं की स्थिति मालूम करने पृथ्वी पर भेजा । उनने आकर
उत्तर दिया-"देवता लोक सेवा के आनंद को स्वर्ग से बढ़कर मान रहे हैं और उनका वापस लौटने कौ मन् नहीं है ।"
उदारता के आनंद की किसी अन्य वस्तु से तुलना नहीं हो सकती ।
बाँटने की मिठास
समुद्र में बहुत पानी था, सो पथिक अधिक लाभ की आशा से उसके तट पर पहुँचा; किन्तु अंजलि होठों तक ले जाते ही देखा वह तो बहुत खारी है । प्यासा ही लौट गया ।
कुछ दूर एक छोटी नदी थी । पिया तो पाया मीठा और ठंडा जल।
बड़े के पास खारी, छोटे के पास मीठा, इस भेद को समझने के लिए उसने बुद्धि दौड़ाई ।
नियति ने कहा-"जो बाँटते हैं, उनकी मिठास सराही जाती है । जो समेटते है, वे बड़े होने पर भी भर्त्सना
सहते हैं ।"
इस देश और अपनी देव संस्कृति का तो यह प्राण है । उन गौरव-गाथाओं से हमारे पुराण भरे पड़े हैं, जिनमें
परमार्थ को सर्वोपरि तप माना गया है।
यह परम्परा बंन न हो
वाजिस्रवा ने अपनी गौ संपत्ति लोक सेवी ब्राह्मणों को दान कर दी । उनका पुत्र नचिकेता भी अपना जीवन दान करेअन चाहता था। पिता ने उसकी इच्छा जानी और यमाचार्य को उच्चस्तरीय प्रयोजनों में उसका उपयोग करने के लिए दान कर दिया।
हर्षवर्धन ने अपना सारा कोष तक्षशिला विश्वविद्यालय तथा दूसरे सत्प्रयोजनों के लिए दान किया था । यहाँ तक कि भावावैश में शरीर के कपड़े तक उतार कर दान कर दिए थे। बहन ने अपनी साड़ी दी, तब उसे लपेटकर दान वेदी पर से आधा शरीर ढँके हुए उठे ।
दधीचि ने तो अपनी अस्थियाँ तक इंद्र को दान कर दीं थी; ताकि उनसे वश बने और असुर वर्ग के आतंक से पीछा छूटे ।
दिखावे के लिए तो यह नाटक अनेक स्थानों पर चलते हैं; पर अब उसमें विवेकशीलता समाप्त हो गई । दान
भी महान प्रयोजनों के लिए दिए जाते है । केवल अहंकर पूर्ति के लिए दिए गए दान में पात्र-सुपात्र का ध्यान नहीं
रहता, इसीलिए उस देने में कुछ भी नहीं मिलता । वह तो ऊसर में बीज बिखेरने जैसा कृत्य है ।
नाटक न करे
शिष्य अपने गुरु से शिकायत भरे स्वर में कह रहा था-"गुरुदेव! आपने ही तो उस दिन कहा था, जो व्यक्ति त्यागी होते हैं और प्रतिष्ठा से दूर भागने का प्रयास करते हैं, सामाजिक सम्मान उनके पीछे दौड़ा-दौड़ा आता है । मैं गत १५ वर्षो सें अपना सर्वस्व समाज सेवा पर न्यौछावर करता आ रहा हूँ, पर सम्मान मेरे पीछे कभी दौड़कर नहीं आया ।"
गुरु का उत्तर था-"बात ठीक है, पर तुम्हारी दृष्टि सदैव पाने पर लगी रही, देना तो तुम्हारा नाटक मात्र था ।"
अनुदान एक प्रकार की इष्ट-पूर्ति है; उसे इसी रूप में देना चाहिए । यह मानकर नहीं कि किसी पर कोई
अहसान किया जा रहा है ।
प्रायश्चित
अमेरिका के नीग्रो नेता लूथर किंग को जब किसी गोरे ने गोली मार दी, तो उस देश के एक गोरे पादरी ने दस काले बालकों की शिक्षा का उत्तरदायित्व अपने कंधे पर लिया और कहा-"इस पाप का प्रायश्चित्त यही हो सकता है, जो मैंने किया ।"
मूल्यं धर्मधृतेरात्मप्रगतेश्चैवमेव हि।
निश्चोयते नरेणात्मजीवने कियती च सा॥८४॥
गृहीतोदारता चाथ परार्थाभिरस्तथा।
दर्शिता स्वर्गमुक्त्यात्म फलं तत्र फलेत्तरौ॥८५॥
टीका-धर्म धारणा और आत्मिक प्रगति का मूल्यांकन इसी आधार पर किया जाता है कि अपने जीवन क्रम में कितनी उदारता अपनाई और परमार्थ परायणता दर्शाई । स्वर्ग और मुक्ति का पुण्य-प्रतिफल इसी परमार्थ परायणता के वृक्ष पर लगता है॥८४-८५॥
अर्थ-धर्म धारणा को प्रतीक और कर्मकांड तक सीमित रखने वाले लोग भगवान् को पाने के झूठे भ्रम में रहते हैं । भगवान तो सेवा में, उदारता में विद्यमान हैं ।
सेवा की उदारता
शबरी के घर भगवान् गए और उससे माँग-माँग कर जूठे बेर खाये-यह प्रसंग उन दिनों भक्त जनों में सर्वत्र चर्चा का विषय बना हुआ था । अशिक्षिता नारी, साधना विधान से अपरिचित रहने पर भी उसे इतना श्रेय क्यों मिला? हम लोग उस श्रेय सम्मान से वंचित क्यों रहे?
मातंग ऋषि ने चर्चारत भक्तजनों से कहा-"हम लोग संयम और पूजन मात्र में अपनी सद्गति के लिए किए
प्रयास को भक्ति मानते रहे हैं । जबकि भगवान की दृष्टि में सेवा, साधना की प्रखरता है । शबरी ही है, जो रात-रात भर जागकर आश्रम से लेकर सरोवर तक कँटीला रास्ता साफ करती रही और सज्जनों का पथ-प्रशस्त करने के लिए अपना अविज्ञात, निरहंकारी, भाव भरा योगदान प्रस्तुत करती रही ।"
भक्तजनों का समाधान हो गया, उन्होंने जाना कि भक्त और भगवान् की दृष्टि में अंतर क्या है ।
सेवा, अर्थात् उनसे भी प्यार जो पतित हैं, दुष्ट हैं । ऐसी सेवा का मार्ग अपनाने वाले अपनी सत्ता को ही
भगवान् में बदल देते हैं ।
भगवान् चला गया
डेविड लिंकिग स्टार दक्षिण अफ्रीका के उस क्षेत्र में सेवा-साधना के लिए पहुँचे, जिसे अंध कूप कहा जाता था। चिकित्सा, सहायता और सुधार-तीन उद्देश्य लेकर वे उस क्षेत्र में आजीवन रहने के लिए गए थे। उनके इन कार्यों का उस समुदाय में स्वागत नहीं हुआ। कबीलों की भाषाएँ अलग से सीखने में उन्हें बहुत कठिनाई हुई । एक कबीले वालों ने तो उनका एक हाथ ही तोड़ दिया, तो भी वे निराश नहीं हुए और पूरे तीस वर्ष उसी क्षेत्र में जमकर अपने त्रिविध कार्य करते रहे । दास बनाने के गोरों के प्रयास का भी वे डटकर विरोध करते रहे । उन्हें समझने में लोगों को बहुत देर लेंगी । मरने के बाद लोगों को यह कहते सुना गया कि एक देवता चला गया- भगवान् चला गया ।
परमात्मा अर्थात् करुणा का निर्झर । जो उसका उपासक् हो, धर्मनिष्ठ हो, उसके जीवन में दया न हो, तो वह धार्मिक कैसा! सच तो यह है कि दया सर्वोपरि यज्ञ है ।
दया यज्ञ
एक गृहस्थ ने तीन यज्ञ किए । सब धन इसी में खर्च हो गया । वह गरीबी से घिर गया । उसका दु:ख देखकर किसी विद्वान ने कहा-"तुम अपने एक यज्ञ का पुण्य धर्मराज सेठ को बेच दो, तो उतने भर से तुम्हारा काम चल जायेगा ।"
गृहस्थ चल पड़ा । रास्ते में खाने के लिए रोटियाँ बाँध ली । चलते-चलते एक जगह रास्ते में एक कुतिया
मिली । बच्चे जने थे; पर खाने के लिए उसके पास कुछ न था । भूख से दम तोड़ रहे थे । गृहस्थ को दया आई । उसने अपनी रोटियाँ कुतिया को खिला दी । वह चलने-फिरने लायक हो गई । गृहस्थ को सेठ के पास तक पहुँचने में तीन दिन भूखा रहना पड़ा ।
जाते ही धर्मराज ने पूछा-"तुम्हारे चार यज्ञ हैं, इनमें किन्हें बेचना चाहते हो । "गृहस्थ ने कहा-"मैंने तो तीन ही यज्ञ किए किए हैं ।" धर्मराज ने कहा-" चौथा दया यज्ञ, जो तुमने अभी-अभी रास्ते में ही अपनी रोटियाँ खिलाकर
किया है । उसका पुण्य उन तीनों के बराबर है ।"
गृहस्थ ने पिछले तीनों यज्ञ बेच दिए और उसके बदले जो कुछ मिला, उसे आये दिन दया यज्ञों का अवसर
ढूँढ़ने और लगाने में खर्च करता रहा ।
संत, प्राणी मात्र में एक ही आत्म सत्ता के दर्शन करते हैं । उनके लिए अपने पराये का कोई भेदभाव नहीं रहता ।
कुत्तों को रोटी खिलाई
संत नामदेव का उस दिन एकादशी व्रत था । उस दिन उन्होंने फलाहारी रोटी बनाई । इतने में एक कुत्ता आया और रोटी उठा ले गया । संत उसके पीछे-पीछे बहुत दूर तक घी की कटोरी लेकर गए। हेटी चुपड़ कर खाइए, नहीं तो आपकी कृपा अधूरी रहेगी । मुझे संतोष न होगा कुत्ता खड़ा हो गया । उसे दूसरी रोटी उन्होंने घी समेत खिलाई । ऐसे होते हैं-समदर्शी।
संत परंपरावादी नहीं होते, सेवा यज्ञ किन्हीं सीमाओं में बँधा नहीं है । उदार दृष्टिकुष्ये और साहस भरी
दूरदर्शिता को ही वे सच्चा धर्म मानते हैं ।
सच्चे साधु
उन दिनों साधु महात्मा मात्र भजन- अपना काम समझते थे और इसी आधार पर जनता से धन और सम्मान एकत्रित करते थे।
उस परंपरा को तोड़कर स्वामी सहजानंद ने लोक मंगल के कितने ही कार्य अपने हाथ में लिए । उनने
पश्चिमी उ०प्र०, पूर्वी बिहार को अपना कार्यक्षेत्र बनाया । उस क्षेत्र के ब्राह्मण हल जोतना पाप मानते थे । स्वामी जी ने अपने प्रभाव को उस अंधविश्वास को दूर कराया। फलस्वरूप उस वर्ग की आर्थिक स्थिति सुधरी। भूमिहार ब्राह्मणों की उप जातियों का भी एकत्रीकरण उनने कराया ।
गाँधी जी के संपर्क में आकर वे स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित हुए । अपने क्षेत्र में उन्होंने क्रांति खडी कर
दी । एक वर्ष के लिए जेल भी गए। इसके बाद वे किसान संगठन के काम में लगे, जिसके द्वारा जमींदारों के बढे़-
चढ़े अत्याचारों पर अंकुश लगाया । स्वामी जी के संपादकत्व में लोकसंग्रह पत्र भी निकला । जो उस क्षेत्र में बहुत सफल माना जाता था । सच्चे साधु कैसे होते हैं? इसके उदाहरण में स्वामी सहजानंद का नाम चिरकाल तक लिया जाता रहेगा ।
व्यक्ति के जीवन में नैतिकता का समावेश हो जाना, अध्यात्म की दिशा में प्रगति का पहला लक्षण है ।
धर्म क्षेत्र में प्रवेश के लिए एक और कदम उठाना पड़ता हैं, वह सेवा का है । यह बात भली-भाँति समझ ली
जानी चाहिए।
एक कदम आगे
एक भोला व्यक्ति किसी विद्वान् के पास पहुँचा, बोला-"मैं ईमानदारी से जीवनयापन करता हूँ, पर कोई न मेरी प्रंशसा करता है न प्यार-"
विद्वान् ने कहा-"ईमानदारी अच्छी बात है; पर उसके साथ मधुर व्यवहार और सेवा भावी सहकार भी जुड़ा रहनी चाहिए । इतना कर सको, तो फिर प्रशंसा की कमी न रहेगी, न प्यार की शिकायत करनी पड़ेगी ।"