क्रिया विचारणा भिन्ने कर्तव्यस्यात्र पूर्तेये ।
मनोयोग: श्रमोऽथाऽपि संयमश्चाप्यपेक्षिता: ।। ६७ ।।
योत्कुं, तेषां च प्राप्त्यर्थं नर: संयमशीलताम् ।
भजेदेव स्पृहा चाऽपि नियम्यैव च वै नरै: ।। ६८ ।।
इयन्नैव च ये कर्तुं पारयन्ति नरा भवेत् ।
दिवास्वप्नायितं तेषां कर्मयोग: सदैव तु ।। ६९ ।।
प्रतिकूलस्थितौ चाऽपि कर्मयोगी न त्रस्यति ।
युद्धयमानस्तु ताभि: स बुद्धया तरति चापद: ।। ७० ।।
टीका-सोचना और करना भिन्न है । कर्तव्यपालन के लिए जिस मनोयोग और श्रम-संयम का लगाया जाना आवश्यक है, उसे बचाने के लिए मनुष्य को संयमशील बनना पड़ता है । लिप्साओं पर अंकुश लगाना पड़ता है । जो इतना नहीं कर पाते, उनके लिए कर्मयोग एक दिवास्वप्न मात्र बनकर रह जाता है । प्रतिकूल
स्थिति आ जाने पर भी कर्मयोगी त्रस्त नहीं होता है; उन स्थितियों से युद्ध करता हुआ, वह बुद्धि से उन विपत्तियों पर वियज प्राप्त करता हैं ।। ६७-७० ।।
अर्थ-सही सोचना प्रथम चरण है । परंतु सोचने के साथ श्रम, पुरुषार्थ, अभ्यास का क्रम न बिठाया जाय तो कर्तव्य नहीं सधता ।
लिप्सा पर अंकुश लगाना आना चाहिए । आकांक्षा पूर्ति नहीं उनके शोधन का, अध्यात्म और ईश्वर निष्ठ जीवन का अधिक महत्व है, जो यह नहीं कर पाते वे प्रगति के स्वप्न शेखचिल्ली की तरह देख सकते हैं। या तो कर्तव्य पथ पर बढ़ ही नहीं पाते और बढ़ते हैं तो जरा से व्यवधानों से अस्त-व्यस्त हो जाते हैं । कर्मयोगी व्यवधानों को अपने श्रम-पुरुषार्थ के बल पर पार करते हैं और धन्य कहलाते हैं ।
लड़के ने रास्ता बताया
एक शिकारी तीर कमान लेकर शिकार मारने निकला । पर कोई बड़ा जानवर हाथ न लगा । एक छोटा खरगोश भर पकड़ सका तो उसे घोड़े पर लादकर वापस लौट पड़ा । अपने वतन का रास्ता भूल गया । सो उसने पेड़ के नीचे बैठकर चिड़ियाँ चुगा रहे लड़के से पूछा-''क्या तुम मेरे गाँव का रास्ता बता सकते हो?''
लडके ने कहा-''मैंने दो ही रास्ते सुने हैं- एक दोजख का जो तुम्हारे जैसे बेरहम लोगों को बिना किसी से पूछे मिल जाता है । दूसरा मेरी तरह नेकी करने का जो जन्नत की ओर जाता है । तुम्हें जिस पर जाना हो बिना पूछे चले जाओ ।
शिकारी के मन में बात चुभ गई । उसने खरगोश को नजदीक की झाड़ी में स्वच्छंद घूमने के लिए छोड़ दिया और फिर कभी शिकार न करने की कसम खाई ।
योगी क्या जो पर पीड़ा न समझे
उन दिनों कलकत्ता में प्लेग फैला था । लोग धड़ाधड़ मर रहे थे । रामकृष्ण मिशन के एक स्वामी अपने सारे धार्मिक क्रिया-कृत्य छोड़कर साथियों समेत रोगियों के सेवा कार्य में जुट गए । पैसे की अवश्यकता पड़ी तो रामकृष्ण मठ की भूमि तक बेचने को तैयार हो गए ।
शिष्यों ने पूछा-''आप तो वीतराग योगी हैं। दुनिया कें सुख-दु:ख से आपको क्या मतलब होना चाहिए? आप तो भजन-ध्यान की बात सोचें ।''
स्वामी जी ने कहा-''योगी के लिए दूसरों का दु:ख और सुख अपना बन जाता है । पीड़ित लोगों की व्यथा मुझे अपनी व्यथा से कम नहीं लगती । पीड़ा से पहले छूटना पड़ता, भजन बाद में होता है ।
अनाम कर्मयोगी, जो डिगा नहीं
एक वायुयान ७४ यात्रियों को लेकर वाशिंगटन से उड़ा पर इंजन में खराबी आ जाने से बर्फीली पोटोमेक नदी के पुल से टकराया और पानी में जा गिरा ।
यात्रियों को बचाने के लिए सुरक्षा दल के दो सदस्य और एक पुल का चौकीदार तीनों ही प्राणपण से जुटे रहे और कितनों को ही डूबने से बचाने में सफल भी हुए ।
इन लोगों की खूब प्रशंसा हुई और उन्हें एक समारोह में राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत भी किया गया पर साथ में एक और अविज्ञात नाम वाले को पुरस्कृत किया गया जो यात्रियों में से ही कोई एक था, वह जहाज के पिछले हिस्से पर बैठा रहा । बचाव के लिए जब भी रस्से फेंके गए तब उसने उसे पकड़ कर दूसरों को थमा दिए । इस प्रकार छ: को बचाने के उषरांत जहाज के साथ खुद भी डूब गया ।
लालच नहीं न्याय चुना
बहुत समय पूर्व जापान के एक जिले के जिलाधीश थे-चाईसेन । उनके हाथ में सरकार ने बहुत सत्ता दे रखी थी।
एक व्यापारी अपना कुछ बड़ा काम सरकार से निकालना चाहता था । इसके लिए जिलाधीश का सहयोग अपेक्षित था । व्यापारी अशर्फियों की थैली लेकर पहुँचा और बोला-''यह भेंट स्वीकार करें, मेरा काम कर दें । इस भेंट की बात कोई भी नहीं जान पायेगा ।''
चाईसेन ने कहा-''यह कैसे हो सकता है कि कोई न जाने । धरती, आसमान, मेरी आत्मा, देवात्मा और परमात्मा-पाँच की जानकारी में जो बात आ गयी, उस पाप का भेद तो खुल ही गया । कृपाकर अपनी अशर्फियाँ वापस ले जाइए, अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को झुठलाना मेरे लिए किसी भी प्रलोभन के बदले संभव न हो
सकेगा ।''
लोभ छोड़ा लाभ नहीं
रेखागणित के अनेक सिद्धांतों का आविष्कारक यूक्लिड पिता के विरोध करने पर भी अपने काम में लगा रहा । एक दिन उसके पिता ने कहा-''यह बेवकूफी का काम अगर तुम नहीं छोड़ेगे तो मेरी सम्पत्ति में हिस्सा न पा सकोगे । ''यूक्लिड ने कहा-''आप अपना धन भले ही अपने भाइयों को दे दें मुझे अपने काम में इतना आनंद आता है कि आपकी दौलत, उसके सामने तुच्छ है ।''
यूक्लिड पिता के धन का लोभ न छोड़ते तो दुनिया को गणित के उच्च सिद्धांतों के लाभ देने में सफल न होते । छोटे लोभ में बडे़ लाभ से वंचित रह जाते ।
सुरसावदनात् सोऽयं मारूतिर्निर्गतो बहि: ।
मशकं रूपमाश्रित्य मनुजन्माऽपि चेदृशम् ।। ७१ ।।
परित्यज्य निराशां वै दुराशां दूरयन्नपि ।
कर्मयोगी भवेदेवं जीवश्चेश्वरतां व्रजेत् ।। ७२ ।।
योगाभ्यासेषु सवेंषु तप: संयमजं मतम् ।
अनिवार्यमहंकारो लोभो मोहस्तथैव च ।। ७३ ।।
अड्कुशास्त्रय एवैते दम्भा उन्नतिबाधका: ।
स्वल्पसन्तोषवृत्त्या च वर्तितव्यं सुयोगिभि: ।। ७४ ।।
उत्साह: स्वस्तथाऽऽकांक्षा आदर्शै: योक्तुमुत्तमा: ।
विनाऽऽदर्शं सदिच्छा च ज्ञानं पापायतेऽपि तु ।। ७५ ।।
टीका-सुरसा के मुख से हनुमान मच्छर बनकर बाहर निकल आये । कुत्साओं को नियंत्रित करके ही मनुष्य कर्मयोगी बन सकता है-जीव होता हुआ भी ईश्वर बन सकता है । हर योगाभ्यास में संयम की तपश्चर्या अनिवार्य रूप से आवश्यक बताई गई है । कर्मयोगी को लोभ मोह और अहंकार कें तीन शत्रुओं का दमन करना
चाहिए । स्वल्प संतोषी बनकर रहना चाहिए और उमंगों-आकांक्षाओं को आदर्शों के साथ जोड़ना चाहिए ।
बिना सदिच्छाओं के, बिना आदर्श के ज्ञान भी पापपूर्ण हो जाता है ।। ७१ -७५ ।।
अर्थ-हनुमान अपने लक्ष्य तक पहुँचना चाहते थे, सुरसा से मुक्ति पाना आवश्यक था । लिप्सायें लौकिक पुरुषार्थ के अनुपात में बढ़ती ही जाती हैं । लिप्साओं के सामने पुरुषार्थी नहीं स्वल्प-संतोषी बनकर ही पार जाना उचित है । हनुमान जी ने यही किया । प्रत्येक प्रगति के इच्छुक साधक के लिए भी यही अभीष्ट है । योग का लदय है जीवन ऊपर उठकर ईश्वरत्व तक पहुँचे, इसके लिए नीचे खींचने वाली कुत्साउगें से बचना है । यह कार्य संयम से ही संभव है । इसीलिए हर प्रकार के योग में संयम का अनिवार्य स्थान है ।
आदर्श पहचानना ही पर्याप्त नहीं । अपनी आकांक्षायें और उमंगें उनके साथ जोड़नी होती हैं । मात्र जानकारी है पर आकांक्षा नहीं तो जानते हुए न बढ़ना और भी बड़ा पाप बन जाता है ।
तुच्छ कामनाओं पर अंकुश
तुलसीदास रत्नावली के रूप और वैभव के सुख की कामना पर अंकुश न लगा पाते, तो भक्ति साधना में कैसे लग पाते?
भर्तृहरि राज्य वैभव और पिंगला जैसी रमणी के सान्निध्य की लालसा पर काबू न पा सके होते तो कैसे नाथपंथ के महान संन्यासी बन पाते?
गांधी झूठ-मूठ बोलकर सफल वकील कहलाने की हीन, कामना से ऊपर न उठते तो उस महान व्यक्तित्व
के धनी कैसे बनते जिसके सामने ब्रिटिश हुकूमत झुक गई । मृत्यु के शोक में सारे विश्व के झंडे झुक गए ।
संयम के बिना कोई उपलब्धि न हुई, न हो सकती ।
जिस बालक ने समय का संयम करके अध्ययन, नहीं किया, वह शिक्षा पाकर विद्वान नहीं बन सकता ।
जिस युवक ने आहार, व्यायाम का संयम-संतुलन नहीं बिठाया, उसे पहलवान बनने की कामना नहीं रखनी चाहिए ।
कंठ को नियंत्रित रखकर जो स्वर नहीं निकाल सकता, उससे संगीत साधना किसी भी रूप में नहीं सध सकती । हाथ की गति पर जिसका संयम नहीं, वह न कोई वाद्य बजा सकता है, न चित्र बना सकता है ।
जिसके विचार क्रमबद्ध नहीं हो सकते, वह न लेखक बन सकता है, न कवि ।
जिसका अपने हावभावों पर नियंत्रण नहीं वह न व्यक्ति बन सकेगा, न अभिनेता ।
इसी प्रकार अपनी आकांक्षाएं जिसने प्रभु के अनुरूप नहीं बनाईं वह अपनी शक्ति गलत कार्यों से न बचा सकेगा, न प्रभु के अनुरूप लगा सकेगा, उससे कोई योग कैसे सधेगा?
फूल पत्थर से भी दृढ़
एक दिन पत्थर फूल पर बहुत नाराज हुआ। उसने कहा-''जानता नहीं मेरी शक्ति । तुझे जरा सी देर में पीस कर रख दूँगा ।''
फूल मुस्कराया और बोला-''तब तो आप मेरी सुगंध को दूर-दूर तक फैला देने का उपकार ही करेंगे, महोदय! इसमें मुझे न खिन्न होना है और न उद्विग्र । शरीर का मोह करूँगा तो भयभीत रहूँगा और ऊँचे लक्ष्यों का आनंद न ले सकूँगा ।''
उद्देश्य मोह छुड़ाना है, कर्म छुडाना नहीं
महात्मा ईसा कहीं जा रहे थे कि मार्ग में उन्होंने मैथ्यू नामक शिष्य को देखा । उसके पिता की मृत्यु हो गई थी और वह उसे रों-रोकर दफन कर रहा था ।
मैम्यू ने जैसें ही ईसा को देखा, वैसे ही दौड़ कर उनके पास आया और आस्तीन चूमकर तुरंत ही अपने पिता के शव की ओर लौट पड़ा ।
ईसा ने समझा कि इसकी ममता नहीं मरी। अत: उन्होंने मैन्यू को पुकारकर अपने पास बुलाया और उसे आज्ञा दी-'' जिसकी मृत्यु हो गयी, वह भूत का साथी हुआ, तू उसकी लाश से मोह कर, वर्तमान से दूर क्यों होना चाहता है ।''
मैथ्यू इस असमंजस में था कि क्या करें? तभी उसने ईसा की स्पष्ट आज्ञा सुनी-'' भूत को भूत देखता रहेगा, तू यहाँ मेरे साथ आ ।''
संयोग की बात है कि जब यह दोनों आगे बड़े तो ईसा का एक अन्य शिष्य भी उन्हें अपने पिता की लाश दफनाता मिला । परंतु जैसे ही उसने अपने को देखा, वैसे ही दौड़ कर उनके पास पहुँचा और उनके साथ चल दिया । ईसा ने उसे देखा तो बोले-''अरे, तू क्यों चला आ रहा है?''
शिष्य ने साथ चलने का हठ किया तो ईसा बोले-''ऐसी कोई जल्दी नहीं है । मैं आगे के गाँव में ठहरूँगा । तुम लाश को दफना कर वहीं चले आना ।''
वह शिष्य तो चला गया, परंतु एक समान घटनाओं पर दो प्रकार की व्यवस्था सुनकर मैथ्यू को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने अपने गुरु से पूछा-'' इसका क्या कारण है गुरुदेव! आपने मुझे अपने पिता की लाश को दफनाने भी नहीं दिया और उसे अपने पिता को दफन करने की आपने स्वयं आज्ञा दी । एक प्रकार की घटनाओं पर ही दो प्रकार की आज्ञा क्यों?''
ईसा ने कहा-''जो राग में फँसा है उसे वैराग्य का उपदेश दो, परंतु जो रागमुक्त है, उसे वैराग्य का उपदेश देने से कोई लाभ नहीं ।''
त्रिपक्षीय खिंचाव में गति कहाँ?
एक लकडी पानी के किनारे पड़ी थी, उसे तीन जानवर खींच रहे थे । मछली नीचे ले जाना चाहती थी । बतख ऊपर उड़ा ले जाने की फिकर में थी । कछुआ जमीन पर घसीट रहा था । तीनों पूरा जोर लगा रहे थे । पर वह जहाँ की तहाँ रही । एक इंच भी आगे न बढ़ सकी ।
मन, बुद्धि और चित्त जीवन की गाडी को अपनी- अपनी दिशा में ले जाना चाहते हैं, पर लक्ष्य एक न होने के कारण जीवन जहाँ का तहाँ ही बना रहता है । प्रगति जरा भी नहीं हो पाती । जब मन, बुद्धि और चित्त तीनों सदिच्छा से जुड़ जाते है तो शक्ति संयुक्त हो जाती है, जीवन प्रगतिशील बन जाता है ।
जानकार को दंड मिला
यमराज के सामने चार अपराधी लाए गए। चारों पर आरोप था कि इन्होंने सामाजिक सम्पत्ति का अनधिकार प्रयोग किया ।
यमराज ने पूछा-''तुम्हें यह नहीं पता कि सार्वजनिक सम्पत्ति का व्यक्तिगत उपयोग नहीं किया जाना चाहिए ।'' तीनों व्यक्तियों ने कहा-''हम वनवासी हैं । प्रकृति से जो मिला उसे आवश्यकतानुसार प्रयोग में ले
लिया । हमारे सामने जो आया उसका उपयोग किया । हमें इससे अधिक और कुछ पता नहीं ।''
उपस्थितगण उनकी ना जानकारी पर हँस पड़े । चौथा बोला-'' यह तीनों मूर्ख है । मैं तो समझता हूँ कि सामाजिक सम्पत्ति क्या है, व्यक्तिगत क्या है । मुझे इनमें न गिनें।"
यमराज ने पहले तीन को सामान्य दंड दिया अज्ञानी होने का । चौथे को बड़ा दंड दिया, पापी होने का । कहा-''जानकारी भूल से बचाती है, पर जानकारी हो फिर भी गलत इच्छा न रुक सके तो पाप है । ''इसलिए चौथे को पापी के रूप में नरक भुगतने की सजा दी गई ।