प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -6

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लोकसेवां सामाश्रित्याऽनृण: समाजिकादृणात् ।
मर्यादैवास्ति पूता च वानप्रस्थपरम्परा ।। ३८ ।।
प्रामाणिकत्वमाप्तुं च नीतिमत्ता समीहिता ।
अनिवार्यतया, चात्र चरित्रे तु कलड्कत्ता ।। ३१ ।।
पवित्राणां तथा तासां मर्यादानां विलड्वनम्।
कुरुतो दुर्बलं मर्त्यमविश्वस्तो भवेच्च सः ।। ४० ।।

टीका-लोकसेवा अपनाकर समाज ऋण से उऋण होना मर्यादा है । वानप्रस्थ पुनीत परंपरा है । प्रामाणिकता अर्जित करने के लिए नीतिवान् होना आवश्यक है । चरित्र पर अँगुली उठवाने एवं पवित्र मर्यादाओं
का उल्लंघन करने वाला मनुष्य भीतर से दुर्बल पड़ जाता है और उसका विश्वास चला जाता है ।। ३८-४० ।।

अर्थ-मर्यादा, अनुशासन, व्यवस्था-इन सबकी परिधि बड़ी विस्तृत है । व्यक्ति को स्वयं पर तो अंकुश लगाना ही पड़ता है, स्वयं को चरित्रवान् बनाना ही पड़ता है, अपने पुरुषार्थ-साधन को सत्कार्यों में नियोजित भीं करना पड़ता है । अंत: से उद्भूत सुसंस्काटिता-व्यवहार में अनुशासन एवं नीति निष्ठा, परमार्थ परायणता के रूप में सार्थक बनती है। दोनों ही एक दूसरे कें बिना अधूरे हैं ।

तितली और मधुमक्खी 

अनुशासित व्यक्ति कहीं भी रहें, सम्मान और प्रामाणिकता स्वयं अर्जित कर लेते हैं। तितली और मधुमक्खी दोनें एक फूल पर आकर बैठतीं । एक दिन दोनों झगड़ने लगीं कि फूल पर मेरा अधिकार है ।

फैसला कराने तोता को बुलाया गया । उसने मधुमक्खी के पक्ष में निर्णय दिया और कहा-''यह बैठने का  श्रम सार्थक करती है और दूसरों के लिए शहद निकालती है । इसलिए अधिकार तो इसी का रहेगा, बैठने का आनंद  तुम भी उठा सकती हो ।''

महान सेनापति गैरीबाल्डी

गैरीबाल्डी इटली का महान सेनानी था । एक दिन उनके घर उनके मित्र एडमिरल पहुँचे ।

उनके घर में प्रकाश की कोई व्यवस्था न थी, सो दीवाल से टकराये और चोट लग गई ।

एडमिरल व्यंग्य तथा झुंझलाहट के स्वर में बोले-''क्यों गैरीबाल्डी । तुम प्रकाश का भी प्रबंध नहीं रख सकते?'' उसे चोट लगी जानकर गैरीबाल्डी ने प्रकाश का प्रबंध करना चाहा परंतु वहाँ एक मोमबत्ती तक न थीं । वह उठा और उँगली पकड़कर घर में ले आया, फिर कहा-''मित्र क्षमा करेंगे, युद्ध मंत्री से सेनापतित्व का दायित्व प्राप्त करते समय भोजन के अतिरिक्त मोमबत्तियों की व्यवस्था के लिए कोई धन मिलने की बातचीत नही हुई थी । खैर कोई बात नहीं, हम लोग अँधेरे में भी बातचीत कर सकते है ।''

भेंट वार्ता करने के बाद एडमिरल तत्कालीन युद्ध मंत्री के पास पहुँचे तथा गैरीबाल्डी के लिए पर्याप्त धन पहुँचा दिया। अगले दिन पत्नी ने पूछा कि क्या इस पैसे से कुछ मोमबत्तियाँ खरीद मँगायी जाये । गैरीबाल्डी ने शांत स्वर में उत्तर दिया-''बिल्कुल नहीं । हमें इस राशि से अपने लिए मोमबत्ती खरीदने का कोई आदेश नहीं मिला है ।'' सारा धन सैनिकों में बंटवा दिया गया । ऐसी होती है प्रामाणिकता की कसौटी पर कसी गई नीतिनिष्ठा ।

धर्मधारणा का सच्चा रुप 

महान ईसाई धर्मशास्त्री संत थामस एक्विनास सलीब ने विद्वान मित्र फादर रेजिनाल्ड के सहयोग से एक पांडित्यपूर्ण शास्त्र लिखने का निर्णय लिया । परंतु शाम को सलीब के सामने प्रार्थना करने बैठे तो भाव समाधि में ऐसे डूबे कि आँखोंं से अश्रुधार बह निकली । घंटों मुग्धभाव से बैठे रहे । इसी बीच उनके विचारों में न जाने कैसे परिवर्तन हुआ कि शास्त्र लिखने का निर्णय ही बदल दिया ।

रात को फादर आए और उन्होंने धर्मशास्त्र लिखने की चर्चा छेड़ी तो संत थामस का उद्रेक फूट पड़ा-''शास्त्र
अब कभी न लिखा जा सकेगा । आज प्रात:काल प्रभुकृपा से सलीब ने मुझे यह अंतर्ज्ञान दिया है कि समग्र विश्व का कल्याण करना, उसकी आस्थाएँ एवं श्रद्धा विश्वास जगाना ही धर्म का सार है । शास्त्र का ज्ञान तो अहंकार ही उत्पन्न करता है, जो मानव की प्रत्येक प्रकार की प्रगति में अवरोध ही उत्पन्न करता ।'' और बताया कि उन्होंने इसी कारण शास्त्र न लिखने का निर्णय लिया है ।

अविश्वस्त भेड़िया 

एक भेड़िया उथले कुएँ में गिर पड़ा । निकलने की तरकीबें सोचने लगा; पर कोई कालर न हुई ।

उसने मुँडेर पर झाँकती हुई एक बकरी को देखा सो भीतर से बोला-''बहन जी ! यहाँ चारे और पानी की बहुत इफरायत है। तुम भी आ जाओ तो दोनों मिलकर चैन की जिंदगी जिएँगे ।''

भोली बकरी बातों में आ गई और गड्ढे में कूद गई । भेड़िए ने बकरी की पीठ पर चढ़कर छलांग लगाई और
ऊपर आ गया । बकरी अकेले रह गई ।

बकरी की समझ में बात आई तो वह बोली-''भाई ! मैं तो दूध देने वाली जीव हूँ, मुझे तो कोई भी निकाल लेगा, पर भविष्य में तुम जैसों की सहायता करने कोई भी नहीं आयेगा ।''

वही हो भी रहा है । दुष्टों के सामने कोई मुँह चुपड़ी भले ही करें संकट आने पर वही ऊपर से लात और जमाते देखे जाते है ।

कुरीतीनां तथैवान्धक्रमाणां च विरोधिता ।
अन्यरूपोपयुक्तानां व्यवस्थानामिह स्वयम् ।। ४१ ।।
सामजिकानां दुर्वृत्योल्लड्वनस्य प्रदर्शनम् ।
अन्यदेव चरित्रेण युक्तो भवति शक्तिमान् ।। ४२ ।।
मर्यादापालको मर्त्य: पुरुषोत्तम उच्यते ।
असामान्यं बलं तस्याऽसामानयश्च पराक्रम: ।। ४३ ।।

टीका-कुरीतियों का, अंध परंपराओं का विरोध करना एक बात है और उपयुक्त समाज व्यवस्थाओं  का उल्लघन करने में उच्छृंखलता दिखता सर्वथा दूसरी । चरित्रवान् ही शक्तिवान् होता है । जो मर्यादाओं का परिपालन करता है, उसे पुरुषोत्तम कहते हैं । उसका बल- पराक्रम असाधारण होता है ।। ४१-४३ ।।

अर्थ- ऐसा व्यक्ति छोटा हो, तो भी उसकी प्रामाणिकता ही उसे वजनदार बना देती है। सच बात  कहने में वे हिचकते नहीं ।

मंत्री की दो टूक बातें 

एक राजा था । उसने अपने मंत्री को बुलाकर कहा-''हमारे राज्य में जो सबसे बड़ा मूर्ख हो, उसे ढूँढ़ कर लाया जाय ।''

मंत्री ढूंढ़ने के लिए छुट्टी लेकर चले गए । एक सप्ताह बाद लौटे कहा-''एक ही जगह  तीन मिल गए'' 

''एक तो यह है, जो कहीं सुन आया था कि रुपया रुपथे को खींचता है, सो जहाँ भी रुपयों का देर देखता, वहीं अपना रुपया फेंक देता । वह भी जब्त हो जाता। इस प्रकार सौ रुपये गंवा चुका; पर ज वहम अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है।''

''दूसरे मूर्ख आप है, जो विद्वानों की तलाश न कराकर मूर्खों की तलाश करा रहे हैं । तीसरा मैं हूँ जो आपको
नेक सलाह देने की अपेषा नौकरी के लोभ में आपकी ही में ही मिलाता हूँ ।''

धर्मयुग्मे तृतीये च शास्त्रकारैस्तु मानित: ।
अनुशासनवत्सोऽयमनुबन्धो महत्ववान् ।। ४४ ।।
आत्मानुशासनं होतद् व्यवहार्यं निजेच्छया ।
कृत्यप्रकृतिसम्बन्धे विचाराकांक्षयोरपि ।। ४५ ।।
सामाजिकाकावृतौ सत्यामपि क्षेत्रस्थ चाऽस्य तु ।
औत्कृष्टयावरणं कार्यं स्वयमेव नरैरिह ।। ४६ ।।

टीका-धर्म के तृतीय युग्म में शास्त्रकारों ने अनुशासन की तरह ही 'अनुबंध' को भी महत्व दिया है । यह आत्मानुशासन है, जो अपनी आकांक्षाओं, विचारणाओं, गतिविधियों तथा आदतों के संबंध में स्वेच्छापूर्वक बरता जाता है । सामाजिक दबाव होते हुए भी, उस क्षेत्र की उत्कृष्टता का वरण स्वयं ही करना होता है ।। ४४-४६ ।।

अर्थ-स्वेच्छा से अपने ऊपर लागू किया गया अनुशासित जीवन क्रम इतना सरल नहीं है, जिसे सहज अपनाया जा सके । समाज-व्यवस्था, प्रचलन, रीति-रिवाज एवं तत्कालीन प्रवाह के दबाव जैसे प्रतिरोधों से जूझते हुए कसौटी पर खरे उतरना एक बहुत बड़ा पुरुषार्थ है । क्या उचित है, क्या अनुचित इसकी काट-छाँट करते हुए श्रेआ का चयन खुद ही करना पड़ता है । इतना विवेक जिसका जागृत हो, वही महामानव बनने की दिशा में आगे बढ़ सकने की पात्रता रखता है ।

आत्मसंयम की शिक्षा 

कलकत्ता के हाईकोर्ट के जज स्वर्गीय श्रीगुरुदास बनर्जी वायसराय के साथ कानपुर से कलकत्ता के लिए यात्रा कर रहे थे । कलकत्ता विश्वविद्यालय कमीशन संबंधी किसी आवश्यक चर्चा के लिए वायसराय ने उन्हें अपने ही डिब्बें में बुला लिया । बातचीत के मध्य भोजन का समय हुआ तो वायसराय ने उनसे भोजन करने का अनुरोध किया । बनर्जी साहब ने उत्तर दिया-'' मैं रेल में कुछ नहीं खाता । थोड़ा- सा गंगाजल रखे हुए हूँ, वही पी लेता हूँ ।''

वायसराय को विश्वास नहीं हुआ-''इतना प्रगतिशील व्यक्ति भी धार्मिक मान्यताओं का इतना कट्टरता के साथ पालन कर सकता ।' उन्होंने कहा-''तो फिर लड़के को ही भोजन ग्रहण करने के लिए कहिए।" पर बच्चे ने भी इन्कार करते हुए कहा-''मेरे पास घर की बनी थोड़ी-सी मिठाई है, उसका नाश्ता कर लिया है अन्य कोई वस्तु ग्रहण न करूँगा ।''

वायसराय आश्चर्यचकित रह गए । उन्होंने कहा-''आप लोग उपवास कर रहे हैं, तो मैं ही भोजन कैसे करूँ ।'' वायसराय की आज्ञा से गाड़ी इलाहावाद रोक दी गई । वहाँ बनर्जी ने पुत्र सहित त्रिवेणी स्नान किया, फिर गाड़ी आगे बढ़ी । लौटने पर वायसराय को धन्यवाद देते हुए कहा-'' कुछ खा-पी लेने से किसी की जाति जाती हो, इस संबंध में मेरा कोई तर्क नहीं, पर इन नियमों के पालन से आत्मसंयम और अनुशासन की शिक्षा मिलती है। । हमारे धर्म और संस्कृति में जो ऐसी बातें हैं, उनको मैंने इसीलिए हृदय से स्वीकार किया । ''

राजेन्द्रबाबू की सफलता 

लोग जीवन में ऐसे ही सम्मान प्राप्त करते हैं । डा० राजेन्द्रबाबू तब तक देशरत्न के नाम से प्रख्यात  हो चुके थे । वे इलाहाबाद के 'लीडर' अखबार के संपादक श्री चिंतामणि से मिलने गए । अपना कार्ड चपरासी के हाथों भेजा । मामूली कपड़े देखकर चपरासी ने कहा-'' बैठ जाओ । साहब व्यस्त हैं, थोड़ी देर में
बुलाएँगे ।'' राजेन्द्रबाबू चपरासियों की अँगीठी पर अपने भीगे कपड़े सुखाने लगे ।

थोड़ी देर में कार्ड पर निगाह पड़ी तों श्री चिंतामणि भागते हुए स्वयं आये । ढूँढ़ा तो दिखाई ही नहीं पड़े । चपरासी ने इशारा करके बताया कि वह आदमी वही है जो अँगीठी पर कपड़े सुखा रहा है ।

श्री चिंतामणि देरी के लिए क्षमा मांगने लगे तो राजेन्द्रबाबू ने कहा-''लाभ ही हुआ । मैंने अपने गीले कपड़े सुखा लिए ।''

सेवा का श्रेष्ठ फल 

मृत्यु के बाद भी आत्मानुशासन के पुण्यफल साथ चलते हैं । विदर्भ देश में एक अपरिग्रही परिव्राजक रहता था । नाम था श्रुतिकीर्ति । भजन भाव तो नित्य कर्म
जितना ही बन पड़ता; पर प्रवास में यही खोजता रहा कि पीड़ा और पतन से ग्रसितों के पास पहुँचे और उनकी श्रम एवं ज्ञान के द्वारा सेवा-सहायता करें । यही थी उसकी जीवन-चर्या जिसे किशोर वय से लेकर वृद्धावस्था तक अविचल श्रद्धा के साथ चलाता रहा ।

समय आया और मरण का दिन आ पहुँचा। स्वर्गलोक से विमान आया, देवता उसे चला रहे थे । श्रुतिकीर्ति स्वर्ग पहुँच गए; पर शीघ्र ही वहाँ के वैभव-विलास से दु:खी होकर उन्होंने अपना स्थान नरक में बदलने का निश्चय किया ।

ब्राह्मण ने देवताओं से प्रार्थना की-''यदि सचमुच मैंने पुण्य कमाया है, तो इच्छित वरदान मिले । मुझे नरक तक पहुँचा दिया जाय, जहाँ पीड़ितों और पतितों की सेवा-सहायता करते हुए आत्म-संतोष का अर्जन हो सके । स्वर्ग सुख से मुझे सेवा-संतोष अधिक प्रिय है ।''

देवताओं ने तथास्तु कहकर उसे नरक पहुँचा दिया । नरक में रह रहे श्रुतिकीर्ति की भेंट एक दिन उनके ही पितरों से हो गयी । पितरों ने पूछा-''भला, आप तो स्वर्ग में थे, फिर वापस कैसे आये?''

संत ने कहा-''पुण्य का फल नहीं, पाप का दंड भुगतने वहां गया था । सेवा में प्रगाढ़ निष्ठा होती तो पहले दिन ही स्वर्ग को अस्वीकार कर देता । यही था मेरा पाप जिसका दंड विलास-व्यसन में घुटन सहनकर लौटा हूँ ।''

श्रुतिकीर्ति को देवताओं में भी श्रेष्ठ गिना गया ।

महतां मानवानां तु व्यवहारोऽथ: चिन्तनम् ।
अन्त:स्थितौ प्रेरणायां यातो निर्भरतां सदा ।। ४७ ।।
गृह्णन्ति श्रेष्ठतामात्रमनीप्सितमिमे क्षणात् ।
पराड्मुखं प्रकुर्वन्ति विकृतिं यान्ति नो तत: ।। ४८ ।।

टीका-महामानवों का चिंतन तथा व्यवहार अंत: की स्थिति तथा प्रेरणा पर निर्भर रहता है । वे दूसरों से मात्र श्रेष्ठता की प्रेरणाएँ ही ग्रहण करते हैं । अवांछनीयता कें आरोपण को वे तत्काल वापस लौटा देते हैं, इसी से वे विकृत स्थिति में नहीं पहुँचते हैं ।। ४७-४८ ।।

अर्थ-जैसे अंदर से उद्भुत प्रेरणाएँ होती हैं, वैसा ही बाह्य जीवन क्रम ढल जाता है। श्रेष्ठता पर भी मापदंड लागू होता है । महामानव बनने की उमंग अंत: से तो जन्मती ही है, प्रचलन-प्रवाह से संव्याप्त उत्कृष्ट प्रेरणाओं के चयन पर भी यह निर्भर करता है कि कौन किस स्तर तक विकसित है । मात्र उचित का चयन एवं अवांछनीय का निरस्तीकरण ही महामानवों कें जीवन की रीति-नीति होनी चाहिए ।

वापस रखो 

एक गृहस्थ गौतम बुद्ध से चिढ़ता था । एक दिन वे उसी के यहाँ भिक्षा हेतु जा पहुँचे । उसने बुद्ध को देखते ही गाली देना प्रारंभ कर दिया ।

बुद्ध शांत-चित्त गालियाँ सुनते रहे । शिष्य बीच में उत्तेजित होने को हुए तो उनने चुप कर दिया । गाली देकर जब वह थक गया तो गौतम बुद्ध ने पूछा-''तात । आप किसी को कोई वस्तु दें और वह न ले, तो आप क्या करेंगे ?''

''फेंक थोड़े ही दूँगा''- उसने उत्तर दिया। बुद्ध मुस्कराये और बोले-''तो मैं आपकी गालियाँ स्वीकार नहीं करता ।'' अब तो गृहस्थ पानी-पानी हो गया, उसने बुद्ध को प्रणाम कर क्षमा-याचना की और घर भोजन कराया ।

प्रलोभन ठुकराया 

देशबंधु चितरंजनदास अलीपुर षड़यंत्र केस के मुकदमे की तैयारी में व्यस्त थे । श्री अरविंद तथा अन्य क्रांतिकारी देशभक्तों के बचाव के लिए वे दिन-रात जाग कर तथ्य जुटा रहे थे ।

इसी बीच एक दिन एक व्यापारी अपने २ लाख रुपये वापस मांगने आया और देशबंधु की स्थिति को उपेक्षित कर रुपया लेने के लिए जम कर बैठ गया । यह राशि उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के लिए ही माँगी थी । उसी समय एक सजन अपने मुकदमें के लिए देशबंधु को अनुबंधित करने के लिए आ गए और प्रार्थना करने लगे, परंतु देशभक्तों को बचाने के लिए उन्हें जिस व्यस्तता के बीच काम करना पड़ रहा था, उसके कारण वह कोई दूसरा मुकदमा नहीं लेना चाहते थे । वे सज्जन पाँच लाख रुपये नकद देने तक को तैयार थे । परंतु देशबंधु ने बड़े विनम्र शब्दों में अपनी कठिनाई व्यक्त की । कहा कि इन देशभक्तों के जीवन के सम्मुख लाख तो क्या आपकी सारी संपत्ति भी मेरे लिए नगण्य है । आपको ऐसा प्रलोभन स्वीकार करने वाले तो अनेक मिले होंगे, पर ठुकराने वाले न मिले होंगे ।

दीनबंधु 

दीनबंधु एण्ड्रयूज इंग्लैण्ड मे जन्मे। पहले उनका विचार पादरी बनने का था । पीछे उनने समझा कि पिछडों को ऊंचा उठाना ही सज्जा धर्म है । उनने भारत की दुर्दशा सुन रखी थी । वे ग्रेजुएट होने के उपरांत सीधे भारत चले आये और टैगोर के शांति निकेतन में कुछ दिन रहकर सेवा के कार्यक्रम में जुट गए ।

वे गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन में सहायता करने दक्षिण अफ्रीका गए । देश की जनता में नव जागरण का संचार करते रहे । इसके अतिरिक्त प्रवासी भारतीयों की स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने फिजी आदि अनेक देशों का दौरा किया ।

भारत में अंग्रेजी अत्याचारों कें विरुद्ध सदा आवाज उठाते रहे । वे अंग्रेज होते हुए भी सच्चे अर्थों में भारतीय थे । गाँधी जी के नेतृत्व में उन्होंने रचनात्मक कार्य संपन्न किए ।

आदर्शवादिता को समर्पित-यदुनाथ सरकार 

यदुनाथ सरकार कलकत्ता के माने हुए विद्वान् थे । इंग्लैड में उनने शिक्षा पायी थी। उच्च पद पर आसीन होने की अपेक्षा उनने अध्यापन पसंद किया क्योंकि उसमें पढ़ने-लिखने के लिए अवकाश मिल जाता था ।

अच्छा वेतन मिलत था, कम में गुजारा करते थे । जो बचता था, उसे निर्धन विद्यार्थियों की पढ़ाई में लगा देते थे । कई तो उनमें हाईकोर्ट के एडवोकेट तक बने। कलकत्ता में प्लेग फैला तो वे सिस्टर निवेदिता के साथ सेवा और सफाई के कामों में एक स्वयंसेवक की तरह जुटे रहे।

भारतीय इतिहास को सुव्यवस्थित और प्रामाणिक बनाने में उनने अथक परिश्रम किया । किंवदंतियों एवं निहित स्वार्थो के संकेतों पर लिखा गया इतिहास यथार्थवादी बनाने के लिए उनने जीवन भर परिश्रम किया ।

सच्चे अर्थों में लौह पुरुष 

वारदोली सत्याग्रह की विजय से खीजी हुई सरकार ने वोरसद इलाके में चोर-डाकुओं को  उकसाया । उन्हें हथियार दिए और सारे इलाके में आतंक पैदा करा दिया । ढाई लाख टैक्स लगा कर सुरक्षा पुलिस भेजी; पर वह सिर्फ तमाशा देखती थी ।

सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उस इलाके में गाँव-गाँव घूम कर स्वयंसेवक मंडलियाँ खड़ी कीं । गाँव-गाँव पहरे लगवाये । लाठी चलाने की शिक्षा दी । इतनी सतर्कता देखकर डाकुओं का आतंक समाप्त हो गया । 

सरदार पटेल आंदोलन चलाना ही नहीं, व्यवस्था बनाना भी जानते थे । उन्हीं की हिम्मत थी कि बागी  रियासतों को राष्ट्रीय झंडे के अंतर्गत बँधने के लिए विवश कर दिया ।
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