प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-1

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अन्योऽय दिवस: सोऽयं सत्समागमसत्रज:।
नैमिषे दूरदेशेभ्य: संगतास्ते मनीषिणः॥१॥
मुनय: सर्व एवैत औदास्यमभजन्निह।
विचारयन्त: सत्रस्य श्वोऽवसानं तु दु:सहम्॥२॥
दायित्वानि ग्रहीतुं च स्वानि गन्तव्यमेव तै: ।
स्वस्वक्षेत्रेषु भूलोके विधातुं स्वर्गिणां गृहम्॥३॥
उषित्वा सह सवैंस्तु दिवसेष्वेषु सप्तसु ।
लब्धो य: परमानन्द: प्राप्त पीयूषमुत्तमम्॥४॥
संयोगस्तादृश: कुत्र प्राप्स्यतेऽस्माभिरुत्तम: ।
नैव जानीम इत्येतत्कारणं तस्य मुख्यत:॥५॥
आयोजनस्य हेतोश्च सर्वे याता: प्रसन्नताम् ।
पदयात्रा विशालास्ता: कुर्वन्त: कष्टदा अपि ॥६॥
मार्गेषु विविधेष्वेव स्थानेष्वेभि: स्थितेस्तथा।
जनसम्पर्ककार्यस्य समस्यानां समाहिते:॥७॥
धर्मचैतन्यगा वातावृतेरपि विनिर्मिते:।
लाभ: प्राप्तो ह्यनेकानां पुण्यनामपि तैरिह॥८॥
श्रेयोऽस्य ददति स्म ते सर्वमायोजनस्य तु ।
व्यवस्थापकवर्गेभ्य: सन्तुष्टा पूर्णत: समे ॥९॥
निवर्तनस्य कालेऽथ भिन्नै: पथिभिरेव च ।
पातुं क्षेत्रेषु भिन्नेषु धर्मश्रद्धाकरा अपि ॥१०॥
कार्यक्रमा मतौ तेषामुद्भवन्ति स्म सन्ततम् ।
कर्मठत्वकषग्राव तुल्या लोकहिताऽऽवहा:॥११॥
प्रारब्धो नियते काले दिनस्याऽस्य पुरोगम: ।
प्रश्नानां शृंखलायाश्च सोपानं चरमं त्विदम्॥१२॥
जिज्ञासूनां वरिष्ठश्च सोऽनुरोधं व्यधात्स्वयम् ।
अध्यक्षं चरम युग्मं वक्तुं धर्मधृते: शुभम्॥१३॥

टीका-आज संत-समागम सत्र का अंतिम दिन था। नैमिषारण्य में एकत्रित दूर-दूर से आए हुए मुनि-मनीषी यह सोचकर उदास थे कि कल यह समारोह समाप्त हो जायेगा। उन्हें अपने-अपने क्षेत्रीय उत्तरदायित्व सँभालने के लिए तथा पृथ्वी को देवताओं का स्वर्ग बनाने के लिए जाना पड़ेगा । साथ-साथ रहकर इन सात दिनों में जो आनंद उठाया-अमृत कमाया, वैसा सुयोग फिर न जाने कब-कहाँ मिलेगा? उदासी इसी बात की थी । वैसे वे सभी इस आयोजन के लिए लंबी कष्ट-साध्य पद-यात्राएँ करते हुए आने पर भी बहुत प्रसन्न थे । मार्ग में उन्हें अनेक स्थानों पर ठहरने-जन संपर्क साधने-समस्याओं के समाधान करने एवं धर्मचेतना का वातावरण बनाने जैसे अनेक पुण्य-परमार्थों का लाभ भी तो मिला था । इसका श्रेय इस आयोजन की व्यवस्था करने वालों को ही परम संतुष्ट होकर वे दे रहे थे । वापस लौटते हुए दूसरे मार्ग से जाने और अन्यान्य क्षेत्रों में धर्म-श्रद्धा उत्पन्न करने वाले कार्यक्रमों की योजनाएँ उनके मस्तिष्क में उठ रही थीं। जो उनकी कर्मठता के लिए कसौटी के पत्थर के समान व लोक हितकारी थीं। नियत समय पर पिछले दिनों की भाँति ही इस दिन का आयोजन भी शुरू हुआ । प्रश्नों की शृंखला का आज अंतिम सोपान था । जिज्ञासुओं में वरिष्ठ जरत्कारु ने धर्म-धारणा के अंतिम सुंदर युग्म पर प्रकाश डालने का अनुरोध करते हुए सत्राध्यक्ष से कहा-॥१-१३॥

जरत्कारुरुवाच-
समन्वय कथं देव! परार्थसहकारयो:।
उभयोरेक्यतस्तथ्यमेकं कस्मात् प्रजायते ॥१४॥
अस्मान् बोधयितुं सर्वं, रहस्यमिदमुत्तमम् ।
अनुग्रहो विधातव्यो भवद्भि करुणापैर: ॥१५॥

टीका-जरत्कारु ने कहा-हे देव! सहकार और परमार्थ का समन्वय कैसे होता है? दोनों के मिलने से
एक तथ्य कैसे बनता है? हे दयानिधे! इस रहस्य को समझाने का अनुग्रह करें ॥१४-१५॥

आश्वलायन उवाच-

युग्मे पञ्चमके बद्धामिमौ द्वौ तु परस्परम् ।
सहकारपरार्थाख्यावुदारत्वाभिबोधकौ॥१६॥
जायते व्यापकक्षेत्रे यदाऽऽत्मीयत्यविस्तर: ।
आत्मवत् सर्वभूतेषु भावनोदेति तत्र च ॥१७॥
उदेत्युदारविश्वासो वसुधैव कुटुम्बकम् ।
इतिरूपे सहास्तित्वं सहभुक्तिरुपैत्यलम्॥१८॥

टीका-आश्वासन जी बोले-पंचम युग्म में सहकार एवं परमार्थ जुडे़ हुए हैं, जो उदारता के बोधक हैं। आत्मीयता का विस्तार जब व्यापक क्षेत्र में होता है,  'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना जगती है और 'वसुधैव कुटुंबकम्' का उदार विश्वास विकसित होता है, तभी मिल-जुलकर रहना और मिल-बाँटकर खाने का व्यवहार चरितार्थ होता है॥१६-१८॥

अर्थ-धर्म के शाश्वत स्वरूप को बनाने वाले विभिन्न मुणों की चर्चा प्रसंग में यहाँ अंतिम चरण में सहकार एवं परमार्थ के परस्पर संबंधित युग्म की चर्चा ऋषिवर कर रहे हैं । इनका जीवन में समावेश होने पर सब ओर अपना ही स्वरूप परिलक्षित होने लगता है । जब प्राणी मात्र में अपना ही आपा दृष्टिगोचर होने लगे तो व्यवहार में उदार परमार्थ परायणता एवं सहयोग-सहकार की भावनाएँ विकसित होने लगती हैं । सारा विश्व एक कुटुंब के रूप में विकसित होने की पारिवारिकता-समष्टिगत एकता की भाव-संवेदना विकसित होना इसकी चरम स्थिति है । महामानवों का कोई न अपना होता है, न पराया । जैसे उनके लिए अन्य परिजन, मित्र, बंधु होते हैं, वैसे ही सभी प्राणी-मात्र होते हैं । इसी कारण वे समष्टिगात हित की बात सोचते हैं, मात्र अपने परिवार की सुख-सुविधाओं-स्वर्ग प्राप्ति, मोक्ष की संकीर्ण मान्यता मन में नहीं लाते ।

स्वामी रामतीर्थ वसुधैव कुटुंबकम् की व्याख्या करते हुए कहते थे-"हाथ का कमाल इसी में है कि वह अपना हित समस्त शरीर के में जुड़ा हुआ रखे । किसी भी अंग को अभाव या कष्ट हो, तो उसके निराकरण का उपयोग करे। यदि हाथ यह कर्तव्य धर्म छोड़ दे और कलाई तक ही अपने को सीमित कर ले, तो वह स्वयं भी नष्ट होगा और सारे शरीर को नष्ट करेगा ।

संपूर्ण जगत् एक शरीर है, व्यक्ति उसका एक छोटा अवयव । अवयव शरीर के साथ जुड़ा रहे; समाज के सुख, शांति और प्रगति का प्रयास करे, इसी में उसका हित साधन है । दूसरों की उपेक्षा करके संकीर्ण स्वार्थपरता में निरत व्यक्ति स्वयं मरते और समूचे समुदाय को मारते हैं?"

यह सहकार-सामंजस्य परंपरा लड़खड़ाने से ही सामाजिक जीवन में विग्रह पनपते और अपराध बढ़ते हैं । देखने में भले ही व्यक्ति अपराध के लिए दंडित हों; पर यह सच है कि उसके लिए सारा समाज उत्तरदायी होता है ।

सब पर जुर्माना

न्यूयार्क के मेयर लागार्डिया अपनी न्यायशीलता और सद्भावना के लिए समान रूप से प्रख्यात थे । एक
बार उनके न्यायालय में ऐस अपराधी का मुकद्दमा आया, जिसे रोटियाँ चुराने के अपराध में पकड़ा गया
था । भूख और बेवशी ने उसके लिए मजबूर किया था ।

कानून का पालन करते हुए लागार्डिया ने चोर पर दस डालर जुर्माना किया। साथ ही अदालत में जितने लोग
खडे थे, सब पर भी पचास-पचास सेंट का जुर्माना किया कि वे एक ऐसे समाज के सदस्य हैं, जिसमें गरीबी के कारण चोरी की आवश्यकता पड़ती है।

इस जुर्माने से मात्र पाँच डालर वसूल हो सके । शेष पाँच डालर न्यायाधीश ने अपनी जेब से भरे और अपराधी को मुक्त कराया ।

महापुरुषों के जीवन में घटनाएँ भिन्न-भिन्न हो सकती है; पर मूलत: यह वृत्ति ही उनके संपूर्ण जीवन क्रम का निर्धारण करती हैं । कहीं भी पतन और पराभव को इसी आधार पर प्रगति और प्रसन्नता के रूप में परिवर्तित हुआ देखा जा सकता है ।

दास प्रथा का अंत

उन दिनों अमेरिकन गोरे, अफ्रीका में गुलाम पकड़ते और जहाज भर-भर कर जानवरों की तरह बाजार में बेचते थे । उनसे बैलों के स्थान पर खेती-बाड़ी का काम लिया जाता । वे जूठा-कूठा खाते दिन भर पिटते और कड़ी मेहनत में जुटे रहते थे । बड़ा दयनीय था उनका जीवन ।

यह सब एक नारी हृदय से न देखा गया । वह इस अनाचार को बंद कम सकने में तो समर्थ न हो सकी; पर
उसने आदर्श उपस्थित करने का दूसरा रास्ता निकाला । उसने अपनी सारी संपत्ति बेच दी । बदले में गुलामों से भरा- पूरा एक जहाज खरीद लिया।

खरीदे गए गुलामों में से सभी को उसने पढ़ाना-लिखना व दस्तकारी सिखाना आरंभ कर दिया । सभ्य
समाज में स्वावलंबनपूर्वक रह सकने की स्थिति तक उन्हें सिखाया-पढ़ाया गया । जो वे कमाते थे, वह पूरी राशि उन्हीं के लिए खर्च कर देने की व्यवस्था थी ।

इस गोरी महिला का नाम था-फिलिप ह्विटले । उसके विद्यालय, कारखाने में पले और पढ़े कालों में से आगे
चलकर अधिकांश ने दास प्रथा समाप्त कराने के आंदोलन चलाए, नया आदर्श देखकर अनेक को नए तरीके से सोचने का अवसर मिला और उस देश में से दास प्रथा समाप्त होने का वातावरण बना।

तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन ने उस महिला की भूरि-भूरि प्रशंसा की। सभी विज्ञजनों ने ह्विटले के उस कार्य में पूरा सहयोग दिया ।

अपना काम न छोडे़ं

महापुरुष अपने लिए नहीं, सदा व्यापक हित में सोचते हैं । ठक्कर बापा बीमार पड़े । उन्हें देखने
आने के लिए पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे कितने ही प्रसिद्ध नेताओं के पत्र और तार आये । बापा ने सभी को न आने के लिए लिखवा दिया, कहा-" आप अपना काम छोड़कर देश सेवा में हर्ज न कीजिए । सहानुभूति के लिए यहाँ आने से मुझे कोई लाभ नहीं।"

कठिन परिस्थितियों में धैर्य बनाए रखना ऐसे ही महा-मनीषियों के लिए संभव होता है ।

गुरु माता का ऋण

द्रौपदी के पाँच पुत्रों को सोते समय द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने मार डाला । पांडवों के क्रोध का ठिकाना न रहा। वे उसे पकड़कर लाए और द्रौपदी के सामने ही उसका सिर काटना चाहते थे ।

द्रौपदी का विवेक तब तक जागृत हो गया, बोलीं-"पुत्र के मरने का माता को कितना दु:ख होता है । उतना ही दु:ख तुम्हारे गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी को होगा । गुरु ऋण को, उस माता के ऋण को समझो और इसे छोड़ दो।" अश्वत्थामा को छोड़ दिया गया ।

कर्ण का स्वर्ण दान

राजा कर्ण को साथी सेनापतियों में सबसे अधिक वेतन मिलता था। पर वे उसमें से निर्वाह मात्र लेकर शेष सत्कार्यो के लिए दान कर देते थे । मरते समय कृष्ण और अर्जुन साधुवेश में उनकी उदारता परखने पहुँचे कि देखें विपत्ति की घडी में भी कर्ण दानी रह सकता है या नहीं । कर्ण घायल पड़े थे । क्या देते? स्मरण आया कि दाँतों में सोना लगा है । उन्होंने उसी को उखाड़ कर दे दिया ।

पीडा निवारण से बड़ा कोई परमार्थ नहीं । आत्म विकास का अर्थ यह है कि संसार में जो भी प्राणी हैं, वे
सब अपने कुटुंबी है । अपने लिए जो आवश्यकताएँ हो सकती हैं, वही सारे समाज की होनी चाहिए । पहले उन्हीं की पूर्ति होनी चाहिए ।  महत्वाकांक्षाओं को उसमें आड़े नहीं आने देना चाहिए ।

माँ के गहने

महापुरुष परहितार्थाय ही जन्म लेते हैं। उन्हें स्वयं के लिए कुछ नहीं चाहिए ।

उन्नीसवीं शताब्दी का अंतिम समय था। ठाकुरदास नामक एक वयोवृद्ध कलकत्ता में रहता था । उसके परिवार में केवल एक बच्चा और पत्नी थे । इस सीमित परिवार का भरण-पोषण भी ठीक प्रकार से न हो पाता ।

नियति ने उन्हें मेदिनीपुर जिले के एक गाँव में ला पटका । वहाँ ठाकुरदास को दो रुपये माहवार की नौकरी
मिली । कालांतर में उनका देहांत हो गया । पत्नी के कंधों पर सारे परिवार का दायित्व आया। इसी तरह कई वर्ष बीत गए ।

एक दिन रात के समय बेटे ने अपनी माँ के पैर दबाते हुए पूछा-"माँ, मेरी इच्छा है कि मैं पढ़-लिखकर बहुत बड़ा विद्वान् बनूँ और तुम्हारी खूब सेवा करूँ ।"

"कैसी सेवा करेगा?" बेटा पढ़ने लगा था, इसलिए कुछ मन बहलाते हुए प्रोत्साहन के स्वरों में माँ ने पूछा ।

"माँ, तुमने बड़ी तकलीफ के दिन गुजारे है । मैं तुम्हें अच्छा-अच्छा खाना खिलाऊँगा और बढ़िया कपड़े
लाऊँगा । हाँ, तुम्हारे लिए गहने भी बनवाऊँगा ।"'

"हाँ बेटा, तू जरूर सेवा करेगा मेरी"-माँ बोली-"पर गहने मेरी पसंद के ही बनवाना ।"

"कौन से गहने माँ?"

"मुझे तीन गहनों की बड़ी चाह है।" माँ ने बताया-"पहला गहना तो यह है कि इस गाँव में कोई अच्छा स्कूल नहीं है । तुम एक स्कूल बनवाना । दवाखाना भी खुलवाना और तीसरा गहना यह है कि गरीब बच्चों के रहने,
खाने तथा शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था करना ।"

बेटे ने भावाभिभूत होकर माँ के चरणों में सिर रख दिया और तभी से उसे कुछ ऐसी धुन सवार हुई कि वह
अपनी माँ के लिए ये तीन गहने बनवाने हेतु जी तोड़ मेहनत करने लगा । उच्च पदों पर नियुक्त होकर भी उसे अपनी माँ के इन तीन गहनों का सदैव ध्यान रहा । वह बराबर स्कूल, औषधालय तथा सहायता केन्द्र खोलता चला गया ।

आगे चलकर स्त्री शिक्षा तथा विवाह के गहने भी अपनी माँ को चढ़ाये । यह महामानव और कोई नहीं
पं० ईश्वरचंद्र विद्यासागर ही थे ।

ग्रंथ पानी में बहाये

उदार आत्मीयता के समक्ष कोई भी त्याग छोटा है ।

चैतन्य महाप्रभु के बचपन का नाम निमाई था । सोलह वर्ष की आयु में ही उनने पंचटीका नामक व्याकरण ग्रंथ की सरल टीका लिखी, जिसे देखकर तत्कालीन पंडित समाज ने उनकी प्रतिभा की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी । व्याकरण का अध्ययन समाप्त कर चुकने पर वे न्याय का अभ्यास करने लगे । उनके सहपाठी मित्र पं० रघुनाथ उन्हीं दिनों 'दीधिति' नामक ग्रंथ की रचना कर रहे थे। अर्वाचीन न्याय केर ग्रंथों में अपना
ग्रंथ अद्वितीय हो, इनकी प्रबल महत्वाकांक्षा थी । जब उन्हें मालूम हुआ कि निमाई पंडित भी न्याय का एक ग्रंथ लिख रहे थे, तो वे भयभीत हो गए। निमाई कृत व्याकरण की टीका ने उन्के पांडित्य का परिचय जनमानस को दिया ही था । इसीलिए रघुनाथ पंडित के मन में डाह उत्पन्न हुआ कि ऐसा न हो, इनका ग्रंथ मेरे ग्रंथ से बढ़कर बने ।

यह सोचकर उनने निमाई से बढ़ा आग्रह करके उनका ग्रंथ देखने की इच्छा प्रगट की । शुरू में तो निमाई ने
बात टालने की कोशिश की; लेकिन रघुनाथ के आग्रह को देखकर दूसरे दिन वे ग्रंथ को साथ लेते आये। पाठशाला से लौटते समय वे नाव पर बैठकर रघुनाथ को अपना ग्रंथ सुनाने लगे । रघुनाथ ज्यों-ज्यों ग्रंथ को सुनते जाते, उनकी मनोव्यथा बढ़ती जाती और कुछ देर बाद वे बच्चों की तरह फूट-फूट कर तेने लगे । मित्र की यह दशा देखकर निमाई के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। आश्चर्य प्रकट करते हुए उन्होंने पूछा-"मित्र, तुम रो क्यों रहे हों?"

रघुनाथ बोले-"मेरी अभिलाषा थी कि न्यायाशास्त्र पर मेरा ग्रंथ सर्वश्रेष्ठ माना जाए । पर तुम्हारी कृति ने तो मेरी चिर संचित अभिलाशा पर पानी फेर दिया । तुम्हारे इस ग्रंथ के सामने मेरे ग्रंथ को कौन पूछेगा?" इतना सुनते ही
निमाई बड़े जोरों से हँस पड़े ।" मेरे मित्र को जिस कृति से कष्ट हो, उसका नष्ट हो जाना ही अच्छा है ।" -इतना कहकर उनने अपनी पोथी गंगाजी में प्रवाहित कर दी ।

नरक को स्वर्ग बनाया

एकाकी अपनी मुक्ति परमार्थ परायणों को कतई पसंद नहीं वे सबके हैं एवं नरक में भी रहकर उनके कल्याण की कामना रखते हैं । युधिष्ठिर का अंतकाल आया । पुण्य-पाप का लेखा-जोखा लिया गया । एक बार उनने अश्वत्थामा के प्रसंग में अर्द्ध झूठ बोला था, इसके लिए उन्हें एक दिन नरक में रहना था और सौ वर्ष स्वर्ग में।

पूछा गया, आप पहले स्वर्ग भुगतेंगे या नरक । युधिष्ठिर ने पहले एक दिन नरक में रहना उचित समझा, सो
वहीं चल दिए ।

नरक में सभी दु:खी है । युधिष्ठिर के आगमन से उस जलते क्षेत्र में शीतलता की लहर आयी । यमदूतों के
व्यवहार बदल गए । वहाँ के निवासियों ने संतोष की साँस ली । पुण्यात्मा के, आगमन की सभी ने खुशी मनाई ।

दूसरे दिन युधिष्ठिर जब विदा होने लगे, तो नरक निवासी रोने लगे । कहने लगे आप यही ठहरे रहते, तो हम लोगों का कितना उपकार होता ।

युधिष्ठिर गंभीर हो गए । सोचने लगे कोई ऐसा उपाय होता, जिससे मुझे स्वर्ग न जाना पड़ता, इन दुखिहारों के
बीच ही सदा-सर्वदा यहीं बना रहता। उपाय चित्रगुप्त से पूछा । उन्होंने कहा-"यदि युधिष्ठिर अपना समस्त पुण्य नरक निवासियों को दान दे दें और वहाँ के निवासियों का पाप अपने ऊपर ओढ़ लें तो ऐसा हो सकता है।"
 
युधिष्ठिर तैयार हो गए । उनने अपना सारा पुण्य नरकवासियों को दे दिया । वे सभी स्वर्ग चले गए । नरक
वालों के पाप अपने ऊपर लेकर वे अकेले ही नरक में रहने लगे । अपने सद्व्यवहार से उन्होंने यमदूतों को अपना परम मित्र बना लिया । सभी लोग हिल-मिलकर  रहने लगे । कुछ दिनों में नरक लोक ही सद्भावना, सहकारिता और स्नेह-सौजन्य का घर बन गया तथा वहाँ स्वर्ग जैसी परिस्थितियाँ दृष्टिगोचर होने लगीं ।

प्रभु प्राप्ति का मार्ग

एक फकीर बड़ी करुणापूर्वक प्रार्थना कर रहा था-"हे प्रभु, अपना द्वार खोलो, जिससे मैं तुम्हारे पास आ सकूँ। पास से ही तब तक संत राबिया निकलीं ।" उसने फकीर को समझाया-"मेरे भाई, देखो तो क्या सचमुच प्रभु का द्वार बंद है? जरा परमार्थ की भावना विकसित करके तो
देखो, पाओगे कि उनका द्वार तो हर संमय खुला रहता है । जो भी उन तक पहुँचना चाहे, इस माध्यम से पहुँच सकता है । उनका द्वार बंद होने का भ्रम दूर कर लो, तो ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग मिल जायेगा । याद रखो । ईश्वर उन्हीं से प्रसन्न हैं, जो दूसरे। के प्रति उदार हैं, जिनके रोम-रोम में सारे विश्व के कल्याण की भावना समायी हुई है ।

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