आशा विश्वास शक्ति: सा बलकौशलसाधनै: ।
विभवैरपि प्रोक्ता च श्रेष्ठा सर्वगुणान्विता॥६०॥
वाञ्छतीह नर: स्वं य: सुखिन च समुन्नतम् ।
साहसी पुरुषार्थी स श्रमशील: सदा भवेत्॥६१॥
प्रयोजनेषु: सन्दर्भस्थितेष्वेव मन: सदा।
नियोजयेन्न चाऽन्यत्र भ्रामयेत्तन्निरर्थकम् ॥६२॥
टीका-आशा और विश्वास की शक्ति-बल, कौशल और साधन की संपदा से भी अधिक है । जो सुखी
रहना चाहता हो, उन्नतिशील बनना चाहता हो, उसे चाहिए कि पुरुषार्थी रहे, साहस अपनाए और श्रमशील बने।
मन को प्रस्तुत प्रयोजनों में लगाये रहे, उसे इधर-उधर न भटकने दे॥६०-६२॥
अर्थ-निराश हो जाना मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है । महामानव सदैव ही इससे बचने की शिशा देते रहते हैं । निराश व्यक्ति के लिए बड़े कार्य करना संभव नहीं होता।
चट्टान का उपाख्यान
नाविक ने चट्टान से पूछा-"तुम पर चारों ओर से आघात लग रहे हैं फिर भी तुम निराश नहीं हो?"
और तब चट्टान की आत्मा धीरे से बोली-"तात, निराशा और मृत्यु दोनों एक ही वस्तु के उभयपृष्ठ हैं,
हम निराश हो गए होते, तो एक क्षण ही सही दूर से आये अतिथियों को विश्राम देने, उनका स्वागत करने से वंचित न रह जाते?"
जीत हमारी ही होगी
आत्मविश्वास से बड़ी कोई शक्ति नहीं। वह असंभव भी संभव कर दिखती है।
जापान का प्रसिद्ध सेनापति नोबुनागा कम सैनिकों व थोडे़ साधनों से ही अपने समर्थ विरोधियों के छक्के छुड़ा देने के लिए प्रख्यात था । वह अपने साथियों का मनोबल बढ़ाये रखने की कला में बहुत कुशल था ।
एक बार थोड़े सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए उसने एक तरकीब निकाली । देवता के मंदिर में उन्हें लेकर गया और सिक्के उछाल कर देवता की इच्छा सिद्ध करने लगा । सिक्के चित्त पडे तो जीत, पट्ट पड़े तो हार समझी जानी थी ।
सिक्के तीन बार उछाले गए । तीनों ही बार चित्त पड़े । सभी हर्ष से नाचने लगे । तालियाँ बजाते हुए चिल्लने
लगे-"जीत, जीत, जीत । लड़ाई लड़ी गई । चार गुनी अधिक संख्या वाले विपक्ष को उन बहादुरों ने तोड़-मरोड़ कर रख दिया और विजय का डंका बजाते हुए वापस लौटे ।
अभिनंदन समारोह में नोबुनागा ने उसे सैनिकों की नहीं उनके मनोबल की विजय बताया और रहस्य खोलते
हुए वे सिक्के दिखाये जो उछाले गए थे । वे इस चतुरता के साथ ढाले गए थे कि दोनों ओर वही मार्का था, जो चित्त कहा जाता था ।
सच तो यह है कि निराशा एवं भय एक कुंठा है, वह जिसके पल्ले पड़ी उसके लिए सहयोगी साधन भी
निरर्थक हैं।
कायर कहीं का?
दफ्तर के बडे बाबू बदहवास स्थिति में धर लौटे, तो उनकी पत्नी ने पूछा-" क्या हुआ, इतने हैरान कैसे है?"
बाबू ने कहा-"रास्ते में एक बदमाश से पाला पड़ गया । उसने मेरा कोट, जूता, चश्मा, पेन और बटुआ सब कुछ छीन लिया ।"
पत्नी ने आश्चार्य से पूछा-"तुम्हारे पास तो पिस्तौल थी न । उसका क्या हुआ?"
बाबू बोला-"भाग्य ही कहो! कि बदमाश की नजर उस पर नहीं पड़ी, नहीं तो उसे कब छोड़ने वाला था वह।"
मनुष्य के अंत:करण में जो महाशक्ति निवास करती है, उसका नाम है-आत्मविश्वास । उसकी शक्ति अपौरुषेय मानी गई है
अजेय आत्मविश्वास
भयंकर तूफान से गेलीलो झील का पानी बासों ऊँचा छलकने लगा । जो नावें चल रही थीं । वे बुरी तरह थरथराने लगी। लहरों का पानी भीतर पहुँचने लगा, तो यात्रियों के भय का बारापार न रहा, वे घबडाने लगे।
एक नाव में एक कोने में कोई व्यक्ति निर्द्वद्ध सोया पड़ा था । साथियों ने उसे जगाया । जग कर उसने तूफान को ध्यानपूर्वक देखा और फिर साथियों से पूछा-"आखिर इससे डरने की क्या बात है? तूफान भी आते है और मनुष्य मरते भी है । इसमें क्या ऐसी अनहोनी बात हो गई, जो आप लोग इतनी बुरी तरह हड़बडा रहे हैं?"
सभी उसका उत्तर सुनकर अवाक् रह गए । निर्द्वन्द्व व्यक्ति ने कहा-"विश्वास की शक्ति तूफान से बडी है । तुम विश्वास क्यों नहीं करते कि यह तूफान क्षण भर बाद बंद हो जायेगा । भयभीत यात्रियों के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना उस अलमस्त ने आँखें बंद कीं और अपने भीतर की झील में उतर कर कहा-"शांत हो जा मूर्ख! तूफान तुरंत शांत हो गया ।"
सहमे हुए नटखट बच्चे की तरह तूफान रुक गया । नाव का हिलना बंद हुआ तो यात्रियों ने चैन की सांस ली । अब उस अलमस्त यात्री ने-जीससक्राइस्ट ने साथियों से पूछा-" दोस्तो! विश्वास बड़ा है । तूफान को तुमने उससे भी बड़ा क्यों मान लिया था?''
दुष्ट से दुष्ट व्यक्ति और भयंकरतम परिस्थितियाँ भी आत्मविश्वासी का कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं । वह तो मृत्यु शैया में भी निर्द्वक शयन करता है ।
थोडी देर रुको
बोलपुर बंगाल के किराये के कितने ही गुंडे पैसे लेकर किसी की भी हत्या कर देने का व्यवसाय करते थे ।
शान्ति निकेतन विद्यालय के संचालक रवीन्द्रनाथ ठाकुर से एक पड़ोसी शत्रुता मानता था। पैसा देकर एक
गुंडे को हत्या कर देने के लिए तय कर लिया गया ।
रात्रि के अंधेरे का समय था । गुंडा छुरा निकाल कर आया । टैगोर बाबू अपनी कोठरी में कविता लिखने में
व्यस्त थे । उन्होंने नजर उठकर छुरा लिए गुंडे को देखा । क्षण भर में वे वस्तुस्थिति समझ गए । बिना डरे-झिझके उनने कहा-"सामने वाले स्टूल पर चुपचाप बैठ जाओ, देखते नहीं कितना जरूरी काम कर रहा हूँ। कविता पूरी होने के बाद अपना कामं करना ।" रवि बाबू की निर्भीकता से गुंडा सहम गया और छुरा बगल में दबाकर उल्टे पैरों वापस लौट गया ।
गांधी जी इतनी बड़ी शक्तिशाली अंग्रेजी सत्ता से अकेले जूझ पड़े, उसमें उनका आत्मबल ही प्रमुख था। वे विषम परिस्थितियों में भी अधीर नहीं हुए ।
एक पकड़ और लड़
सोलन नदी के तट पर हीरे की खदान होने के प्रमाण मिल रहे थे । रेफिल उसकी तलाश में अपने एक साथियों समेत जुट गया ।
पूरा एक वर्ष बीत गया । कोई दस लाख पत्थर के टुकड़े उसने बीने और फेंके, इनमें कोई हीरा न था। थकान से वह चूर-चूर हो गया । जो पास में था, वह भी उसी प्रयास में चुक गया । काम बंद करने और वापस लौट चलने
का निश्चय किया ।
लौटने की तैयारी होने लगी । तो भी रेफिल चलते समय तक प्रयास करता रहा । मन यही कहता एक पकड़
और लड़लें । एक दाव और लगालें। लौटने के निश्चित दिन से एक दिन पूर्व ही एक बड़ा सा हीरा उसके हाथ लगा।
बाजार में वह दो लाख डालर में बिका। नए उत्साह में उसने नया सरंजाम जुटाया और सोलन नदी के तट का नए सिरे से सर्वेक्षण किया। ढेरों हीरे मिले और वह विख्यात धनाढ्य बन गया ।
रेफिल के दफ्तर पर साइन बोर्ड की तरह अक्षर लिखे है-"निराशा के क्षणों में भी सोचते रहें कि एक पकड़
और लड़ेंगे ।"
ऐसे लोग परिस्थितियों के दास नहीं होते, अपितु परिस्थितियों को उनका सेवक बनना और हुक्म तक बजाना पड़ता है ।
ब्रिटिश का राणा साँगा
इंग्लैड का वेल्स बचपन से ही बहुत दुबला-पतला था, पर हिम्मत देखते ही बनती थी । सिपाही से वह सेनापति हुआ । उसने ऐसे मोर्चे जीते जिनकी सफलता की किसी को आशा नहीं। एक लड़ाई में उसका दाहिना हाथ चला गया, तो भी उसने हिम्मत नहीं हारी। दूसरे मोर्चे में एक आँख चली गई । सरकार उसे अपाहिजों की पेंशन देना चाहती थी, पर उसने लेने से इन्कार कर दिया। अगले मोर्चे पर वह पहले से भी अधिक उत्साह से लड़ने गया और कहता रहा हाथ और आँख से लड़ाई नहीं लड़ी जाती। उसके लिए सूझबूझ वाला दिमाग और हिम्मत वाला कलेजा चाहिए । सो वे दोनों चीजें मेरे पास हैं । फिर लडाई में जीतने में क्या शंका? सभी परिस्थितियों में इतनी सफलता प्राप्त करने वालों में वेल्स का नाम सेना के इतिहास में अनुपम है। उन्हें ब्रिटिश
का राणा साँगा कहा जाता है ।
कायर एक बार जीता और बार-बार मरता है पर आत्म-विश्वासी एक बार जन्म लेता, एक ही बार मरता है ।
मध्यवर्ती विपत्तियों से समझौता करना उसकी जिजीविषा कभी भी स्वीकार नहीं करती ।
मौत से भी जीता
जर्मनी का जनरल रोमेल अनेक लड़ाइयाँ ऐसे जीता कि लोग उसे चमत्कारी जादूगर कहते थे। अफ्रीका में उसे अंग्रेजी सेना से मुकाबला करना पड़ा। अंग्रेजों की शक्ति दस गुनी होते हुए भी उन्हें ५०० मील पीछे हटने और भारी पराजय का मुँह देखने के लिए विवश कर दिया ।
कठिन से कठिन मोर्चे पर रोमेल को भेजा गया और वह वहाँ जीत कर आया । सैनिकों में जोश भरने की उसमें अद्भुत क्षमता थी । एक मोर्चे पर उसके शिर के तीन टुकड़े हो गए। डाक्टरों ने बचने की आशा छोड़ दी, तो भी वह अपने मनोबल के सहारे मौत को पमस्त कर जीवित हो गया। इतना ही नहीं इसके बाद भी उसने कई मोर्चे जीते ।
मृत्यु आत्मविश्वासी की मुट्ठी में रहती है। यह निर्भय स्थिति प्राप्त कर लेना सबसे बड़ा पुरुषार्थ है इसे महामानव ही प्रत्यक्ष दिखा सकते हैं, जन साधारण नहीं।
विष निर्विष
पौधों को संवेदनशील सिद्ध करने वाले जगदीश चंद्र वसु अपने प्रतिपादन को सही सिद्ध करने के लिए इंग्लैंड गए। उनका प्रदर्शन वैज्ञानिकों की भरी सभा में होने वाला था । एक पौधे को इंजेक्शन लगाकर वे उस विष के कारण पौधे पर होने वाली प्रतिक्रिया सिद्ध करना चाहते थे।
इंजेक्शन लगाया गया । पर पौधे को कुछ नहीं हुआ । वह जैसे का तैसा बना रहा । इस पर आत्मविश्वासी
वसु ने कहा-"यदि पौधे पर यह इंजेक्शन काम नहीं कर सकता, तो मेरे ऊपर भी नहीं करेगा ।" यह कहकर उसी तरह की दूसरी सुई अपनी बाँह में लगा ली, सभी स्तब्ध थे। जहर का इंजेक्यान लगाने पर क्या दुर्गति हो सकती है, यह सभी जानते थे ।
वसु को भी कुछ नहीं हुआ । इस पर इंजेक्शन की जाँच-पड़ताल की गई । पता लाा कि गलती से विष के स्थान पर निर्विष इंजेक्शन का प्रयोग हो गया है ।
दूसरी बार सही सुई लगाई गई । पौधे पर तत्काल प्रतिक्रिया हुई । अपनी खोज वे पूरी गंभीरतापूर्वक करते थे और प्रतिपादन से पूर्व प्रामाणिकता की भली-भाँति जाँच-पड़ताल कर लेते थे। आत्म-विश्वास इसी कारण उपलब्ध हुआ था ।
यह तथ्य मात्र पढ़ लेना पर्याप्त नहीं वरन् इन्हें जीवनयात्रा में धैर्यपूर्वक अपनाना और अभ्यास करना भी
आवश्यक होता है, तब कहीं वे संस्कार बनते और अगले जन्मों में जन्म-जात पूँजी के रूप में परमात्मा के उपहार जैसे अनायास ही प्राप्त होते हैं ।
पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं
छात्रों में आरुणि विशिष्ट मेधावी था और आज्ञाकारी भी । वह तत्वज्ञानी बनना चाहता था । कुलगुरु उद्दालक भी इसके लिए उत्सुक थे । उचित मूल्य पर उचित उपलब्धि का पर्याप्त नहीं सिद्धांत अपनाया गया। सस्ते में बहुमूल्य पाने का कोई प्रचलन इस संसार में है भी तो नहीं ।
आरुणि को सौ दुबली गौएँ दी गई और कहा उन्हें हजार तक बढ़ाए और गाड़ी करके दिखाए । उसके उपरांत
तत्वज्ञान की दीक्षा मिलेगी ।
आरुणि झुंड को लेकर चल पड़ा । घास-पानी की उपयुक्त जानकारी प्राप्त करता झुंड को एक जगह से दूसरी जगह ले जाता । सुरक्षा का प्रबंध करता और आए दिन की समस्याओं से जूझता । यही क्रम चलता रहा और दस वर्ष में गौएँ सौ से बढ़कर हजार हो गई । झुंड को लेकर वह गुरुकुल को वापस लौट आया ।
आरुणि के चेहरे पर ज्योतिर्मान् ब्रह्मतेजस् उभरा हुआ देखकर आचार्य ने हर्ष व्यक्त किया और उसके पुरुषार्थ
प्रयास की मुक्त कंठ से सगहना की । कुछ ही दिन गुरु सान्निध्य में रहकर वह अद्वितीय ब्रह्मज्ञानी घोषित किया गया ।
लंबे समय से ग्रंथ परायण में निरत छात्रों ने कुछ ही समय में आरुणि को निष्णात घोषित किए जाने का कारण पूछा, तो कुलपति ने इतना ही कहा-" ज्ञान की पूर्णता अनुभव, अभ्यास और आदर्श को जीवन में घुला लेने पर ही उपलब्ध होती है । मात्र पठन-पाठन उसके लिए पर्याप्त नहीं माना जाता ।"
कबीर का कमाल
मन एकाग्र हो तो दुनियाँ की कोई भी हलचल उसे विचलित नहीं कर सकती।
कबीर गायक थे और उनका बेटा कमाल नर्तक। दोनों की जोड़ी बैठती तो रंग बँध जाता। कबीर को
आश्चर्य-था कि इसने नृत्य सीखा कहाँ?
एक दिन कमाल घास खोदने लगे । देर रात तक न आए तो सबको चिंता हुई । कबीर ढूँढ़ने निकल पड़े । देखा
तो छीली हुई घास एक कोने में पड़ी है । तेज चलती हवा के साथ उस तरावट में मूँज लहरा रही थी । कमाल उसके साथ तन्मय होकर झूमती घास के साथ तन, मन की सुधि भूलकर उसी तरह झूम रहे थे । कबीर ने जाना कि तन्मयता ने ही इसे नर्त्तन सिखाया ।
श्रमत: कच्छपोऽजैषीच्छशकं तीव्रगामिनम् ।
सन्ततं मन्दगत्याऽपि श्रमलग्ना पिपीलिका ॥६३॥
शिखरं भूधरस्यैषा याति भारयुतषिप तु।
बयो विहगनीडोऽपि तच्छृमं ख्याति सुन्दर: ॥६४॥
मनोयोगं च, मूर्खास्ते श्रमलग्ना भवन्त्यपि ।
विद्वांसो निर्धनाश्चाऽपि धनवन्तो न संशय:॥६५॥
टीका-कछुए ने खरगोश से बाजी जीती थी । चींटी धीरे-धीरे किन्तु अनवरत श्रम करके बोझ लिए-लिए
पर्वत शिखर पर जा पहुँचती है । बया पक्षी का इतना सुंदर घोंसला होना, उसके अथक श्रम और समुचित मनोयोग का ही प्रतिफल है । श्रम संलग्न होने पर मूर्खों ज्ये विद्वान् और निर्धनों को धनवान् बनने का अवसर मिलता है॥६३-६५॥
अर्थ-यदि लगन सच्ची हो, संकल्प बल दृढ़ हो एवं श्रम करते रहने पर भी धैर्य रखे रहने का गुण मनुष्य में हो तो भले ही प्रगति की गति धीमी हो, सफलता अंतत: मिलकर ही रहती है। हर कार्य तत्परता एवं तन्मयता का समन्वय होने पर ही श्रेष्ठ बनता है। कारीगर, मूर्तिकार, चित्रकार सुंदर-आकर्षक कृति तभी बना सकते हैं, जब तनिक भी विचलित हुए बिना वे पूर्ण मनोयोग से उसमें लगे रहें । परीक्षा में सफलता इसी आधार पर मिलती है । व्यक्ति-व्यक्ति के लिए एक से होते हुए भी परिणतियाँ भिन्न- भिन्न इसीलिए होती हैं कि एक ने उसमें अपने आपको पूरी तरह झोंक दिया । दूसरा किसी तरह टाल-मरू करता हुआ पूरा करता रहा ।
कभी भी निराश न होने वाले, सदैव अपने काम में तत्परता से लगे रहने वाले कर्मयोगी कहलाते हैं। उनके हाथ में जो काम होता है, वह निश्चित ही पूरा होता है, सुंदर परिणति को प्राप्त होता है । ऐसे पुरुषार्थी अपने अध्यवसाय से उच्च स्थिति तक पहुँचते हैं ।
लगन-अध्यवसाय की चमत्कृतियाँ
नैपोलियन सैनिक स्कूल की परीक्षा में ४२ वें स्थान पर रहा, जबकि स्कूल में मात्र ५८ विधार्थी थे। उसे फिसड्डी माना जाता था।
चार्ली चैपलिन विदूषकों की प्रारंभिक प्रतियोगिता में हारे हुए घोषित किए गए ।
अमेरिका के राष्ट्रपति गारफील्ड जिस परिवार में जन्मे थे, वह उन दिनों गरीबी के निचले स्तर पर था और झोंपड़े में गुजारा करता था ।]
ये सभी उदारहण उनके है, जिनने मनोयोग के सहारे सफलताएँ पाईं, जबकि प्रारंभ में उनकी स्थिति सामान्य से भी बदतर थी ।
इसी प्रकार आइन्स्टीन अपने विद्यार्थी जीवन में गणित में फिसड्डी कहलाते थे । साथी उन्हें चिढ़ाया करते
थे-गणित तुम्हें जन्म भर नहीं आवेगा । पर वे सभी को एक ही उत्तर देते- गणित मेरा प्रिय विषय है, उसमें प्रवीण होकर रहूँगा ।
आइन्स्टीन लगन के साथ लगे रहे और अंतत: विज्ञान के उस विषय में पारंगत होकर ही रहे, जो पूरी तरह उच्च कोटि के गणित पर निर्भर है ।
आचार्य रघुवीर
धन के धनी, लगन के पक्के, लगनशील विद्वान् का नाम है-आचार्य रघुवीर । उनने यूरोप के देशों में जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त की । पर उन्हें एक ही लगन थी कि हिन्दी को सर्वसमर्थ कैसे बनाया जाय । इसके लिए उनने चार लाख शब्द गढ़ कर उसका कोष भंडार पूरा किया। एक बार सर्व भाषा सम्मेलन उनने इसी उद्देश्य से बुलाया कि हिन्दी के विरोध का जो वातावरण चल रहा है, उसे दूर किया जा सके । आचार्य जी कहा करते थे कि न केवल भारत की राष्ट्रभाषा बनने की सारी विशेषताएँ हिन्दी में मौजूद है, वरन् वह विश्व भाषा बनने योग्य भी है ।
३० वर्ष तक विधार्थी
अँग्रेजी विद्वान इलियट ने तो अपनी इस सतत् सम्पन्न होने वाली श्रम-साधना के सहारे न केवल अँग्रेजी अपितु संसार की अनेक भाषाओं को वह विचार प्रदान किये जिनसे आज करोड़ों लोग प्रेरणा व प्रकाश ग्रहण कर रहे है ।
इंग्लैण्ड में जन्मे इलियट के पिता का संपन्न करोबार था । उन्होंने पिता के व्यवसाय में संपन्न होने की अपेक्षा
साहित्य-सेवा करने का निश्चय किया। इसके लिए वे पिता से सहायता लेने की अपेक्षा नौकरी करते और विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ते रहे । दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय था । इसके माध्यपन के लिए वे फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका आदि देशों में भी गए । ३० वर्ष की आयु तक वे विशुद्ध विद्यार्थी रहे । इसके बाद उन्होंने साहित्य-सेवा आरंभ की । अंग्रेजी का
काव्य साहित्य और दर्शन उन दिनों तक बड़ा घटिया था । इलियट ने जो उच्च श्रेणी की कृतियों दी हैं, उनसे न केवल अँग्रेजी वरन् विश्व साहित्य की -गरीबी दूर हुई है ।
श्रम-साधना के लिए कोई आयु निर्धारित नहीं, कोई मुहूर्त तय नहीं, जिस क्षण उसका बोध हो जाये, तभी से प्रारंभ कर देने वाला भी अंतत: कालिदास बन सकता है ।
महापंडित कालिदास
कालिदास सर्वथा निरक्षर थे, पंडितों की चालाकी से उनका विवाह एक विदुषी को शास्त्रार्थ में हराकर करा दिया । विवाह होने के बाद भेद खुला तो विद्योत्तमा ने कालिदास से कहा-"आप मेरे पति बनना चाहते है, तो मुझसे अधिक विद्या प्राप्त करें।"
कालिदास को बात चुभ गई । उनने पूरी लगन और मेहनत से पढ़ना आरंभ कर दिया । लगन जीती और मूर्खता हारी । कालिदास उच्चकोटि के विद्वान् हो गए । घर लौटे तो पत्नी ने संस्कृत के प्रश्न पूछे । उनके उत्तर में उन्होंने तीन महाकाव्य लिखकर दिए । रघुवंश, मेघदूत और कुमार संभव । पत्नी के उलाहने पर लगनशील बनकर उच्चकोटि की विद्वत्ता प्राप्त करने का संसार में यह एक ही उदाहरण है ।
शिक्षा की तरह ही जीवन के किसी क्षेत्र में अविचल लगन और निरंतर श्रम से आगे बढ़ा जा सकता है ।
महापुरुषों के जीवन वृतांत इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण है ।
बढ़ई से राष्ट्रपति
जोम्यो केन्याता उस लड़के का नाम है, जो दस वर्ष की आयु में सड़क पर घूमता, कहीं भोजन का जुगाड़ बैठ जाता, तो वहीं ठहर जाता। पादरी उसे ले गए और बढ़ईगीरी सीखने की शर्तपर पूरा भोजन देने की व्यवस्था कर सके, साथ ही पढाई भी चलने लगी। थोडो चेतना आने और उम्र बडी होने की स्थिति में उनने अपने समुदाय की स्थिति सुधारने की बात सोची। उन्होंने अपने समुदाय के लिए पत्रिका निकाली, ताकि उनमें जो पढ़े-
लिखे हों, वे उनकी बात सुन-समझ सकें । केन्या की स्थिति पर उनने पुस्तक लिखी, उसे लेकर इंग्लैंड गए। पर उनके सुधार प्रस्ताव किसी ने सुने नहीं । निराश वे लौट आए और गाँधी जी के ढंग का असहयोग आंदोलन चलाने लगे । बहुत संघर्ष के बाद वे उस देश के राष्ट्रपति बने । उनके शासन काल में केनिय वासियों ने अच्छी उन्नति की ।
सूझबूझ एवं मनोयोग का प्रतिफल
ऐंड्यू कारनेगी उस मजूर का नाम है, जो दिन भर मजूरी करके १५ रुपये मासिक कमाता और उसकी पत्नी पडोसियों के कपडे़ धोकर कुछ कमा लेती । इस स्थिति में भी परिवार में भारी प्रेम था । इकलौता बेटा अपनी माँ को आश्वासन देता रहता कि मैं थोडा बडा हो जाऊँगा, तो ज्यादा कमाऊँगा और तुम लोगों की यह स्थिति न रहने दूँगा । परिश्रम और सूझबूझ के सहारे उन सबने
मिलकर घोर परिश्रम किया और मासिक आमदनी पंद्रह हजार तक हो गई ।
लड़के का विवाह का प्रश्न आया, तो उसने स्पष्ट इन्कार कर दिया कि जो वचन मैंने माँ को दिए वे पूरे न हो
सकेंगे । प्यार बँट जायेगा । ५२ वर्ष की उम्र तक माता जीवित रहीं, तब तक उसने विवाह नहीं किया । पैसे की तंगी दूर हो गई थी, पर माँ से असीम प्यार करने वाला बेटा उसके जीवित रहते किसी भी शर्त पर विवाह करने को तैयार न हुआ । माँ के देहावसान पर ही उसने ५२ वर्ष की आयु में विवाह किया ।
निरंतर प्रयत्न का अर्थ है आत्मविश्वास-"मैं इसे अवश्य पूर्ण कर लूँगा'-यह विश्वास जगाया जाये, तो निराश एवं बिखरा हुआ व्यक्ति भी प्रगति के उच्च शिखर तक चढ़ सकता है ।
तेरहवीं बार
मकडी एक लंबा ताना-तान रही थी । उतना बन नहीं पड़ रहा था । बार-बार टूट जाता था । फिर भी वह निराश नहीं हुई । प्रयास जारी रखा और चौदहवें प्रयास में सफल हुई।
यह दृश्य पराजित ब्रूसो देख रहा था। उसने तेरह बार लड़ाई में मात खाई थी । मकड़ी के साहस से प्रभावित
होकर उसने चौदहवीं बार लड़ाई की तैयारी की और दूने उत्साह से लड़ा और सफलता प्राप्त की ।
ब्रूसो कहते रहते थे कि हर असफलता बताती है कि पूरी तत्परतापूर्वक कार्य नहीं हुआ । जो भूलों को समझते है
और सुधारते है, वे असंभव को भी संभव कर दिखाते है।
हमें निरंतर काम चाहिए
जिन्हें राष्ट्रीय समृद्धि अभीष्ट है, चरित्र निष्ठा जिनकी प्रबल है, उन्हें आराम पसंद नहीं होता । वे सतत् कर्मनिष्ठ बने रहना पसंद करते है ।
जापान पर अक्रमणकारियों का कब्जा हो गया । उनने श्रमिकों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए एक
चाल चली । दैनिक श्रमिक का एक घंटा घटा दिया और सप्ताह छ: दिन की बजाय पाँच दिन कर दिया।
इस पर श्रमिकों ने घोर विरोध प्रकट किया और कहा-"यह हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर आक्रमण है । हमने श्रम के
द्वारा ही इस छोटे से टापू को समर्थ बनाया है । यदि हममें श्रम से जी चुराने की आदत डाली गई, तो प्रस्तुत संकट से हम हजार वर्ष में भी न उबर सकेंगे ।
उनकी बात मानी गई । श्रम का समय न घटाकर थोड़ा वेतन बढ़ा दिया गया। ऐसे उदाहरण बताते हैं कि
समय की गरिमा समझकर मनोयोगपूर्वक उसका सुनियोजित उपयोग करने वाले ही कुछ अर्जित कर पाते हैं ।