प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-6

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वार्ता काऽपि चचालायमितिहासो नृणां क्रमात् ।
अस्मादेव न चाऽन्योऽस्ति पन्था विज्ञात उत्तम: ।। ५९ ।।
प्राप्तज्ञानस्य लाभं च विन्दन्तोऽतो यदस्ति च ।
अज्ञातं ज्ञातमेवाद: प्रयासोऽपि विधीयताम् ।। ६० ।।
इतिहासं च सम्मान्य भविष्यन्निर्मितिस्तथा ।
निर्धारणस्य हेतोश्चाऽपिहिता बुद्धिरिष्यते ।। ६१ ।।
तत्वज्ञानस्य सिद्धान्तस्त्वयमेव हि विद्यते ।
आधारमिममाश्रित्य विज्ञानं जृम्भितं स्वयम् ।। ६२ ।।
यथास्थानं स्वपादौ च स्थिरौ यैर्विहितौ नरै: ।
प्रगते: पथि यातुं च शक्यं नाग्रहिभिस्तु तै: ।। ६३ ।।

टीका-मानवी प्रगति का इतिहास क्रम से चला है और इससे भिन्न कोई उत्तम मार्ग विदित भी नहीं है । अत: उपलब्ध जानकारी का लाभ उठाते हुए भी जो अविज्ञात है, उसे समझने का प्रयास करें । इतिहास का सम्मान करते हुए भी भविष्य में निर्माण एवं निर्धारण के लिए मस्तिष्क खुला रहे । तत्वज्ञान का सिद्धांत यही है ।
विज्ञान इसी आधार पर विकसित हुआ है । पैरों को यथास्थान जमाये रखने के आग्रही प्रगति पथ पर अग्रसर नहीं हो सकते ।। ५१- ६३ ।।

अर्थ-व्यवधान या विघ्र-बाधा उपस्थित होने पर भी अपने उद्देश्य से विचलित न होना दृढ़ता का प्रमाण है । परंतु अपनी दृढ़ता सिद्ध करने के प्रयास में व्यक्ति प्रगति ही न करे, यह कोई समझदारी नहीं हुई । विचारों की दृढ़ता और बात है तथा विचारों की जड़ता उससे भिन्न है । जड़ता अपने से भिन्न कुछ सुनना नहीं चाहती,
दृढ़ता बिना विवेक की कसौटी पर कसे किसी भी बात को यों ही स्वीकार नहीं कर लेती ।

प्रस्तुत जानकारी का लाभ उठाते हुए जानकारी बढ़ाते चलने के क्रम से ही तत्व ज्ञान, विज्ञान, सभ्यता सभी का विकास हुआ है । इस क्रम को रुकने नहीं देना चाहिए । प्रत्येक फैक्ट्री सफल उत्पादन के साथ उसमें नये सुधारों पर शोध करती रहती है । नयी दृष्टि देंने वालों को यह ककर अपमानित नहीं किया जाता कि तुम पिछले उत्पादन का महत्व घटा रहे हो । बल्कि प्रोत्साहन देकर अपने उत्पादन का स्तर बढ़ाया जाता है ।

राम-लक्ष्मण का कौशल 

विश्वामित्र जी ने यज्ञ रक्षा कें लिए दशरथ जी से राम-लक्ष्मण को माँगा । निश्चित रूप से वे वीर बालक राक्षसों को परास्त करने में समर्थ थे, अन्यथा न तो ऋषि माँगते और न दशरथ देना चाहते ।

परंतु राम-लक्ष्मण ने अपना विकास रोका नहीं । अपनी वर्तमान क्षमता से असुरों को परास्त करते रहे और ऋषियों से नयी विद्याएँ सीखते रहे । इसका परिणाम यह हुआ कि असुर तत्व हर प्रयास के बाद भी उनसे पार न पा सके ।

अर्जुन की प्रगति 

राजकुमारों के परीक्षण में अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर घोषित किया गया था । उस विद्या का उपयोग करते हुए भी उन्होंने कौशल की खोज और अभ्यास का क्रम जारी रखा था । बारह वर्ष वनवास काल में अनेक सिद्ध अस्त्र और सिद्ध विद्याएँ उन्होंने प्राप्त कीं। इसीलिए अजेय कहलाने की अक्षय कीर्ति के भागीदार बने।

परिस्थिएतिथों के अनुसार अपना दृष्टिकोण बनायें 

हेरी मार्टिन अमेरिका के उस विचारशील का नाम है, जो अमेरिकी छात्रों को दुनियाँ देखने और दुनिया भर के छात्रों को औसत अमेरिका का जीवन देखने का प्रबंध करते हैं । आमतौर से पर्यटक किसी देश की इमारतें या अचंभे की चीजें देखने जाते हैं; पर मार्टिन का प्रबंध यह है कि विश्व के औसत नागरिकों की परिस्थितियाँ विद्यार्थी देखें और उसके अनुसार अपना दृष्टिकोण बनायें कि आज की दुनियाँ क्या है और उसके संबंध में उन्हें क्या सीखना और क्या निश्चय करना चाहिए । मार्टिन के प्रबंध में इस प्रकार के पर्यवेक्षण का लाभ प्राय: एक लाख विद्यार्थी उठा चुके हैं । वे इस प्रयास को विश्व बंधुत्व की भावना पनपाने कें लिए उपयोगी मानते हैं । ज्ञान वृद्धि के परंपरागत क्रम से यह नया क्रम
अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है ।

गलतियाँ सुधारने का क्रम चलायें 

एक अनगढ़ व्यक्ति दार्शनिक अरस्तू के पास पहुँचा और ब्रह्म ज्ञान की दीक्षा माँगने लगा । सिर से पैर तक दृष्टि डालने के बाद उन्होंने सिखावन दी-''नित्य कपड़े धोना और बाल संभालना आरंभ करो । गलतियाँ सुधारते चलने का सिलसिला ही साधना कहलाता और परमात्मा तक पहुँचाता है ।''

सुभाष ऐसे महामानव बने 

सुभाष बोस बच्चे ही थे । माँ की बगल में से उठकर जमीन पर जा सोये । मां के पूछने पर उनने बताया-''आज अध्यापक कह रहे थे कि हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि थे । जमीन पर सोते और कठोर जीवन जीते थे। मैं भी ऋषि बनूँगा, सो कठोर जीवन का अभ्यास कर रहा हूँ ।''

पिताजी जग गए । उनने कहा-''जमीन पर सोना ही पर्याप्त नहीं । ज्ञान संचय और सेवा संलग्र होना भी आवश्यक है । अभी तुम माँ के पास सो जाओ, बड़े होने पर तीनों काम करना ।''

सुभाष ने अध्यापक की ही नहीं पिता की बात भी गिरह बाँध ली । आई० सी० एस० पास करके जब अफसर बनने की बात सामने आई तो उनने कहा-मैं जीवन का लक्ष्य निक्षित कर चुका हूँ । मातृभूमि की सेवा करूँगा और महान बनूँगा ।'' बचपन का निश्चय उन्होंने मरण पर्यंत निबाहा । ऐसे होते हैं महामानव ।

अंधों के पीछे न चलें 

एक व्यक्ति की नाक कट गई । उसने उपहास से बचने और साथ रहने के लिए औरों को भी वैसा ही बना लेने का कुचक्र रचा । लोगों से कहना शुरू किया-''नाक की आड़ में भगवान छिपे थे, उसके कट जाने पर उनके प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं ।'' बात पर विश्वास करके कई अन्यों ने भी नाक कटवा ली । दर्शन तो किसी को न हुए; पर उपहास से बचने के लिए वे भी झूठ-मूठ वैसा ही कहने लगे ।धीरे-धीरे एक बड़ा नकटा सम्प्रदाय बन गया ।

बात राजा तक पहुँची । वह भी नाक कटाने को तैयार हो गया । बूढ़े मंत्री ने रोका और कहा-''पहले मैं कटा
लेता हूँ । यदि बात सच हो तब बाद में आप कटाना ।'' वैसा ही हुआ । मंत्री को भी सम्प्रदाय वालों ने वही पट्टी पढ़ाई, तो उसने इंकार कर दिया । राजा ने वस्तुस्थिति जानी, तो उन बहकाने वालों को पकड़ कर कठोर दंड दिया ।

इन दिनों अंधों के पीछे चलने वाले अंधों की कमी नहीं, जो एक-एक करके जाल में फसते और गर्त में गिरते जाते हैं ।

इन्द्र-विरोचन 

इन्द्र और विरोचन प्रजापति के पास जीवन का मार्ग समझने की जिज्ञासा लेकर एक साथ पहुँचे । प्रजापति ने सूत्र कहा-'' शरीर को समझो ।''

दैत्य विरोचन ने मान लिया यही अंतिम सत्य है । अपने परिजनों को भी यही बताया कि शरीर को समझो,
सम्भालो, बढ़ाओ इसी में जीवन की सार्थकता है ।

इंद्र नें जिज्ञासु भाव बनाये रखा । शरीर का अध्ययन करते हुए प्राण का आभास हुआ, तो पुन: प्रजापति के पास पहुँचे । उन्होंने पुन: सूत्र दिया । यही क्रम चलता रहा । इंद्र क्रमश: शरीर के अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोशों का रहस्य समझते हुए पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सके ।

प्रगति हो तो कैसे? 

एक लकड़ी पानी के किनारे पड़ी थी । उसे तीन जानवर खींच रहे थे । मछली नीचे ले जाना चाहती थी । बतख ऊपर उड़ा ले जाने की फिकर में थी । कछुआ जमीन पर घसीट रहा था । तीनों पूरा जोर लगा रहे थे । पर वह जहाँ की तहाँ रही । एक इंच भी आगे न बढ़ सकी ।

मन, बुद्धि और चित्त जीवन की गाड़ी को अपनी अपनी-अपनी दिशा में ले जाना चाहते हैं पर लक्ष्य एक न होने के कारण जीवन जहाँ का तहाँ ही बना रहता है, प्रगति जरा भी नहीं हो पाती ।

यही बात जीवन के हर पहलू पर लागू होती है । प्रगति हेतु दिमाग खाली रखना, अविज्ञात को जानने का प्रयास करना, पूर्वाग्रहों से बचना एवं हर प्रयास को बिना निराश हुए खाली न जाने देना अनिवार्य है।

मन्तव्यं धर्ममूलं च सत्ममेवाप्तुमप्यत: ।
अतिरिक्ताश्च भित्रास्ता ज्ञातुं वाञ्छाऽस्तु मान्यता: ।। ६४ ।।
औचित्यस्य यथार्थस्य दिशायामभियातृभि: ।
निष्पक्षस्याधिगन्तव्यो न्यायस्याश्रय उत्तमै: ।। ६५ ।।
ज्ञानं चेदृशमेवात्र मनुष्यं सत्यमार्गणे ।
करोत्यग्रेसरं येन पूर्णलक्ष्याप्तिसम्भव: ।। ६६ ।।
पुरुषा आग्रहिण: स्वं च सीमाबन्धनमेव तु ।
सर्वस्वं मन्यमाना हि भजन्ते हि दुराग्रहम् ।। ६७ ।।
दूरं सत्यात्समग्राच्च तिष्ठन्त्येव निरन्तरम् ।
विवेकालम्बनं तस्यात्सत्याप्त्यै धुवमिष्यते ।। ६८ ।।

टीका-धर्म के मूल स्वरूप को सत्य माना जाय । इसके अतिरिक्त अन्यान्य मान्यताओं के संबंध में अधिक जानने की इच्छा रखी जाय । औचित्य और यथार्थ की दिशा में बढ़ते हुए उत्तम पुरुषों के द्वारा निष्पक्ष न्याय का आश्रय लिया जाय । ऐसा विवेक ही मनुष्य को सत्य की खोज में अग्रसर करता है । पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँच सकना इसी प्रकार संभव हो पाता है । आग्रही अपने सीमा बंधन को ही सब कुछ मानकर उसका हठ करते हैं और समग्र सत्य से दूर ही बने रहते हैं । इसलिए विवेक का अवलंबन सत्य की प्राप्ति के लिए अनिवार्य
माना गया है ।। ६४- ६८ ।। 

अर्थ- वेदांत का प्रथम सूत्र है-''अथातो ब्रह्मजिज्ञासा'' अब ब्रह्म की जिज्ञासा करते हैं । जिज्ञासा, नया जानने की इच्छा प्रत्येक प्रगति का आधार रही है । विवेकवान जानने योग्य की खोज और वरण का
क्रम सतत् बनाये रखते हैं ।

शुकदेव गए जनक के पास 

शुकदेव जी को व्यास जी ने ब्रह्मज्ञान में प्रवीण बना दिया था । फिर भी उन्हें राजर्षि जनक के पास भेजा । उनका मत था मैं जिन सूत्रों का प्रत्यक्षीकरण आरण्यकों के वातावरण में कर रहा हूँ, जनक उन्हीं के प्रत्यक्षीकरण सांसारिक उत्तरदायित्वों के बीच कर रहे हैं । उस पक्ष को समझे बिना शुकदेव के ज्ञान में वह समग्रता न आ सकेगी, जो आनी चाहिए । इसलिए शुकदेव को यह
कहकर जनक जी के पास भेजा कि जब वे आज्ञा दें, तभी लौटना ।

भरत की औचित्य साधना 

पिता दशरथ भरत को राज्य देने की घोषणा करके स्वर्गवासी हुए । भरत ने न्याय औचित्य की कसौटी पर उस सारे प्रकरण को कसा । सभी सभासदों और ऋषियों के बीच अपनी मनोभूमि
रखी । सत्युरुषों के साथ परामर्श से ही यह निर्णय हुआ कि राम को लौटाने जाया जाय ।

सब मिलकर चित्रकूट में राम के पास पहुँचे । वहाँ राम ने अपना मत भी सामने रखा । किसी ने किसी प्रकार पूर्वाग्रह नहीं रखा, केवल औचित्य निर्वाह पर ही ध्यान केन्द्रित रखा । वहाँ निर्णय बदल गया । भरत ने भी उसे स्वीकार किया । खड़ाऊँ लेकर उनके साहरे १४ वर्ष अपना कर्तव्य पूरा किया और समय आने पर राम की
अमानत राम को सौंप दी । किसी प्रकार का पूर्वाग्रह रखने वाले ऐसे उत्कृष्ट आदर्श की स्थापना नहीं कर सकते थे ।

कृष्ण भी रोये 

एक बार एक ब्राह्मण, युधिष्ठिर तथा श्रीकृष्ण जी तीनों बैठे चुपचाप आँसू बहा रहे थे । इतने में अर्जुन आ गए, उनने तीनों के इस प्रकार रोने का कारण पूछा, तो सबके मन को जानने वाले श्रीकृष्ण जी ने उस मूक प्रसंग का कारण बताते हुए कहा-''आज युधिष्ठिर ने इस ब्राह्मण को निमंत्रण दिया था ।''
ब्राह्मण संकोचवश उस निमंत्रण को अस्वीकार भी नहीं कर पा रहा है और मन ही मन दु:खी भी है; कि राजा काकुधान्य खाकर मुझे अपना तप क्षीण करना पड़ेगा । युधिष्ठिर भी ब्राह्मण के मन की जानते हैं और इस कारण दु:खी हैकि यदि मैं अपने हाथ-पैर से सात्विक अन्न कमाकर ब्राह्मण को खिला सका होता, तो कैसा अच्छा होता । मैं इसलिए दुखी हूँ कि आज तो खाने वाले ब्राह्मण में यह विवेक है कि किसके यहाँ खाऊँ, किसका न खाऊँ तथा यजमान में यह विवेक मौजूद है कि पुण्य केवल सात्विक कमाई के पैसे से ही होता है । आगे जाकर दोनों में से यह विवेक चला जायगा और खाने के लिए ब्राह्मण अभक्ष्य के लिए भी दौडे़ंगे और खिलाने वाले अनीति उपार्जित धन से भी पुण्य की आशा करेंगे । मैं उसी बुरे भविष्य की कल्पना करके दु:खी हो रहा हूँ ।''

धर्म के मूल तत्व को बनाये रखने की ऐसी प्रबल इच्छा ही धर्म को विनष्ट होने से बचाकर रख सकती है ।

संत की पैनी दृष्टी 

संत ने खुशबूदार फूल देखा, तो उसे सूँघने की इच्छा से बार-बार उसके नजदीक जाने लगे । एक मनचला बच्चा आया और कितने ही फूल तोड़कर झोली में भर ले चला । माली ने संत को बुरा-भला कहा और बच्चे की ओर मुस्कराते हुए उसे जाने दिया ।

माली के इस दुहरे व्यवहार पर संत ने शिकायत की । माली ने कहा-'' आप समझदार हैं और यह नासमझ
बच्चा । आपसे विवेक की अपेक्षा है एवं बालक से अनुकरण की । दोनों से दो तरह की आशा की जाती है । व्यवहार का कारण आप समझ गए होंगे । ''

झोलियों की अदला-बदली 

ब्रह्मा जी ने प्राणियों को बनाकर उनकी इच्छा पूछी । मनुष्य ने कहा-''मैं बुद्धिमान तो बहुत हूँ पर चाहता हूँ और भी आगे बढूँ और ऐसा रहूँ, जिसकी समता और कोई न कर सके ।'' 

ब्रह्मा जी ने उसे दो झोलियाँ दीं और कहा-'' इन्हें गले में लटकाये रहना । दूसरों की विशेषताएँ ढूँढ़ना और
उन्हें आगे वाली झोली में भरते जाना, अपनी विशेषताओं पर ध्यान न देना, उन्हें दृष्टि से ओझल पीछे की झोली में
रखना । तुम्हारी बुद्धिमत्ता बढ़ती चलेगी ।''

मनुष्य प्रसन्न हो गया; पर झोलियों के आगे-पीछे वाला निर्देश भूल गया । उसने आगे की पीछे, पीछे की आगे लटका ली। फलत: अपने गुणों को बखानता और दूसरों से कुछ भी न सीखता ।

वह बुद्धिमान तो रहा, पर मात्र अपनी दृष्टि में । दूसरों ने उसे मूर्ख ही ठहराया । यह गड़बड़ झोलियों की अदला-बदली के कारण हो गई ।

जो विवेकवान यह क्रम ठीक कर लेता है, दैवी वरदान का लाभ पाता है ।

अरोचतेदं सर्वेभ्यो विवेचनमिहाद्भुतम् ।
भ्रान्तेभ्यो विकृतारीती: प्रति चाग्रहिणस्तु यो ।। ६९ ।।
तेभ्य: यथार्थ्यबोधाय सवैंरनुमितं त्विदम् ।
दूरदर्शित्वयुक्ताश्च प्राप्तु वै ज्ञानशीलता: ।। ७० ।।
अनिवार्यं विधातुं च लोकमानसमुन्नतम् ।
नियते समये सत्रं समाप्ति तदगादलम् ।
हर्षिता धर्ममासाद्य सम्प्रदायतिरोहिताम् ।। ७१ ।।

टीका-आज का विवेचन सभी को बहुत सुहाया । भ्रांतियों और विकृतियों के प्रति आग्रही लोगों को यथार्थता समझाने के लिए सभी ने अनुमान किया कि दूरदर्शी विवेकशीलता को अपनाने के लिए उन्नत लोक मानस बनाना आवश्यक है । सत्र नियत समय पर विधिवत् समाप्त हो गया। सभी लोग सम्प्रदायों की चहारदीवारी में बँटे-छिपे धर्म को जानकर अतीव प्रसन्न हुए ।। ६१-७१ ।।

इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्ययिद्याऽऽत्मविद्ययो: युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
           श्रीआश्वलायन-कौण्डिन्य ऋषिसम्वादे '' सत्यो विवेकश्चे '',
         
  इति प्रकरणो नाम तृतीयोऽध्याय: ।। ३ ।।


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