प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-6

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योजितां दिनचर्यां ते कृत्वा लग्ना: परिश्रमे ।
सन्ततं स्वास्थ्यमेतेषां दृढं दृढतरं भवेत् ॥६६॥
वर्द्धतेबुद्धिमत्ताऽपि व्यसनेभ्यश्च रक्षित:।
जायते समये रिक्ते व्यसनानि स्फुरन्ति तु ॥६७॥
आधारं नोपयुक्तं चेल्लभते मतिरप्यत:।
कुकल्पनाऽभिलग्नात् पथभ्रष्टस्ततो भवेत् ॥६८॥

टीका-योजनाबद्ध दिनचर्या अपनाकर जो अनवरत परिश्रम में लगे रहते हैं, उनका स्वास्थ्य सुदृढ़ रहता है, बुद्धिमत्ता बढ़ती है, बुराइयों से बचे रहने का अवसर मिलता है । खाली समय में दुर्व्यसन ही बन पड़ते हैं और
मस्तिष्क के लिए कुछ उपयुक्त सोचने का यदि कोई आधार न हो तो वह कुकल्पनाओं में लग पड़ता है और मनुष्य पथ-भ्रष्ट हो जाता है॥६६-६८॥ 

अर्थ-चंचल मन वाले, अनियमित जीवन क्रम अपनाने वाले, जीवन में असफल ही रहते हैं। खाली
दिमाग को शैतान का घर कहा गया है, जो कि सत्य है । यदि मन को सही दिशा में नियोजित न किया जाए,
तो वह न जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरता एवं व्यक्तित्व अनगढ़ बनाता है । मन को इसीलिए काम में लगाना,
व्यस्त रखना बस्त अनिवार्य है ।

भूत को दो काम 

एक व्यक्ति ने भूत सिद्ध किया । शर्त यह थी उससे हर समय काम लिया जायेगा, अन्यथा खाली होते ही
वह हमला करेगा और साधक को बर्बाद करके रख देगा।

व्यक्ति ने बहुत से रुके हुए काम बताये, जिन्हें उसने तुर्त-फुर्त में पूरा करके रख दिया। काम निपट गए
तो नए काम ढूँढ़ने में कठिनाई प्रतीत हुई । संकट सामने आ गया ।

एक उपाय सूझा, आँगन में खंभा गाड़ा गया और खाली समय में भूत को उस पर चढ़ते-उतरते रहने का काम सौंप दिया गया । भूत को खाली रहने देने की समस्या हल हो गई। समय के खाली भाग को भगवद् भजन में लगा देने से उसे शैतानी करने का अवकाश नहीं मिलता।

बंदर का ध्यान

एक शिष्य बहुत चंचल चित्त था। मन की उछल-कूद से वह बहुत दु:खी था। उसे रोकने का प्रयत्न तो वह बहुत करता, किन्तु सफल न हो पाता ।

गुरु के पास पहुँचा । उन्होंने एक मंत्र सिद्ध करने के लिए कहा, जिससे मन वश में हो सके । साथ ही यह भी कहा कि उस अनुष्ठान के बीच बंदर का ध्यान नहीं आना चाहिए ।

प्रयत्न तो बहुत किया पर मन रुका नहीं । इष्ट देव का ध्यान कम और बंदर का अधिक आता । खिन्न होकर
असफलता सुनाने के लिए शिष्य फिर गुरु के पास पहुँचा।

गुरु ने समझाया-मन को रोको मत, जिस विचार को रोकोगे, वही तुम्हें सर्वाधिक त्रास देगा । मन को तो
लक्ष्य पूर्ति वाले रचनात्मक कार्यो में रसपूर्वक इतना व्यस्त करो कि अन्य किसी बात के स्मरण की गुंजाइश ही न रहे । ऐसा ही करने पर मन पूरी तरह वश में हो गया ।

यदि दिनचर्या क्रमबद्ध हो, निरंतर मन काम में लगा रहता हो और शरीर से किया परिश्रम भार नहीं लगता, तो बीमारी कभी पास भी नहीं फटक सकती । मानसिक स्वास्थ्य तो इससे समृद्ध होता ही है ।

अमोघ चिकित्सा

एक चिकित्सक अपनी अचक चिकित्सा के लिए प्रख्यात थे । वे स्वयं भी निरोग रहते और असाध्य रोगियों तक को रोग मुक्त करत । वे दिन भर लकड़ी काटने न्य काम करते और जंगल में रहते थे ।

एक दिन किसी असाध्य रोग से पीड़ित एक श्रीमंत उन्हें खोजते हुए जंगल में पहुँचा । व्यथा सुनकर उन्होंने
वहीं एक महीने के लिए सेवन योग्य दवा दी और कहा इसे अपने माथे के पसीने में गीली करके प्रात: सायं खाया करें ।

पसीना निकालने के लिए उसे बड़ी मेहनत करनी पड़ती। इस आधार पर निठल्लापन दूर हुआ और साथ ही रोग मुक्त होने का अवसर भी मिला। 

वह श्रीमंत बहुत दिन बाद चिकित्सक का उपकार जताने और कुछ भेंट देने फिर पहुँचा । साथ ही उस औषधि का नाम बताने तथा बनाने का विधान समझने का आग्रह किया, ताकि जरुरत पड़ने पर उसे स्वयं भी बना लिया करे ।

चिकित्सक ने समझाया औषधि सूखी घास भर थी, पर उसका अनुपात पसीने में मिलाना था । मेहनत ही वह
दवा है, जिससे सभी तेग दूर हो सकते है । आलसी को ही रोग घेरते है ।

परिश्रम में भी बुद्धिमत्ता अपनाना आवश्यक है। दिन-रात मेहनत में लगे रहने से तो उल्टे बीमार पड़ जाने का
अंदेशा होता है ।

जुहीरी किसान

भाग्य ने जोर मारा जुहीरी किसान कबीले का सरदार चुन लिया गया । सब ओर से बधाइयाँ आने लगीं ।
एक दिन उसने दूरवर्ती विद्वान् को बुलाया और उस क्षेत्र की उन्नति का उपाय पूछा ।

विद्वान् ने सलाह दी कि सब खेतों की मेड़ें ऊँची करा दी जाँय । उसका आदेश सभी ने माना और मेड़ें ऊँची होने लगीं । देखा कि एक वर्ष में ही उस इलाके में खुशहाली बरसने लगी। कीर्ति सब ओर फैली तो दूर-दूर के
लोग ऐसी खुशहाली का कारण पूछने आये । उसने बताया कि मेड़ें ऊँची होने से वर्षा का पानी खेतों में भरा रहा । पूरी नमी रहने से फसल दूनी पैदा हुई । साथ ही जंगली जानवरों का आना बंद हुआ सो बर्बादी भी घट गई।

लोगों ने सीखा कि बुद्धिमत्तापूर्वक किया गया परिश्रम हर किसी को उन्नतिशील बना सकता है । आज के
युग में एक भ्रांत धारणा पनप गई है कि जो बुद्धिजीवी है, उन्हें शारीरिक श्रम नहीं करना चाहिए । इससे उनके अहं की पुष्टि तो हो जाती है, पर बीमार वही अधिक पड़ते हैं, उनके लिए परिश्रम तो और भी आवश्यक है।

सर्वाधिक ज्ञानवान्

शंकराचार्य अपनी शिष्य मंडली को पड़ाने में व्यस्त थे। कोई बड़े संत उस अवसर पर पधारे । कक्षा के उपरांत उनने पूछा-"इस शिष्य मंडली में सर्वाधिक विद्वान् कौन है?"

शंकराचार्य का उत्तर था-"हस्तामलक"। आगंतुक ने पूछा-"भला कौन सा है इनमें?"

शंकराचार्य ने कहा-"वह कक्षा के उपरांत तुरंत काम पर चला जाता है और परिश्रम करते हुए पाठ याद करता
है । देखना हो तो उसे आप खेत में कुदाल चलाते हुए देखें ।"

परिश्रमी होने के साथ-साथ व्यक्ति सुनियोजित ढंग से कार्य करने की महत्ता जान ले, तब तो प्रतिफल और भी अनेक गुने अधिक बढ़ जाते है।

योजनाबद्ध अध्यवसाय

पिता नौकरी करते थे । उन्हें तीन रुपये मासिक वेतन मिलता था । परिवार बडा होने से तीन रुपये
मासिक में खर्च चलाना मुश्किल था। ऐसी विपन्न स्थिति में बालक ईश्वरचंद्र की पढ़ाई का प्रबंध कैसे हो । पिता की छाती भर आती थी पुत्र की पढ़ने की उमंग और अपनी विवशता क देखकर।

अपने पिता की विवशता देखकर पढ़ाई के लिए ईश्वरचंद्र ने रास्ता निकाल ही लिया। उसने गाँव के उन लड़कों को मित्र बनाया, जो पढ़ने जाते थे । उनकी पुस्तकों के सहारे उसने अक्षर ज्ञान कर लिया और एक दिन कोयले से जमीन पर लिखकर अपने पिता को दिखलाया । ईश्वरचंद्र की विद्या के प्रति लगन देखकर पिता ने तंगी का जीवन जीते हुए भी उसे गाँव की पाठशाला में भरती करा दिया। गाँव के स्कूल की सभी परीक्षाएँ ईश्वर ने प्रथम श्रेणी में पास की । आगे की पढ़ाई प्रारंभ करने में आर्थिक विवशता आड़े आ रही थी । ईश्वरचंद्र ने स्वयं अपनी राह बनाई और आगे पढ़ने के लिए माता-पिता से केवल आशीर्वाद भर माँगा । उसने कहा-" आप मुझे किसी विद्यालय में भरती भर करा दें । फिर मैं आपसे किसी प्रकार का खर्च नहीं मागूँगा।"

तदनुसार पिता ने ईश्वरचंद्र को कलकत्ता के एक संस्कृत विद्यालय में भरती करा दिया । विद्यालय में ईश्वरचंद्र ने सेवा, लगन और परिश्रम, प्रतिभा के बल पर शिक्षकों को प्रसन्न कर लिया । उनकी फीस माफ की गई । पुस्तकों के लिए अपने साथियों के साझीदार हो गए और पढ़ाई से बचे समय में मजदूरी कर गुजारे का प्रबंध करने लगे । इस अभावग्रस्तता में ईश्वरचंद्र ने इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष की आयु में पहुँचते-पहुँचते व्याकरण, साहित्य, स्मृति तथा वेदशास्त्र में निपुणता प्राप्त कर ली। यही युवक आगे चलकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम से विख्यात हुआ।

मजेदार पंखा

विज्ञानी न्यूटन घरेलू जीवन में भी अपनी सूझबूझ का परिचय देकर छोटे-मोटे आविष्कार करते रहते थे।
एक दिन उनने हवा झलने का पंखा बनाया । प्रश्न यह उठा कि उसे घुमाने के लिए शक्ति कौन लगाये ।

न्यूटन ने पंखे के साथ एक गरारी जोड़ी । नीचे दो चूहे बिठाये । ऊपर गेहूँ के दाने रखे । चूहे दाने खाने के लिए गरारी पर होकर ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करते, पर दाने कुछ ऊँचे थे, जिससे वे हाथ न लगते और चूहे गिरने-चढने के गोरखधंधे में लगे रहते। इस प्रकार चूहों के श्रम से पंखा चलता रहता और न्यूटन हवा का आनंद लेते रहते ।

न्यूटन इस सफलता की चर्चा मजेदार शब्दों में करते रहते और कहते थे कि मूर्खों के श्रम का लाभ चतुर लोग
किस प्रकार उठाते रहते हैं। लालची लोगों की निरर्थक श्रमशीलता की तुलना भी वे इन चूहों से करते थे।

किसी भी स्थिति में कुकल्पनाएँ तो नहीं ही की जानी चाहिए । मन की प्रसन्नता जीवन को प्रफुल्ल रखती है।

सुंदर चन्द्रमा

कहते हैं कि आरंभ में चंद्रमा बहुत सुंदर था । हर घडी हँसता रहता । चेहरा खिले कमल जैसा सुन्दर लगता।

कुछ दिन बाद वह उदास रहने और खीजने लगा । अतएव कलाएँ घटने लगीं। चेहरा मुरझाया और सिकुडा सा क्षीण होने लगा ।

दिन बीतते गए, अमावस्या आते-आते वह काला कुरूप हो गया । कलाएँ समाप्त हो गई और अँधेरी कोठरी में
दिन काटने लगा ।

ब्रह्मा जी इस दुर्दशा को देखकर बोले-"मूर्ख हँसना, मुस्कराना फिर आरंभ कर, उसके बिना किसी की जिंदगी पार नहीं होती । खीजने से तो बेमौत मरेगा ।"

चंद्रमा ने अपनी भूल सुधारी, उसने प्रसन्नता बखेरना आरंभ किया और बढ़ते-बढते पूर्णिमा को फिर खिले
कमल जैसा हो गया ।
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