प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-2

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एकदा नैमिषारण्ये ज्ञानसंगम उत्तम: । 
मनीषिणां मुनीनां च बभूव परमाद्भुत: ।।१।।
काश्या: पाटलिपुत्रस्य ब्रह्मावर्तस्य तस्य च । 
आर्यावर्तस्य सर्वस्य यानि क्षेत्राणि सति तु ।।२।। 
कपिलवस्तोर्विशेषेण तेभ्य: सर्वेऽपि संगता:। 
प्रज्ञापुरुषसंज्ञास्ते मूर्धन्या धन्यजीवना: ।।३।। 

टीका-एक बार मुनि-मनीषियों का एक उत्तम ज्ञान संगम नैमिषारण्य क्षेत्र में हुआ, जो अपने आप  में बड़ा अद्भुत था । आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त, काशी, कपिलवस्तु पाटलिपुत्र आदि समीपवर्ती क्षेत्रों के सभी मूर्धन्य उत्तम जीवनयापन करने वाले प्रज्ञा पुरुष उसमें एकत्रित हुए  ।। १-३ ।। 

अर्थ-ज्ञान संगम इस भूमि की, ऋषि युग की विशेषता रही है । ज्ञान की अनेक धाराएँ हैं । अपने-अपने विषयों के विशेषज्ञ उन्हें समयानुरूप विकसित करते रहते हैं । विकसित धाराओं का उपयोग जनहित के लिए किया जाता है। वह तभी सं भव है, जब भिन्न-भिन्न धाराओं में हुए विकास को जन आवश्यकता के अनुरूप मिलाकर जन साधारण तक पहुँचाने योग्य बनाया जाय। प्राचीन काल में अध्यात्म और इस युग में विज्ञान का विकास इसी ढंग से संभव हुआ है । 

ज्ञान धाराओं का संगम तब संभव हो पाता है, जब उन्हें समझने और अपनाने वाले मूर्धन्य श्रेष्ठ व्यक्ति उसमें रुचि लें । जिन्होंने उन्हें विकसित किया, ऐसे प्रज्ञा- पुरुष और जिन्होने उन्हें जीवन सिद्ध  बनाया, ऐसे उत्तम जीवन जीने वाले अग्रगामी, दोनों ही प्रकार के सत्युरुष इस संगम में एकत्रित हुए हैं। 

औषधियाँ बनायी जाती हैं फिर उन्हें निशित क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता है । सेना के लिए अस्त्र विकसित किए जाते हैं; कुशल व्यक्तियों द्वारा उनका प्रयोग- परीक्षण किया जाता है । उसके आधार पर विकसित करने वाले तथा प्रयोग करने वाले गंभीर परामर्श करते हैं, संशोधन करते हैं, तब वह संगम बनता हैं, जिससे व्यापक स्तर पर उन उपलब्धियों को व्यवहार में' लाया जा सके । 

समागमा: पुराप्येवं समये जनबौधका: । 
काले काले भवन्ति स्म: सद्विचाराभिमन्थनै: ।। ४ ।।
बहुमूल्यानि रत्रानि यथा सागरमंथनै । 
यत्र दिव्यानि सर्वाणि प्रादुर्भूतानि संततम्  ।। ५ ।। 
मनीषिणोऽभिगच्छेयुर्मार्गदर्शनमुत्तमम् । 
शोचितुं कर्तुमेवाऽपिं सहैवाऽत्र जना: समे ।। ६ ।। 
लभन्तां समय मुक्त्यै काठिन्यात् प्रगते: पथि । 
गन्तुं चाऽपि समारोह एतदुद्दिश्य निक्षित  ।। ७ ।।

टीका-समागम पहले भी समय- समय पर होते रहते थे, ताकि विचार मंथन से समुद्र मंथन की तरह कोई बहुमूल्य रत्न निकलें; मनीषियों को अधिक सोचने अरि करने का सामयिक प्रकाश मिले; साथ ही जन समुदायों को कठिनाई से छूटने और प्रगति पथ पर अग्रसर होने का अवसर उपलब्ध होता रहें । इस बार का समारोह भी इसी प्रयोजन के लिए नियोजित किया गया था  ।। ४- ७ ।। 
 
अर्थ-समुद्र मंथन से विचार मंथन अधिक लोकोपयोगी है । समुद्र मंथन से रत्न एक बार ही निकले थे, पर विचार मंजन से रत्नों की प्राप्ति हर काल में होती रहती है । इसलिए मनीषी लोग विचार मंथन के लिए एकत्र होते रहते हैं। यों विचार मंथन अकेले भी होता है; पर जब कई मनीषी एक साथ बैठकर 
विचार मंथन करते हैं, तो एक दूसरे के विचारों को उभारने वाली प्रेरणा से, स्फूर्ति से सामान्य की अपेक्षा अनेक सुना लाभ मिलता है । 

सभी उपनिषद्, दर्शन आदि ऋषियों के विचार मंथन से उपजे रन हैं । वे अनंत काल से अगणित व्यक्तियों को लाभ पहुँचाते आ रहें हैं । योग और चिकित्सा के सूत्र भी ऐसे ही विचार मंथन से विकसित हुए हैं । प्राचीनकाल में मंत्रि- परिषदें राज्य की, समाज की विभिन्न समस्याओं के समाधान इसी प्रकार विचार मंथन से निकालती थीं । ऋषिगण भी अपने-अपने आश्रमों-आरण्यकों में यह क्रम चलाते थे । जब तक यह 
परिपाटी चली, तब तक समयानुकूल विचारों, आदर्शों की शोध होती रही, आचरण होते रहे और सामाजिक 
उत्कर्ष का क्रम सतत् चलता रहा । 

जिज्ञासानां समाधानहेतोरत्र विशेषत: । 
व्यवस्था विहिता प्रातर्नित्यकर्मविनिर्वृतौ  ।। ८ ।।
सत्संगो निश्चित: सवैंस्तत्र रम्ये तपोवने । 
क्रम: सप्ताहपर्यन्तं भविष्यत्यपि निश्चित: ।। १ ।।
तद्दिने विधिवत्तस्य शुभारम्भो बभूव च । 
अभूत्तत्र समाध्यक्ष आश्वलायन उत्तम: ।। १० ।। 
सर्वे कुर्वन्ति प्रश्नान् स्वान् सभाध्यक्ष: क्रमादसौ । 
उत्तर दास्यतीत्येवं व्यवस्था तत्र निश्चिता  ।। ११ ।। 

टीका-जिज्ञासाओं के समाधान के लिए उस समागम में विशेष व्यवस्था की गई थी । प्रात: नित्य कर्म से निवृत्त होने पर सत्संग चलाने का निश्चय उस रमणीय तपोवन में हुआ । एक सप्ताह तक यह क्रम चलना था । सो उस दिन उसका विधिवत् शुभारंभ हुआ । सत्राध्यक्ष आश्वलायन थे । ऐसी व्यवस्था थी कि प्रश्न कोई भी कर सकते थे और उत्तर सत्राध्यक्ष ही देते थे  ।। ८- ११ ।। 

प्रथमे दिवसे तत्र जिज्ञासा प्रस्तुतां व्यधात्। 
ऐतरेयो महर्षि: स श्रेष्ठ आचारवान् मुनि: ।। १२ ।। 
देव लब्धा: समानास्ता: सुविधा मानवै: समै: । 
प्रभुदत्ता: परं तेषु मानवा: केचनात्र तु ।। १३ ।। 
उदरम्भरितायां ते सन्तानोत्पत्तिकेऽथवा । 
सीमिताश्च सदैवांत्र तैलयन्त्रवृषा इव ।। १४।। 
जीवन यापयज्येवं पशुतुल्यस्थितिं गता: । 
ताडिता: पतिता: किं वा जनै: सवैंस्तिरस्कृता: ।। २५ ।। 
संकटानात्महेतोश्च भावयन्ति सदैव ते ।
पातयन्ति जनानन्यान् पीडयन्त्यपि सन्ततम् ।। २६।। 

टीका-प्रथम प्रस्तुत हुए सदाचारी मुनि श्रेष्ठ ऐतरेय ने पूछा-''हे देव ! मनुष्य 
को ईश्वर प्रदत्त सभी सुविधाएँ प्राय: समान मात्रा उपलब्ध हैं । पर उनमें कुछ तो पेट-प्रजनन भर तक सीमित 
रहकर कोल्हू के बैल के समान मरते- खपते पशुओं की तरह साँसें पूरी कर लेते हैं । कुछ पतित-तिरस्कृत 
बनते, प्रताड़नाएँ सहते दिन गुजारते हैं। अपने लिए संकट खड़े करते और दूसरों को सदा गिराते-सताते रहते हैं ।। १२- १६ ।। 

ईडशा अपि सन्त्यत्र जना ये स्वयमुन्नता:। 
भवन्त्यन्यान् यथाशक्ति सदैवोत्थापयन्त्यपि ।। १७ ।। 
तारयन्ति स्वयं श्रेयो यश: सम्मानमेव च। 
सहयोग महामर्त्या विन्दन्त्येते सुरोपमा: ।। १८।। 
असंख्या: प्रेरणा तेभ्य: प्राप्नुवन्ति च 
पुरावृत्तकरास्तेषां गाथा: स्वर्णाक्षरेषु च ।। १९ ।। 
लिखन्त्यस्या भिन्नतापा: कारणं किं च विद्यते । 
उच्यतां भवता देव ! विषयेऽस्मिंस्तु विस्तरात् ।। २० ।। 

टीका-किंतु कुछ ऐसे भी होते हैं, जो स्वयं ऊँचे उठते, दूसरों को उठाते, पार करते श्रेय प्राप्त करते हैं । ऐसे देवोपम महामानवों को यश-सम्मान औरसहयोग भी मिलता है । असंख्य उनसे प्रेरणाएँ ग्रहण करते हैं । इतिहासकार उनकी गुण-गाथाएँ स्वर्णाक्षरों में लिखते हैं ।। इस भिन्नता का कारण क्या है ? सो समझाकर कहिए ।। १७- २० ।। 

अर्थ-प्रश्नकर्ता ऋषि ने मनुष्यों को तीन स्तरों में विभाजित किया है । 

(१) वे, जो मनुष्य जन्म का भी पशु- स्तर तक ही प्रयोग करते हैं । विचार, भावना एवं विशेष क्रिया 
शक्ति का प्रयोग ही नहीं करते । ढर्रे का जीवन भर जीते हैं । 

(२) वे, जो मनुष्य को प्राप्त विशेषताओं के उपयोग के लिए लालायित तो रहते हैं, पर उन्हें उत्थान 
की जगह पतन की उल्टी दिशा में लगा देते हैं । 

(३) तीसरे वे, जो मानवीय विशेषताओं का सही का- से प्रयोग करने में सफल हो जाते हैं । प्रश्नकर्ता यह जानना चाहते हैं कि एक ही योनि के प्राणी मनुष्य में इतना अन्तर कैसे और क्यों हो जाता है? 

आश्वलायन उवाच- 

तात ! मर्त्या: समाना वै निर्मित्ता: प्रभुणा समे । 
प्रिया: सर्वेऽपि तस्यात्र निर्विशेष दयानिधे: ।। २९ ।। 
सर्वेभ्यो व्यतरत् सोऽत्र समाना सुविधा: प्रभु: । 
मार्ग चिन्वन्ति मर्त्याश्च स्वेच्छया मार्गमाश्रिता: ।। २२ ।। 
यान्ति तत्रैव यत्रायं विराम मार्ग प्रति च । 
उच्यते स्वार्थिनस्त्वत्र पशवो नररूपिण: ।। २३ ।। 
स्वार्थमेवानुगच्छन्ति नरास्ते तु प्रतिक्षणम्। 
अन्येषां सुखसौविध्ये सहयोगं न कुर्वते ।। २४ ।। 
प्राप्रुवन्ति यंदवैतद निगिरन्ति च पूर्णत: । 
कष्टे कस्यापि नोदेति भावना प्रत्यहं च ते ।। २५ ।। 
साहाय्यस्यापि नोदेति भावना प्रत्यहं च ते। 
अन्विषन्ति परत्रेह निजास्ता: सुविधा: नरा : ।। २६।। 
सहानुभूतिमेतेऽपि नाप्रुवन्ति च कस्याचित । 
जीवन्तो नीरसं मृयोर्दिवसान पूरयन्ति ते ।। २७ ।।

टीका-आश्वलायन बोले-हे तात ! भगवान् ने सभी मनुष्य समान बनाये हैं। उस दयानिधि को सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं । सभी को उसने समान सुविधाएँ तथा परिस्थितियाँ भी प्रदान की हैं । लोग अपनी इच्छानुसार मार्ग चुनते हैं और जहाँ वह मार्ग जाता है, वहाँ जा पहुँचते हैं । स्वार्थ-परायणों को नर- पशु कहते हैं । वे अपने काम से काम रखते हैं । दूसरों की सुख-सुविधा मे हाथ नहीं बँटाते । जो पाते हैं, निगलते रहते 
हैं । किसी के दु:ख में उन्हें सहानुभूति नहीं उपजती । सहायता करने की इच्छा भी नहीं होती । लोक और परलोक 
में अपनी ही सुविधाएँ खोजते हैं । ऐसों की किसी को सहानुभूति भी नहीं मिलती । फलत: वे एकाकी-नीरस 
जीवन जीते हुए मौत के दिन पूरे करते हैं  ।। २१-२७ ।।  

अर्थ-दयालु परमपिता प्यार के नाते विकास के अवसर सभी को देता है । विकास के अवसरों का लोभ उठाकर जो व्यक्ति योग्यता बढ़ा लेते हैं, उन्हें वह महत्वपूर्ण कार्य योग्यताओं के आधार पर सौंपता है । विकास के अवसर और सौंपे गए कार्य, इन दोनों में अंतर न कर पाने से मनुष्य समझता है कि भगवान किसी को अधिक अवसर देता है किसी को कम । 

मार्गों के लक्ष्य निश्चित हैं; पर मनुष्य चुनते समय मार्ग के लक्ष्य की अपेक्षा मार्गों की सुविधाओं को रुचि अनुसार चुन लेता है । जो मार्ग पकड़ लिया, उसी के गंतव्य पर पहुँचना पड़ता है; फिर यह चाह महत्व नहीं रखती कि कहाँ पहुँचना चाहते थे । 

जो स्वार्थ तक ही सीमित हैं, वे नर- पशु हैं । पशु अपने शरीर निर्वाह, अपनी रक्षा और अपने वंश विस्तार से अधिक सोच नहीं पाते । मनुष्य सोचने की क्षमता रखता तो है; पर स्वार्थवश पशुओं की सीमा से आगे बढ़ता नहीं, इसलिए नर पशु कहलाता है । 

स्वार्थी किसी अन्य से सहानुभूति नहीं बरत पाता इसीलिए उसे भी वह नहीं मिलती । वह नीरस, एकाकी जीवन जीता है । 

पांडव बनाम कौरव

भीष्म पितामह ने राजकुमारी को शिक्षा-दीक्षा के लिए एक जैसी सुविधाएँ उपलब्ध करायी थीं । पांडवों ने उनमें से शालीनता- सहयोग का मार्ग चुना, कौरवों ने उद्दंडता और द्वेष का । दोनों ने मार्ग के अनुसार गति पाई । भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों को चुनाव का समान अधिकार दिया था । एक ने 
साधन- वैभव की चाह की, दूसरे ने मार्गदर्शन की । जो मार्ग चुना गया, अनुरूप गति मिली । 

स्वार्थी इक्कड़ की दुर्गति  

एक हाल बड़ा स्वार्थी और अहंकारी था। दल के साथ रहने की अपेक्षा वह अकेला रहने लगा । अकेले में दुष्टता उपजती है, वे सब उसमें भी आ गयीं । एक बटेर ने छोटी झाड़ी में अंडे दिए । हाथियों का झुंड आते देखकर बटेर ने उसे नमन किया और दलपति से उसके अंडे बचा देने की प्रार्थना की । हाथी भला था । उसने चारों पैरों के बीच झाड़ी छुपा ली और झुंड को आगे बढ़ा दिया । अंडे तो बच गए परं उसने बटेर को चेतावनी दी कि एक इक्कड़ हाथी पीछे आता होगा, जो अकेला रहता है और दुष्ट हैं उसने अंडे बचाना तुम्हारा काम है । थोड़ी देर में वह आ ही पहुँचा। उसने बटेर की प्रार्थना अनसुनी करके जान- बूझ कर अंडे कुचल डाले। 

बटेर ने सोचा कि दुष्ट को मजा न चखाया तो वह अन्य अनेक का अनर्थ करेगा । उसने अपने पड़ोसी कौवे 
तथा मेढक से प्रार्थना की । आप लोग सहायता करें तो हाथी को नीचा दिखाया जा सकता है । योजना बन गई । कौवे 
ने उड़-उड़ कर हाथी की आँखें फोड़ दी । वह प्यासा भी था । मेढक पहाड़ी की चोटी पर टर्राया । हाथी ने वहाँ पानी
होने का अनुमान लगाया और चढ़ गया । अब मेढक नीचे आ गया और वहाँ टर्राया । हाथी ने नीचे पानी होने का 
अनुमान लगाया और नीचे को उतर चला । पैर फिसल जाने से वह खड्ड में गिरा और मर गया । 

एकाकी स्वार्थ-परायणों को इसी प्रकार नीचा देखना पड़ता है ।

चुहिया ने चुना चुहा 

एक सिद्ध पुरुष नदी में जान कर रहे थे। एक चुहिया पानी में बहती आई । उनने उसे निकाल लिया । कुटिया में ले आये और वह वहीं पल कर बड़ी होने लगी । चुहिया सिद्ध सिद्ध पुरुष की करामातें देखती रही, सो उसके मन में भी कुछ वरदान पाने की इच्छा हुई । 

एक दिन अवसर पाकर बोली-''मैं बड़ी हो गई, किसी वर से मेरा विवाह करा दीजिए ।'' 


संत ने उसे खिड़की में से झाँकते सूरज को दिखाया और कहा-''इससे करा दें।'' चुहिया ने कहा-''यह तो 
आग का गोला है । मुझे तो ठंडे स्वभाव का चाहिए ।'' संत ने बादल की बात कही-''वह ठंडा भी है, सूरज से बड़ा 
भी । वह आता है, तो सूरज को अंचल में छिपा लेता है ।'' चुहिया को यह प्रस्ताव भी रुचा नहीं । वह इससे बड़ा 
दूल्हा चाहती थी । संत ने पवन को बादल से बड़ा बताया, जो देखते- देखते उसे उड़ा ले जाता है । उससे बड़ा पर्वत बताया, जो हवा को रोक कर खड़ा ले जाता है । जब चुहिया ने इन दोनों को भी अस्वीकार कर दिया, तो- सिद्ध पुरुष ने पूरे जोश-खरोश के साथ पहाड़ में बिल बनाने का प्रयास करते चूहे को दिखाया । चुहिया ने उसे पसंद कर लिया, कहा-''चूहा पर्वत से भी श्रेष्ठ है; वह बिल बनाकर पर्वतों की जड़ खोखली करने और उसे इधर से उधर लुढ़का देने में समर्थ रहता है । एक मोटा चूहा बुलाकर संत ने चुहिया की शादी रचा दी । उपस्थित दर्शकों को संबोधित करते हुएसंत ने कहा-''मनुष्य को भी इसी तरह अच्छे से अच्छे अवसर दिए जाते हैं, पर वह अपनी मन:स्थिति के अनुरूप ही चुनाव करता है ।''

दुःखी आम 

जगन्नाथ माहात्म्य कथा में एक मार्मिक प्रसंग है । भक्त भगवान के पास जा रहा था । मार्ग में जो मिलता था, भगवान के लिए अपना भी संदेश दे देता था । एक आम का वृक्ष मिला । उसके फलों में कीड़े लग जाते थे । कोई उपयोग नहीं कर पाता था । आम का दु:ख सुनकर भगवान ने कहा-'' यह पूर्व जन्म में स्वार्थी था । अपनी कोई वस्तु किसी के काम में नहीं आने देता था । 

वही स्वार्थ कीड़ा बनकर इसके साथ लगा है । न उसके फल किसी के लिए उपयोगी बन पाते है और न कोई उसके 
पास जाता है । अपने स्वार्थवश यह एकाकी जीवन जी रहा है ।'' 

मलीन पोखरी 

उसी कथा में प्रकरण है-दो छोटी- छोटी पोखरी थीं, इसका पानी उसमें, उसका पानी इसमें होता रहता था। कोई प्रयोग नहीं करता था । पानी में काई, कीड़े पड़ गए थे । उनका दु:ख सुनकर 
भी प्रभु ने कहा-''पूर्व जन्म में यह सगी बहने भी थीं और देवरानी- जेठानी भी । दोनों ही स्वार्थिनें थीं । कोई दान- 
पुण्य परमार्थ के लिए कहे तो बड़ी बहन, छोटी बहन को दान का सबसे श्रेष्ठ पात्र कहकर उसे दे आती थी । दोनों की स्वार्थ भावना अपने साधन अपने ही अधिकार क्षेत्र में रखने के ताने-बाने बुनती रहती थीं । वही प्रवृत्तिं उनके साथ अभी भी लगी है । पानी उनकी स्वार्थ भावना जैसा ही दुर्गंध युक्त हो गया है । एक दूसरे की सीमा में ही चक्कर काटती है । स्वार्थ के ऐसे ही परिणाम निकलते है । 
येषां प्रवृद्धास्त्वाकांक्षा आतुरा विभवाय ये। 
अहंत्वाप्त्यै स्पृहास्त्येषां कुबेर इव चाढ्यताम् ।। २८ ।। 
वृत्रहेव सुसामर्थ्यमधिगन्तुं सदैव तुं । 
सज्जास्ते जीवितुं नैव सामान्यैरिव  नागैर: ।। २१ ।। 
दर्पाहंकारयोनैंव विना ते तु प्रदर्शनम् । 
तृप्तिं नानुभूवज्येव पुरूषाश्चेदृशा द्रुतम् ।। ३o ।। 
अर्जितुं सम्पद: स्वस्य चर्च: स्थापयितुं समे । 
कुटुम्बस्याऽपि जायन्ते व्यग्रा लोकैषणारता: ।। ३१ ।। 

टीका-जिनकी महत्वाकांक्षायें अतिशय बड़ी- चढ़ी हैं, जो बड़प्पन और वैभव बटोरने के लिए आतुर हैं, जिन्हें कुबेर सा धनी, इन्द्र सा समर्थ बनने की ललक है, वे औसत नागरिक का सामान्य जीवन जीने और संतोषपूर्वक रहने के लिए तैयार नहीं होते । दर्प और अहंकार प्रदर्शन किए बिना जिन्हें तृप्ति नहीं होती-ऐसे लोग जल्दी ही सम्पदा बटोरने और अपना तथा परिवार का वर्चस्व बढ़ाने के लिए आतुर हो उठते हैं ।। २८- ३१ ।। 

अर्थ-नर से भी गिरे हुए नर- पिशाचों की मनोदशा का वर्णन करते हुए यह चित्रण किया गया है । नर-पशु सामान्य जीवन की ही कल्पना कर पाते हैं, इसलिए उनके स्वार्थ से सीमित हानियाँ होती हैं; परंतु इसी स्वार्थी श्रेणी के वे लोग जिनकी महत्वाकांक्षायें बढ़ी-चढ़ी होती हैं, उनकी स्थिति नर-पशुओं से 
भिन्न होती है । ऐसे व्यक्तियों को- 


(१) औसत नागरिक जीवन पसंद नहीं होता । 
(२) बड़प्पन, धन, वैभव बटोरने के लिए वे उचित ढंग, उचित माध्यमों की प्रतीक्षा नहीं कर पाते, उद्यत हो उठते हैं। 

ठगी का अधिकार 

व्यवसाय-व्यापार द्वारा मनुष्य पर्याप्त धन कमा सकता है; परंतु जिन्हें उचित समय लगाने, उचित साधन बरतने का धैर्य नहीं, वे सज्जनता छोड़कर ठगी करते हैं । दो ठग थे । एक ने घड़े में गले तक गोबर भरा, ऊपर से घी भर दिया । ऐसा घी का घड़ा लेकर बेचने चला । दूसरे ने नकली तलवार पर असली मूँठ तथा बढ़िया म्यान लगायी और वह भी चल पड़ा बेचने । दोनों ठगों ने अपना-अपना दाँव चलाकर एक-दूसरे को वह वस्तुएँ बेच दीं, अपनी अक्लमंदी पर खुश होते घर आये, तब भेद खुले । समझदारों ने कहा-''मुफ्त की बटोरने के लिए जो फिरते हैं, उनके साथ ऐसा ही होता है।" 

अंधी दौलत 

कहते हैं कि तैमूर दिल्ली के गली-कूचों में घूमता फिर रहा था, तो उसे एक अंधी बुढ़िया दिखाई दी । तैमूर ने नाम पूछा तो बोली-"मुझे दौलत कहते हैं ।'' तैमूर ने हँसकर पूछा-''क्या दौलत भी 
अंधी होती है ?'' बुढ़िया ने जबाव दिया- ''हाँ हूजूर, दौलत अंधी होती है, तभी तो वह लूले- लँगड़ों के यहाँ लूट के 
माध्यम से चली जाती है ।'' लँगड़ा तैमूर शर्म से पानी-पानी हो गया । कुछ बोल न पाया । 

दो मुँह वाला जुलाहा 

एक जुलाई का कधां टूट गया और उसके लिए लकड़ी काटने वह पास के जंगल में गया । 
जुलाहा सूखा पेड़ एक ही दीखा और वह उसे काटने लगा । 
उस पेडू पर एक यक्ष रहता था । उसने कहा- '' इस पर मेरा निवास है, इसे मत काटो । अपना 
काम चलाने के लिए कोई वरदान माँग लो । '' 

जुलाहा कोई लाभदायक वरदान माँगने की बात सोचने लगा । सोचते- सोचते एक बात समझ में आयी, कि दो हाथों की जगह चार हाथ और एक सिर की जगह दो सिर माँग लिए जाँय । चार हाथों से दुगुना कपड़ा बुना जा 
सकेगा । दो सिरों पर लाद कर हाट तक दूने बजन की पोटली ले जाई जा सकेगी । 

यक्ष ने मनोरथ पूरा कर दिया । इस विचित्र आकृति को लेकर वह घर लौटा, तो कौतूहल देखने सारा गाँव इकट्ठा हो गया । पत्नी भयभीत होकर छिप गई । मुहल्ले वालों ने उसे भूत- प्रेत समझा और ईंट-पत्थरों से मार डाला ।साधारण स्तर बनाये रहने में ही भलाई है । 
  
सोने का अंडा 

एक आदमी के पास रोज एक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी। अंडे को बेचकर वह मजे में गुजारा चलाता । एक दिन लालच उसके सिर सवार हुआ और उसने सोचा क्यों न मुर्गी का पेट चीर कर एक ही दिन में सारे अंडे निकाल कर तुर्त-फुर्त मालदार बना जाय । उसने ऐसा ही किया । उतावली में 
एक अंडा मिलने का लाभ भी हाथ से चला गया और पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगा । 

जल्दबाजी का दुष्परिणाम 

एक राजा था । संसार का सबसे अधिक धनवान बनने की लालसा रखता था । एक सिद्ध पुरुष उसके यहाँ पहुँच गए । स्वागत से प्रसन्न होकर वर माँगने को कहा । राजा ने जल्दबाजी में माँग 
लिया-''जो हाथ से छू लूँ वह सोना हो जाय ।'' 

वरदान मिल गया । राजा प्रसन्न था कि जिस वस्तु को चाहूँ सोना बना लूँगा । पर उसके भोजन के पदार्थ, 
पानी आदि सभी हाथ में आते ही सोना बनने लगे । भूख से व्याकुल राजा सोचने लगा, धनवान बनने की जल्दबाजी में मैंने स्वयं अनर्थ मील ले लिया । 

दुर्योधन का दर्प 

दुर्योधन को अहंकार दिखाये बिना चैन नहीं पड़ता था । पांडव वनवास में थे । दुर्योधन को महलों में संतोष न हुआ, अपने वैभव का प्रदर्शन करने जंगल के उसी क्षेत्र में गया, जहाँ पांडव रह रहे थे। वहाँ अपने को सर्व समर्थ सिद्ध करने के लिए मनमाने ढंग से जश्न मनाने लगा । अहंकारी में शालीनता-सौजन्य नहीं रह जाता । अपने आगे किसी को कुछ समझता भी नहीं । उसी क्रम में कौरव गंधर्वों के सरोवर को गंदा करने लगे, रोकने पर भी न माने । क्रुद्ध होकर गंधर्वराज ने उन्हें बंदी बना लिया।  पता पड़ने पर युधिष्ठिर ने अर्जुन को भेज कर अपने मित्र गंधर्वराज से उन्हें मुक्त कराया । दुर्योधन को शर्म से सिर झुकाना पड़ा । 

अहंकार का प्रदर्शन 

राबिया बसरी कई संतों के संग बैठी बातें कर रही थी । तभी हसन बसरी वहाँ आ पहुँचे और बोले-''चलिए, झील के पानी पर बैठकर हम दोनों अध्यात्म चर्चा करें ।'' हसन के बारे में प्रसिद्ध था कि उन्हें पानी पर चलने की सिद्धि प्राप्त है । 

राबिया ताड़ गई कि हसन उसी का प्रदर्शन करना चाहते है । बोली-'' भैया, यदि दोनों आसमान में उड़ते- उड़ते बातें करें तो कैसा रहे ?'' (राबिया के बारे में भी प्रसिद्ध था कि वे हवा में उड़ सकती हैं ।) फिर गंभीर होकर बोलीं-''भैया, जो तुम कर सकते हो, वह हर एक मछली करती है; और जो मैं कर सकती हूँ वह हर मक्खी करती है । सत्य करिश्मेबाजी से बहुत ऊपर है । उसे विनम्र होकर खोजना पड़ता है । अध्यात्मवादी को दर्प करके अपनी 
गुणवत्ता गँवानी नहीं चाहिए ।'' हसन ने अध्यात्म का मर्म समझा और राबिया को अपना गुरु मानकर आत्म-परिशोधन 
में जुट गए । 

विदुर का भोजन और श्रीकृष्ण 

विदुर जी ने जब देखा कि धृतराष्ट्र और दुर्योधन अनीति करना नहीं छोड़ते, तो सोचा कि इनका सान्निध्य और इनका अन्न मेरी वृत्तियों को भी प्रभावित करेगा। इसलिए वे नगर के बाहर वन में 
कुटी बनाकर पली सुलभा सहित रहने लगे । जंगल से भाजी तोड़ लेते, उबालकर खा लेते तथा सत्यकार्यो में, प्रभु स्मरण में समय लगाते । 

श्रीकृष्ण जब संधि दूत बनकर गए और वार्ता असफल हो गयी तो वे धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य आदि सबका आमंत्रण अस्वीकार करके विदुर जी के यहाँ जा पहुँचे । वहाँ भोजन करने की इच्छा प्रकट की । 

विदुर जी को यह संकोच हुआ कि शाक प्रभु को परोसने पड़ेंगे? पूछा- '' आप भूखे भी थे, भोजन का समय 
भी था और उनका आग्रह भी, फिर आपने वहाँ भोजन क्यों नहीं किया ?'' 

भगवान बोले-''चाचाजी ! जिस भोजन को करना आपने उचित नहीं समझा, जो आपके गले न उतरा, वह मुझे भी कैसे रुचता ? जिसमें आपने स्वाद पाया, उसमें मुझे स्वाद न मिलेगा, ऐसा आप कैसे सोचते हैं ?'' 

विदुर जी भाव विह्वल हो गए, प्रभु के स्मरण मात्र से ही हमें जब पदार्थ नहीं संस्कारप्रिय लगने लगते है, तो स्वयं प्रभु की भूख पदार्थों से कैसे बुझ सकती है । उन्हें तो भावना चाहिए । उसकी विदुर दम्पत्ति के पास कहाँ कमी थी । भाजी के माध्यम से वही दिव्य आदान-प्रदान चला । दोनों धन्य हो गए । 

स्वार्थी व्यक्ति उदारता पूर्वक सुविधाएँ देने का प्रयास करते हैं, कर्तव्य भाव से नहीं, इसलिए कि उसका अहसान जताकर अपनी मनमानी करवा सकें । ऐसी सुविधाएँ न भगवान ही स्वीकार करते है, न उनके भक्त । दोनों 
उनसे परहेज करते है । 

अहंकारिता और जल्दबाजी का दुष्परिणाम 

दिल्ली का बादशाह मुहम्मद तुगलक विद्वान भी था और उदार भी । प्रजा के लिए कई उपयोगी काम भी उसने किए; किन्तु दो दुर्गुण उसमें ऐसे थे, जिनके कारण वह बदनाम भी हुआ और दुर्गति का शिकार भी । एक तो वह अहंकारी था; किसी की उपयोगी सलाह भी अपनी बात के आगे स्वीकार न करता था । दूसरा जल्दबाज इतना कि जो मन 
में आए उसे तुरंत कर गुजरने के लिए आतुर हो उठता था । 

उसी सनक में उसने नयी राजधानी दौलताबाद बनायी और बन चुकने पर कठिनाइयों को देखते हुए रह कर 
दिया । एक बार बिना चिह्न के तांबे के सिक्के चलाए । लोगों ने नकली बना लिए और अर्थ व्यवस्था बिगड़ गयी । फिर निर्णय किया कि तांबे के सिक्के खजाने में जमा करके चाँदी के सिक्कों में बदल लें । लोग इस कारण सारा सरकारी कोष खाली कर गए । एक बार चौगुना टैक्स बढ़ा दिया । लोग उसका राज्य छोड़कर अन्यत्र भाग गए । 

विद्वत्ता और उदारता जितनी सराहनीय है, उतनी ही अहंकारिता और जल्दबाजी हानिकर भी-यह लोगों ने 
तुगलक के क्रिया-कलापों से प्रत्यक्ष देखा । उसका शासन सर्वथा असफल रहा ।

विलासी हारते हैं 

देवताओं और दनुजों मैं घमासान युद्ध हुआ । विलासी देवताओं को हारकर भागना पड़ा । पराक्रम में निरत दनुज जीत गए । देवता प्रजापति के पास पहुँचे। उनने संयम के अभाव को पराजय का कारण बताया और कहा-'' मनुष्यों में एक तप, तेज का धनी मुचकुंद है । अपना सेनापति उसे बनाओ और विजय पाओ ।'' ऐसा ही किया गया । देवताओं की सेना जीत गयी और विजयी मुचकुंद को स्वर्ग ले गयी ।

देव समुदाय के बीच वह अपने पराक्रम की डींग हाँकने लगा और पग-पग परं अपने अहंकार का परिचय देने लगा । 

दनुजों का आक्रमण हुआ । मुचकुंद दर्प और अहंकार के वशीभूत होकर अपनी वरिष्ठता गँवा चुका था । अब उक्त उससे पहले जैसा पराक्रम नहीं बन पड़ा था, तब कार्तिकेय को बुलाया गया । उनने विजय पायी । इंद्र ने मुचकुंद को वापस धरती पर भेज दिया और कहा- ''अहंकार दोष से मुक्ति पाने का तप करो । उसके बिना' समस्त वैभव अधूरे है ।'' 

बहुमत-अल्पमत 

अहंकारी अपने सामने किसी की चलने नहीं देते । 

एक पेड़ पर उल्लुओं का झुंड रहता था। दिन निकलते ही उन्हें दीखना बंद हो जाता था । सो वे अपने अपने 
कोतरों में जा छिपते । एक दिन हंस उधर से आ निकला । उसने कहा-'' सूर्य का प्रकाश कितना सुंदर फैल रहा है । तुम संसार का सौंदर्य क्यों नहीं देखते ।'' उल्लु हँस पड़े और बोले-'' सूर्य का अस्तित्व होता तो वह हमें क्यों नहीं दीखता ।'' बहुमत के आगे अपनी ज्ञान-शिक्षा को सफल न होते देखकर अल्पमत वाला हंस हार मानकर अन्यत्र 
उड़ गया । 

आज बहुमत ऐसे ही संकीर्ण बुद्धि वाले नर-पामरों का है । 
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