सञ्चितं ज्ञानमेतेषामथ्यस्त: पुण्यदायक: ।
परार्थ: सन्ततं कार्यरूपतामधिगच्छत: ।। ५३ ।।
आत्मसन्तोषमेतेऽत: प्राप्नुवन्ति तथैव तु ।
सम्मानं सहयोगं च विपुलं ते भजन्त्यपि ।। ५४ ।।
अनुकम्पा च दैवी सा वर्षतीवात्र तेषु तु ।
त्रिविधानां सुयोगानां कारणादन्तरंगके ।। ५५ ।।
क्षेत्रे यान्ति महत्वं ने लभन्ते चोन्नतिं तथा ।
संसारे प्रगतेर्मार्गे ते नरा अभियान्त्यलम् ।। ५६ ।।
टीका-उनका संचित सद्ज्ञान और अभ्यस्त पुण्य-परमार्थ निरंतर कार्यान्वित होता रहता है । फलत: वे असीम आत्म संतोष पाते हैं । लोक सम्मान और सहयोग उन्हें प्रचुर मात्रा में मिलता है । दैवी अनुकम्पा निरंतर बरसती है । इन त्रिविध सुयोगों के कारण वे अंतरंग क्षेत्र में महान् बनते-ऊँचे उठते और संसार क्षेत्र में प्रगति पथ पर आगे बढ़ते हैं ।। ५३ - ५६ ।।
अर्थ-सामान्य व्यक्ति अपने सद्मुणों को केवल अपने भले के लिए प्रयुक्त करने के मोह में उन्हें रोके रहता है । न वे प्रयोग में आने पाते हैं, न अपना प्रभाव दिखा पाते हैं । सत्पुरुषों को अपने ज्ञान और
पुरुषार्थ को अविरल प्रयुक्त करने का अभ्यास होता है । इसी आधार पर उन्हें ऊपर वर्णित तीन अतिमहत्वपूर्ण विभूतियाँ मिलती रहती हैं । वे अंतरंग और बाह्य जगत दोनों में संतोषजनक प्रगति करते
और श्रेय-सम्मान पाते हैं ।
नूह न थके, न ऊबे
सृष्टि के पुनर्निर्माता नूह को एक हजार वर्ष का जीवन मिला । वे दिन-रात ईश्वर के कामों में लगे रहे ।
अंत समय आया, तो फरिश्तों ने पूछा-'' इतना लंबा जीवन आप ने किस तरह काटा ।" तो उन्होंने हँसते हुए कहा-" एक मुसाफिर सराय के एक दरवाजे से घुसकर दूसरे से निकल जाता है, उसी तरह महामानवों को परमार्थ में इतना रस, इतना संतोष मिलता है कि लंबे से लंबा समय भी उन्हें थोड़ा लगता है । बिना ऊबे वे सतत् उसी में लगे रह जाते है ।"
हरिजन सेवक श्री नारायण झा
माता पिता के न रहने पर १५ वर्ष की आयु के नारायण झा ने भगवान को प्राप्त करने के लिए वैराग्य लेने की बात ठानी । पर उस क्षेत्र में भ्रमण करके अछूतों की जो दुर्दशा देखी, उससे उनका विचार बदल गया और गिरों को उठाने के लिए जीवन लगाने का व्रत ठाना । हरिजन
सेवा के कारण उन्हें सवर्णों का भारी विरोध सहना पड़ा । पर वे डिगे नहीं ।
उनकी आदर्श साधना के कारण उन्हें जन सहयोग भरपूर मिलता रहा और देव अनुग्रह से असंभव लगने वाले कार्यों में भी रास्ता बनता चला गया । उन्होंने हरिजनों के लिए अलग से मंदिर बनवाया। सवर्ण उसे तोड़ने पर
तुले रहे; पर विरोध से उनका समर्थन सशक्त था । वे बढ़ते रहे । हरिजन शिक्षा के लिए और भी अधिक उत्साह के
साथ लग पड़े । उनकी सेवा-साधना से प्रभावित होकर गाँधी जी उनसे मिलने स्वयं पहुँचे थे । केरल में उनकी
स्थापित कितनी ही हरिजन संस्थाएँ हैं, जिनमें एक कॉलेज भी है । सतत् परमार्थ का क्रम अपना कर श्री नारायण झा
आंतरिक और लौकिक दोनों ही स्तरों पर महान बने ।
संत राजा रामदेव
उन दिनों देश में छोटे-छोटे कई रजवाड़े थे । दिल्ली के समीपवर्ती क्षेत्र में आनंदपाल राजा थे । उनके उत्तराधिकारी रामदेव जी बने, तब वे १५ वर्ष के थे । उस क्षेत्र में वैरव डाकू का एक बड़ा जालिम गिरोह था । उसके भय से सारा इलाका थर्राता था । रामदेव का पहला काम उस डाकू के भय से इलाके को मुक्त कराना था । रामदेव ने कुछ साथी लेकर भैरव का सीधे मुकाबला किया और उन सबका सफाया करके दम लिया ।
इसके बाद वे स्वयं एक किसान की तरह रहने लगे । राज्य कोष का सारा धन प्रजा हित में लगाने लगे । छुआछूत की कुरीति को उन्होंने आगे बढ़कर समाप्त कराया । एक बार अकाल पड़ा, तो स्वयं फावड़ा लेकर कुओं खोदने में जुट गए और राज्य कोष का सारा रुपया कुआँ खोदने वालों को मजूरी देने में लगा दिया । आस- पास कई मुसलमानी रियासतें भी थीं; पर राजा, प्रजा का इतना सहयोग देखकर किसी की हिम्मत चढ़ाई करने की न हुई।
राम देव जी की कितनी ही चरित्रनिष्ठा व उदारताएँ विख्यात है । लोगों ने उन्हें देवता की तरह माना और एक मंदिर भी बनवाया, जिस पर हर साल मेला लगता है । लाखों लोग उनके आदर्शनिष्ठ जीवन की कथायें कहते और प्रेरणा ग्रहण करते हैं ।
पुरुषार्थ ने बनाया प्रतिभावान
'दूसरों का सहयोग, प्यार हमें नहीं मिला। भाग्य ने साथ नहीं दिया' जैसी शिकायतें करने वालों को लियोनार्दो ने पूरी तरह झुठला दिया । उसके जीवन का प्रारंभ घोर अभावों के बीच हुआ पर उसने हर विषय को गहराई से सोचने और हर कार्य में पूरी तत्परता बरतने की नीति अपना कर अनेक विषयों की प्रतिभा अर्जित की। उसकी उत्कंठा और चेष्टा को देखकर अनेक सहयोगी रास्ता चलते मिल गए और प्रतिकूलतायें अपना स्वरूप बदलकर अनुकूलताओं में बदलती गई ।
निरोग और बलिष्ठ शरीर का स्वामी, महान मूर्तिकार और चित्रकार, साहित्यकार और कवि, दार्शनिक,
गणितज्ञ, संगीतज्ञ, वैज्ञानिक, मिस्री, युद्ध- कला विशेषज्ञ, विद्वान, वक्ता और सुसंस्कृत व्यक्तित्व का धनी जैसा
लियोनार्दो था, उसकी तुलना में बहुमुखी प्रतिभा का धनी इतिहास में दूसरा नहीं दीख पड़ता ।
वह इटली के फ्लोरेंस नगर में एक निर्धन परिवार में जन्मा था । माता दो वर्ष का छोड़कर मर गई थी फिर भी उसने
अपना निर्माण और मार्गदर्शन स्वयं किया और यह सिद्ध करके दिखाया कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है ।
सच्चे अर्थों में पिता के पुत्र
अपने पिता स्वामी श्रद्धानंद की तरह उनके दोनों पुत्रों ने भी अनुकरण किया । वे आर्य-समाज और कांग्रेस के दोनों ही मोर्चों पर समान रूप से लड़ते रहे । बड़े भाई हरिश्चंद्र राजा महेन्द्रप्रताप जी के
साथ गुप्त रूप से विदेश गए और वहाँ वहीं खप गए । इन्द्र जी ने गुरुकुल कांगड़ी में ही वाचस्पति तक की शिक्षा पाई । वे गुरुकुल के अध्यापक, अधिष्ठाता और प्रबंधक रहे । उस संस्था को दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगति के लिए बढ़ाते रहे । समाज-सुधार के कार्यों को भी पिताजी की तरह अग्रगामी बनाने में कुछ उठा न रखा ।
राष्ट्रीयता को बल देने के लिए उन दिनों समाचार-पत्रों की अत्यधिक आवश्यकता थी । उन्होंने 'विजय' नाम से एक समाचार पत्र निकाला । सरकार उसके पीछे पड़ी रही तो नाम बदलकर दैनिक
'अर्जुन' निकाला । उसके पाँच संपादक जेल गए । बार-बार जमानतें माँगी जाती रहीं । तीसरी बार 'वीर अर्जुन' को आरंभ किया । इन पत्रों के माध्यम से वे क्रांति उगलते थे और सरकार के छक्के छुड़ाते थे । अस्वस्थ रहते हुए भी इन्द्र जी दिन- रात पिता का सच्चे अर्थों में अनुकरण करते रहे ।
बापा जलाराम पर दैवी अनुदान बरसे
वीरपुर (गुजरात) में एक किसान थे जलाराम । वे कृषि कार्य करते । जो अनाज पैदा होता उसे दीन-दुखियों के लिए तथा संत महात्माओं के निमित्त लगाते । वे खेत पर रहते, उनकी पत्नी भोजन बनती रहतीं । घर पर सदावर्त लगा रहता । बाल-बच्चों का झंझट- उनके सिर पर था नहीं ।
उनकी दयालुता और श्रद्धा की परीक्षा लेने एक दिन भगवान साधु वेश में आए । उनने कहा उनका बिस्तर अगले तीर्थ तक पहुँचना है । कोई प्रबंध करो । जलाराम मजूर देने की स्थिति में नहीं थे । उनकी पत्नी उस बिस्तर को सिर पर रखकर चल दीं । जलाराम आधे दिन खेत का काम करते, आधे दिन भोजन पकाते-खिलाते।
संत के रूप में आए भगवान की परीक्षा पूरी हो गई । वे कुछ ही दूर आगे चलकर गायब हो गए । उस महिला को अन्नपूर्णा झोली दे गए । घर लौटकर उसने उस झोली को एक कोठरी में टाँग दिया । उस कोठरी में से अन्न कभी कम नहीं पड़ा और अभी भी हजारों लोग उस अन्नपूर्णा झोली का प्रसाद लेने आते हैं । भंडार चुकता नहीं ।
ईदृशा एव लोकाश्च महामानवसंज्ञका: ।
उच्यन्ते धन्यता यान्ति स्वयं चान्यान्नरानपि ।। ५७ ।।
सम्पर्के चागतान् धन्यान् कुर्वते चन्दनस्य ते।
द्रुमा अन्यान् सुगन्धांश्च यथावृक्षात्रिरन्तरम् ।। ५८ ।।
तेषामेव जनानां च कारणात् सकल स्वयम्।
वातावरणमत्यर्थं जायते गन्धवन्धुम् ।।५१।।
दु:खग्धा अपीहैते गन्धं धूप इवोत्तमम् ।
प्रकाशमपि तन्वन्ति प्रदीप इव प्रोज्जवलम् ।। ६० ।।
यस्मिन् काले तथा क्षेत्रे पुरुषा ईदृशा भुवि ।
जायन्ते तानि सर्वाणि धन्यतां यान्ति भूतले ।। ६१ ।।
टीका-इसी प्रकार के व्यक्तियों को महामानव कहते हैं । वे स्वयं धन्य बनते, सम्पर्क वालों को चंदन वृक्षों की तरह धन्य बनाते हैं । उनके कारण समूचा वातावरण महकने लगता है । जलने पर भी वे धूप की तरह सुगंध और दीप की तरह प्रकाश फैलाते हैं । जिस काल और क्षेत्र में ऐसे लोग जन्मते हैं, वह भी उनकी गतिविधियों के कारण धन्य बन जाता है ।। ५७- ६१।।
अर्थ-महामानव की उपमा सदैव से चंदन वृक्ष से दी जाती रही है । सर्प जैसे दुष्ट प्राणी भी उनके संसर्ग से दुष्टता भूलकर शांति का अनुभव करते हैं । परंतु उनके विष दोषों से सत्युरुष नितांत अप्रभावित
रहते हैं । अपना प्रभाव, सुगंध आसपास के वृक्षों तथा क्षेत्र पर डालते रहते हैं । कटने, घिसने, पिसने, जलने पर भी सुवास ही देते हैं । सभी उन्हें सम्मान सहित माथे से लगाते हैं, देवताओं पर चढ़ाते हैं । इसीलिए स्वयं धन्य होते हैं, संपर्क के व्यक्ति और क्षेत्र भी धन्य बन जाते हैं ।
ईसा कहते थे
तुम्हारी प्यास मैं बुझा सकूँ, ऐसी शक्ति मुझ में है । अत्यंत शीतल जल तुम्हें लाकर दूँगा, जिससे तुम्हारी प्यास फिर न जाग्रत होगी । वह तृप्ति चिरस्थायी होगी । पर यह जल मैं कहीं बाहर लेने न जाऊँगा। तुम्हारी अंतरात्मा में ही जो शीतल जल का स्रोत है, उसे मैं खोल दूँगा । जिससे तुम्हारे जीवन में पवित्रता
आ जायेगी । यह निर्मल प्रवाह प्रतिक्षण तुझे मिलता रहेगा । तू उसकी इच्छा कर और फिर अपने आप में ही उसे ढूँढ़ने
का प्रयास कर । तेरी तृप्ति तेरे अंदर ही तो समाई हुईं है ।
तुम्हें भी अपने अंदर छुपे हुए ईश्वर को पहचान कर उसकी इच्छा का अनुकरण करना पड़ेगा । जिस दिन तेरे हृदय में सत्य जाग जायगा, उस दिन से तू किसी के साथ बैर न करेगा, सबको अपने ही समान समझने लगेगा ।
बाबा साहब आम्टे
महाराष्ट्र के बाबा साहब आप्टे एक साधारण वकील थे । उनने ढर्रे का जीवन जीने की अपेक्षा उच्च आदर्शों के लिए अपने को समर्पित किया । कोढ़ियों को भीख माँगने की अपेक्षा स्वावलंबी जीवन
जीने की प्रेरणा देकर अपने साथ छोटे- से गाँव लेकर, भेड़-बकरियाँ आदि पालकर गुजारा करने, रहने के लिए फूस के छप्पर बनाने में लग गए । चिकित्सा चली, रोगी अच्छे ही नहीं हुए, स्वावलंबी भी बने। लगनशील की लगन ने प्रगति का पथ प्रशस्त किया । सहयोग बरसा । आज वह संस्था अपंगों की सेवा करने वाले
कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण का विश्वविद्यालय है । अपंगों को शिक्षित एवं स्वावलंबी बनाने वाली प्रख्यात संस्था है ।
कोढ़ियों का सुसम्पन्न अस्पताल भी उसमें है । बाबा साहब आप्टे तथा उनकी पत्नी अहर्निश इस संस्था को सम्हालने,
समुन्नत बनाने में लगे रहते है । उनकी जीवन साधना की महक देश में ही नहीं, सारे विश्व में फैल रही है ।
रेडक्रास के जन्मदाता
उन दिनों इटली और आस्ट्रिया के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था । जीतने की धुन में आगे बढ़ने और शत्रु सैनिकों को मारने का जुनून दोनों पक्षों पर सवार था । पर मरी की और घायलों की देख-भाल की, किसी पक्ष को चिंता न रहती थी । उन्हें दयनीय दुर्दशा में पड़े रहना पड़ता था ।
इस समस्या पर जेनेवा बैंक के एक कर्मचारी जीन हैनरी आ ने भावनापूर्ण मन:स्थिति से विचार किया और तात्कालिक उपाय सोचा । उनने नौकरी छोड़ दी । फ्रांसीसी डालजीरिया में एक फार्म खरीदा और दोनों पक्षों से संपर्क साधकर इस बात पर सहमत किया कि घायलों की चिकित्सा और मृतकों की अंत्येष्टि की सुविधा उन्हें दी जाय । इस
प्रयास का नाम रखा गया- 'रैडक्रोस' । उसका आरंभ तो छोटे रूप में हुआ, पर आए दिन होने वाले युद्धों में उसकी उपयोगिता बढ़ गई । अनेक देशों की सरकारों ने इसमें सहयोग किया । एक आचार संहिता बनी कि युद्ध क्षेत्र में घायलों को उठाने के लिए जाने वाले रैडक्रोस वाहनों को कोई रोकेगा नहीं । रैडक्रोस की आज बहुत ही समुन्नत स्थिति है । इसका श्रेय आ को है, जिन्हें नोबुल पुरस्कार भी मिला ।
स्काउटिंग आंदोलन
अनेक निर्माणों के कार्य संसार में चल रहे हैं पर जिन्हें सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सके, ऐसे मनुष्यों का निर्माण कहीं व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से देखने को मिल रहा हो ऐसा देखने में नहीं आता था।
यह कार्य विद्यार्थियों को माध्यम बनाकर ब्राउन सी द्वीप निवासी राबर्ट वेडेन पावेल ने अपने हाथ में लिया। छात्रों में पाई जाने वाली साहसिकता और विनोदप्रियता का सम्मिश्रण करके उनने एक रूपरेखा बनाई । उसका नाम रखा- 'बाय स्काउट' आंदोलन ।
आरंभ में यह कार्य उसने अपने संपर्क क्षेत्र में प्रयुक्त किया । पर उसके सत्परिणामों को देखते हुए उसे दूर-दूर तक व्यापक बनने का अवसर मिला । कितने ही देशों में, अध्यापक लोग उसे व्यक्तिगत रुचि के कारण चलाते थे ।
बाद में कितनी ही सरकारों ने उस प्रक्रिया को पाठयक्रम के रूप में स्वीकार कर लिया । 'स्काउटिंग' से मिलते-जुलते नाम रखकर कितने ही देशों में स्वयंसेवक दल के नाम पर उसे कार्यान्वित किया । पर वह सूझ आज संसार भर में कार्यान्वित हो रही है । मात्र ७० वर्ष में उसने विश्व आंदोलन का रूप ले लिया है। कारण कि उसके सिद्धांत और
क्रिया-कलाप सर्वत्र उपयोगी माने गए है।
चार पीढ़ियों से चलता अस्पताल
रोजेस्टर नगर का केयो अस्पताल अपने ढंग का अनौखा है । उसका छोटा रूप विकसित होते-होते अब कहीं से कहीं पहुँचा है । चार पीढ़ी पूर्व डॉ० विलियम वारेल ने अपने घर-परिवार के साथ आरंभ किया था । पर रोगियों के साथ पूरी दिलचस्पी लेने और भरपूर सहानुभूति रखने के अस्पताल कारण वह दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करता गया ।
इस अस्पताल में इन दिनों ९ सौ सर्जन, तीन सौ अड़तालीस फिजीशियन और पाँच सौ पचहत्तर साधारण योग्यता के डॉक्टर हैं । देश-देशांतरों से रोगी उसमें भर्ती होने और कठिन रोगों का इलाज कराने आते हैं । ऐसे आगंतुकों की संख्या १ लाख ८० हजार तक पहुँचती है । इमारत अब गगनचुंबी है और उसमें रोगियों तथा कर्मचारियों के रहने की समुचित सुविधा है । साथ ही एक मेडिकल कॉलेज भी इसमें चलता है, जिसमें चिकित्सा के आधुनिकतम साधनों के अतिरिक्त सबसे बड़ी बात यह सिखायी जाती है कि डॉक्टर रोगी को कितनी अधिक सेवा और सहानुभूति प्रदान करे । डॉ० वारेल की चार पीढ़ियाँ इसी धंधे में संलग्न रहीं । उन्हें गर्व है कि वे ऐसा शानदार संस्थान चलाने की पैतृक परंपरा निभा रहे हैं । चिकित्सालय को अब सार्वजनिक घोषित कर दिया गया है।
सत्संग से परमार्थ की शिक्षा
गुलाब का पौधा राजनीतिज्ञ के पास कुछ सीखने के उद्देश्य से पहुँचा । राजनीतिज्ञ ने सिखाया, जो जैसा व्यवहार करता है उसके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए । दुष्ट के साथ दुष्टता करना ही नीति है, यदि ऐसा न किया गया तो संसार तुम्हारे अस्तित्व को मिटाने में लग जायेगा । गुलाब ने उस राजनीतिवेता की बात गाँठ बाँध ली । घर लौटकर आया तो अपनी सुरक्षा के लिए काँटे उत्पन्न करने लगा जो कोई उसकी ओर हाथ बढ़ाता वह कटि छेद देता था ।
कुछ दिनों बाद उस पौधे को एक साधु से सत्संग करने का अवसर मिल गया । साधु ने उसे बताया-'परोपकार में अपने जीवन को खपाने वाले से बढ़कर सम्माननीय कोई दूसरा नहीं होता ।'
परिणामस्वरूप गुलाब ने उसी दिन अपने प्रथम पुष्प को जन्म दिया । उसकी सुगंध दूर-दूर तक फैलने लगी । जो भी पास से गुजरता कुछ क्षण के लिए उसके सौंदर्य तथा सुरभि से मुग्ध हुए बिना न रहता ।
सूर्य को अनुशासन पर पाठ
सृष्टि के आरंभ की बात है । महामुनि अंगिरा ने सूर्य भगवान का तप किया । वे प्रकट हुए और वर माँगने के लिए कहा । उन दिनों सूर्य नारायण मनमौजी आचरण करते थे; कभी निकलते, कभी कई-कई दिन तक बैठे सुस्ताते रहते। अंगिरा ने सामने खड़े सूर्य भगवान से कहा-''मैं स्नान को जाता हूँ । लौटकर वर माँगूँगा । मेरे आने तक आप विश्राम न करें, कार्यरत् बने रहेंगे ।'' सूर्य-सहमत हो गए।
अंगिरा ने गहरी डुबकी लगाई और समाधि लेकर यह काया त्याग दी । उनका अभिप्राय था वचनबद्ध सूर्य नारायण विश्राम के लिए न लौटें और जनहित में निरंतर निरत रहें । देर लगने पर त्रिकालदर्शी सूर्य नारायण ने वस्तुस्थिति समझी और भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए बिना विश्राम गतिशील रहने का क्रम बना लिया । मुनि ने शरीर देकर भी दिन- रात्रि चक्र व्यवस्थित कर दिया ।
नदी प्रतिदान नहीं चाहती
चट्टान रास्ते में बैठी थी । नदी का प्रवाह रोक कर बोली-"बहन ! थोड़ी देर सुस्ता लो, यह दुनिया कृतघ्रों से भरी है । तुम्हारी उदार तत्परता की कोई सराहना तक नहीं करेगा ।''
नदी ने चट्टान की सद्भावना को सराहा; पर रुकी नहीं, बोली-''इस कार्य में जो आत्म संतोष मिलता है, वही क्या कम है, जो लोगों की कृतज्ञता, कृतघ्रता को देखने का प्रयत्न करूँ?''
ठीक ही है, प्रतिदान की अपेक्षा सामान्य जन करते है, सत्युरुषों को केवल अपने लक्ष्य पर बढ़ना आता है । दु:ख उठाकर भी सुख देने में उन्हें रस आता है ।
सुंदर वह, जो सुंदर करई
सुकरात बहुत कुरूप थे, फिर भी वे सदा दर्पण पास रखते थे और बार-बार मुँह देखते रहते । एक मित्र ने इस पर आश्चर्य किया और पूछा, तो उन्होंने कहा-'' सोचता यह रहता हूँ कि इस कुरूपता का प्रतिकार मुझे अधिक अच्छे कार्यों की सुंदरता बढ़ाकर करना चाहिए । इस तथ्य को याद रखने में दर्पण देखने से सहायता मिलती है ।"
इस संदर्भ में एअक दूसरी बात सुकरात ने कही-''जो सुंदर हैं, उन्हें भी इसी प्रकार बार-बार दर्पण देखना चाहिए और सीखना चाहिए कि ईश्वर प्रदत्त सौंदर्य में कहीं दुष्कृत्यों के कारण दाग-धब्बा न लग जाय ।'' उनका मत था-'मनुष्य में चंदन जैसा गुण चाहिए, सुडौल हो या बेडौल, बिखेरें सुगंध ही ।'
कर्तव्यनिष्ठ प्रहरी
इटली के पोम्पियायी नगर में अब से दो सौ वर्ष पूर्व एक भयंकर भूकंप आया, साथ ही ज्वालामुखी भी फटा । नगर के सभी नागरिक प्राण बचाने के लिए भागे, तो भी उस विनाशलीला की चपेट में प्रहरी असंख्यों आ गए ।
अब उस नगर की पुरातत्व विभाग ने खुदाई करायी है, तो मात्र किले के एक प्रहरी का कंकाल इस स्थिति में पाया गया कि वह मुस्तैदी से कंधे पर बंदूक रखे पहरा देता रहा और मलबे में दूब गया ।
उस कर्तव्यनिष्ठ प्रहरी का कंकाल सड़ी बंदूक समेत अब उन खंडहरों के प्रवेश द्वार पर शीशे की आलमारी में बंद करके लगाया गया है । नीचे लिखा है-'वह कर्तव्यनिष्ठ, जिसने मौत को स्वीकार किया; पर डयूटी से न हटा ।'