प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -7

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आनुकूल्यं प्रपश्यन्ति जीवात्मपरामात्मनो: ।
केवलं तेन सन्तुष्टा तिष्ठन्त्यात्मरता: सदा ।। ४९ ।।
ध्यानं ददति निन्दायां स्तुतौ वा ते यदात्विमे।
न्यायनिष्ठै: कृते स्यातामपक्षैश्च विवेकिभि: ।। ५० ।।
विवेकहीना: पश्यन्ति स्वानुरुपान् समानपि।
निन्दन्ति वा प्रशंसन्ति नि:सारां दृष्टिमाश्रिता: ।
तन्न ध्यायन्ति विज्ञास्तु जायन्ते न प्रभाविता: ।। ५१ ।।


टीका-वे मात्र आत्मा और परमात्मा की अनूकूलता का ही ध्यान रखते हैं और इतना बन पड़ने से ही पूर्ण संतुष्ट रहते हैं। निंदा-स्तुति पर वे तभी ध्यान देते हैं, जब वह निष्पक्ष, विवेकवान् और न्याय-निष्ठों द्वारा की गई हो । अविवेकी तो अपने अनुरुप सबको देखते हैं और उथला दृष्टिकोण अपना कर निंदा या प्रशंसा करते  हैं, उस पर विज्ञजन न तो ध्यान देते हैं और न प्रभावित होते हैं ।। ४९-५१।।

अर्थ-निंदा विवेकवान् की ग्राह्य है, क्योंकि उससे उचित-अजुचित का पता चलता है। अनर्गल प्रलाप करने वालों की संसार में कोई कमी नहीं । उन पर न तो ध्यान देने की आवश्यक्ता है, न ही स्वयं के
चिंतन को असंतुलित होने देने की । महामानवों की सबसे बड़ी विशेषता है, औचित्य का वरण एवं निंदा-प्रशंसा से विचलित हुए बिना सही मार्ग पर चलते जाना । इस कसौटी पर, जो 'क्षुरस्यधारा' के समाज है, खरे उतरना हर किसी के लिए सहज नहीं है ।

तुकाराम के अभंग 

यह निष्ठा ही महानता की परिचायक होती है । संत तुकाराम शूद्र जाति में जन्मे थे । उनकी भक्ति भावना से पंडित लोग चिढ़ते। उस क्षेत्र के प्रख्यात पंडित रामेश्वर भट्ट ने उन्हें बुलाया और धमका कर धर्म प्रचार करने और गीत लिखने से मना कर दिया ।

तुकाराम नम्रता की मूर्ति थे । उन्होंने पंडित जी से पूछा-''जो गीत अब तक लिखे जा चुके, उनका क्या करूँ?'' पंडित जी ने कहा-''नदी में फेंक दो ।'' उनने वैसा ही कर दिया ।

संत बहुत दु:खी थे । किसी वंश में जन्मने में मेरा क्या दोष है? भगवान ! मुझे भक्ति से क्यों वंचित किया जा रहा है? आपकी गुण-गाथा गाने से मेरे ऊपर प्रतिबंध क्यों लग गया? यही बात वे निरंतर सोचते रहते। खाना-पीना तक छूट गया ।

रात्रि में सपने में भगवान ने दर्शन दिए और कहा-''तेरे भक्ति गीत मैंने डूबने नहीं दिए । निकालकर नदी किनारे रख दिए हैं। उन्हें वापस लाकर पहले की तरह धर्म प्रचार के पवित्र कृत्य में लग ।''

तुकाराम ने वैसा ही करना आरंभ कर दिया । अब किसी के वियेध का उन्हें कुछ भय न रहा ।

गरीब गोर्की महान् बने 

ऐसे लोग सहायता के अभाव में भी निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं । उनका अंतःकरण ही प्रकाश देता है । शरीर से रुग्ण और अति दुर्बल गोर्की पर दुर्भाग्य का वार एक के बाद दूसरा होता चला गया ।

नाना-नानी के यहाँ पालन-पोषण हुआ । माता उसे इसी स्थिति में छोड़कर दूसरा विवाह करके अन्यत्र चली गई । ननसाल का दुर्व्यवहार बढ़ता चला तो उनने १२ वर्ष की आयु में स्वावलंबी होने की बात सोची ।

एक स्टीमर पर बर्तन माँजने का ऐसा काम मिल गया, जिससे किसी प्रकार पेट भर जाता । दो वर्ष बाद उन्हें
रसोई बनाने का काम मिल गया । साथियों में से कुछ कृपालुओं की सहायता से उन्हें वर्णमाला सीखने और पढ़ने-लिखने का अवसर मिला ।

उन दिनों रूसी क्रांति की हवा चल रही थी । गोर्की ने निजी रूप से पढाई जारी रखी और क्रांति में भाग लिया । टाल्स्टाय उनसे बहुत प्रभावित थे । लेखन कार्य आरंभ किया तो उसमें भी वे ऊँची श्रेणी पर पहुँचे । आज लेखकों की दुनियाँ में गोर्की का नाम मूर्धन्य श्रेणी में गिना जाता है ।

भाग्य ने जिसे पग-पग पर ठुकराया, परिस्थितियाँ जिसके सर्वथा प्रतिकूल रहीं, ऐसा व्यक्ति विश्वविख्यात बन गया । इससे उसके पुरुषार्थ को ही सराहा जा सकता है।

देशभक्त वदरुद्दीन तैयब जी 

बंबई हाईकोर्ट में जिन उच्चस्तरीय भारतीय बैरिस्टरों की गणना होती थी, उनमें बदरुद्दीन तैयब जी भी थे । उन्हीं दिनों स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ रहा था । अंग्रेज 'फूट डालो, लूट खाओ' की नीति अपनाकर मुसलमानो का एक तबका कांग्रेस विरोध गढ़ रहे थे । तत्कालीन गवर्नर उनसे इस फूट में शामिल होने के लिए कहने लगे पर उनने स्पष्ट मना कर दिया ।

कलकत्ता में मुस्लिम लीग का एक बहुत बड़ा जलसा हुआ । बहुत दबाव पड़ने पर भी वे उसमें सम्मिलित होने
न गए । वे सदा एक ही बात कहते रहे, जब तक देश स्वतंत्र नहीं होता, हिन्दू-मुस्लिम खडे़ करना बेकार है ।

तैयब जी को प्रतिपक्षी बनाने के लिए उन्हें हाईकोर्ट का जज बनाया गया तो भी उनकी नीति में रत्ती भर भी  अंतर न आया । 'केशरी' में एक लेख लिखने पर लोकमान्य तिलक पर मुकदमा चलाया गया । सरकार चाहती थी कि उसमें अभियुक्त की जमानत न हो । उनने निर्भीकतापूर्वक जमानत मंजूर कर दी । उनकी देशभक्ति असंदिग्ध थी ।

मैं कहाँ जाउँ?

एक उल्लू एक बस्ती में अकेले रहता; उसकी अशुभ बोली के कारण कोई भी पास में न आने देता । जैसे ही आवाज आती लोग उसे भगा देते । बेचारा बहुत दुःखी था । एक चमगादड़ से कहने लगा-''मैं इस स्थान को छोड़ रहा हूँ । यहाँ कोई भी मेरी वाणी को सुनना ही नहीं चाहता ।'' इस पर चमगादड़ ने कहा-''इस प्रकार तुम जहाँ जाओगे, तिरस्कार पाओगे; परिस्थितियाँ हर जगह एक सी हैं । तुम अपने चिंतन को संतुलित रखो । निंदा से प्रभावित मत होओ । यही जीवन की सही रीति है ।''

अनुशासनं परैरेव द्रष्टव्यं भवतीति यः ।
पालयेत् पूज्यते स तु निन्द्यते य उपेक्षक: ।। ५२ ।।
अन्तरङ्गोऽनुबन्धस्तु ज्ञान तस्यात्मनो भवेत् ।
तपसा तेन स्वात्मैव बलिष्ठो जायते ध्रुवम् ।। ५३ ।।
व्यक्तित्वं स्वं समुद्गच्छेत् सन्तोषोल्लासयोरपि ।
प्राप्तिर्भवति सोऽयं चानुबन्धो व्रतधारणम् ।। ५४।।
दुर्विचारपरित्याग: सद्विचाराप्तिरेव च ।
अनुबन्धो बुधै: प्रोक्त: संस्कर्त्ता यो नृणामिह ।। ५५।।

टीका-अनुशासन दूसरे को दीख पड़ता है, पालन करने वालों की प्रशंसा और तोड़ने वालों की निंदा होती है; अनुबंध अंतरंग होता है । उसकी जानकारी अपने को ही रहती है । उस तपश्चर्या से अपनी ही आत्मा बलिष्ठ होती है, अपना ही व्यक्तित्व उभरता है और अपने को ही संतोष-उल्लास की प्राप्ति होती है । अनुबंध व्रत-
धारणा को कहते हैं । मात्र श्रेष्ठ विचारों को अपनाना, बुरे विचारों के मन:क्षेत्र में प्रवेश करते समय उन्हें खदेड़ भगाना अनुबंध है, जो मनुष्यों को सुसंकृत बनाता है ।। ५२- ५५ ।।

छोटी; किन्तु बड़ी बात 

बात छोटी लगती है; पर यह छोटे-छोटे प्रसंग ही मिलकर संकल्प सुदृढ़ करते हैं और दृढ़ चरित्र का निर्माण करते हैं ।

बापू का उस दिन मौन व्रत था । वे प्रात:काल आश्रम के बच्चों को साथ लेकर टहलने गए ।

रास्ते में एक तीन इंच लंबा सुई का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया । गाँधी जी ने एक छोटी लड़की से उसे उठा  लेने का इशारा किया ।

लड़की ने उठा तो लिया पर उलट-पुलट कर देखने पर उसे निरर्थक पाया और आगे चलकर फेंक दिया ।

शाम को मौन टूटा तो गाँधी जी ने लड़की से वह टुकड़ा माँगा, पर वह तो उसे निरर्थक समझकर फेंक चुकी थी । गांधी जी नाराज हुए और ढूँढ़ लाने के लिए उसे भेजा ।

टुकड़ा मिल गया और उसे साफ करके गाँधी जी ने सूत काता और कहा-'' वस्तुओं का पूरा सदुपयोग करने
की आदत सभी को डालनी चाहिए । बर्बादी तनिक भी न करें ।''

अनावेशस्थितिर्बिद्धे: सदा सन्तुलनं तथा ।
शुभाशुभोक्तौ शान्त्या च विचार: पर्यवेक्षणम् ।। ५६ ।।
पक्षस्याऽस्य विपक्षस्य कृत्वा निष्पक्षभावत:।
न्यायाऽवाप्तिरिह प्रोत्कं शीलं सर्वंसुखाकर: ।। ५७ ।।

टीका-आवेश मे न आना, संतुलन बनाए रहना, भले-बुरे कथन परे शांतिपूर्वक विचार करना और पक्ष-विपक्ष का पर्यवेक्षण करते हुए किसी निष्पक्ष न्याय-निष्कर्ष पर पहुँचना शील है, जो समस्त सुखों का खजाना है ।। ५६ -५७ ।।

राष्ट्रपति की सुशीलता 

महापुरुष बनाने में वस्तुत: इन्हीं सद्गुणों का योगदान प्रमुख रुप से रहता है । अमेरिका के उपराष्ट्रपति जैफरसन बहुत सादगी से रहते थे । वे कहीं बाहर गए तो अपना बिस्तर कंधे पर लादे एक होटल में ठहरने पहुँचे ।

होटल मालिक ने ऐसे साधारण आदमी को अपने यहाँ ठहराने में हेठी समझी और स्थान खाली न होने के बहाने इन्कार कर दिया । जैफरसन चले गए और किसी अन्य होटल में ठहरे ।

बाद में होटल मालिक को पता चला तो वह हड़बड़ा गया । इतने बड़े अधिकारी की अवज्ञा पर उसे डर लग रहा था । गाड़ी लेकर मैनेजर को भेजा और लौटा लाने का आदेश दिया ।

जैफरसन ने नम्रता से कहा-''जिस होटल में साधारण व्यक्ति के ठहरने तक का स्थान नहीं, उसमें उपराष्ट्रपति को ठहराने जितना स्थान कहाँ खाली होगा?'' वे गए नहीं।

शील बनाम साहस

शील उच्चस्तरीय सिद्धितों की जननी है । महर्षि बोधायन एक बार शिष्यों के साथ वन-विचार के  लिए गए । मध्याह्ण होते-होते वे लोग थक गए । वृक्षों की सधन छाया में विश्राम करने लगे तो सभी को नींद आ गई ।

दिन ढल चुका था । महर्षि जगे और उनने अपने सब शिष्यों को पुकारा । जागते, सोते और नींद मे सभी  शिष्य गुरुदेव की आज्ञा सुनते ही उठ बैठे । पर गार्ग्य ज्यों का त्यों अब तक पड़ा रहा।

महर्षि को आश्चर्य हुआ और गार्ग्य के पास जाकर धीरे-धीरे उसे जगाने लगे । पर वह तो जागा पड़ा था ।

गार्ग्य ने कहा-''भगवान् ! एक महा भयंकर सर्प मेरे पैरों में लिपटा सोया पड़ा है कुछ देर में जागेगा त्ब अपने रास्ते  चला जायेगा । इनती देर धैर्यपूर्वक मेरा अविचल पड़ा रहना ही उचित है ।''

गार्ग्य ज्यों का त्यों पड़ा रहा । दो घड़ी के बाद सर्प की नींद खुली और वह पास की झाड़ी की ओर अपने बिल में चला गया । 

शिष्य उठा तो महर्षि ने उसे छाती से लगा और उसके शील की भूरि-भूरि प्रशंसा की, दूसरे शिष्य  मैत्रायण ने कहा-''यह तो साहस का कार्य था गुरुदेव ! आप गार्ग्य को साहसी क्यों नहीं कहते, शीलवान् क्यों कहते है ?''

महर्षि के होठों पर एक हल्की मुस्कान दौड़ गई । उनने कहा-''भद्र ! शील से ही साहस की शोभा है । जो  साहस शील के लिए किया जाता है, वह सराहनीय है । दु:शील के लिए दुस्साहस करने वाले निंदनीय होते हैं । सराहा वही जाता है जो विवेक, धिर्य और सदाचरण से युक्त हो ।''

कृत्यान्यवाञ्छनीयानि भ्रमविस्मृतिकारणात् ।
जायन्तेऽत्र बहून्येवं दुर्बुद्ध्याऽपि तथैव च ।। ५८ ।।
भिन्नतामुभयो: कुर्वन्ननुरुपेण शोधितुम् ।। ५९ ।।

टीका-कितने ही अवांछनीय कृत्य भूल या भ्रमवश बन पड़ते हैं, कई जान-बूझकर दुष्ट बुद्धि से होते हैं । दोनों में अंतर करते हुए तदनुरुप सुधार का प्रयत्न करना धैर्य कहलाता है । यह सभी व्रत अनुबंध हैं ।। ५८-५९ ।।

अर्थ-अनुबंध की, जो आंतरिक अनुशासन का ही दूसरा नाम है, परिधि बड़ी विस्तृत है । यह एक  प्रकार का व्रत बंधन है, जिसमें आंतरिक पुरुषार्थ के माध्यम से आत्मावलोकन-पर्यवेक्षण कर अपने दोष-
दुर्गुण मिटाकर चिंतन को दिशा दी जाती है । यह एक समयसाध्य प्रक्रिया है । कभी-कभी व्यक्ति दुर्बुद्धिग्रस्त 
ऐसे कृत्य कर बैठता है जो मर्यादा लाँघ जाते हैं । इन पर कड़ी दृष्टि अनिवार्य है । इन पर रोकथाम लगाकर  शील को निभाना एक बहुत बड़ा आत्मिक पुरुषार्थ है ।

सलाह न मानी 

एक मुर्ख चूल्हे पर रखकर लकड़ियाँ सुखाता था । भले पड़ोसी ने देखा, तो सलाह दी-''आप  ऐसा न किया करें । इसे तो कभी घर में आग भी लग सकती है ।''

अशुभ बोने का दोष मूर्ख ने मुँह फेर लिया और उसकी सलाह न मानी ।

कुछ समय बाद वैसा ही हुआ । लकड़ियाँ जलने लगीं और आग लग गई । हो-हल्ला सुनकर पड़ोसी आये और बड़ी दौड़-धूप के बाद आग बुझाई ।

शांति हो जाने पर सहायता के उपलक्ष्य में उस मूर्ख ने पड़ोसियों को प्रीतिभोज दिया।

उस पड़ोसी की खोज की गई तो पाया कि वे पहले कि तरह ही किसी अन्य व्यक्ति को समझाने में लगे थे ।

समझाने का ढंग ऐसा नहीं होना चाहिए कि दूसरे लोग अहंकारी समझने लगें । तर्क और तथ्यपूर्ण ढंग से कही गई बात में ही शालीनता होती है ।

कर सकते थे, पर किया नहीं 

स्पेन के नाविक कोलंबस ने दुस्साहसी नौकायन करके अमेरिका महाद्वीप खोज निकाला ।

उसकी कीर्ति सब ओर फैली । लौटने पर सम्मानपूर्वक अनेक समारोह हुए ।

ऐसे ही एक प्रीतिभोज में एक ने किसी दूसरे से कहा यह कौन सी बड़ी बात है? 
अटलांटिक पार किया कि अमेरिका आ गया । इतने सरल काम के लिए इतने सम्मान की क्या जरूरत ?

भोज समाप्त होने पैर कोलंबस ने एक उबला अंडा मेज पर रखा और कहा-'' आप में से कोई सज्जन इसे सीधा खड़ा कर देने की कृपा करें ।''

सभी ने बहुत अक्ल दौड़ाई, कोशिश की पर वैसा न हो सका, जैसा कि करने के लिए कहा गया था ।

कोलंबस ने अंडे का एक सिरा उँगली से तोड़कर समतल किया व उसे मेज पर खड़ा कर दिखाया । कई व्यक्ति जोर से चिल्ला उठे-''इसमें कौन सी बड़ी बात है यह तो हम भी कर सकते थे ।'' कोलंबस ने नम्रतापूर्वक कहा-''कर सकते थे, पर किया नहीं । सूझ-बूझ के अभाव में सरल दीख पड़ने वाला काम भी असंभव हो जाता है । महत्व श्रम का नहीं, सूझ-बूझ का भी होता है । आप भी अमेरिका की खोज कर सकते थे; पर मैंने स्प-बूझ के सहारेउसे खोज लिया । वह रास्ता तो सबके लिए खुला पड़ा है ।''

व्रतानुबन्धनामानि मानवोत्कर्षहेतव: ।
सदा व्यसनराहित्यं स्वभावोऽयोग्य एष य: ।। ६० ।।
तद्धानीनां परिज्ञानं तेषां त्याग: शनै: शनै:।
एकवारेण वाऽप्येषा कथिता व्रतशीलता ।। ६१ ।।

टीका-व्रत और अनुबंध ही मानव उत्कर्ष के हेतु हैं । दुर्व्यसनों से बचे रहना, जो अनुपुक्त आदतें स्वभाव का अंग बन गई हैं, उनकी हानियों को समझना और एक बारगी अथवा धीरे-धीरे छोड़ने में लग पड़ना व्रतशीलता है ।। ६०- ६१ ।।

अर्थ-व्रतों से जुड़कर ही व्यक्ति ऊँचा उठ पाता है । संकल्पबद्ध हो जाने पर पुरुषार्थ पूरे मनोयोग से उस दिशा में नियोजित हो जाता है । जो भी अवांछनीय है उससे बचना जितना जरूरी है, उतना ही
सत्प्रवृत्तियों से जुड़ना भी ।

संकल्प बोल उठा 

एक खेत में एक लोमडी व उसके दो बच्चे रहते थे । एक दिन किसान और उसका बेटा दोनों मेंड़ पर घूम रहे थे । पिता बोला-''बेटा, खेत पक गया है । कल नौकरों को बुला लाना, खेत काट लेंगे ।'' लोमड़ी के बच्चे डर गए, माँ से सारा हाल कह सुनाया । लोमड़ी बोली-''अभी चिंता करने की बात नहीं ।'' दूसरे दिन नौकर न पहुँचे, बाप बोला-''बेटा, कल अपने पड़ोसियों को ही ले आना, कल जरूर खेत काटना चाहिए। लोमड़ी के बच्चे फिर भागने की हठ करने लगे पर लोमड़ी ने इस बार भी मना कर दिया । तीसरे दिन किसान बोला-''भाई, दूसरों के सहारे कब तक बैठें । कल हँसिया ले आना हम दोनों ही काटेंगे ।''

इस बार लोमड़ी ने स्वयं ही बच्चों को बुलाया और बोली-''बेटे, चलो अब खेत खाली कर दो ।'' बच्चों ने विस्मित होकर पूछा-''माँ । हम लोग दो दिन से कह रहे है, तब तो तुम चलीं नहीं, आज अपनी ओर से ही चलने को कह रही हो ।''

लोमड़ी ने कहा-''बच्चो! और दिन किसान बोलता था पर आज तो उसका संकल्प बोल गया है । संकल्पवान् जो चाहें कर सकते है ।''

पंडिताइन की सीख

अपनी गलती समझ लेने में किसी प्रकार की हेठी नहीं है। 

एक थे पंडित जी और एक थी पंडिताइन। पंडित जी पूरे पंडित थे । अपने को सबसे ऊँचा मानते थे ।

पंडिताइन समझाती थी । ऊँच-नीच नहीं मानती थी । 

एक दिन पंडित जी को प्यास लगी । घर में पानी नहीं था । पंडिताइन पड़ोस से पानी ले आई । पानी पीकर पंडित जी ने पूछा-'' कहाँ से लाई? बहुत ठंडा है ।''

-''पड़ोस के कुम्हार से ।''

सुनते ही पंडित जी के तेवर चढ़ गए । उन्होंने लोटा फेंक दिया । चीखने लगे-'' अरी, तूने तो मुझे भ्रष्ट कर दिया । कुम्हार के घर का पानी पिला दिया ।''

भय से पंडिताइन काँप उठी । उसने माफी माँगी-''अब ऐसी भूल नहीं होगी ।''

बात आई-गई हो गई । शाम को पंडित जी खाना खाने बैठे तो पंडिताइन ने उन्हें सूखी रोटियाँ दीं । पंडित जी ने पूछा-'' साग नहीं बनाया?''

-''बनाया तो था, लेकिन फेंक दिया । जिस हाँडी में पकाया था, कुम्हार के घर की थी ।''

''तू बडी पगली है ! हाँडी में कहीं छूत होती है । ''-कहकर पंडित जी ने रोटी के दो-चार कौर खाए फिर बोले-''पानी तों ले आ !''

''पानी ! पानी कहाँ से लाऊँ?'' -पंडिताइन ने उत्तर दिया-'' बर्तन तो है नहीं । पानी भरती किसमें ?''

-''घड़े कहाँ गए ?''
-''वे तो मैंने फेंक दिए । कुम्हार के हाथ के बने थे न !''

पंडित जी ने रोटी के दो-चार कौर जैसे-तैसे और खाए । फिर बोले-'' दूध ही ले आ । उसमें मसलकर खा लूँगा ।''

-''दूध भी फेंक दिया । गाय को जिस नौकर ने दुहा था, वह कहार है ।''

-''हद कर दी । यह भी नहीं जानती कि दूध में भी छूत नहीं लगती ।''

'' यह कैसी छूत है? वह पानी में तो लगती है, दूध में नहीं लगती?'' -पंडिताइन ने पूछा ।

पंडित जी के मन में आया कि दीवार से सिर फोड़ लें । गुर्राकर बोले-'' तूने तो मुझे चौपट ही कर दिया ।
जा, आँगन में खाट डाल दे । नींद आ रही ।''

-''खाट ! उसे चमार के बच्चों ने बुना था। सो मैंने वह तोड़कर फेंक दी ।''

''सब में आग लगा दी । घर में कुछ भी है ?''-पंडित जी चीखे ।

-''हाँ, घर बचा है । उसे भी छोड़ना है । वह भी तो राज-मजदूरों का बनाया हुआ है ।''

पंड़ित जी कुछ देर गुम-सुम खड़े रहे । फिर बोले-''तूने मेरी आँखें खोल दीं । मेरी नासमझी से सब गड़बड़ हो रहा था।''

पंडिताइन ने बुद्धिमानी से घर की आग बुझा दी । जिनके बल पर हम सुख भोगते हैं, उन्हें नीचा समझना बड़ी भूल हैं । ''

प्रगति का सूत्र 

एक बार एक संगीत अध्यापक अपने कुछ छात्रों के साथ लोक प्रसिद्ध पियानो वादक पादरेवस्की से मिलने गए । संगीत अध्यापक ने पादरेवस्की से पूछा-'' आपकी सफलता का सूत्र कौन सा है?''

पादरेवस्की ने एक पुस्तक की ओर संकेत करते हुए कहा-''मैं अभी भी हर दिन इस पुस्तक के आधार पर चार घंटे नित्य अभ्यास करता हूँ । सतत अपनी गल्ती ढूँढता रहता हूँ ।''

अध्यापक उनकी बात को समझ गए और उन्होंने अपने छात्रों से कहा कि काम के प्रति निष्ठा और उसके लिए निरंतर प्रयास ही सफल होने का रहस्य है ।''

गाँधी जी का अर्थशास्त्र 

एक बार गाँधी जी इलाहाबाद-आनंद भवन में ठहरे । सुबह गाँधी जी हाथ-मुँह धो रहे थे और जवाहर लाल जी पास खड़े बातें कर रहे थे। कुल्ला करने के लिए गाँधी जी ने जितना पानी लिया, वह समाप्त हो गया तो उन्हें दूसरी बार फिर पानी लेना पड़ा । गाँधी जी बड़े खिन्न हुए और बातचीत का सिलसिला टूट गया । जवाहर लाल जी ने कारण पूछा तो उन्होंने कहा-''मैंने पहला पानी अनावश्यक रूप से खर्च कर दिया और अब फिर पानी लेना पड़ रहा है । यह मेरा प्रमाद है।''

जवाहर लाल जी हँसते हुए बोले-'' यहाँ तो गंगा-यमुना दोनों बहती हैं । रेगिस्तान की तरह पानी कम थोड़े ही है । आप थोड़ा पानी अधिक खर्च कर लें तो चिंता की क्या बात है?''

गाँधी जी ने कहा-''गंगा-यमुना मेरे लिए ही तो नहीं बहती । प्रकृति में कोई भी चीज कितनी ही उपलब्ध हो, मनुष्य को उसमें से उतना ही खर्च करना चाहिए जितना उसके लिए आवश्यक हो ।''

अविकासस्थिता याश्च सत्प्रवृत्तय उन्नतान् ।
तासां बीजाड्करान् कर्तुं लग्रतोत्साहिनस्तु या ।।६२।।

टीका-जो सत्प्रवृत्तियाँ अभी नहीं हो पाई हैं, उनके बीजांकुरों को अंकुरित-पल्लवित करने मेंउत्साहपूर्वक लग पड़ना अनुबंध है ।। ६२ ।।

अर्थ-संकल्प अकेले ही पर्याप्त नहीं । उन्हें खाद-पानी देना भी जरूरी है । यह तभी संभव है जब मनुष्य सत्प्रवृत्तियों के जीवन में समावेश हेतु तत्परता से जुट पड़ता है ।

दर्द मैं  बंटा लूँगा 

दोपहर, विद्यालय के विश्राम का समय । एक दुबला-पतला सुंदर सा लड़का विद्यालय के बाहर निकल कर खाना खाने के लिए अपने घर जा रहा था । रास्ते में उसने देखा, दो लडके आपस में झगड़ रहे थे । उसमें एक बलवान था और दूसरा कमजोर । बलवान लड़का कमजोर को पीट रहा था । उसके हाथ में एक लकड़ी थी। 

रास्ता चलने वाले लड़के को जोश आ गया । वह तुरंत बलवान लड़के के पास चला गया । उसके भारी शरीर को देख लड़के का साहस उसे टोकने का न हुआ। कुछ क्षण सोचकर उसने बलवान लड़के से पूछा-''क्यों भाई ! तुम इसको कितने बेंत लगाना चाहते हो ?''

किसी अपरिचित लड़के को बीच में पड़ते देख बलवान लड़के का क्रोध तेज हो गया। उसने कठोर दृष्टि से देखते हुए कहा-''क्यों, तुम्हें क्या मतलब ?''

''मुझे इससे मतलब है ''-राह चलते लड़के ने कहा ।

''तुम क्या कर लोगे ''-बलवान लड़के ने चेतावनी दी ।

''भाई ! मैं तुमसे अधिक बलवान तो हूँ नहीं जो इस कमजोर को बचाने के लिए तुमसे लड़ सकूँ । लेकिन इतना जरूर चाहता हूँ कि इसकी पिटाई में मैं भी भागीदार बन जाऊँ''-दर्शक लडके ने कहा ।

''तुम्हारा मतलब क्या है?'' -पीटने वाला लड़का इस पहेली का अर्थ न समझ पाया।

''तुम इस कमजोर लड़के के शरीर पर कुल जितने भी बेंत मारना चाहते हो, उससे आधे मेरी पीठ पर लगा
दो । इस तरह इसका आधा कष्ट मैं बाँट लूँगा ।''-दर्शक लडके ने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा ।

बलवान लड़का आश्चर्य से देखता रहा और कुछ क्षण बाद उसने चुपचाप अपने हाथ की लकड़ी तोड़कर फेंक दी और मन में पश्चात्ताप करता अपने रास्ते चला गया । पिटने वाले लड़के की मुसीबत टल गयी । वह बीच का लड़का जीवन भर इसी तरह सूझ-बूझ से कार्य करता रहा तथा बड़ा होकर अंग्रेजी का प्रसिद्ध कवि लार्ड बायरन के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

जय प्रकाश-लोक नायक 

किसी में प्रारंभ से ही यह गुण हों, ऐसा सदैव संभव नहीं । जयप्रकाश नारायण अमेरिका पढ़ने गए । पर पैसे का प्रबंध न था । सो उन्होंने फल और होटल वाले के यहाँ नौकरी की और शेष समय में पढ़ाई जारी रखी । कई मित्रों ने सहायता देनी चाही; पर उनने स्वावलंबन ही स्वीकार कर छोटी नौकरी करते हुए पढ़ाई जारी रखी ।

इन्हीं गुणों के कारण वे एक दिन लोकनायक कहलाये ।

कर्वे की उदारता 

प्रयत्न यह रहे कि सत्प्रवृत्तियों के विकास की गति धीमी न हो । नये अध्याय जुड़ते चलें । कर्वे को जो छात्रवृत्ति मिलती थी, उसी से रोटी खरीदकर पेट भरते थे । होटल वाले नाग बाबू बीमार पड़े । होटल बंद करके घर चले गए । कर्वे उस थोड़ी आमदनी में से पैसा बचाने लगे थे ।

नाग बाबू की बीमारी का समाचार सुनकर कर्वे उनके घर पहुँचे । नाग बाबू ने समझा इनके ५) रुपयें मेरे ऊपर उधार हैं, उन्हें माँगने आये हैं । वे असमर्थता प्रकट करने लगे । कर्वे ने गाँठ में से ३) रुपये खोलकर उन्हें दिए और कहा-''माँगने नहीं, कुछ देने आया हूँ ।''

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