प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -10

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
कल्पनाया न धर्मोऽस्ति विषय: कथनस्य च।
कथनं श्रवणं नैव पर्याप्तं त्वस्य सम्मतम् ॥८३॥
आगन्तव्यं तु धर्मेण निजाचारे तथा च सः ।
अङ्गता दिनचर्याया नेतव्यो भूतिमिच्छता ॥८४॥
सार्थक्यमत्र तस्यास्ति स्थितौ चास्यां गतों नर: ।
धर्मात्मा वस्तुतस्त्वस्ति फलं प्राप्नोति पुण्यदम ॥८५॥
यदुक्तं शास्त्रकारैस्तु कृते धर्मात्मनां नृणाम्।
पारायणं न पुण्यं तत्पाठजं केवलं स्मृतम् ॥८६॥

टीका-धर्म कल्पना-जल्पना का विषय नहीं। उसे आचरण में उतारा जाता है, दिव्यता की प्राप्ति के लिए उसे जीवनचर्या का अविच्छित्र अंग बनाया जाता है । इसी में उसकी सार्थकता है। इसी स्थिति में पहुँचकर कोई सच्चे अर्थों में धर्मात्मा बनता है और वह पुण्य-फल पाता है, जो धर्मात्माओं को मिलने की बात शास्त्रकारों ने कही है । पाठ रूप में जो पारायण दैनिक होता है, वह पुण्य नहीं है॥८३-८६॥


अर्थ-लोगों को तो न जाने कहाँ से भ्रम हो गया और सिद्धि प्रदर्शन को धर्म मानने लगे । सिद्धि सामर्थ्य न होती हो, सो बात नहीं; पर उसके सार्वजनिक प्रदर्शन पुर प्रतिबंध है । ऐसा न होने और उसी के धर्मधारणा बन जाने से सार्वजनिक जीवन में आडंबर बढ़े हैं। वस्तुत: धर्म सदाचरण का पर्याप्त है ।

धर्म का अर्थ प्रदर्शन नहीं 

चीन में एक बौद्ध भिक्षुणी थी । उसने भगवान की एक छोटी स्वर्ण प्रतिमा बनायी । उसी की पूजा-अर्चा में निरत रहती।

एक दिन महाबुद्ध उत्सव हुआ दूर-दूर की बुद्ध प्रतिमाएँ सजा-धजा कर लायी गईं । उनका सामूहिक पूजा-अर्चा करने का कार्यक्रम बना ।

भिक्षुणी पूजा की सामग्री तो लायी थी, पर वह अपनी ही प्रतिमा की उससे अर्चा करना चाहती थी । धूप,
दीप, नैवेद्य समारोह में जलाने पर उसे भरा था कि दूसरी प्रतिमाएँ उसकी सुगंध लूट ले जाएँगी । इस हानि से बचने के लिए उसने अपनी धूप का धुँआ एक बाँस की पोंगली द्वारा अपनी प्रतिमा की नाक से सटा दिया ।

थोड़ी देर में प्रतिमा का मुँह धुएँ से काला हो गया । दर्शकों को वह कुरूप लगी और पूजने तथा लाने वाले तक की भर्त्सना हुई ।

खिन्न भिक्षुणी को समारोह के अधिष्ठाता ने कहा-"संकीर्णता एवं प्रदर्शन वृत्ति के रहते पूज्य, पुजारी, पूजा का मुँह काला ही हो सकता है । वस्तुत: धर्म का अर्थ है-सदाचरण ।"

धर्म बडा क्यों

गुरुकुल के शिष्यों में से एक ने उस दिन के सत्संग-समागम में अधिष्ठाता से पूछा-"देव ।

धन, कुटुंब और धर्म में से कौन सच्चा सहायक है?"

अधिष्ठाता ने सीधा उत्तर न देकर एक कथा सुनायी-

एक व्यक्ति था । उसके तीन मित्र थे। एक बहुत प्यारा, दूसरा मध्यवर्ती,, तीसरा उपेक्षित । एक बार वह किसी मुसीबत में फँस गया। सहायता के लिए मित्रों के पास जाने की बात उसने सोची ।

घर से चल पड़ा। विपत्ति के समय मित्र ही साथ देते है । सबसे प्रिय के पास गया, परिस्थिति बतायी और सहायता माँगी कि राज दरबार तक साथी और सहायता के लिए साथ चलना पड़ेगा।

परम मित्र ने स्पष्ट इन्कार कर दिया-' वह घर से बाहर कही जाने की स्थिति में नहीं है ।'

अब मध्य स्नेह वाले के पास पहुँचा और वही बात उससे भी कही। उसने अन्य प्रकार से सहायता करने का तो भरोसा दिलाया; पर राजदरबार तक जाने में जो खतरा हो सकता था, उसे उठाने से उसने भी इन्कार कर दिया।

अब तीसरे मित्र की बारी थी । घनिष्ठता तो कम थी, तो भी सोचा चलो उसे भी परख लें । तीसरे ने मित्रता निभाई । राजदरबार तक गया और पूरी सहायता करके उसे संकट से उबार लिया ।

यह तीसरा मित्र धर्म ही था-यह विद्यार्थियों की समझ में आया और साथ ही सदाचरण को हृदयंगम करने का माहात्म्य भी ।

धर्म को जीवनचर्या में आत्मसात् करने वालों की ही आज सच्ची आवश्यकता है । ऐसे लोगों से ही धर्म धारणा का विस्तार होगा । प्राचीन काल के इस सत्य को फिर से प्रतिष्ठित किया जाना आवश्यक है ।

अप्प दीपो भव 

कंबोज के राजा विंगमिग अपने राज्य के लिए किसी धर्म पुरोहित की खोज में थे ।

तीर्थाटन करते हुए एक विद्वान् राजदरबार में पहुँचे और बोले-"मैं त्रिपिटकाचार्य हूँ । मैंने बौद्ध धर्म का गहन अवगाहन किया है । राज्य पुरोहित के रिक्त स्थान को भरने की अपने में मैंने क्षमता देखी सो उस पद को पाने के लिए आपकी सेवा में चला आया ।"

राजा ने त्रिपिटकाचार्य का यथोचित सम्मान किया और कहा-"आपने जो पढ़ा है, कृपया उसे एक बार फिर
पढ़ें और मनन करें, तब आपको वह पद सौंपने का प्रसंग बनेगा ।"

आचार्य को बहुत क्रोध आया । यह उनकी विद्या का मखौल था । तो भी राजा से झाड़ने की अपेक्षा एक
वर्ष का समय निकाल देने में उनने बुद्धिमानी समझी ।

दूसरे वर्ष फिर वे पहुँचे । राजा ने एक वर्ष के लिए धर्म का और अधिक मनन-चिंतन करने की बात कहकर
टाल दिया ।

पुरोहित को बहुत खीज आयी और वे दरबार में जाने की अपेक्षा एक नदी तट पर एकांतसेवन की उपासना
करने-लगे ।

राजा टोह लेते रहे । नई कार्य पद्धति की सूचना पाकर वे दरबारियों समेत उन्हें चलने का आग्रह करने पहुँचे ।

अबकी बार पुरोहित बहुत झल्लाये हुए थे । उनने कहा-"अप्प दीपो भव ।" अर्थात अपने को दीपक बनाओ, ताकि उपदेश से नहीं चरित्र से लोग प्रकाश ग्रहण कर सकें ।"

राजा ने कहा-"इसी विशेषता वाले सच्चे धर्मोपदेशक होते हैं । आपको उस स्थिति तक पहुँचा देखकर हम सब निमंत्रित करने आये हैं ।"

जनै: सद्भिश्च तत्रत्यै: प्रखरत्वसमन्वय:।
पूतत्वेन सह ज्ञात: सोऽनिवार्यतयाऽथ तै:॥८७॥
विनयेनाथ सौजन्यभावेन सह च ध्रुवम् ।
अन्वभूवन्निदं सर्वे महत्तापथगामिभि:॥८८॥ 
जीवने व्यक्तिगे भाव्यमनुशासनवर्तिभि:।
क्षेत्रे सामाजिके भाव्यं मर्यादानिष्ठतां गतै:॥८९॥
ज्ञात: समागमोऽद्यैष उपयोगी पर: समै।
उपस्थिता जनाश्चास्य दिनस्यैतद् विवेचनम्॥९०॥
मत्वा विशेषरूपेण प्रभावपरिपरितम् ।
प्रसन्नवदना: सर्वे ययु: सत्र विसर्जनात्॥९१॥

टीका-उपस्थित संतजनों ने पवित्रता के साथ-साथ प्रखरता का समन्वय रहने की आवश्यकता समझी । नम्रता और सञ्जनता के साथ इस बात की भी आवश्यकता अनुभव की कि महानता के पथ पर चलने वालों को व्यक्तिगत जीवन में अनुशासनप्रिय और सामाजिक क्षेत्र में उपयुक्त मर्यादाओं के परिपालन में निष्ठावान् होना चाहिए। आज का समागम अतीव उपयोगी समझा गया । उपीस्थतजन इस दिन के प्रवचन का विशेष प्रभाव लेकर, प्रसन्नचित्त हो विसर्जित हुए॥८७-९१॥ 


इति श्रीमत्प्रज्ञापुराणे ब्रह्मविद्याऽऽत्मविद्ययो:, युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्रीआश्वलाद्यन-उद्दालक ऋधिसम्पादे  "अनुशासनोऽनुबब्श्वे", ति
प्रकरणो नाम पश्चमोऽध्याय: ॥५॥

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118