प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-2

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सम्बद्धताऽनयोरस्ति मुने सत्यविवेकयो: । 
परस्परं भवेदेको यत्र तत्रैव चापर: ।। १४ ।।  
विवेकेनैव सत्यस्य स्वरूपं ज्ञायते तथा । 
तदाश्रित्यैव सत्यस्य प्राप्त्यै च प्रक्रमेन्नर: ।। १५ ।। 
ग्रस्त: पूर्वाग्रहैर्मर्त्यो भवत्येव स्वभावत: । 
पारम्पर्यस्य वंशस्य वातावरणकस्य च ।। १६ ।।  
संस्काराणां च हेतोस्ता मान्यतास्तस्य व्यक्तिगा: । 
स्वभावं यान्ति ता एव सर्वस्वं मन्यते च सः ।। १७ ।। 

टीका-सत्य और विवेक परस्पर जुड़े हुए हैं। जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा भी रहेगा । विवेक से सत्य का स्वरूप समझा और उसके सहारे सत्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ा जाता है । मनुष्य स्वभाव से ही पूर्वाग्रहों से ग्रसित होता है । वंश परंपरा वातावरण और संचित संस्कारों के कारण उसकी कुछ अपनी मान्यताएँ और 
आदतें बन जाती हैं । वह उन्हीं को सब कुछ मान लेता है ।। १४-१७ ।।

अर्थ-सत्य और विवेक एकं सिक्के के दो पहलू और एक गाड़ी के दो पहियों की तरह हैं । सत्य के लिए विवेक। का सहारा चाहिए तथा विवेक की सार्थकता सत्य तक पहुँचने में ही है । मनुष्य में पूर्वाग्रह के 
तीन कारण बतलाये गए हैं । 

(१) वंश परंपरा के आधार पर कुछ मान्यताएँ बन जाती हैं । जातिगत छोटे- बड़े की मान्यता वंश परंपरा के आधार पर है । अपने से भिन्न वंश के श्रेष्ठ गुण वालों को भी अपने से हीन सिद्ध करने का मन 
इसी आधार पर होता है । अनेक अलन- चलन, कुरीतियाँ यह सब वंश परंपरा पर आधारित हैं । 

(२) वातावरण जन्य पूर्वाग्रह भी सत्य से दूर रखे रहते हैं । जो सुख में पले हैं, वे किसी दुःखी या भूखे की मजबूरी नहीं समझ पाते । दरिद्रता में पले व्यक्ति सम्पन्नों के उत्तरदायित्वों के बारे में कोई सद्भाव नहीं रखते । भीड़ में सामूहिक लहर उठती है तो समझदार भी तोड़- फोड़ करने लगते हैं । उस माहौल के 
बाहर आते ही विचार काम करने लगता है। 

(३) संचित संस्कार-अभ्यास । यह बिल्कुल व्यक्तिगत आग्रह होता है । जिसे व्यंग्य करने का अभ्यास है उसे यह नहीं समझ पड़ता, कि लोग अकारण बुरा क्यों मान जाते हैं । खर्चीले हाथ वाला 
मितव्ययिता के लाभ नहीं समझना चाहता और कंजूस उदारता से बचकर रहना चाहता है । आलसी श्रम की महत्ता को, क्रोधी शालीन व्यवहार को, आवारा समय के महत्व को झुठलाते ही रहना चाहते हैं। इस स्तर के सभी अभ्यासगत पूर्वाग्रह किसी न किसी सत्य को नजरअंदाज करते रहते हैं । 

प्रकाश का स्त्रोत-विवेक 

याज्ञवल्क्य राजा जनक की सभा में विराजमान थे और शंकाओं का समाधान कर रहे थे । 

जनक ने पूछा-''प्रकाश का स्रोत क्या है? और वह न मिले तो किसका आश्रय पकड़ा जाय?'' 

याज्ञवल्क्य ने कहा-''सूर्य प्रमुख है । वह न हो तो चंद्रमा । चंद्रमा न हो तो दीपक । दीपक न हो तो विज्ञजनों से पूछकर प्रकाश प्राप्त करें ।'' 

जनक ने पूछा-''कोई बताने वाला भी न दीखे तब ?'' याज्ञवल्क्य ने कहा-''तब अपने अंत विवेक के आधार पर मार्ग अपनायें । सांसारिक प्रकाश न मिलने पर उसी की ज्योति यथार्थता बताती है ।'' 

दोनों पंख चाहिए 

बड़प्पन, बड़ा हो गया । घोंसले से बाहर निकलने लगा । तब तक उसका एक पंख उगा था, कि उड़ने के लिए मचल पड़ा । कुछ ही दूर बढ़ा होगा कि आँधी आई और जमीन पर गिर पड़ा । 

चिड़िया ने उसे वापस बुलाया और कहा- ''दूसरा पर उगने तक ठहरो ।'' 

सत्य और विवेक दोनों के परिपुष्ट हुए बिना मनुष्य की सद्गति नहीं । 

विवेक की गणित 

एक व्यक्ति अपने तीन बच्चों को किसी विचारशील के पास ले गया और बोला इसके गुण और भविष्य बताइये । विज्ञ व्यक्ति ने तीनों को दो-दो केले दिए । एक ने छिलका उतार कर सड़क पर फेंक दिया । दूसरे ने कूड़ेदान में डाल दिया । तीसरे ने गाय को खिला दिए । भविष्यवक्ता ने कहा-''इनमें से एक मूर्ख, दूसरा समझदार और तीसरा उदारचेता बनेगा ।'' 

पिता ने पूछा-''आपने कौन सा गणित लगाकर यह भविष्यवाणी की ।'' विचारक ने कहा-''विवेक के गणित से बढ़कर निर्धारण और किसी विधा से नहीं होता ।'' 

मौत के मुँह में साँप और चूहा 

एक पेड़ पर दो बाज प्रेमपूर्वक रहते थे । दोनों शिकार की तलाश में निकलते और जो भी पकड़ लाते उसे शाम को मिल बैठ कर खाते । बहुत दिन से उनका यही 
क्रम चल रहा था । 

एक दिन दोनों शिकार पकड़कर जाए तो एक की चोंच में चूहा था और दूसरे की में साँप । शिकार दोनों ही तब तक जीवित थे। पेड़ पर बैठकर बाजों ने जब उनकी पकड़ ढीली की, साँप ने चूहे को देखा और चूहे ने साँप को ।

साँप चूहे का स्वादिष्ट भोजन पाने के लिए जीभ लपलपाने लगा और चूहा साँप के प्रयत्नों को देखकर अपने पकड़ने वाले बाज के डैनों में छिपने का उपक्रम करने लगा । 

उस दृश्य को देखकर एक बाज गम्भीर हो गया और विचारमग्न दीखने लगा । दूसरे ने उससे पूछा- ''दोस्त, दार्शनिकों की तरह किस चिंतन- मनन में डूब गए ?'' 

पहले बाज ने अपने पकड़े हुए साँप की ओर संकेत करते हुए कहा-''देखते नहीं, यह कैसा मूर्ख प्राणी है । 

जीभ की लिप्सा के आगे इसे मौत भी एक प्रकार से विस्मरण हो रही है ।'' दूसरे बाज ने अपने चूहे की आलोचना करते हुए कहा-''और इस नासमझ को भी देखो, भय इसे प्रत्यक्ष मौत से भी अधिक डरावना लगता है ।'' 

पेड़ के नीचे एक मुसाफिर सुस्ता रहा था। उसने दोनों की बात सुनी और एक लंबी सांस छोड़ते हुए बोला-''हम मानव प्राणी भी तो साँप और चूहे की तरह स्वाद और भय को बड़ा समझते हैं, मौत तो हमें भी विस्मरण ही रहती है । स्वभावगत आग्रह मनुष्य को इसी प्रकार सत्य का विस्मरण कराते रहते हैं ।'' 

सपनों का कल्पवृक्ष 

उल्लू ने सपना देखा कि वह स्वर्ग लोक पहुँचा और नंदनवन के कल्पवृक्ष पर घोंसला बनाकर रहने लगा । 

आँखें खुलीं, तो उस स्वप्न लोक को हाथों से निकलता देखकर बहुत दु:खी हुआ । तो भी हिम्मत न हारी और जहाँ भी वह मिले, जा पहुँचने के लिए आँखें मूँदकर दौड़ पड़ा । 

सारस ने इस बेसब्री का कारण पूछा- जाना, तो वह भी साथ हो लिया । जिस जिसने इसे जाना वे सभी पक्षी उस अंधी दौड़ में शामिल हो गए । एक बड़ा पक्षी समुदाय किसी अज्ञात दिशा में स्वप्न लोक में प्रवेश करने के लिए उड़ानें भर रहा था। 

बूढ़े गिद्ध ने आश्चर्यपूर्वक पूछा-''आप सब लोग बिना सत्य जाने कहाँ व क्यों दौड़े जा रहे हैं ? कहाँ के लिए प्रस्थान कर रहे 
है।'' 

वस्तुस्थिति से अपरिचित पक्षी ठिठके । गिद्ध ने कहा-''दिवा स्वप्नों के पीछे बिना विवेक के दौड़ने की आदत हम मनुष्यों के लिए छोड़े, हम पक्षी लोग तथ्य को जानें और वही करें जिसकी संभावना है, जो सत्य है ।'' 

पक्षियों ने विवेक की महत्ता समझी और बिना सत्य जाने इस तरह भेड़चाल आगे से न चलने की ठानी ।

कोतवाल की कटु वाणी 

कोतवाल को दादू महाराज से मिलना था। रास्ते में एक आदमी मिला जो सड़क के कटि साफ कर रहा था । 

उससे पूछा-''क्यों रे दादू महाराज कहाँ रहते हैं । दादू जी ने इशारे से बता दिया कि सामने वाली झोपड़ी उन्हीं की है ।'' 

रूखा जबाव सुनकर कोतवाल नाराज हुए और गाली देते हुए झोपड़ी पर चले गए । सिर पर कटि का गट्ठा लादे दादू पहुँचे तो कोतवाल को गाली देने का दु:ख हुआ और क्षमा माँगी । दादू ने कहा-''इसमें आपका कोई दोष नहीं । दोष उस पूर्वाग्रह भरी आपकी मनुष्य संबंधी मान्यता का है, जो आपके मुख से ऐसे वचन निकालती है। मनुष्य मात्र में आप ईश्वर को देखने लगेंगे तो यह आदत स्वत: छूट जाएगी ।'' कोतवाल ने बात गाठ बाँध ली । 

संन्यासियों की मन:स्थिति 

दो भक्तों ने संन्यास ले लिया । भोजन के लिए वे भगवान पर निर्भर रहे । 

एक दिन एक किसान दोनों के लिए कपड़े से ढककर दो थालियों में भोजन लाया ।

 
उन लोगों ने थालियाँ खोली । तो एक में रूखी-सूखी रोटियाँ थीं । दूसरी में षट्रस व्यंजन । 

यह भेदभाव देखकर एक साधु ने पूछा-'' इस अंतर का क्या कारण है ।'' 

किसान ने कहा-''यह आप लोगों का प्रारब्ध है । एक सूखी रोटी छोड़कर संन्यासी बना है और दूसरा व्यंजन छोड़कर । साधु हो जाने पर भी आप लोगों के पूर्व संस्कार साथ चलेंगे । 

दोनों साधुओं ने उस ब्रह्मज्ञानी साधु को प्रणाम किया, गुरु माना व आगे चल पड़े।
 
संचित संस्कार अनायस ही नहीं जाते । मन में उनकी स्मृति बराबर बनी रहती है। 

प्रतिपादनमन्येषां तथा तेऽनुभवा अपि । 
अयोग्या हि प्रतीयन्ते तेन चाग्रहिणो नरा: ।। १८ ।। 
सत्यं स्वमान्यतां यावन्मन्यते सीमित परम् । 
अपेक्ष्याऽन्योक्तिव्याख्यैव ज्ञातुं रूपं च तस्य तु ।। १९ ।। 
विवेकिनो भवन्त्येव न्यायाधीशा इव स्वत: । 
निष्पक्षा आग्रहैर्हीना औचित्याश्रयिणोऽभया: ।। २० ।। 
स्वीकारे च त्रुटे: स्वस्या संकोच नाश्रयन्ति ते । 
नाग्रहश्च समग्रस्य स्वस्य तेषां मतस्य च ।। २९ ।। 

टीका-ऐसे व्यक्ति को दूसरो के प्रतिपादन और अनुभव गलत प्रतीत होते है । ऐसी दशा में आग्रहीमनुष्य अपनी ही मान्यता तुक सत्यं को सीमित मानता है । जबकि उसका समग्र स्वरूप जानने के लिए अन्यान्य कथनों पर विचार किये जाने की आवश्यकता है । विवेकशील, न्यायाधीश की तरह निष्पक्ष होते हैं, आग्रही 
नहीं होते । जहाँ जितना औचित्य परिलक्षित होता है, उसे बिना संकोच के स्वीकार करते हैं । ऐसे लोगों को न 
भूल मानने में संकोच होता है और न अपने मत के समग्र होने का ही आग्रह होता है ।।१८- २१।।  

अर्थ-मानवी अचेतन कुछ इस प्रकार ढला हुआ है कि अपने मत के पक्ष में वह अनेक प्रमाण जुटा लेता है एवं दूसरों के सही प्रतीत हो रहे मन्तव्यों को भी सहज स्वीकारता नहीं । किसी भी तक को समझने के लिए उसके हर पहलू पर विचार किया जाना चाहिए । एकांगी चिंतन तो संकीर्ण बुद्धि की तरह है । कुएँ 
में बैठे मेक को अपने चारों ओर की दुनिया ही सब कुछ लगती है । ऐसे कूपमंडूप मनुष्यों में भी विद्यमान 
होते हैं, जो अपने इक्कड़पन, सोचने की पूर्वाग्रहयुक्त आदत के कारण अन्यान्य व्यक्तियों के मतों को हँसी में उड़ा-देते हैं, भले ही प्रकारान्तर से वह उनके हित में ही क्यों न जाती हों । जो समझदार होते हैं वे इतने विनम्र होते हैं कि गलती बतायी जाने पर क्षुब्ध नहीं होते अपितु ऐसों के प्रति कृतज्ञता ही जताते हैं ।सर्वांगपूर्ण प्रगति का रहस्य ही यही है कि अपने को पूरी तरह खाली रखा जाय, पक्ष एवं विपक्ष दोनों हीमतों को सुनने-समझने का विवेक विकसित किया जाय ।

व्यक्ति को पता नहीं रहता कि वह स्वयं किन-किन पूर्वाजर्हो के प्रभाव में है । इसलिए सत्य शोधकरने के इच्छुक को विभिन्न पक्षों से विचार करने वाले विचारकों के मतों को भी अध्ययन करने और संतुलित निष्कर्ष निकालने का अभ्यास करना चाहिए । विवेक इसी प्रकार तीव्र होता है । न्यायाधीश कान्याय और विज्ञान की प्रगति इसी आधार पर संभव हुई है । इसीलिए सत्युरुष परामर्श लेने तथाउदारतापूर्वक भूल सुधार करने के अभ्यस्त होते हैं ।

दुर्योधन का दुराग्रह 

दुर्योधन अपने निर्णय को ही सब कुछ मानता रहा । महात्मा विदुर, भीष्म पितामह यहाँ तक किसंधि दूत बनकर गए भगवान श्रीकृष्ण की भी सलाह उसने नहीं सुनी । यदि युद्ध के विकल्प परविचार करने को तैयार हो जाता, तो किसी प्रकार उसका न राज्य छिनता और न बेमौत मरना पड़ता ।

रावण द्वारा परामर्श अमान्य 

श्रीराम वानर सेना सहित समुद्र पार करके लंका के किनारे पहुँच गए । रावण ने आपातकालीन बैठक बुलाई । समस्या सामने रखी । अपने अहंकार में मदांध खुशामदियों ने कहना शुरू किया-
''अरे महाराज ! मनुष्य और बंदर तो अपने आहार हैं । घर बैठे भोजन मिल गया, चिंता की क्याबात है ?''

कुछ समझदारों, प्रहस्त, माल्यवान आदि ने दूसरा पक्ष रखना चाहा । कहा-''शत्रु को छोटा मत गिनो । स्थिति की गंभीरता समझो । समुद्र को बाँधना सामान्य कार्य नहीं । इन्हीं बंदरो में से एक अकेला लंका जला गया था, तबकिसी ने अपनी भूख क्यों नहीं बुझाई ।''

किन्तु दुराग्रही दूसरा पक्ष सुनने का आदी नहीं होता । एकांगी विचार ने उन्हें सही निर्णय तक न पहुँचने दियाऔर सर्वनाश के गर्त में वे स्वयं गिर गए ।

बुद्ध द्वारा तप छोड़ना 

भगवान बुद्ध वृक्ष के नीचे घोर तपश्चर्याव्रत में निरत थे । आहार और वस्त्र त्याग देने के कारण उनका शरीर सूख कर काँटा हो गया था ।

उधर से देव गणिकाएँ निकलीं । उनने एक-गीत गाया-'सितार के तार इतने ढीले मत छोड़ो, कि उनमें से स्वर ही न निकले और न इतने कसो कि टूट कर यंत्र को ही निरर्थक बना दें ।'

बुद्ध को बोध हुआ । उनने अतिवाद छोड़ा। मध्यम मग्ग (मध्यम मार्ग) अपनाया और उसी की नीति के
अनुरूप भावी जीवन का संतुलित क्रम बनाया ।

राकेटों की कल्पना 

बीसवीं सदी के दूसरे दशक में राबर्ट गोलार्ड ने राकेटों की कल्पना की थी और अंतर्ग्रही यात्रा संभव बताई थी । इसके प्रकाशित होने पर अमेरिका के प्रमुख पत्र न्यूयार्क टाइम्स ने खिल्ली उड़ाई और कहा-''यह कहने वाला स्कूली बच्चों से भी कम जानकार मालूम पड़ता है । पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षणशक्ति के बारे में जिसे कुछ पता होंगा, वह ऐसी बेसिर-पैर की कल्पना कर नहीं सकता ।''

इस टिप्पणी के पचास वर्ष के भीतर ही जब कैप कैनेडी से चंद्रमा पर यात्रा करने वाला अंतरिक्ष यान रवाना हुआ, तो न्यूयार्क टाइम्स ने अपनी पुरानी टिप्पणी फिर से प्रकाशित करते हुए स्वर्गीय गोलार्ड और विज्ञ समुदाय से माँफी मांगी और कहा-''किसी नई परिकल्पना को ऐसे ही मजाक में नहीं उड़ा दिया जाना चाहिए। उसके सबंध में गंभीरतापूर्वक विचार होना चाहिए ।''

प्रेमवश या वासना के लिए 

एक युवक एक युवती से प्रेम करने लगा । प्रेम में जोश अधिक होता है, होश कम । वह उससे विवाह की जिद करने लगा । समझदार अभिभावकों ने उस संबंध को ठीक नहीं समझा, सो रोका । पर युवक किसी की सुनना नहीं चाहता था । परेशान होकर एक संत के पास गया ।

संत ने पूछा-''भाई, लड़की से विवाह करने में तो बुराई नहीं; परंतु सोच लो, उसके पिता आदि नाराज हुए तो?'' युवक जोश में भरकर बोला-'' प्यार के लिए मैं कोई भी कुर्बानी दे सकता हूँ ।'' संत हंसे, बोले-''बेटा, प्यार तो तेरी माँ ने भी तुझे कम नहीं किया; पिता, भाई आदि ने भी प्यार ही किया । उनके प्यार के लिए कोई
कुर्बानी दी क्या? ठीक से देख कुर्बानी प्यार के लिए कर रहा है या वासना के लिए?''

युवक को बोध हुआ उसने सभी पक्षों पर विचार किया और शादी का विचार बदल दिया ।

राबिया का दोषदहन 

महिला संत राबिया अपने पूजा स्थल पर एक जल कलश रखती थी और एक जलता अंगारा ।लोग इन पूजा प्रतीकों का रहस्य पूछते, तो वे कहतीं-''मैं अपनी आकांक्षाओं को पानी में डुबाना चाहती हुँ और अहंकार को जलाना चाहती हुँ, ताकि पतन के इन दोनों अवशेधों से पीछा छुड़ा कर प्रियतम तक पहुँच सकुँ ।''

किसी ने कहा-''आप तो संत हैं, सिद्ध हैं, आपमें अब दोष कहाँ रह गए, जिन्हें डुबाना-जलाना चाहतीहैं ।'' राबिया बोली-''जिस दिन अपने आपको त्रुटिहीन मान लूँगी उस दिन संत तो क्या इन्सान भी न रह जाऊँगी ।देवता बन जाऊँगी ।''

जरथुस्त बादशाह गुश्तास्प के दरबार में पहुँचे । उन्हें ईश्वरनिष्ठ जीवन जीने का संदेश दिया । राजा ने कहा-''मैं तो सामान्य ज्ञान रखता हूँ, यदि आप हमारे दरबार के विद्वानों का समधान कर दें तो मैं आपके निर्देश पूरी तरह मानूँगा ।''

चमत्कार नहीं ईश्वररीय ज्ञान  

जरथुस्त ने विद्वानों के कठिन से कठिन प्रश्नो के समाधान बड़े अच्छे ढंग से किए । वे सभी अत्यंतप्रभावित हुए । शहंशाह ने कहा-''ऐसे उत्तर परमात्म ज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही दे सकता है ।''

बादशाह ने उन्हें सम्मानित किया और कहा-''आप कोई चमत्कार दिखाएँ, हम सब आपकेअनुयायी बनेंगे ।'' जरथुस्त ने हाथ की पुस्तक दिखाते हुए कहा-''यह अवस्ता (ईश्वरीय ज्ञान) ही सबसे बड़ा चमत्कार है, जो लाखों को नयी दृष्टि देता है । इसके अलावा लोगों की आँखों में चकाचौंध पैदा करने वाले किसी चमत्कार के लिए ईश्वरीय धर्म में कोई स्थान नहीं है।'' बादशाह ने अपनी बाल बुद्धि के लिए क्षमा मांगी एवंऔचित्य को वरीयता देते हुए जरथुस्त को गुरु रूप में स्वीकार किया ।

बच्चे ने समझाया 

पति-पत्नी में अनबन हो गयी । एक दूसरे को कटु शब्द बोल गए । मनों को चोट पहुँची और बोल-चाल बंद हो गयी ।

उनका एक सात वर्षीय बालक था । वह कहीं से गीत के बोल सुन आया, '' मुख से कडुवे बोल न बोल ।'' बच्चे को रुचा, वह उसे पिता के कमरे में बैठ कर गुनगुनाने लगा ।

पिता का उस पर ध्यान गया तो चौके, मन में खीझे, ''क्या में ही कडुवा बोलता हूँ?'' बच्चे से बोले-'' बेटा, जा अपनी माँ के कमरे में जाकर गा ।''

भोला बालक वही गीत माँ के कमरे में जाकर गाने लगा । माँ ने सुना तो उसे खीझ भी आयी, हँसी भी । वह भी बोलीं-'' जा अपने पिताजी के पास बैठ कर गा ।''

बालक फिर पिताजी के कमरे में जाकर गाने लगा तो डांट पड़ गयी । बेचारा क्या करता? दोनों कमरों के बीच बरामदे में बैठकर गाने लगा-''मुख से कडुवे बोल न बोल ।'' आवाज सुनकर माता-पिता दोनों अपने-अपने कमरे से निकले-बच्चे को रोकने । पर एक दूसरे को देखकर चुप रह गए ।

बालक ने दोनों को देखा, भाव पढ़े और बोला-''आप दोनों को यह गाना अच्छा नहीं लगता तो अलग बैठकर गा रहा हूँ, अब आपको क्या शिकायत है?''

पति-पत्नी ने एक दूसरे को देखा, अपनी भूल पर हँसी आ गयी । दोनों बालक के पास गए, बोले-''अच्छा भाई, हमें भी अच्छा लगता है । अब हमारे सामने ही गा ले ।''

अपनी भूल मानने में कभी भी संकोच न होना, भले ही वह छोटों द्वारा बतायी गयी हो, यही बड़प्पन की निशानी है । औचित्य को हर कीमत पर स्वीकारा जाना चाहिए, अपनी अहंता को आड़े नहीं आने देना चाहिए ।

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