चतुर्थो दिवसस्त्वद्य सत्रस्याभूच्छुभोदय: ।
मनीषिणां समेषां हि संगतानामवर्द्धत ।। १ ।।
जिज्ञासूनां स उत्साहो धर्मस्यास्य विशालताम् ।
महत्वं चान्वभूवँस्ते जगन्मंगलमुत्तमम् ।। २ ।।
ज्ञानगोष्ठी समारब्धा विधिवद्विद्वदुत्तम: ।
विद्रुथ: प्रणमन्नेवाऽध्यक्षं पप्रच्छ सादरम् ।। ३ ।।
टीका-आज सत्र का चौथा दिन था । उपस्थित मनीषियों एवं जिज्ञासुओं का उत्साह बढ़ रहा था । उन्हें धर्म की महानता और विशालता का और भी अच्छी तरह अनुभव होने लगा था । आज की ज्ञान गोष्ठी विधिवत् आरंभ हुई, तो विद्वानी विद्रुथ ने अध्यक्ष का अभिवादन करते हुए आदर सीहत पूछा-।। १-३ ।।
विद्रुथ उवाच-
धर्मस्यापरयुग्मस्य भगवन् प्रविवेचनम् ।
क्रियतां कश्च सम्बन्ध: कर्तव्ये संयमेऽस्ति च ।। ४।।
उभौ कथं सुसम्बद्धौ मतौ तौ हि परस्परम् ।
उदतारीन्महाप्राज्ञ एवं स आश्वलायन: ।। ५ ।।
टीका-विद्रुथ बोले-हे भगवन्! धर्म के दूसरे युग्म की विवेचना करें । संयम और कर्तव्य का आपस में क्या संबंध है । दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े हुए या गुँथे हुए क्यों माने गए हैं? महाप्राज्ञ आश्वलायन ने
उत्तर देते हुए इस प्रकार कहा- ।। ४-५।।
आश्वलायन उवाच-
सत्राध्यक्ष: अबोधयत् समुदायमुपस्थितम् ।
सज्जना: ! भगवान् प्रादात् प्रत्येकस्मै नराय तु ।। ६ ।।
विभूतीर्विपुलायाश्च सुप्तास्तिष्ठन्ति नित्यश ।
साधनाया: तथा सूक्ष्मे शरीरे बीजरूपत: ।। ७ ।।
साथनाया प्रयत्नेन तास्तु वर्द्धयितुं तथा ।
परिपुष्टा विधातुं च शक्या: सवैंस्तु मानवै ।। ८ ।।
उद्बोधिता न चाप्येता इयत्यां सन्ति विग्रहे ।
मात्रायां येन निर्वाहक्रमं शान्त्या सुखेन च ।
पर्याप्ता पूरितुं तास्तु सन्ति चाक्षयतां गता: ।। ९ ।।
टीका-सत्राध्यक्ष श्रीआश्वलायनजी ने उपस्थित जन-समुदाय को समझाया कि सज्जनो ! भगवान् ने हर व्यक्ति को विपुल परिमाण में विभूतियाँ प्रदान की हैं । वे उसके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में, बीज रूप में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हैं । साधना के थोड़े प्रयत्न के साथ उन्हें जगाया-बढ़ाया और परिष्कृत किया जा सकता है । न जगाया जाय, तो भी वे इतनी मात्रा में हैं कि निर्वाहक्रम को सुख-शांति से भरा-पूरा रखने की दृष्टि से पर्याप्त हैं, इन्हें अक्षय समझना चाहिए ।। ६ -९ ।।
अर्थ-डर मानव तनधारी उस विराट् चेतन का एक अंश है । विधाता ने मनुष्य में विभूतियों के रूप में अगणित विशेषतायें कूट-कूट कर भर दी हैं । जानकारी के अभाव में तो बहुमूल्य वस्तु को भी निरर्थक समझकर फेंक दिया जाता है । पारस पर कपड़ा पड़ा हो तो समीपस्थ लोहे का टुकड़ा स्पर्श पाने पर भी सोने में नहीं बदलता । लगभग यही स्थिति सूक्ष्म विलक्षाणताओं से सम्पन्न मनुष्य की है । जौहरी अपनी कीमती अलभ्य वस्तुओं को संभालकर रखता है । कोषागारों में जमा धनराशि कड़े पहरे में रखी व स्थानांतरित की जाती है । हर कोई उनके समीप नहीं पहुँच सकता । केवल वह व्यक्ति जो हैसियत रखता है अथवा जिसकी साख है, वह विधिपूर्वक इस राशि को पाने का हकदार है ।
आत्मिक विभूतियाँ विधाता ने तीन शरीरों के रूप में काया के सूक्ष्म संस्थान में छिपाकर रखी हैं । इन्हें प्रयास-पुरुषार्थ द्धारा जगाया जा सकता है । बिना साधना अनुशासनों के ये प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती हैं । सामान्य अंश जो उनका बहिरंग में दृश्यमान है वह निर्वाह आदि के लिए, सामान्य जीवनचर्या के लिए पर्याप्त है । ऋषिगण मनुष्य की सूक्ष्म संरचना का एवं प्रसुप्त भंडागार की असीम सामर्थ्य का परिचय देकर उन संभावनाओं की एक झलक-झाँकी दिखाते हैं, जिन्हें जगाया जा सके तो अतिमानवी क्षमतायें अर्जित
कर सकना संभव है ।
भगवान ने मनुष्य को विभूतियाँ देते समय दोनों प्रकार के व्यक्तियों का ध्यान रखा है- (१) जो विकास के इच्छुक हैं, उच्च लक्ष्यों की आकांक्षा रखते हैं, (२) वे जो सामान्य जीवन जीना चाहते हैं ।
जिस रूप में विभूतियाँ मिली हैं, उसी रूप में इनका ठीक-ठीक प्रयोग कर लिया जाय; तो मनुष्य का निर्वाह सही संतोषप्रद ढंग से हो सकता है । पर विशिष्ट स्तर पाना है, तो तीनों शरीरस्थ विभूतियों को जागृत, विकसित करके उनका उपयोग करना आवश्यक है । स्थान-स्थान पर आप्त वचनों के माध्यम से
मनुष्य को अपने इस भंडागार को तीन शरीर, पंच कोषों, षट्चंक्रों से विनिर्मित वैभव साम्राज्य को हस्तगत करने, ऋद्धि-सिद्धि संपन्न बनने के संकेत दिए गए हैं । जो इन सूत्रों को समझते हैं, वे साधना, पुरुषार्थ में प्रवृत्त होते एवं सिद्ध पुरुष महामानव की स्थिति को प्राप्त करते हैं ।
स्थूल शरीर-सामान्य रूप से मानव शरीर की बनावट और कार्य क्षमता इतनी है कि मनुष्य अन्य जीवों से अपनी रक्षा करता हुआ अपने सारे आवश्यक कार्य पूरे कर सकता है ।
पूरी उम्र बिना रुके बराबर सारे शरीर में रक्त संचार करने वाला हृदय सभी को मिला है । थोड़े में भर जाने वाला और शरीर में पूर्ण स्फूर्ति बनाये रखने वाला पेट-पाचन संस्थान मनुष्य को उपलब्ध है ।
देखने में सुंदर भावों को व्यक्त कर सकने योग्य मनुष्य जैसा चेहरा और नहीं दीखता। स्थूल शरीर से केवल रोगी न बनने देकर बिना कोई विशेष विकास किए हर औसत आदमी की जरूरतें पूरी हो जाती हैं । अन्य जीवों के शरीर की विशेषतायें जितनी हैं उनमें थोड़ा बहुत अंतर भर पाया जाता है । पर मनुष्य साधना पराक्रम द्धारा शरीरों में सामान्य की अपेक्षा जमीन-आसमान जैसा अंतर पैदा कर लेते हैं । शरीरों से चमत्कार दिखलाने वाले दो वर्ग हैं-पहलवान और योगी ।
प्रोफेसर राममूर्ति सीने पर हाथी खड़ा कर लेते थे । सुधाकर ब्रह्मचारी तीन कारें एक साथ रोकने, मोटी किनारे वाली पीतल की थाली कागज की तरह फाड़ देने जैसे करतब दिखाते रहे हैं । भीम के लिए हाथी पछाड़ना और पेड़ उखाड़ना खेल जैसे थे ।
फ्रांस में साँड़ों से लड़ने वाले बुल फाइटर्स पेशेवर पहलवान निहत्थे ही भारी से भारी साँड़ों को पछाड़ देते हैं ।
श्रीदयालंद जी ने दो लड़ते हुए साँड़ों को एक-एक हाथ से पकड़ कर अलग करके भगा दिया था । घोड़ों कीं बग्घी का पहिया एक हाथ से पकड़ कर खड़े हो गए तो गाड़ी हिली नहीं ।
महाराणा प्रताप का भाला ऐतिहासिक संग्रहालय में रखा है । जिसें वे उँगलियों पर नचाते चलते थे उसे २-३ व्यक्ति मिलकर उठाने में सहमते हैं ।
भारत में भीम और यूनान के हरक्यूलिस जैसों की शारीरिक क्षमता के चमत्कारी उपाख्यान जगह-जगह भरे पड़े हैं ।
थोड़ी-सी साधना से योगी जमीन के अंदर, पानी के अंदर कई-कई दिनों तक जीवित रह लेते हैं । भयंकर विष का भी उन पर कोई प्रभाव नहीं होता ।
सेंडो बचपन में बहुत दुर्बल थे और प्राय: बीमार रहते थे । एक दिन वे पिता के साथ दंगल देखने गए । हृष्ट-पुष्ट पहलवानों को देखकर ललचाये और मन में सोचा-'' क्या वे भी ऐसे ही बन सकते हैं ।'' तुरंत
अंदर से उत्तर आया-''स्वास्थ्य सुधारने का सच्चा प्रयत्न करने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसी ही सफलता पा सकता है ।
सेंडो ने स्वास्थ्य सम्बर्द्धन के नियम समझे। विश्वास और निश्चयपूर्वक अपनाये। कुछ ही समय में वे संसार के प्रख्यात पहलवान बन गए ।
भारत के चंदगीराम भी माने हुए पहलवानों में से हैं । वे युवावस्था में प्रवेश करते-करते क्षय रोग के शिकार हो गए । बचने की आशा न रही । पर किसी के परामर्श-प्रोत्साहन पर वे स्वास्थ्य सुधारने में लग गए और अपना काया-कल्प कर सकने में सफल हुए ।
प्राणायाम के थोड़े से अभ्यास से शरीर के किसी भी अंग को पत्थर जैसा कड़ा बना लेना, नाड़ी स्पंदन रोक लेना, हृदय की धड़कन पर नियंत्रण पा लेने जैसे शारीरिक चमत्कार दिखाने वाले जगह-जगह
मिल सकते हैं ।
थोड़े से अभ्यास से शरीर को कितनी भी गर्मी, सर्दी सहने में सक्ष्म बना लिया जाता है ।
एक बार में मन-मन भर भोजन करके पचा लेने से लेकर वर्षों बिना भोजन किए शरीर को सक्रिय रखने के ढेरों उदाहरण सहज क्रम में ही मिलते रहते हैं ।
मनुष्य को जो स्वर मिला है, उससे भाषा बोलने, मस्ती में गुनगुनाने जैसे कार्य सभी के सध जाते हैं । किन्तु जो साधना के स्वर विकसित कर लेता है, वह संगीत में मेघ मल्हार, दीपक राग जैसे चमत्कार पैदा कर लेता है ।
सूक्ष्म शरीर-इसकी सामर्थ्य और गतिविधियाँ विचारों के स्तर पर तथा परा-मनो-वैज्ञानिक दोत्र में परिलक्षित होती हैं ।
सामान्य मबुध्य में भी सोचने-विचारने, विवेकपूर्ण निर्णय लेने की जितनी दामता है, उसके आगे अन्य प्राणी कहीं टिकते नहीं । बुद्धि के सामान्य प्रयोग से ही संसार के सारे कार्य सध जाते हैं । परंतु जो साधना पुरुषार्थ द्धारा विचार शक्ति को विकसित कर लेते हैं, वे जमाने की हवा बदल देते हैं । लाखों की जीवन धारा बदल देते हैं । दर्शन, साहित्य, विज्ञान, कानून आदि के चमत्कार सब सूक्षम शरीर से उभरी विशेषताओं के द्वारा किए जाते हैं।
मनुष्य का मस्तिष्क अचरज का पिटारा है। वैज्ञानिकों ने शोध करके पता लगाया है कि सामान्य रूप से मनुष्य मस्तिष्क का ७ प्रतिशत ही उपयोग हो पाता है । अति मेधावी व्यक्ति मस्तिष्क का १४ प्रतिशत के लगभग प्रयोग कर पाते हैं । शेष ७३ प्रतिशत से ८६ प्रतिशत मस्तिष्क सुप्त, अप्रयुक्त पड़ा रह जाता है । इसके विकास से मनुष्य क्या-क्या नहीं कर सकता है ।
अपने विचारों से दूसरे को प्रभावित करना, दूसरे के विचार पढ़ लेना, विचार प्रवाह, दूर संचार, प्राण चिकित्सा जैसे कार्य सूदम शरीर के विकास से सधते हैं।
कारण शरीर-यह चेतना स्तर का कलेवर है । हर मनुष्य के अंदर चेतना की, संवेदना की उतनी मात्रा है किं वह आत्मीयता, सद्भावना आदि के द्धारा स्वर्गीय सुख, संतोष और आनंद की अनुभूति कर सकता है । अपना मनचाहा स्रेह, आत्मीयता, सरसता से भरा संसार अपने लिए विकसित कर सकता है ।
इस स्तर पर जो विभूतियाँ हैं उन्हें विकसित करके मनुष्य, संत, ऋषि, देवमानव, महामानव बन जाते हैं । सूक्ष्म शरीर की विभूतियाँ जागृत होती हैं तो मनुष्य के आगे बड़े-बड़े शक्तिशाली और बंड़े-बड़े विद्धान नतमस्तक हो जाते हैं । ऐसा व्यक्ति विश्व चेतना से एक हो जाता है । इसलिए भूत, भविष्य या देश,
काल से परे कुछ भी जान सकने में समर्थ हो जाता है ।
कारण शरीर अंतश्वेतना का सबसे दिव्य स्तर है जिसके माध्यम से जीव चेतना समष्टि चेतना से एकाकार होने की क्षमता अर्जित कर सकती है । सत्, चित्, आनंद की अनुभूति, रसो वै सः का साक्षात्कार इसी स्तर पर होता है । वेदांत की एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, चिदानन्दोऽहम्, सोऽहम्, तत्वमसि की भावना का विकास कारण शरीर के स्तर पर विकसित व्यष्टि चेतना में ही हो पाता है । भक्तियोग की पराकाष्ठा कारण शरीर में विकसित हुई देखी जा सकती है ।
वस्तुत: तीन शरीरों के रूप में अक्षय भंडार, दिव्य संपदा मानव में विद्यमान है। इतना होते हुए भी यदि वह यह शिकायत करता है कि वह अभागा है उसे क्यों कर यह मानव जन्म मिला तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है?
साधन सम्पन्न होने पर भी दुर्गति
विधाता ने मनुष्य को सर्व साधन सम्पन्न बनाकर धरती पर भेजा है । पर उसे शांति न मिली । अशांति के अनेक कारण उसे त्रास देने लगे । मनुष्य फिर से विधाता के क पास पहुँचा और कहा-''कृपाकर कुछ देवदूत भेज दीजिए जिससे हमारी व्यथा दूर हो ।'' विधाता ने देवता भेजे । वे शांति प्राप्त करने के उपाय संयम और कर्तव्य के रूप में समझाते रहे । किसी ने उनका परामर्श न सुना और अपनी ही बात कहते रहे । देवता दु:खी होकर लौट गए ।
मनुष्य फिर पहुँचा और देवताओं से सहायता करने के लिए इस बार और भी विनयपूर्वक अनुरोध किया ।
विधाता ने सशर्त सहायता का प्रतिबंध लगा दिया । जो संयमशीलता, कर्तव्यपरायणता अपनाएँगें, उन्हीं को
देवताओं की सहायता मिल सकेगी । तब से वही क्रम चला आया है; जो शर्त पूरी करते हैं उन्हें ही देवता सुख-शांति प्रदान करते है । वे दुर्भाग्यशाली हैं जो प्रभु के संदेश की अवहेलना कर जीवन रूप अक्षय संपदा को सतत् लुटाते और आँसू बहाते रहते हें ।