प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-6

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
मुनयो वयमत्रैवं महत्तापथमाश्रिता: । 
प्रतीयमानाश्चाभावैर्ग्रस्ता अपि निरन्तरम् ।। ६२ ।। 
सम्मानास्पदमायाता जनानामत एव तु । 
मार्ग एषोऽस्ति वै देवमानवानां सुनिश्चितम् ।। ६३ ।। 
कर्तव्यमिदमस्माकं मार्गेऽस्मिन् गन्तुमुन्सुखा: । 
जना: सर्वे यथा स्युस्ते तथा प्रेर्या निरन्तरम्  ।। ६४ ।। 
सुखमुत्कर्षजन्यं ते लप्स्यन्ते वयमप्यलम् ।
श्रेयोऽधिकारण: स्याम बहुमूल्य यदुच्यते ।। ६५ ।।  

टीका-हे मुनि वर्ग ! हम सब महानता के पथ पर चले हैं । अभावग्रस्त दीखने पर भी जन-जन सम्मानास्पद बने हैं । देव जनों का यही मार्ग है । हमारा कर्तव्य है कि जन-जन को इसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें । इससे उन्हें उत्कर्षजन्य सुख मिलेगा और हम श्रेयाधिकारी बनेंगे, जो बहुमूल्य कहा जाता है ।। ६२-६५ ।। 

अर्थ-महानता के पथ पर चलने वाले अभावग्रस्त जैसे दिखते भर हैं, होते नहीं। उनके पास दैवी संपदा की भारी पूँजी होती है, जिससे चाहे तो लौकिक संपदा भी पैदा की जा सकती है । जन-जन को श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा वे ही दे सकते हैं, जो स्वयं उस मार्ग के नैष्ठिक साधक हों और जनता की श्रद्धा के 
पात्र भी हों । श्रेष्ठ मार्ग पर चलने वालों को उन्नति का सुख मिलता है और चलाने वाले श्रेय पाते हैं । 

भारद्वाज द्वारा भरत का आतिथ्य 

महर्षि भारद्वाज वन में रहते थे । राम वन गमन प्रसंग में भरत श्रीराम को मनाने चित्रकूट गए । साथ में सेना और नागरिकों की विशाल भीड़ थी । भरत की आदर्शनिष्ठा से ऋषि प्रसन्न हुए ।
उन्होने भरत का मान रखने के उद्देश्य से उन्हें एक दिन रुक कर आतिथ्य स्वीकार करने को कहा । भरत ने ऋषि वचन मानकर उसे स्वीकार किया । 

यह समाचार जानकर राज्याधिकारी तथा नागरिक उलझन में पड़ गए, कि जिनके पास पहनने के वल तक नहीं, वे ऋषि इतने सम्पन्नों की इतनी बड़ी संख्या का आतिथ्य कैसे करेंगे ? पर जब ऋषि ने अपनी दिव्य शक्तियों का विस्तार किया तो हर व्यक्ति अचंभित रह गया । किसी को किसी प्रकार की कमी का अनुभव नहीं हुआ ।

महात्मा गाँधी आधे कपड़े पहने रहते थे । देखने में लगता था कृशकाय दीन-हीन व्यक्ति हैं । परंतु जन सम्मान की शक्ति के आधार पर उन्होंने जब चाहा, करोड़ों एकत्रित कर लिए और जब चाहा लाखों को किसी भी मोर्चे पर लगा दिया । उनकी इसी शक्ति से अंग्रेज हुकूमत भयभीत रहती थी । 

ब्रह्मवेत्ता का अपरिग्रह

राजा जनक महल की छत पर सोये हुए थे। हंस-हंसिनी अटारी की मुँडेर पर बैठे वार्तालाप करने लगे । हंसिनी बोली-''इन दिनों सबसे बड़े ब्रह्म ज्ञानी राजा जनक हैं।'' हंस ने बात काट कर कहा-''तुम रैक्य को जानती नहीं ! अपने समय के वे ही सबसे बड़े ब्रह्म बेत्ता हैं ।'' 

हंसिनी ने पूछा-''भला कौन हैं रैक्य ?'' हंस ने उत्तर दिया-''अरे, वह गाड़ी वाला रैक्य, जो गाड़ी खींचकर बोझ ढोता  और अयाचित वृत्ति से निर्वाह करता है।" 

जनक अधजगे थे । वे पक्षियों की भाषा जानते थे, हंस-हंसिनी की वार्ता ध्यानपूर्वक सुनने के निमित्त करबट  बदलने लगे । आहट पाकर हंस-युग्म चौकन्ना हुआ और उड़ गया । बात अधूरी रह गई । 

राजा को नींद नहीं आई । रैक्य कौन है ? कहाँ रहते है ? उनसे सम्पर्क कैसे सधे ? -यह विचार उन्हें बेचैन किये हुए थे । सबेरा होते ही दरबार लगा । राजा ने सभासदों से गाड़ी वाले रैक्य को ढूँढ़ निकालने का आदेश दिया । दौड़-धूप तेजी से आरंभ हो गई । 

कठिनाई से बहुत दौड़-धूप के बाद रैक्य का पता चला । राजदूतों ने उनसे जनक नगरी चलने का अनुरोध किया । जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया और कहा-'' मुझे राजा से क्या लेना-देना; अपना प्रस्तुत कर्तव्य पूरा करूँ या इधर-उधर भागता फिरूँ ।'' 

दूतों ने सारा विवरण जा सुनाया । जनक स्वयं ही चल पडे़ और वहाँ पहुँचे, जहाँ रैक्य गाड़ी खींच-धकेल कर निर्वाह चलाते और साधना सेवा का समन्वित कार्यचलाते थे । 

राजा ने इतने बड़े ब्रह्म ज्ञानी को ऐसा कष्ट साध्य जीवनयापन करते देखा, तो द्रवित हो उठे । सुविधा-साधनों के लिए उनने धन-राशि प्रस्तुत की । 

अस्वीकार करते हुए रैक्य ने कहा-'' राजन ! यह दरिद्र नहीं ब्रह्मवेत्ता का अपरिग्रह है, जिसे गँवा बैठने पर तो मेरे हाथ से ब्रह्म तेज भी चला जायेगा ।'' 

तत्व ज्ञान के अनेक मर्म रहस्यों को सत्संग में जानने के उपरांत जनक यह विचार लेकर वापस लौटे कि विलासी नहीं, अपरिग्रही ही सच्चा ब्रह्मज्ञानी हो सकता है, उन्हें नई दिशा मिली । उस दिन से उन्होंने अपने हाथों कृषि करने , हल चलाने की नई योजना बनाई और श्रम- उपार्जन के सहारे निर्वाह करते हुए राज- काज चलाने लगे । 

दुनियाँ की दृष्टि में गाड़ी चलाकर जीवनयापन करने वाले रैक्य वास्तव में कितने महान्, कितने समर्थ थे, यह 
इसी से स्पष्ट होता है कि जनक जैसे राजर्षि उनके शिष्य बने । 

विश्वास ही सर्वोपरि शक्ति है 

एक बार राजा त्जेकुंग कनफ्यूसियस से पूछने गए कि सुचारु रूप से राज्य संचालन के लिए किन वस्तुओं की आवश्यकता है । उत्तर में उनने तीन वस्तुएं गिनाईं- (१) फौज, (२) कोष, 
(३) प्रजा का विश्वास । 

त्जेकुंग ने फिर पूछा कि इनमें से एक कम करनी पड़े तो वह क्या हो? संत ने कहा-''फौज ।'' दूसरी का प्रश्न किया गया, कि यदि शेष दो में से एक और कम करना पड़े तो क्या छोड़ा जाय? उत्तर मिला- ''कोष ।'' और भी अधिक स्पष्टीकरण करते हुए कन्फ्यूशियस ने कहा-''प्रजा का विश्वास सर्वोपरि शक्ति है।"
सत्पुरुष चाहे राजा हो या संत, इसी को अपनी वास्तविक सम्पदा मानकर चलते है। 

पर्लबक-जिसने देहातों के संबंध में ही सोचा 

पर्लबक जब जन्मीं, तब उनके पिता चीन में धर्म प्रचारक थे । वह पिता के साथ जाती और देहातों की गई-गुजरी दशा की देखतीं । शहरी सुसम्पन्नों और ग्रामीण पिछड़ों की स्थिति देखकर उसे भारी दु:ख होता । सोचती रहती वह इस स्थिति के परिवर्तन में क्या कर सकती है । उसने स्त्रातक बनने के उपरांत लेखनी उठायी । स्वयं एक देहात में रहीं । संसार के 
देहातों का उसने निरीक्षण-पर्यवेक्षण किया और बहुसंख्यक जनता के पिछड़ेपन पर गंभीर चिंतन-मनन किया ।

पर्लबक ने देहाती समस्याओं पर प्राय: साठ पुस्तकें लिखी हैं । वे सस्ती और सर्वसुलभ हो, इसका ध्यान रखा है । वे ८० वर्ष जीवित रहीं; पर एक ही निर्धारित समस्या पर चिंतन करतीं और समाधान खोजती रहीं । उनकी निष्ठा सदा सराहनीय और अनुकरणीय मानी जाती रहेगी । 

दलितों के उद्धारक आचार्य मिसे 

बंबई विश्वविद्यालय से बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने के उपरांत मिसे के सामने प्रश्न था, कि आगे क्या किया जाय ? दूसरों का निश्चित मार्ग एक ही था-विवाह करना, बच्चों की पलटन खड़ी करना और उनके लिए नीति-अनीति से धन कमाना । मिसे को इस रास्ते को अपनाने में मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ न दीखा । वे 
'गोखले एजूकेशन सोसायटी' के 
सम्पर्क में आए और आदिवासी क्षेत्रों में काम करने के लिए निकल पड़े । काम, बच्चों को पढ़ाने का सौंपा गया था; पर  उनने देखा कि इस समुदाय के बड़े भी बच्चों से गए-बीते हैं । उनने एक जगह बैठकर बच्चों से सिर फोड़ते रहने की अपेक्षा महाराष्ट्र भर के आदिवासियों में युग के अनुरूप चिंतन की क्षमता उत्पन्न करने का काम हाथ में लिया और श्वेत 
वस्त्रधारी परिव्राजक की तरह भ्रमण करने लगे । जहाँ जितने दिन ठहरने की आवश्यकता समझते, वहाँ उतने दिन ठहरते और फिर आगे बढ़ जाते । इसी प्रकार उनने अपना ७५ वर्ष का जीवन पूरा कर लिया । आदिवासियों में घुल कर उनने आत्मीयता उत्पन्न की, उनकी भाषा सीखी और जो सुधार आवश्यक था, उसकी पूर्ति में अपनी स्वतंत्र बुद्धि एवं परिस्थितियों के अनुरूप गतिविधियाँ अपनाते रहे । 

भारत रत्न विश्वेश्वरैया 

बंगलौर में जन्मे विश्वेश्वरैया मध्यवर्ती परिवारों की तरह आर्थिक कठिनाइयों के बीच जन्मे; किन्तु अपना समूचा ध्यान निर्धारित विषय इंजीनियरिंग में लगा देने के कारण उस विषय में पारंगत हो गए । दूसरे साथी नौकरी लगते ही जब मौज-मजा करने में व्यस्त हो गए; तब वे देश की आवश्यकताओं को समझने और उनका समाधान ढूँढ़ने में निरंतर लगे रहे। सूझ-बूझ बढ़ती गयी और उनने एक- 
से- एक बढ़कर राष्ट्रीय महत्व के निर्माण कार्य सम्पन्न किए । उनकी देख-रेख में राष्ट्र के प्रमुख बाँध तथा कारखाने खड़े हुए। व्यक्तिगत सुविधा की बात उनने सोची तक नहीं । यहाँ तक कि अपने परिवार के लिए निजी घर तक न बनाया। 

उनकी महती सेवाओं के लिए उन्हें  'भारत रत्न' से विभूषित किया गया । डाक टिकट चले । वे १२० वर्ष  की आयु तक अपनी नियमितता और संयमशीलता के आधार पर ही जीवित रह सके । 

सच्चे कर्मवीर ठक्कर बापा 

अमृतलाल ठक्कर गुजरात में भावनगर में जन्मे । पढ़-लिख कर इंजीनियर हो गए । बंबई कारपोरेशन में उनकी नौकरी लग गई । पर जिन हरिजन मुहल्लों में उन्हें काम करना पड़ता था उनकी दुर्दशा सुधारने के लिए उनने नौकरी छोड़ दी और आजीवन उसी कार्य में लगे रहे । गाँधी जी ने उन्हें हरिजन संस्था का प्रधान बनाया । वे दफ्तर में बैठ कर काम करने पर विश्वास नहीं करते थे वरन् घर- घर 
जाकर जन-जन से मिलने की कार्य- पद्धति अपनाते थे । उनकी सार्थक साधना ने अगणित पिछड़ों को विकास का  सुख दिया और वे स्वयं तो श्रेय सम्मान और सुख के पात्र बने । गाँधी जी ने एक बार कहा था-''मेरे लिए संभव होता तो मैं ठक्कर बापा की तरह कार्य करता ।'' 

करुणा और प्रेम की मूर्ति बापू 

साबरमती आश्रम की बात है । एक दिन रात को एक चोर आ गया । चोर नासमझ था, नहीं तो प्रेम की आश्रम में चुराने के लिए भला क्या था । 

संयोग से कोई आश्रमवासी जग गया । उसने धीरे से कुछ और लोगों को जगा दिया । सबने मिलकर चोर को पकड़ लिया और कोठरी में बंद कर दिया । 

व्यवस्थापक ने प्रात: यह खबर बापू को दी और चोर को उनके सामने पेश किया। बापू ने निगाह उठाकर उसकी ओर देखा। वह नौजवान सिर झुकाए आतंकित खड़ा था कि बापू उससे नाराज होंगे और हो सकता है कि उसे पुलिस को साँप दें । 

लेकिन बापू ने जो किया, उसकी तो वह स्वप्र में भी कल्पना नहीं कर सकता था । बापू ने उससे पूछा- ''क्यों तुमने नाश्ता किया ?'' 

कोई उत्तर न मिलने पर उन्होंने व्यवस्थापक की ओर प्रश्नभरी मुद्रा में देखा। व्यवस्थापक ने कहा-''बापू ! 
यह तो चोर है, नाश्ते का सवाल ही कहाँ उठता है ।'' 

बापू का चहेरा गंभीर हो आया । दु:ख भरे स्वर में बोले- ''क्यों, क्या यह इन्सान नहीं है ? इसे ले जाओ और नाश्ता कराओ ।'' 

व्यवस्थापक, जिसे चोर मानकर लाए थे, वह अब एक क्षण में इन्सान बन गया था। उसकी आँखों में प्रायश्चित के आँसू बह रहे थे । 

करुणा ने बुद्ध को बुद्ध बनाया, प्रेम ने महावीर को महावीर बनाया, किन्तु करुणा और प्रेम ने गाँधी को बापू बना दिया ।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118