प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-6

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वर्षन्ति वारिदा नित्यं निःस्वार्थ सरितोऽपि च ।
भूखण्डान् प्राणिनस्तृप्तान् कुर्वते जलसम्पदा ॥६६॥
वृक्षा: फलन्ति यच्छन्ति मेषा ऊर्णां ददत्यलम् ।
भूमिरूत्यादयत्यन्नमेवं यच्छ्त्स्वपि क्वचित् ॥६७॥
नानुदानेषु चैतेषां न्यूनता काऽपि जायते ।
हस्तेनैकेन योदद्यादीश: प्रतिददात्यलम् ॥६८॥
तस्मै हस्तेन चाऽन्येन स आदत्ते वरानिव ।
अदातारस्तु शुष्यन्ति म्लायन्त्यम्भोव पाल्वलम्॥६९॥
निर्झरा यद्यपि स्वल्पा वहन्तो विशदा: सदा ।
तिष्ठन्त्येते नैरर्भाव्यमुदौर: परमार्थगै: ॥७०॥

टीका-बादल नि:स्वार्थ भाव से बसरते हैं। नादियाँ जल संपदा से भूखंडों और प्रणियों की प्यास बुझाती है। वृक्ष फल देते हैं। भेड़ ऊन देती है। भूमि अन्न उपजाती है। इन अनुदानों को निरंतर देते रहने पर भी उन्हें कोई घाटा नहीं पडता । एक हाथ से देने पर वरदान की तरह भगवान् उन्हें प्रतिदान देता भी रहता है, जिन्हें उसका दूसरा हाथ ग्रहण करता रहता है । जो नहीं देता, वह छोटे पोखरों के जल जैसा सूखता और सडूता है, जबकि छोटे निर्झर भी सदा बहते और स्वच्छ रहते हैं । अत: मनुष्य को उदार व परमार्थपरायण होना चाहिए॥६५-७०॥

अर्थ-मनुष्य को प्रकृति से यह सीख लेना चाहिए कि सदैव देने वला बदले में पाता है । जड़-निर्जीव समझे जाने वाले, पदार्थ, प्रकृति के घटक एवं जीव-जंतु भी दैनंदिन जीवन में देकर के लेने के सिद्धांत को अपनाते हैं, तो फिर मनुष्य ही क्यों ऐसा बर्ताव करता है, जिससे वह एकाकी, संकीर्ण, स्वार्थी बनता चला जाता है ।

संकीर्ण न बने

एक छोटा झरना बहते-बहते गंगा से मिला और अंतत: समुद्र तक जा पहुँचा । पोखर अपने दायरे में ही सीमित रहे । बहुत समय पानी न निकाला गया तो सड़ने भी लगा ।

दोनों की स्थिति का अंतर देखकर दार्शनिक ने अंतर लगाया-परमार्थ के लिए गतिशीलों को झरने जैसा श्रेय
मिलता है और संकीर्णता के बंधनों में जकड़े स्वार्थियों की स्थिति में पड़े रूहने वाले पोखर की तरह सड़ते भी हैं और असमय सूखते भी ।

महापुरुषों के जीवन में यह दृश्य कहीं भी, कभी भी देखे जा सकते हैं ।

जलाराम की रोटी

गुजरात के वीरपुर गाँव में प्रख्यात संत जलाराम बापा हुए हैं। वे स्वयं खेती करते हुए 'राम नाम' जपते। जो अनाज उगता उससे उनकी पत्नी सत्पात्र अभ्यागतों के लिए चौका खुला रखतीं। इस प्रकार दोनों श्रम तो करते; पर पेट भरने से जो भी बचता, परमार्थ में लगा देते। 

इस साधना से प्रसन्न होकर भगवान ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए और अन्नपूर्णा झोली प्रदान की । कहते है कि उस अन्न भंडार से अभी तक असंख्य लोग भोजन प्रसाद प्राप्त करते चले आ रहे हैं, कमी कभी पड़ी नहीं ।

किसी भी स्थिति में परमार्थ घाटे का सौदा नहीं । एक बार महानता के पथ पर आगे बढ़ने की हिम्मत जुटानी
पड़ती है । प्रतिफल तो न जाने कहाँ से दौड़ते आते है ।

श्रेणी हंसराज के विद्यालय

उच्च श्रेणी में ग्रेजुएट परीक्षा उत्तीर्ण करने पर युवक हंसराज को अच्छी सरकारी नौकरी मिल रही थी; पर उनने सरकारी शिक्षा से भिन्न उद्देश्यों के लिए चलने वाले विद्यालयों की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया और आदर्शवादी पीढी के उत्पादन में सर्वतोभावेन जुट गए। एक छोटा विद्यालय उन्होंने स्वयं ही स्थापित किया । उसके सत्परिणाम देखते हुए उन्होंने उस कार्य को बड़े रूप में करने का निश्चय किया । डी० ए० वी० स्कूल-कालेजों की स्थापना में वे पूरे उत्साह के साथ जुट गए । जनता का अच्छा सहयोग मिला, फलत: पंजाब क्षेत्र में इस स्तर के छोटे-बड़े अनेक विद्यालय स्थापित हो गए । उनकी नम्रता और सेवा-भावना के कारण उन्हें महात्मा कहा जाता था ।

डी० ए० वी० विद्यालयों में ऐसे लगनशील अध्यापक नियुक्त किए गए, जो छात्रों के साथ पूरी तरह पुल
जाते थे । फलत: वे न केवल चरित्रवान् देशभक्त बनते थे, वरन् अच्छे डिवीजनों से पास भी होते थे । एक डी० ए० वी० हाईस्कूल ने तो उस क्षेत्र के लिए आबंटित सारीब छात्रवृत्तियाँ जीत ली ।

महात्मा हंसराज जी द्वारा चलाया गया डी० ए० वी० स्कूल स्थापना आंदोलन हर दृष्टि से बहुत सफल रहा ।
उनके जीवन काल में अनेक टेकीकल स्कूल, आयुर्वेदिक कॉलेज, नॉर्मल स्कूल, शोध संस्थान, विज्ञान कॉलेज, धर्मोपदेशक विद्यालय स्थापित हुए।

सरकार की आँखों में वे महात्मा हंसराज सदा खटकते रहे । उनके विद्यालयों में राजद्रोह की गंध सूँघी जाती रही । निरुत्साहित करने में शासकों ने कोई कमी न रहने दी, फिर भी जन सहयोग मिला और आंदोलन को आश्चर्यजनक सफलता मिली।

रोगियों में खुदा के दर्शन 

अमीन पाशा अफ्रीका में औषधि शोध संस्थान की ओर से काम करने गए थे। जड़ी-बूटियों की खोज में घूम रहे थे ।

एक गाँव पहुँचे तो देखा कि वहाँ शीतला का भयानक प्रकोप है । गुलामों की उस बस्ती में लोग मर रहे हैं ।" यहाँ से जल्दी चलिए । यह छूत का रोग है ।"-सहकारी ने कहा ।

"तुम जाओ । मुझे यहाँ खुदा की पुकार सुनाई पड़ रही है ।" पाशा ने यात्रा रोक दी और उस गाँव में रोगियों
की सेवा में जुट गए ।

अनेक रोगियों को पाशा की सेवा ने जीवन दिया । अंत में रोग उन्हें लगा । चेचक निकली । मरते-मरते वे
प्रसन्न थे । कह रहे- थे-'खुदा की मेहरबानी है तो उसने इस नाचीज को गरीब-निराधार रोगियों की सेवा करने को अवसर दिया । मैं बड़े संतोष से मर रहा हूँ ।'

एक व्यक्ति ने मोर्चा हाथ में लिया

लोक सेवा के लिए संगठित रूप से नवयुवको को लगाया जाय । यह विचार जनरल बूध के मन में आया । चर्च से संबंधित अनेक लोगों को उनने ईश्वर भक्ति का सच्चा तरीका लोक सेवा मानने के लिए धर्म परायण लोगों को तैयार किया । इस संगठन का नाम उन्होंने 'मुक्ति सेना' रखा ।

जब उसके उद्देश्य और कार्यक्रम लोगों ने संस्था के प्रकाशित पत्र में देखे, तो असंख्य लोग प्रभावित हुए और उसका प्रकाशन ५९ भाषाओं में होने लगा । घर-घर जाने और समझाने का कार्यक्रम और भी अधिक
लोकप्रिय हुआ । एक व्यक्ति द्वारा आरंभ हुआ कार्य आज संसार के अधिकांश देशों में फैल गया है ।

सच्ची सेवा

एक लड़के ने निश्चय किया कि वह बी० ए० करते ही देश सेवा के कामों में लगेगा । पर जब उसके बहुत अच्छे नंबर आये और विलायत जाने की छात्रवृत्ति मिली, तो घर वाले उसे संकल्प तोड़ने के लिए दबाने लगे। लड़के को अपने वचन का स्मरण रहा, उसने 'मॉडर्न रिव्यू' अखबार निकाला और रवीन्द्र बाबू का सारा साहित्य प्रकाशित करके देश की महत्वपूर्ण सेवा की । इस लड़के का नाम था रामानंद चटर्जी ।

बाण राघवदास की ईश्वर भक्ति 

पूना में प्लेग फैला । उसमें राघवदास का सारा परिवार मर गया । ११ वर्ष का बालक इस आघात को न सह सका और घर छोड़कर साधु बन जाने के लिए निकल पड़ा । बहुत साधु-महात्माओं के संपर्क में रहने पर भी उन्हें समाधान न हुआ और सेवा धर्म अपनाया । एक दिन पड़ोस के गाँव में आग लगी । सभी बुझाने को चिल्लाते तो थे; पर उस कार्य के लिए कोई आगे न बढ़ता था । बाबा राघवदास गीला कंबल ओढ़कर घुस पड़े और कई जानवर बाहर निकाल लाये ।

बिहार के भूकंप और बाढ़ पीड़ितों की सेवा में महीनों लगे रहे । शिक्षा प्रचार का काम लगन से किया, पीछे स्वातंत्रता आंदोलन में जेल चले गए । रामायण को उन्होंने जन-जागरण का माध्यम बनाया । उनने एक कुष्ठ आश्रम की भी स्थापना की । बाबा जी की ईश्वर भक्त समाज सेवा थी ।

सृजेताओं की जन्मदात्री

स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों अनेक देश भक्त उस कार्य में प्राणपण से जुटे हुए थे; पर उनके परिवार का निर्वाह किस प्रकार हो, इसका कोई स्थायी हल न था ।

गोखले ने इसके लिए 'सर्वण्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी' स्थापित करके उस कोष से स्थायी लोक सेवियों के परिवारों की निर्वाह व्यवस्था बनाई । यही कार्य लाला लाजपत राय ने भी 'पीपुल्स सोसायटी ऑफ इंडिया' नामक एक दूसरी संस्था बनाकर किया । इन दोनों संगठनों के द्वारा अनेक लोक सेवी निर्वाह पाते और
निश्चिंततापूर्वक कार्य करते रहे । दोनों संस्थाएँ सच्चे अर्थो में स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों और सजेताओं की जन्मदात्री संस्थाएँ कहलाती हैं ।

इतना तो करें ही

महानता तो मारने वालों को भी हृदय से लगा लेती है ।

एक राहगीर ने पत्थर मारा । आम के वृक्ष से कई पके आम गिरे । राहगीर ने उठाये और खाता हुआ वहाँ
करें दौ व चल दिया ।

यह दृश्य देख रहे आसमान ने पूछा-"वृक्ष! मनुष्य प्रतिदिन आते है, तुम्हें पत्थर मारते हैं, फिर भी तुम इन्हें
फल देते हो?"

वृक्ष हँसा और बोला-"भाई! मनुष्य अपने लक्ष्य से भ्रष्ट हो जायें, तो क्या हमें भी वैसा ही पागलपन करना
चाहिए ।"

स्नेह अनुदान

तुकनेव का एक गद्य काव्य है-'मैं जा रहा था सुनसान सड़क पर । देखा एक बुभुक्षित भिखारी को, बहुत ही दुर्बल था वह । याचना थी उसकी आँखों में । देना चाहा, पर मेरी जेब में कुछ भी नहीं था, एक पैसा भी नहीं, रूमाल तक नहीं । क्या करूँ? कैसे मदद करूँ?"

अंत में मैंने उसका हाथ पकड़ लिया । उठाया और सिर पर हाथ फिराया। आशा दिलाई । मैं न सही, कोई
दूसरा मदद करेगा । आप हताश न हों ।

भिक्षुक के होठ हिले, बोला-"मेरे ठंडे हाथों को अपने गर्म हाथों से पकड़कर जो गर्मी दी, उससे भी बहुत राहत मिली । आपका अहसान भूलने वाला नहीं हूँ ।"

मैं धीमे पैरों आगे बढ़ा । सोचता था, उस भिक्षुक ने मुझे नया प्रकाश दिया। नया द्वार खोला और नई राह
दिखाई ।

शाश्वत दान विद्यादान

माधवराव पेशवा अपने जन्मदिन पर दान कर रहे थे । अन्न, वस्त्र, स्वर्ण सभी कुछ था, किन्तु ब्राह्मण कुमार ने कह दिया-"इन नाशवान वस्तुओं का दान नहीं चाहिए मुझे । दान देना हो तो वस्तु स्थायी वस्तु का दान करें।

"स्थायी क्या है?"

"विद्या"।

पेशवा ने इस तेजस्वी कुमार को काशी पढ़ने भेजा । यही कुमार आगे चलकर प्रसिद्ध न्यायाधीश रामशास्त्री हुआ ।

गाली के बदले स्नेह 

एक संत के पीछे एक आदमी गालियाँ बकता चला जा रहा था । संत बड़े शांत भाव से अपनी राह चले जा रहे थे । वह सारा इलाका जंगली था । यह इलाका समाप्त-होकर जहाँ से बस्ती दीखने लगी, वहीं संत ठहर गए और उस व्यक्ति से बोले-"भाई, मैं यहाँ रुक गया हूँ।, अब जितना जी चाहे, मुझे गाली दे दो ।"

"ऐसा क्यों?"-उस दुष्ट आदमी ने पूछा।

"ऐसा इसलिए भाई कि उस बस्ती के लोग थोड़ा मुझे मानते थे। उनके सामने तुम मुझे गाली देते, तो वे
तुमको जरूर सजा देते ।"

"तो इससे तुझे क्या?"-उस दुष्ट ने फिर पूछा ।

"तुम्हें तंग किया जाता, तो मुझे बहुत तकलीफ होती । आखिर तुम इतनी दूर तक मेरे पीछे-पीछे आये हो तो
मुझे भी तुमसे स्नेह हो गया है ।"-संत ने प्यार से समझाते हुए कहा ।

वह दुष्ट व्यक्ति संत के चरणों पर गिर पडा । जानतें हो वह संत कौन था? 
ये थे शिवाजी के समर्थ रामदास ।

फारमोसा की छोटी देवी

फारमोसा की स्थिति उन दिनों पिछड़ेपन की दृष्टि से भारत से भी गयी-बीती थी । लिलियन डिक्सन वहाँ एक बड़े सरकारी अफसर, की धर्मपत्नी थीं । पर अपने को गृहस्थ जीवन की सुविधाओं से सर्वथा दूर रखकर उस देश के दीन-दुखियों के लिए अपने को समर्पित कर दिया । मक्खी-मच्छरों की तरह मरने वाले वहाँ के निवासियों के लिए एक अस्पताल की व्यवस्था की । नौ-दस वर्ष की उम्र के बाद उचक्कों का जीवन जीने वाले और बार-बार जेल जाने वाले लड़कों के लिए विद्यालय बनाया, जिसमें ५०० लड़के शिक्षा और स्वावलंबन का लाभ लेने लगे । महिलाओं का पिछड़ापन उन्हें बहुत अखरा । उनके लिए भी उन्होंने बहुत कुछ किया । कद में पाँच फुट की होने के कारण इन्हें छोटी देवी के नाम से याद किया जाता था । एक दिन भी उनने बिना सेवा कार्य में लगे नहीं बिताया ।

मुनष्य जीवन कुंठा और कठिनाइयों से हर क्षण घिरा रहता हैं । हम किसी को आशा दे सकें, किसी को प्रकाश दे सकें तो उसमें अपना लाभ अधिक है ।

निशानी-निम्नगामिता

एक बार फूलों से लदे गुलाब के पौधे को चिंतामग्न देख पास में उगे आम के झुंड ने इसका कारण पूछा । गुलाब ने कहा-"आज तो मैं फूलों से लदा हूँ, पर वह पतझड़ दूर नहीं, जब मैं पत्तों- सा झड़ जाऊँगा और फिर मेरी कँटीली डालियों को कोई आँख उठाकर भी न देखेगा । क्या यह कम चिंता की बात है?"

आम ने कहा-"मित्र! उस आज की सुषमा और अगले पतझड़ के बाद फिर आने वाली अपनी सुंदरता का
विचार क्यों नहीं करते? मुझे देखो न, अभी फल-फूलों से लदने में कई वर्ष लगेंगे; पर उसकी आशा और कल्पना
करने में निरंतर प्रमुदित बना रहता हूँ।
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