प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-3

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
महान्तो मानवास्त्वेनमाधारमभिगम्य ते ।
जाता: समुन्नता याता अग्रे सर्वेभ्य एव च ॥३६॥
स्नेहसौजन्ययुक्तानि तेषां वाक्यानि स तथा ।
व्यवहारोऽपि सवैंस्तु मानितो मानवै: शुभ: ॥३७॥
फलतश्च कृतज्ञत्वभावस्योपकृतेरपि ।
अतिरिक्ततया लाभा: प्राप्ता: प्राप्य तथा त्विमान् ॥३८॥
नर: स्यान्मुदितोऽश्रान्तं गौरवी पुलकाञ्चित: ।
जनानां सहयोगेन कर्तुं नृनुन्नतान् समान् ॥३९॥
नैतिकाऽध्यात्मिकक्षेत्रे लभतेऽवसर: सदा ।
आधारमिममाश्रित्य शिष्टाचारस्य जायते॥४०॥
व्यवहृते सहयोगस्य दिव्या सा तु परम्परा।
वातावृतिर्यतोऽन्ते च निर्माता स्याच्छुभावहा॥४१॥
अवसर: प्रगते: सवैंराप्यते नितिराश्रिता।
स्नेहसौजन्ययो: सिद्धौ परार्थ: स्वार्थ एव च॥४२॥

टीका-महामानव इसी आधार पर ऊँचे उठे और सबसे आगे बढे़ हैं । उनके स्नेह, सौजन्य से भरे वचन और व्यवहार हर किसी को बहुत भाये । फलत: उनको कृतज्ञता-प्रत्युपकार भावना का अतिरिक्त लाभ भी
मिला । इन उपलब्धियों को प्राप्त कर सकने वाला व्यक्ति प्रसन्न-पुलकित रहता है, गौरवान्वित होता है । जन-सहयोग से ही लोगों को ऊँचा उठाने-आगे बढ़ाने का अवसर भौतिक और आत्मिक क्षेत्र में मिलता है । इस आधार पर जन-समुदाय में शिष्टाचार, सद्व्यवहार और सहयोग की परंपरा पलती है और उससे उत्तम
वातावरण बनता है । सभी को प्रगति का अवसर मिलता है । स्नेह-सौजन्य की नीति अपनाने पर स्वार्थ और
परमार्थ दोनों ही समान रूप से सधते हैं ॥३६-४२॥

अर्थ-महामानवों की पौंध से मलयगिरि चंदन की तरह सुवासित वायु के प्रवाह चलते हैं एवं संपर्क में आने वाले क्षेत्र को प्रभावित करते चले जाते हैं । ऐसे व्यक्ति स्वयं श्रेय को प्राप्त होते हैं एवं अन्य-अनेक के लिए प्रेरणा स्रोत बनते हैं । समाज में श्रेष्ठ परंपराएँ इसी कारण जन्मती व उस वर्ग-समूह को ऊँचा उठाती हैं । प्रकारांतर से सेठ-सौजन्य भरी परमार्थ साधना व्यक्ति के हित के साथ समष्टिगत हित साधन भी करती
है । इस प्रकार वह हर दृष्टि से जीवन में उतारने योग्य है।

सौजन्य की परम्परा

बेंजामिन फ्रैंकलिन ने अपने धनी मित्र की मेज पर बीस डालर की सोने की गिन्नी रखते हुए कहा-"आपने बिगड़े समय में मेरी जो सहायता की थी, उसके लिए आभारी हूँ । मैं अपने प्रारंभिक दिनों में एक मुद्रणालय में समाचार पत्र छापने का काम करता था। उस समय अचानक बीमार पड़ जाने के कारण मैं आपसे बीस डालर ले गया था । अब उस समाचार-पत्र का संपादन और प्रकाशन मेरे ही द्वारा होता है । ग्राहकों की संख्या भी बढ़ गई है । अत: अब इस स्थिति में हूँ आपके द्वारा उधार प्राप्त धन राशि आसानी से वापस कर दूँ ।

धनी व्यक्ति को अब याद आया कि उसने वास्तव में सहायता की थी, पर उसकी कहीं लिखा-पढ़ी न थी ।
उसने कहा-"हाँ! मुझे ध्यान आया, पर लौटाने की बात तय नहीं हुई थी । आप उस समय परेशानी में थे । आपने
कहा तो मैंने आपकी सहायता कर दी। यह तो मानव का सहज धर्म है कि आपत्तिग्रस्त व्यक्ति की यथा शक्ति सहायता करे । इस सिक्के को आप अपने पास ही रखो । कभी कोई व्यक्ति आपके पास आयेगा, जिसे धन की वैसी ही आवश्यकता होगी, जैसी एक दिन आप को थी । ऐसी स्थिति में आप उसकी सहायता करना ।

यदि वह आपकी तरह ईमानदार होगा तो आर्थिक स्थिति सुधर जाने पर वह धनराशि वापस करने आयेगा ।
उस समय आप यही कहना कि उस गिन्नी को वह अपने पास रखे, जब कोई जरूरतमंद व्यक्ति आये तो उसकी सहायता हेतु दे दे ।

यही हुआ । फ्रैंकलिन वह गिन्नी अपने साथ ले गया और उसने दूसरे व्यक्ति को दे दी । अब तक वे बीस डालर अमेरिका में आज भी किसी न किसी की आवश्यकता को पूर्ण करते घूम रहे हैं । वह जिस किसी के पास जाते
है । उसका अपना भला तो होता है, दूसरों को भी सौजन्य की अद्भुत प्रेरणा मिलती है ।

सामाजिक जीवन में जब तक यह परंपरा चलती है, तब तक सर्वत्र स्वर्गीय वातावरण दिखाई देता है ।
मानवीय संवेदना के अंत को ही प्रलय काल कहते हैं । बाइबिल में विस्तार से इस तथ्य के प्रतिपादन में एक कथा आती है ।

महाप्रलय न आये

मनुष्य के व्यवहार से कुपित होकर महाप्रभु ने प्रलय करने का निश्चय किया । सात दिन तक भयकर जल वृष्टि कर सारी पृथ्वी को डुबो देने के निश्चय की सूचना उन्होंने नूह को दी।

महाप्रलय के बाद! कुछ न बचेगा तो नई सृष्टि कैसे बनेगी? नूह की उस जिज्ञासा पर महाप्रभु मुस्कराये, उनकी दूरदर्शिता को देखकर एक नाव बनाने का आदेश दिया । जिस पर वे खुद भी रहें और अपने साथ-साथ पशु-पक्षियों के भी कुछ जोड़े रख लें । जलयान बनाने के लिए एक वर्ष का समय दिया गया । वर्ष पूरा हुआ । महाप्रभु ने नूह को बुलाया और नाव बनने की बात पूछी । नूह ने सिर नीचा कर लिया । बोले तीन बढ़ई बीमार पड़ गए । लकड़ी बेचने वाला मुकर गया । मैं क्या करता? चालीस दिन की मुहलत और दी गई । कहा गया कि इस अवधि में काम हो जाना चाहिए । चालीस दिन बीतने पर जब नूह खाली हाथ लौटे, तो महाप्रभु ने गरमाई दिखाई और कारण पूछा ।" लुहार यात्रा पर चले गए । मजूरों ने हड़ताल कर दी । दोनों लड़के गाने-बजाने में लगे रहे । किसी ने साथ न दिया, मैं क्या करता?" नूहे ने विवशता व्यक्त करते हुए कहा । सात दिन का अवसर दिया गया । पशु-पक्षियों के जोड़े भी बटोर लेने की आज्ञा हुई । अंतिम दिन आया, तो भी वह अकेले खाली हाथ खड़े थे । बिना पूछे ही बोले-"पशु-पक्षी भाग खड़े हुए । पुचकारने से भी नहीं लौटे, न वे बिकते हैं और न मेरी पकड़ में आते हैं । महाप्रभु, अब की बार अधिक कुद्ध थे।" बोले-"ऐसी ही गैर जिम्मेदारियाँ देखकर तो मैं आजिज आ गया हूँ और महाप्रलय बरसा रहा हूँ? यदि धरती वाले समय और फर्ज को समझते, तो मुझे उसे डुबाने की जल्दी क्यों पड़ती?"

ऐसी परिस्थितियाँ न आयें इसलिए महापुरुष अपने आचरण से लोगों को विनम्रता का पाठ पढ़ाते रहते हैं ।
हर व्यक्ति दूसरों के उपकार से लदा हुआ है । छोटे हों या बड़े इस दृष्टि से हर व्यक्ति स्नेह और सम्मान पाने के
अधिकारी होते हैं ।

इकबाल की गुरुभक्ति

कबि इकबाल को अरबी, फारसी का विद्वान् बनाने का श्रेय उनके गुरु मौलवी मीरहसन को था ।

इकबाल में शायरी के प्रति रुचि जागृत करने वाले भी यही मौलबी साहब थे । अत: अपने गुरु के प्रति इकबाल जीवन भर श्रद्धा व्यक्त करते रहे ।

एक बार अंग्रेजी सरकार ने प्रसन्न होकर इकबाल को सर  की उपाधि से सम्मानित किया । इकबाल ने वह उपाधि लेने से इन्कार करते हुए कहा-"जब तक मेरे गुरु का सम्मान नहीं किया जाता, तब तक मैं किसी भी उपाधि को ग्रहण करने का अधिकारी नहीं हूँ क्योंकि आज की स्थिति तक पहुँचाने वाले तो मेरे गुरु ही है ।"

इकबाल की शर्त मंजूर कर ली गई । पहले उनके उस्ताद मीरहसन को 'शम्स-उल-उलेमा' का खिताब
दिया गया और बाद को इकबाल ने उपाधि ग्रहण की ।

आज जब शिष्यों द्वारा गुरुओं का घेराव किया जा रहा है और उनकी बात को उपहास के रूप में माना जा रहा
हो, उस समय यह घटना प्रकाश की एक किरण के समान दोनों को ही अपने संबंध सुधारने के लिए प्रेरणा प्रदान करती है ।

ईसा का उपदेश

श्रद्धा गुरु के प्रति ही नहीं शिष्य के प्रति भी आवश्यक है । उसी का नाम स्नेह है ।

ईसा की विदाई का अंतिम दिन था । उस रात उनने अपने प्रमुख शिष्यों को बुलाया और सभी के पैर धोये ।
शिष्यों ने इस पर आश्चर्य व्यक्त किया, तो वे बोले-"जो तुम्हें पूजे उनके प्रति तुम भी पूज्य भाव रखना, क्योंकि वे ही तुम्हें श्रेय प्रदान करते हैं । ऐसा न हो कि सम्मान पाकर इतराओ और अहंकार दबाव से अपनी श्रद्धा गँवा
बैठो।"

कर्तव्यपालन की विवशता भी स्नेह-आत्मीयता के मार्ग में बाधक नहीं बनती । यदि अंतःकरण पवित्र हो,
उद्धत अहंकार का परित्याग कर दिया जाये, तो कठिन परिस्थितियाँ भी सरल होते पाई गई है ।

वत्सलता और कर्मवीरता

एक बार राजा शकुंत महर्षि तपोवन में गए । वहाँ उन्होंने सभी मुनियों के पैर छुए, संयोग से महर्षि विश्वामित्र रह गए। विश्वामित्र इसे अपमान जानकर बड़े ही क्रुद्ध हुए । विश्वामित्र ने अपने शिष्य महाराज से सारी बात कही, तो राम को भी यह बात ठीक नहीं जँची। राम ने उनको प्रण दिया कि आज सायंकाल तक या तो शकुंत को आपके चरणों में झुका दूँगा अन्यथा अपना शीश काटकर आपके चरणों में चढ़ा दूँगा । राजा शंकुत को जब यह समाचार मिला, तो भागकर माता अंजना के यहाँ शरण ली । माता अंजना ने उन्हें अभयदान दिया अपने पुत्र हनुमान जी को कुटिया की रक्षा पर नियुक्त किया । श्रीराम वहाँ भी पता लगाने आये । उन्होंने भक्त हनुमान जी को अंदर जाने को समझाया, परंतु हनुमान जी तो माता की आज्ञा और शरणागत की रक्षा में प्रतिबद्ध थे । दोनों में घमासान युद्ध हुआ । सूर्य डूबने को जा रहा था कि हनुमान जी की गदा से-आहत होकर
भगवान रामचंद्र भूमि पर गिर पडे ।

महावीर के पौरुष बल की सराहना करते हुए रामचंद्र जी ने अपनी हार मान ली । हनुमान जी तत्काल ही
उनके चरणों में गिर पडे और अपनी धर्म रक्षा की विवशता बताते हुए क्षमा याचना करने लगे । तुरंत ही उन्होंने शकुंत को भी बुलाया और उनके चरणों में झुकाकर उसे भी धन्य किया।

इतने में ही विश्वामित्र जी भी आ पहुँचे, सबने उनको प्रणाम किया तथा शकुंत ने अपराध के लिए क्षमा याचना की । सभी ने हनुमान जी की भरसक प्रशंसा की ।

एक अनूठा उदाहरण

सन् १९३७ की एक घटना है । अमृतसर के राय बहादुर प्रतापसिंह चुनाव में खड़े हुए । मुकाबले
में थे सरदार भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह । ख्याति की दृष्टि से सरदार किशन सिंह अग्रणी थे, फिर भी चुनाव अवैध ठहराये जाने के कारण राय बहादुर साहब को अवसर मिल गया । वे दुबारा खड़े हुए ।

समझदारों के समझाने-बुझाने पर राय बहादुर साहब ने अपना नाम वापस ले लिया । चुनाव लड़ने के लिए
उनने एक नई कार खरीदी थी, उसे भी उन्होंने सरदार जी को यह कहकर दे दिया कि यह तो वैसे ही चुनाव में खप जाने वाली थी ।

कार उन्हें निजी उपयोग हेतु दी गई थी, पर उसे उन्होंने कांग्रेस दफ्तर के हवाले कर दिया । खुद पहले की
तरह साइकिल पर दफ्तर जाते रहे ।

सच पूछा जाये तो यही सच्ची योग साधना है । इससे मिलने वाले आत्म संतोष को स्वर्गीय कहा जा सकता है।

व्यापार की समष्टि साधना

अठारहवीं सदी में गुजरात में भीषण अकाल पड़ा । चारों ओर हाहाकार मच गया । मनुष्य, पशु-पक्षी सभी भूख से तड़प-तड़प कर मरने लगे ।

गुजरात के राजा ने साधु-संतो से यज्ञानुष्ठान करने की प्रार्थना की । स्वयं भी बडे़-बडे़ ज्ञानी पंडितों को लेकर अनेक यज्ञ किए, फिर भी वर्षा नहीं हुई । प्रजा के दु:ख को देखकर राजा व्याकुल हो उठा । आँखों में आँसू भरकर स्वयं भगवान से प्रार्थना करने लगा । एक दिन प्रार्थनारत राजा के सामने एक संन्यासी प्रकट हुआ और सांत्वना के स्वर में बोला-"राजन् । चिंता मत करो । आपके राज्य में अमुक व्यापारी रहता है, यदि वह चाहे तो वर्षा हो सकती है ।"

राजा स्वयं चलकर व्यापारी के घर पहुँचे और उससे वर्षा कराने के लिए निवेदन करने लगे । पहले तो व्यापारी ने कुछ करने से आना-कानी की परंतु 
राजा की विनय और मनुष्यों के दु:ख को देखकर उसका हृदय द्रवित हो उठा । उसने राजा से कहा-" राजन्! आप धैर्य धारण करें । मैं जलवृष्टि के लिए अवश्य उपाय करूँगा।"

व्यापारी ने अपनी तराजू उठा ली और बाहर निकल कर बोल उठा-"हे इंद्रदेव! यदि इस तराजू से मैंने
कभी कम या अधिक न तोला हो, सदा ईमानदारी का पालन किया हो तो, देवराज इंद्र आप अवश्य जल वृष्टि करें।" व्यापारी का इतना कहना था कि आकाश में बादल छा गए और घनघोर वर्षा होने लगी । चारों ओर पानी ही पानी भर गया । लोग हर्ष से नाच उठे।
 
सन्यासी

एक संन्यासी गृहस्थी छोड़ कर कुटी बनाकर गंगा किनारे रहने लगा । साधुओं से ही उसका निरंतर संपर्क रहता । दो साधुओं को दस पैसे दक्षिणा के सिलसिले में आपस में सिर पीटते देखा । एक विद्वान महात्मा के प्रवचन उसे बहुत अच्छे लगते थे । उन्हें रोज सुनने जाता । बाद में मालूम पड़ा कि एक महिला को उड़ा ले
जाने के सिलसिले में उसे पुलिस पकड़ ले गई । ऐसी ही साधुओं की करतूते देखकर निश्चित किया कि इनसे तो
गृहस्थ अच्छे । वह वापस अपने घर लौट गया ।

बहुतों ने अच्छा कहा, बहुतों ने बुरा कहा, पर वह गृहस्थ में साधु रहकर अपनी दिनचर्या चलाने लगा । उसने
एक-एक मुट्ठी अनाज हर घर से संग्रह करके अपने गाँव में पाठशाला स्थापित की । उसने घूम-घूमकर बीस
पाठशालाएँ और खुलवाई । पीछे कितने ही हाईस्कूल बन गए । उसकी आत्मा ने कहाँ-'ऐसे साधु बनने से तो
सद्गृहस्थ बनकर सेवा करना अच्छा ।'

प्यार सौजन्य संवेदना के लिए शब्दों की, आचरण की भी आवश्यकता नहीं; यह तो आत्मा की अभिव्यक्ति
और उसकी पहचान है ।

अंधी, गूँगी, बहरी केलर

हेलन केलर का नाम हर शिक्षित ने सुना होगा जिसके साथ प्रकृति ने बदी करने में कोई कमी नहीं रहने दी। वह अंधी, बहरी, गूँगी तीनो ही व्यथाओं से पीड़ित थी । पर अपनी सूझबूझ और संकल्प बल के सहारे शिक्षा प्राप्ति का कोई न कोई तरीका निकालती रही और बुद्धि-कौशल के सहारे सफल होती रही । उसने अंग्रेजी में एमए पास किया और साथ ही लैटिन, फ्रेंच, जर्मन आदि में प्रवीण थी। घरेलू काम रोटी बनाने से लेकर कपडे धोने तक वह भली-भाँति कर लेती थी ।

उसने कुशलता का उपयोग अपने ही लिए नहीं किया वरन् अपंगों की शिक्षा तथा स्वावलंबन के लिए सारे संसार में भ्रमण करके करोड़ों रुपया एकत्रित किया । उसकी विद्या से प्रभावित होकर कितने ही विश्वविद्यालयों ने इसे डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि दी । लोग उसे देखकर संसार का आठवाँ आश्चर्य कहते ।

संत इन्हीं गुणों से बनते हैं । उद्दंड से उद्दंड व्यक्ति को भी इस आधार पर सिखाया, समझाया और आदर्श
आचरण के लिए सहमत किया जा सकता है ।

सच्ची वफादारी

उस दिन बादशाह ने बहुत शराब पी रखी थी । मदहोशी में वे गहस्थों के घरों में घुसने लगे। साथ में वफादार नौकर था, उसने बढ़ने से रोका और घसीटता हुआ राजमहल में ले आया । होश में आने पर दूसरे दिन दरबारियों ने नौकर की गुस्ताखी बताई और उसे सजा देने को कहा ।

बादहशाह ने उसे राज्य मंत्री बना दिया और कहा-"वफादारी इसमें है कि मालिक को गलत रास्ते पर चलने
से रोके भी ।"

शिक्षा पाली जान बचा ली

जन सहयोग के बल पर बड़ी से बड़ी मुसीबत टाली जा सकती हैं । एक जंगल में हिरन, कौआ, कछुआ और चूहा रहते थे । विपरीत बुद्धि के कारण परस्पर झगड़ते रहते थें । शिकारी अक्सर उन्हें मारते रहते थे, सो उनका वंश नष्ट हो चला था । एक दिन एक संत ने उन्हें हिल-मिल कर रहने का उपदेश दिया । वे चारों मिल-जुल कर रहने को सहमत हो गए ।

एक दिन एक शिकारी आया । दिन भर कोई शिकार न मिलने पर उसने रेंगते हुए कछुए को पकड़ा और जाल में रखकर चलने लगा ।

तीनों मित्र असमर्थ तो थे; पर उन्होंने सूझबूझ और सहकारिता से काम लिया । हिरन शिकारी के सामने से
लंगड़ाते हुए चलने लगा । कौआ उसकी पीठ पर बैठ गया । इस स्थिति का लाभ उठाकर वह आसानी से उसे पकड़ सकता है । यह सोचकर जाल जमीन पर रखकर शिकारी हिरन के पीछे दौड़ा ।

इतने में चूहे ने जाल काट दिया और कछुआ भाग कर एक झाड़ी में छिप गया । बहुत देर पीछा करने के बाद
जब हिरन ने कुलाचें भरीं, तो निराश शिकारी वापस लौटा । जाल कटा और कछुए को गायब पाया ।

शिकारी को उस क्षेत्र में किसी भूत-प्रेत की उपस्थिति एवं करतूत प्रतीत हुई, सो वह रात्रि में उधर रुके बिना
ही भयभीत होकर तत्काल घर लौट पड़ा ।

मित्रता और सूझबूझ के सहारे मनुष्य कठिनाइयाँ आसानी से पार कर लेता है; जबकि इक्कड़ प्रकृति तथा
संतुलन खो बैठने वाले छोटी मुसीबत में भी भारी हानि उठाते हैं ।

उद्दण्डादुर्जनास्ते तु न पराक्रमशालिन:।
भवन्ति तेऽपराधित्वधिया क्राम्यन्ति सन्ततम् ॥४३॥
क्रियात्मकेषु कार्येषु न तु लग्नतया क्वचित् ।
स्थातुं समर्था जायन्ते समाजपरिपन्थिन: ॥४४॥
धैर्यं मनोबलं चाऽस्य कृतेऽपेक्ष्ये भवन्त्यपि ।
आदर्शनिष्ठायोगाच्च कार्याण्यत्र महान्त्यपि ॥४५॥
कष्टानि सहमानैश्च क्रियन्ते तानि मानवै:।
संकल्पं चेदृशं तस्मादधिगच्छन्ति सन्ततम् ॥४६॥
मन:स्थितौ तथेदृश्यां नैति कश्चिन्निराशताम्।
योद्धमुत्सहते चात्राऽसाफल्ये प्रतिगामिभि: ॥४७॥
पराक्रमयुतानां च नराणां साहसै: श्रमै:।
मनोबलेन सिद्धानि कार्याऽयत्र महान्त्यपि ॥४८॥

टीका-दुर्जन उद्दंड भर होते हैं, पराक्रमी नहीं। वे अपराधी प्रवृत्ति अपनाकर आक्रमण कर सकते हैं, 
पर किसी सृजनात्मक कार्य में लगनपूर्वक देर तक टिके नहीं रह सकते, वस्तुत: वे समाज के शत्रु हैं । इसके लिए धैर्य और मनोबल चाहिए । आदर्शवादी निष्ठा के योगदान से महान् कार्य बन पड़ते हैं । कष्ट सहकर भी उन्हें करते रहने का संकल्प इन्हीं कारणों से मिलता है । ऐसी मन:स्थिति लेने पर असफलता की स्थिति में भी निराशा नहीं आती और प्रतिकूलताओं से जूझने का साहस अक्षुण्ण बना रहता है । पराक्रमी लोगों के अथक श्रम, अदम्य साहस और अटूट मनोबल के सहारे ही संसार के महान् कार्य बन पड़े हैं ॥४३-४८॥

अर्थ-पराक्रम-सौजन्य के साथ ही निभता है । सज्जनता कभी उद्धत उच्छृंखलता को प्रश्रय नहीं देती । सौम्य होना ठीक है, परंतु अनीति सहकर नहीं । उसके लिए पर्याप्त साहस-संकल्प बल होना चाहिए
ताकि दृढ़ता से उद्दंडों से जूझा जा सके । विनम्रता युक्त पराक्रम ही वस्तुत: महामानवों के लिए अभीष्ट है ।
यह मानवीय गुण, मानवीय चेतना के उस अमृत के समान है, जिसके सहारे दुर्जन समुदाय को भी बदला जा सकता है । अटूट लगन व धैर्य के सहारे वे यह भी कर दिखाते हैं ।

सौजन्य व्रत 

एक बार वैशाली क्षेत्र में दुष्ट -दुराचारियों का उत्पात-आतंक इतना बढ़ा कि उस प्रदेश में भले आदमियों का रहना कठिन हो गया । लोग घर छोड़-छोड़ कर अन्यत्र सुरक्षित स्थानों के लिए पलायन करने लगे । इन भागने वालों में ब्राह्मण समुदाय का भी बड़ा वर्ग था । नीति धर्म की बातें करने के कारण आक्रमण भी उन्हीं पर अधिक होते थे ।

वैशाली के ब्राह्मणों ने महर्षि गौतम के आश्रम में चलकर बसना उचित समझा। तपोबल के प्रभाव से वहाँ गाय और सिंह एक घाट पर पानी पीते थे ।

वे पहुँचे, आश्रय मिल गया, सुखपूर्वक रहने लगे । बहुत दिन इसी प्रकार बीत गए । उन्हें न कोई कष्ट था न भय । एक दिन महर्षि नारद उधर से निकले, कुछ समय गौतम आश्रम में रुके, इस समुदाय के संरक्षण की नई व्यवस्था देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उदारता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ।

ब्राह्मण समुदाय से यह न देखा गया । ईर्ष्या उन्हें बेतरह सताने लगी । उनके आगमन से ही तो गौतम ने इतना
श्रेय कमाया । हमने ही उन्हें यश दिलाया, अब हम ही अपना पुरुषार्थ दिखाकर उन्हें नीचा भी दिखाएगें ।

षड्यंत्र रचा गया । रातों-रात एक मृत गाय आश्रम के आँगन में डाली गयी । कुहराम मच गया यह गौतम ने
मारी है, हत्यारा है, पापी है । इसका भंडाफोड सर्वत्र करेंगे ।

गौतम योग साधना से उठे और यह कौतूहल देखकर अवाक् रह गए । आगंतुकों को विदा करने का निश्चय
हुआ । ऋषि बोले-"मूर्धन्यजनों को ईर्ष्या अन्यान्यों की अपेक्षा अधिक घातक और व्यापक परिणाम उत्पन्न करती है । आप लोग जहाँ रहते थे, वहाँ चले जाँय । अपनी ईर्ष्या से जिस क्षेत्र को कलुषित किया था, उसे स्नेह-सौजन्य के सहारे सुधारने का नए सिरे से प्रयत्न करें । यही हुआ । कलुषित क्षेत्र पुन: पवित्र हो गया ।

महापुरुष प्रारंभ से ही यह रीति-नीति अपनाते हैं । वस्तुत: पीड़ा और पतन के प्रति मन में जगी सेवा-संवेदना ही सामान्य व्यक्ति को महान् बनाती है । महानता विकसित करनी हो तो यही परंपरा अपनानी पड़ेगी ।

स्वाइत्जर का उपकार

जर्मनी के सेवाव्रती स्वाइत्जर अनेक विषयों में ग्रेजुएट थे । अच्छी तनख्वाह पर काम कर रहे थे। अक्रीकी जंगलियों की शिक्षा और चिकित्सा की आवश्यकता उन्होंने अनुभव की कि इसके बिना वे दासों की तरह पकड़े व बेचे जाते रहेंगे । स्वाइत्जर ने नौकरी छोड़ दी और अफ्रीका के पिछड़े इलाकों में शिक्षा तथा प्रचार कार्य करने लगे । इस कार्य में उन्हें अनेकों कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ी; पर वे आजीवन उसी कार्य में लगे रहे, जिस इलाके में वे रहे, उसमें सभ्यता का बहुत प्रचार करते रहे ।

बच्चे के प्रति बत्तखों का स्नेह 

स्वाइत्जर ने एक पुस्तक लिखी है- 'हूम वी से एन्मिल्स' (हम जिन्हें जानवर कहते हैं) उसमें एक मार्मिक उदाहरण देकर उन्होंने समझाया कि पशु-पक्षी तक अपने समुदाय की सेवा के लिए जान तक देने को तैयार रहते है फिर मनुष्य अपने मनुष्य समाज की पीड़ा न पहचाने, तो मनुष्य की श्रेष्ठता कहाँ रही?

संस्मरण इस प्रकार है-"मै शाम को परिभ्रमण करने जाता । एक झील के किनारे बैठ कर जंगली बत्तखों की
जलक्रीड़ा देखा करता । पक्षी प्रतिदिन शाम को पाँच बजे जंगल की एक उपत्यका की ओर उड़ जाते थे । एक दिन एक माली ने उनमें से एक बच्चे के पंख काट दिए । उस दिन नियत समय पर पक्षी उड़े पर वे कुछ देर में नीचे उतर आये । मुझे बहुत विस्मय हुआ । इसी बीच पक्षियों ने उड़ान भरी। थोडी देर आकाश में चक्कर काटते रहे पर वे गए नहीं फिर नीचे उतर आये । कौतूहलवश मैंने जाकर देखा नन्हें बच्चे के स्नेह ने उन्हें घर जाने नहीं दिया जब तक उस बच्चे के नए पंख नहीं उग आये । पक्षी समुदाय खूँख्वार जंगली जानवरों से भरे उस जंगल में ही बना रहा ।"

साहसी बालक

सेवा-साधना को कई बार दुष्ट दुर्जन दुर्बलता समझने लगते हैं । वे उन्हें सताने लगते हैं उससे लोग भ्रम में पड़ जाते हैं कि उद्दंडता में अधिक शक्ति है। वस्तुत: उद्दंड देखने भर से महाबली प्रतीत होते है । आवेश को शक्ति समझना भूल है ।

एक भैंस थी, बड़ी उपद्रवी । रस्सा तुड़ाकर भाग जाती थी और जिस खेत में घुस जाती, उसी को कुचल कर
रख देती । पकड़ने वालों की भी वह अच्छी खबर लेती । एक दिन तो उसका दिमाग ही खराब हो गया । किसी की पकड़ में आती न थी ।

हैरान लोगों के बीच में से एक लड़का निकला, उसने सिर पर हरी घास का एक गट्ठा रख लिया और उपद्रवी भैंस की तरफ सहज स्वभाव से आगे चलता गया । वह ललचाई और घास खाने के लिए आगे बढ़ने लगी । लड़के ने उसके आगे गट्ठा डाल दिया और मौका मिलते ही उछलकर उसकी पीठ पर जा बैठा और डंडे से पीटते हुए बाडे में ले आया।

देखने वाले एकाएक हँस पड़े और कहने लगे-"हम सब कितने भ्रम में थे। आज पता चला कि उद्दंड देखने में तो भयंकर प्रतीत होते हैं, पर उन्हें तो एक साहसी बालक ही पीट सकता है ।"

यही पराक्रम है । ऐसे पराक्रम की गाथाओं से इस देश के इतिहास के पन्ने पर पन्ने ले पड़े हैं ।

वीर अश्वपति 

अश्वपति ने राज्य विस्तार तो नहीं किया पर समर्थ नागरिक तैयार करने के लिए जो भी उपाय संभव थे, उसने किए । यही कारण था कि उसके राज्य में सब स्वस्थ, वीर और बहादुर नागरिक थे। काना, कुबड़ा, दीन-हीन और आलसी उनमें एक भी न था । अश्वपति के राज्य में जन्म लेते ही बच्चे राज्याधिकारियों के नियंत्रण में सौंप दिए जाते थे । उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध अश्वपति स्वयं करता था । उसका हर युवक चरित्र, बल, दृढ़ता, शौर्य और संयम की प्रतिमूर्ति थी । यही कारण था कि उस छोटे-से राज्य से भी कोई टक्कर
नहीं ले पाता था ।

प्रतापी सम्राट् पोरस से युद्ध करने के बाद सिकंदर की सेना ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया, उस समय सिकंदर ने सोचा, आस-पास के छोटे राज्य ही हस्तगत क्यों न कर लिए जायें? उसकी वक्र दृष्टि अमृतसर के समीप रावी नदी के तट पर बसे अश्वपति के राज्य पर पड़ी । सिकंदर ने अश्वपति की वीरता की गाथायें पहले ही सुन रखी थीं, उसके सिपाही भी हिम्मत हार चुके थे, इसलिए उसने मुकाबले की अपेक्षा छल से रात में अश्वपति पर आक्रमण कर दिया । युद्ध के लिए अनिश्चित अश्वपति के सैनिकों को सिकंदर के सिपाहियों ने छलपूर्वक काटा और इस तरह यह युद्ध भी यूनानियों के हाथ रहा। महाराज अश्वपति बंदी बना लिए गए । सिकंदर ने अश्वपति के शौर्य की परीक्षा लेने के इरादे से उसे बंधन मुक्त कर दिया और संधि कर ली । इस खुशी में एक सम्मिलित दरबार आयोजित किया गया । अश्वपति अपने खूँख्वार लड़ाका कुत्तों के लिए विश्वविख्यात था, चार कुत्ते हमेशा अश्वपति के साथ रहते थे । जब वे दरबार में पहुँचे, तब वह कुत्ते भी उनके साथ थे । सिकंदर ने उनके पहुँचते ही व्यंग्य किया-"महाराज! यह भारतीय कुत्ते है ।" अश्वपति ने तुरंत उत्तर दिया-"हाँ, यह छिपकर आक्रमण नहीं करते, शेरों से भी मैदान में लड़ते है । लड़ाई का आयोजन किया गया ।

उधर शेर इधर दो कुत्ते, लड़ाई छिड़ गयी । शेर ने कुत्तों को लहूलुहान कर दिया, पर कुत्तों ने भी शेर के छक्के छुडा दिए । शेष दो कुत्ते भी छोड़ दिए गए और तब शेर को भागते ही बना। पर कुत्तों ने उसके शरीर में ऐसे दाँत चुभाये कि शेर वहीं आहत होकर गिर पड़ा । अश्वपति ने ललकार कर कहा- "महाराज! आपकी सेना में कोई वीर है, जो कुत्ते के दाँत शेर के मांस से अलग कर दे? बारी-बारी से कई योद्धा उठे और कुत्तों की टाँगे पकड़ कर खींचने लगे, कुत्तों की टाँगे टूट गई पर वे दाँत न छुड़ा सके । सात फुट लंबे अश्वपति ने अपने अंग रक्षक को संकेत किया । वह उठकर शेर के पास
पहुँचा और कुत्ते को पकड़ कर एक ही झटका लगाया कि शेर की हड्डी और माँस सहित कुत्ता भी खिंच गया ।

सिकंदर ने युद्ध जीत लिया पर इस यथार्थ के आगे वह अपना सिर झुकाये बैठा था ।

मनुष्य की तलाश 

अनीति के प्रति आक्रोश हो तो वह संयत होना चाहिए । इस लक्ष्य को समझाने के लिए एक फकीर ने
निराली विधि अपनायी । फकीर प्रतिदिन सुबह के समय हाथों में दो मशालें लेकर बाजार में चला
तलाश जाता । हर दुकान के सामने थोड़ी देर ठहरता और आगे बढ़ जाता।

एक व्यक्ति ने पूछा-"बाबा! तुम दिन के समय मशालें लेकर क्या देखते फिरते हो? क्या ढूँढ़ते हो?"

फकीर ने उत्तर दिया-"मैं मनुष्य खोज रहा हूँ । इतनी भीड़ में हमें अभी तक कोई मनुष्य नहीं मिला ।"

उस व्यक्ति के मनुष्य की परिभाषा पूछने पर फकीर बोला-"मैं उसको मनुष्य कहता हूँ जिसमें काम की
वासना और क्रोध की अग्नि न हो, जो इंद्रियों का दास न होकर उनका स्वामी हो और क्रोध के आवेश में आकर अपने लिए और दूसरों के लिए आग की लपटें उभारने का यत्न नहीं करता ।"

अहिंसा की परिभाषा 

पराक्रम का अर्थ यह है कि सौजन्य बनाये रखकर अनीति से मोर्चा लिया जाय । एक बार गुजरात विद्यापीठ की कुछ लड़कियों ने शिकायत करते हुए किशोरीलाल भाई से पूछा-"कुछ लड़के कभी-कभी हमसे छेड़खानी करते हैं । बताइये हम कैसे प्रतिकार करें ।"

वे अहिंसात्मक प्रतिकार का उपाय पूछ रही थीं । किशोरीलाल जी ने कहा-" तुम्हारे पैरों में चप्पल तो होते हैं, खोलकर मार दो ।" लड़कियों ने उत्तर दिया कि हम अहिंसात्मक उपाय जानना चाहती हैं, यह तो हिंसात्मक है । उन्होंने कहा-"तुम खुद बापू से जाकर पूछ लो ।"

लड़कियाँ बापू के पास गयीं तथा किशोरीलाल जी की बात दुहरायी । उन्होंने कहा-"बस, किशोरीलाल जी
ने यही बताया । मैं तो कहूँगा, यदि तुम्हारे पास छुरी हो तो उनके छुरी भोंक दो, यदि तुम्हारे साथ कोई कुत्सित हरकत करना चाहे । मैं तो तुम्हारे लिए इसे अहिंसा ही कहूँगा।" अवांछनीय तत्वों को परास्त करने से तो, उनसे पीड़ित कई लोगों का त्राण होगा ।

प्रतिशोध का कुचक्र

कभी-कभी नीति-अनीति की मर्यादा समझे बिना पराक्रम का दुरुपयोग किया जाता है । इसके दुष्परिणाम एक बड़े वर्ग को भुगतने पड़ते हैं । द्रोणाचार्य दुपद की राज्य सभा में कुछ याचना के लिए गए और गुरुकुल में साथ पढ़ने के प्रसंग की चर्चा करते हुए उन्हें मित्र कहने लगे । द्रुपद ने द्रोणाचार्य का तिरस्कार किया । यह बात द्रोण के मन में चुभ गई । उन्होंने पांडवों से दक्षिणा माँगी कि द्रुपद को पराजित करके रस्से से बाँध कर मेरे सामने प्रस्तुत किया जाय । वैसा ही हुआ पर दोनों पक्षों का विद्वेष अपने- अपने स्थान पर आजीवन बना रहा ।

पांडवों ने 'अश्वत्थामा' मर गया की अफवाह फैलाकर द्रोणाचार्य की मृत्यु कर दी । जबकि वह मारा नहीं गया था। धर्मराज तक को छलयुक्त झूठ बोलना पड़ा । आचार्य पुत्र अश्वत्थामा ने बदला लेने के लिए पांडवों के पाँच पुत्र मार डाले ।

द्रौपदी ने प्रतिशोध के कुचक्र को तोड़ने के लिए अश्वत्थामा को बंधन मुक्त करा दिया । अन्यथा भिंड-मुरैना के डाकुओं की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी प्रतिशोधजन्य हत्यायें होती रहतीं । समय पर सौजन्य ने पराक्रम के साथ समन्वय बिठाकर स्थिति नियंत्रित कर ली । यही वास्तविक धर्माचरण है ।

वागभट्ट की साधना

परकर्म की सार्थकता श्रमशीलता, लगन, प्रचंड संकल्प बल के समन्वय के कारण ही होती है धन्वन्तरि के विद्यालय में बागभट्ट आयुर्वेद पढ़ रहे थे। उनकी पीठ में एक भयंकर फोड़ा निकला । उपचार के लिए एक जडी की आवश्यकता पड़ी । गुरुदेव ने उसका नाम बताया, आकृति समझाई और वन प्रदेश में उसे खोजने लाने के लिए भेजा ।

बागभट्ट तीन महीने तक ध्यानपूर्वक जडी-बूटियाँ खोजते रहे । अनेक प्रकार की देखी समझी तो, पर अभीष्ट
औषधि मिली नहीं, वे वापस लौट आये।

धन्वन्तरि ने विवरण सुना तो ज्ञानवृद्धि और नई खोज पर प्रसन्नता व्यक्त की।

दूसरे दिन छात्र को लेकर वे पड़ौस के खेत में गए और अभीष्ट औषधि उखाड़ लाए । सेवन कराई तो छात्र कुछ ही दिन में अच्छा हो गया । अवसर पाकर बागभट्ट ने गुरुदेव से पूछा-"भगवान, औषधि तो पास में ही खड़ी थी । फिर मुझे इतने कष्टसाध्य प्रयास के लिए क्यों भेजा ।"

धन्वन्तरि ने कहा-"वत्स, प्रयोजन लाभ की तुलना में ज्ञान और अनुभव का संपादन अधिक महत्वपूर्ण है। तुम इस कारण इतना पुरुषार्थ कर सके, वह लाभ अनायास की उपलब्धि से कहाँ मिल पाता?"
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118