प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-5

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राजहंस इव क्षीरनीरयोर्निश्चयं नर: ।
कुर्याद् यच्च तदुत्कृष्टं गुह्यतां हर्षपूर्वकम् ।। ४६ ।।
उष्णता च प्रकाशश्च यथा सूर्ये गुणावुभौ ।
समन्वयस्तथा सत्ये प्रवृत्योस्तु द्वयोरपि ।। ४७ ।।
यथार्थता च तत्रैका न्यायनिष्ठमिदं तथा ।
दूरदर्शित्वमन्या सा प्रवृतितर्मङ्गप्लोन्मुखी ।। ४८ ।।
समन्वयोऽनयो पूर्णसत्यमत्राभिधीयते ।
यदेकांगगतं तच्चाऽर्णमेवाभिमन्यताम् ।। ४२ ।।

टीका-मनुष्य को राजहंस की तरह नीर-क्षीर विवेक करना चाहिए और जो उत्कृष्ट है, उसी को हठपूर्वक ग्रहण करना चाहिए । जिस प्रकार सूर्य में गर्मी और रोशनी दो गुण हैं, उसी प्रकार सत्य में दो
प्रवृत्तियों का समन्वय है, एक-यथार्थता, दूसरी-मंगलोन्मुख न्यायनिष्ठ दूरदर्शिता । इन दोनों का समन्वय ही पूर्ण सत्य है, एकांगी तो अधूरा रहता है ।। ४६-४९ ।।

अर्थ-सत्य के एक पक्ष यथार्थ को तो मनुष्य जल्दी पकड़ लेता है । पर दूसरे पक्ष-लोक हितकारी, न्यायनिष्ठा, दूरदर्शिता को कम ही लोग पकड़ पाते हैं । ऋषि कहते हैं कि उसके बिना सत्य अधूरा रह जाता है । दूरदर्शिता ऐसी, जिसमें न्याय और लोकमंगल सधता हो, बड़े प्रयत्न से आती है । उसके लाभ भी बहुत
हैं; मानव को महामानव वही बनाती है । परंतु उसके मुकाबले में आकर्षण और भ्रम भी कम नहीं आते । उनसे बचने के लिए उस उत्कृष्ट वृत्ति को हठपूर्वक पकड़ने का सूत्र ऋषि समझा रहे हैं । सभी महापुरुषों ने ऐसा ही किया है । हंसवृत्ति भी यही है ।

सत्य के, उत्कृष्टता के साधक का आदर्श हंस और चातक होता है । हंस इस बात से प्रभावित नहीं होता कि किसने क्या खाया वह तो उत्कृष्टता के मोती चुगता है। वह न मिले तो उसे अभक्ष्य खाने की
अपेशा लंघन मंजूर होता है । विवेक की दृष्टि से तो उसका नीर । क्षीर विवेक प्रसिद्ध है ही ।

चातक मात्र स्वाति बूँदों का ही पान करता है । हीन रसपान करने की अपेक्षा प्यासा रह जाना पसंद करता है । उत्कृष्टता के साधक ऐसे ही नैष्ठिक होते हैं ।

कबीर डिगे नहीं 

संत कबीर अपने शिष्यों से कहा करते कि रोज सबेरे शैतान आकर मुझसे प्रश्न करता है-''आज तू क्या खायेगा ?'' मैं जबाव देता हूँ-''मिट्टी खाऊँगा ।'' वह पूछता है-'' क्या पहनेगा?'' मैं जवाब देता हूँ-''मुर्दे का कपड़ा ।'' वह फिर पूछता है-''रहेगा कहाँ?'' मैं जवाब देता हूँ-''श्मशान में ।''

मेरे ये उत्तर सुनकर शैतान मुझे अभागा बताकर चल देता है । क्योंकि मैं उन सभी चीजों से अनिच्छा प्रकट करता हूँ जिनमें वह संसार के प्राणियों को फँसाकर मनुष्य से राक्षस बना देता है। इसी से उसका वश नहीं चलता। 
 
गाँधी जी को अनुत्तीर्ण होना मंजूर 

गाँधी जी बचपन में कोई प्रखर बुद्धि विद्यार्थी न थे । पर उन्हें आचरण में सच्चाई और चरित्र का सबसे अधिक ध्यान रहता था ।

एक बार स्कूल इन्स्पेक्टर मुआयने के लिए आए । गाँधी जी की कक्षा की परीक्षा हुई। उसमें पाँच शब्दों की स्पेलिंग लिखने को दी गई । गाँधी जी ने उसमें से एक गलत लिख दी । कक्षा अध्यापक ने इशारा किया आगे वाले विद्यार्थी की नकल कर लो पर गाँधी जी ने नकल नहीं की ।

परीक्षा में सब उत्तीर्ण हुए, केवल गाँधी जी अनुत्तीर्ण रहे । इन्स्पेक्टर चला गया, तो मास्टर ने गाँधी जी को डाँट लगायी । गाँधी जी ने उत्तर दिया-''मास्टर साहब! दूसरे की नकल करके पास होने की अपेक्षा, अपनी बुद्धि से अनुत्तीर्ण होना अच्छा । झूठी सफलता के लिए अपनी आत्मा की सच्चाई को बेचकर आत्महीनता का दुःख उठाना मेरे लिए संभव नहीं ।'' गाँधी जी के इस कथन पर अध्यापक उनकी अल्पायु में नैतिकता की अडिग आस्था के लिए आश्चर्यचकित रह गए ।

टंडन जी का मोटा अनाज 

उन दिनों राशन का कड़ा नियंत्रण था । राशन कार्ड पर सीमित गेहूँ मिलता था । उतने रोशन से काम न चलता । फलत: वे ज्वार, बाजरा जैसे खुले बाजार में मिलने वाले सस्ते अनाज लेकर काम चलाते ।

एक बार कई बड़े नेता और अफसर उनके मेहमान थे । सभी को ज्वार-बाजरे की रोटी परोसी गई । उन्हें चकित देखकर टंडन जी ने स्वयं कहा-''काला बाजारी का अनैतिक तरीका अपनाकर आप लोगों को वहाँ का गेहूँ खिलाने की अपेक्षा ईमानदारी ने यही सुझाया, जो अनभ्यस्त भोजन के रूप में आपके सामने है ।''

सच्चे देशभक्त प्रफुल्ल चंद्र राय

स्वाभिमान, विद्वत्ता, प्रतिभा, उदारता और समर्पण के समन्वय का नाम है-प्रफुल्लचंद्र राय । वे इंग्लैंड से उच्च शिक्षा लेकर लौटे। आते ही अध्यापन और अपने छात्रों को आदर्श बनाने में लग गए । उनका वेतन एक हजार से ऊपर था पर उसमें से निजी खर्च के लिए अस्सी रुपया ही लेते थे। शेष निर्धन छात्रों की सहायता में लगाते थे । उन्होंने विवाह नहीं किया । इससे खर्च बढ़ेगा और छात्रों के साथ जितना समय लगाना पड़ता है, उतना लगा न सकेंगे ।

उन्होंने भारतीय औषधि शास्त्र का गहरा अध्ययन करने के उपरांत बंगाल केमिकल्स की स्थापना की । प्रामाणिक औषधियों की मांग चरम सीमा तक हुई और कंपनी अच्छे मुनाफे में चलने लगी । एक बार उनके मैनेजर ने एक दवा नकली बना दी । उनने लाखों का घाटा सहकर उसे गंगा में बहा दिया । उनकी इस न्याय निष्ठा ने उनकी औषधियों की प्रामाणिकता तो बढ़ा ही दी, विदेशियों की निगाह में भारतीय चरित्र भी ऊँचा उठा ।

कौण्डिन्य उवाच-

कृपालो मानवे पूर्णं सत्यं प्राप्तुं सदैव सा ।
समीहा विद्यतेऽथापित शक्ति: पूर्णा च विद्यते ।। ५० ।।
तथापित विकलं सत्यं कथमादाय तिष्ठति ।
भवेद् विडम्बनायाश्च कथं मुक्तिरिदं मद ।। ५१ ।।

टीका-कौण्डिन्य ने कहा-हे कृपालु! मनुष्य में पूर्ण सत्य प्राप्त करने की चाह भी है और सामर्थ्य भी, फिर भी वह एकांगी सत्य में उलझकर क्यों रह जाता है? इस विडंबना से मुक्ति कैसे मिले? कृपया यह रहस्य स्पष्ट करें ।। ५०-५१ ।।

अर्थ-किसी भी उपलब्धि के लिए इच्छा सामर्थ्य-यह दो महत्वपूर्ण आधार माने जाते हैं । मनुष्य में यह दोनों होते हुए भी उसे अभीष्ट उपलब्धि क्यों नहीं होती, यह रहस्य कौण्डिन्य जी जानना एवं इस
प्रतिपादन से अन्य उपस्थित साधकों को लाभान्वित कराना चाहते हैं ।

मनुष्य पूर्णता चाहता है, इसका प्रमाण हर कदम पर मिलता है । उसे उसके बिना संतोष नहीं मिलता । चाहे विज्ञान के माध्यम से हों, चाहे दर्शन के माध्यम से, वह सृष्टि के रहस्य स्पष्ट करने पर तुला
रहता है ।

सामर्थ्य में मनुष्य की समता कोई प्राणी नहीं कर सकता, यह सर्वमान्य है । रामचरित मानस में लिखा है-

नट तन सम नहिं कवनिऊ देही । जीव चराचर जाँचत जेही ।।

शास्त्रों के अनुसार देवता भी मनुष्य शरीर में इसलिए आना चाहते हैं, कि सत्य की जिस गहराई तक जाने की सामर्थ्य मनुष्य में है, वह किसी अन्य देहधारी में नहीं ।

एक रोचक प्रसंग मिलता है । सिकंदर ने सिंध के ब्राह्मणों से कुछ बेढब प्रश्न पूछे थे। उद्देश्य था उनकी मानसिक क्षमता की परीक्षा लेना । उसमें एक प्रश्न था-''सबसे बुद्धिमान जीव कौन है ?'' विद्वान ने उत्तर दिया-''वह जो मनुष्य की निगाह से बचा है ।''

भाव यह था, कि जितने भी जीव मनुष्य की निगाह में आये, उसने सभी को अपने नियंत्रण में ले लिया । उसके नियंत्रण के बाहर वही रह सकता है, जो उसकी निगाह से बच जाय । अर्थात् मनुष्य की
सामर्थ्य का कोई मुकाबला नहीं ।

पुराणों में अनेक प्रसंग आते हैं जब देवताओं में शर्त लगी, मनुष्य की परीक्षा ली गयी । लंबे से लंबे संघर्ष के बाद मनुष्य ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की और देवताओं ने उनकी सराहना की, अभिनंदन किया । देव शक्तियाँ भी मनुष्य की सामर्थ्य के सामने नतमस्तक होती रही हैं ।

ऐसा मनुष्य एकांगी सत्य में ही फँस कर क्यों रह जाता है-यहाँ पर यही जिज्ञासा ऋषि द्धारा व्यक्त की गयी है ।

आश्वलायन उवाच-

सत्यं नारायण: साक्षादसीमश्चाऽपि विद्यते ।
सीमिता च मनुष्याणां खुद्धिराग्रहिणी लघु: ।। ५२ ।।
अंशो ज्ञातस्तया नूनमेक एवाधुनाऽपि च ।
शेषं ज्ञेयं च यत्तत्तु विद्यतेऽत्यधिकं तत: ।। ५३ ।।
मनुष्य: सत्यसम्प्राप्त्यै क्रमशोऽथ्यक्रमीदिह।
साफल्यमंशतश्चाऽपि तत्र सोऽध्यगमत्तथा ।। ५४ ।।
अपर्याप्तानि मन्तुंच ज्ञानानि स्वस्यतानि वा ।
पूर्वजानां स्वकानां न लद्युतावहमस्ति तु ।। ५५ ।।

टीका-आश्वलायन जी बोले-सत्य ही नारायण है । नारायण असीम है और मानवी बुद्धि सीमित है, वहविविध आग्रहों से और भी छोटी हो गयी है । उसने अब तक सत्य का एक अंश ही जाना है, जो जानना शेष है,वह कहीं अधिक है । मनुष्य क्रमश: सत्य की प्राप्ति के लिए क्रमिक यात्रा करता रहा है और आंशिक सफलता प्राप्त करता रहा है । पिछली जानकारियों को अपर्याप्त मानने में अपनी या पूर्वजों की कोई हेठी नहीं है ।। ५२ - ५५ ।।

अर्थ-मनुष्य अपने क्षेत्र में समग्र है; किन्तु विराट के स्तर पर बहुत ही सीमित । वह किसी न किसी काल और क्षेत्र में बँधा रहता है, इसलिए उसी परिधि के सत्य समझ सकता है । वह भी तब, जब
दिमाग को खुला रखा हो । उसे यदि आग्रहों के दायरे में सीमित रख छोड़ा है, तो अपने काल और क्षेत्र के अनुरूप भी सत्य को पकड़ नहीं पाता ।

प्रत्येक पीढ़ी की अपनी काल-परिधि होती है । उस परिधि से बाहर निकलने पर सत्य के नये आयाम सामने आते हैं । जिनके सामने वह आयाम नहीं आये, उन्होंने उसे मान्यता नहीं दी, तो कोई दोष नहीं हुआ। परंतु पूर्व जानकारी को सब कुछ मान लेने पर नये आयामों की अपेक्षा होती है, तो वह दोष है ।

ऋषियों ने कहा-नेति-नेति 

ऋषियों ने अपनी दिव्य चेतना से महत् चेतना की गहराइयों में जाकर बड़े दुर्लभ तत्व उद्घाटित किए हैं । उन्हें श्रुतियों, स्मृतियों में संग्रहीत भी किया । किन्तु इन सबके बाद कह दिया-''नेति-नेति'' अर्थात् यही समाप्ति नहीं है । भारतीय संस्कृति की इस विशेषता ने उसे ज्ञान-विज्ञान में सर्वोपरि बनाया था ।

न्यूटन एक बालक 

सर आइजक न्यूटन वर्तमान भौतिक विज्ञान के जनक कहे जाते हैं । उन्होंने चमत्कारी वैज्ञानिक अनुसंधान किए । उनके प्रशंसकों ने उनसे कहा कि आप तो विज्ञान की तह तक पहुँचे गए हैं । इस
पर न्यूटन बोले-''विज्ञान एक महान सगर है, मैं अभी बालक की तरह उसके किनारे के पत्थर मात्र चुन सका हूँ । उसमें प्रवेश और तह तक जाना, उसमें से मूल्यवान रत्न निकालना तो बहुत आगे की बात है ।''

उनके इस कथन से उनकी गरिमा नहीं घटती । उनके समय की अपेक्षा विज्ञान आज अनेक गुना आगे बढ़ चुका है । हर नई जानकारी पिछली जानकारियों को नाकाफी और सीमित सिद्ध करती है । किन्तु उससे पिछले सिद्धांत खोजने वाली की महानता में कोई कमी नहीं आती ।

डाल्टन के रासायनिक नियम 

आधुनिक रसायन विज्ञान डाल्टन की देन है । उन्होंने रासायनिक क्रिया-प्रतिक्रिया के कुछ नियम बनाये, जिनके आधार पर रसायन शास्त्र ने ढेरों उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। कालांतर में डाल्टन के सिद्धांत एक सीमा तक ही सही पाये गए । आगे की शोधों से तो लगा कि रसायन विज्ञान उन
नियमों की परिधि से भी बाहर कार्य करता है । इस सत्य के उद्घाटन को डाल्टन के अनुयाइयों ने नकारा नहीं, उसे मान्यता दी और आगे बढे़ । पर उससे डाल्टन की महत्ता जरा भी नहीं घटी । आज भी रसायन शास्त्र का प्रारंभ उन्हीं के सूत्रों से होता है ।

स्मृतियों में भिन्नता 

भारतीय संस्कृति के अनुरूप जीवन चर्या के लिए आचार संहिता के रूप में स्मृतियाँ लिखी गईं । उनका पालन किया गया । किन्तु समय की आवश्यकता को देखते हुए नई स्मृतियाँ लिखी जाती रहीं । उनसे बदली हुई परिस्थितियों में लोगों को अनुकूल दिशा तो मिली, पर पिछली स्मृतियाँ लिखने वालों के सम्मान में कोई कमी नहीं आई ।

निर्भ्रांत केवल ईश्वर 

डॉ० सेमुएल जानसन का अंग्रेजी शब्दकोश प्रख्यात है । उसे उन्होंने भारी परिश्रम से वर्षों में लिखा था । साहित्य जगत में उन्हें उच्चस्तरीय प्रतिष्ठा प्राप्त थी ।

कोश में एक शब्द की परिभाषा एक महिला को खटकी । अधिक विचार करने पर उसने उसे वस्तुत: गलत पाया । अपनी बात जानसन तक पहुँचाने में विवाद खड़ा होने का भय था, सो उसैने उनसे मिलना ही उचित समझा । समय माँग कर उनसे मिलने जा भी पहुँची ।

जानसन ने उसकी बात ध्यानपूर्वक सुनी और भूल बताने के लिए कृतज्ञता व्यक्त की । तत्काल सुधार देने का आश्वासन देते हुए उनने इतना ही कहा-''निर्भ्रान्त तो केवल ईश्वर है । मनुष्य से जाने-अनजाने में जो गलतियाँ होती रहती हैं, उन्हें बताया और सुधारा जाना ही उचित है ।''

तुलसी बनाम संत तुलसी ने 'रामचरित मानस' लिखो । उसमें 'वाल्मीक रामायण' की अपेक्षा रामचरित्र के अनेक नये आयाम प्रकट किये गए । इस प्रयोग को स्वीकार कर लेने से आदि कवि वाल्मीकि
के गौरव में कोई कमी नहीं आई ।

इसलिए पूर्वजों के सम्मान में कमी आने के भय से नये उद्घाटित सत्यों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ।

बाल्ये वस्त्राणि यान्येष परिधत्ते शिशु: सदा।
तानि प्रौढे न गृह्णाति कोऽपि काले विनिर्गते ।। ५६ ।।
देशकालानुरूपेण यदीत्थं सा: परम्परा: ।
स्वीकृता भिन्नरूपेण तत्र नो विग्रहादिकम् ।। ५७ ।।
विद्यते, सर्व एवैते धर्मात्मानो विदन्तु तत् ।
तथ्यं गृह्णन्तु सत्यं च विवेकं हितमात्मन: ।। ५८ ।।

टीका-बालकपन में जो वस्त्र पहने जाते हैं, समय बीत जाने पर प्रौढ़ावस्था में उन्हें कोई नहीं पहनता । इस प्रकार यदि देश, काल के अनुरूप परंपराएँ भिन्न प्रकार से अपनाई गई हों, तो उसमें विग्रह जैसी कोई बात नहीं है । सभी धर्मप्रेमियों को तथ्य समझना और सत्य तथा विवेक को अपनाना ही उचित है; चूकि इसमें उनका
अपना भी कल्याण है ।। ५६-५८ ।।

अर्थ-परंपरा की भिन्नता का प्रश्न सामने आने पर बहुधा विग्रह उठ जाते हैं । एक परंपरा का अभ्यस्त व्यक्ति दूसरी परंपरा वाले को हीन भाव से देखने का प्रयास करता है । परंतु सत्य और विवेक को
देखना चाहिए कि किन्हीं परिस्थिति विशेष में कोई खास परंपरा उचित रही । जितने अंशों में परिस्थितियाँ बदलीं, उतने अंशों में परंपराओं में परिशोधन कर लेने में न किसी धर्म का उल्लंघन होता है और न किसी निष्ठा का हनन होता है । इससे तो औचित्य को परिपोषण मिलता और विकासक्रम आगे बढ़ता है ।

वस्त्रों की परिपाटी 

वस्त्र शालीनता की रक्षा तथा शरीर की सुरक्षा के लिए पहने जाते हैं । भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में शालीनता की मान्यता और जलवायु के स्तर के अनुरूप वस्त्रों का निर्धारण होता है । गर्म क्षेत्र में रहने वाला
व्यक्ति शीत क्षेत्र में अथवा शीत क्षेत्र का व्यक्ति गर्म क्षेत्र में अपनी परंपरागत पोशाक पहनने का आग्रह करेगा, तो हानि ही होगी । इसी प्रकार आयु बढ़ने या शरीर की मोटाई में अंतर आने पर वस्त्रों का आकार-प्रकार बदलना पड़ता है ।

राष्ट्रीयता की कसौटी 

महाराजा शिवाजी के समय पैदा हुए व्यक्ति के लिए राष्ट्र सेवा की कसौटी थी, उनकी घुड़सवार सेना का अंग बनना, गुरिल्ला युद्ध का अभ्यास करना आदि ।

वही स्वतंत्रता संग्राम क्रांतिकारियों ने भी लड़ा । परंतु उस समय संगठित प्रदर्शन, अवज्ञा आंदोलन, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार आदि उसके अंग बने ।

स्वतंत्र भारत में राष्ट्रीय चेतना के नाम पर ऊपर के दोनों ही क्रम अब नहीं अपनाये जा सकते । अब तो वर्ग भेद मिटाने, सहयोग-सहकार की उदार प्रवृत्तियाँ बढ़ाने, कुरीति उन्मूलन, शिक्षा विस्तार, उद्योगों का विकास आदि कार्यक्रमों के लिए नये आधार खड़े करने है ।' राष्ट्रीय गौरव की वृद्धि' यह एक ही धर्म तब से अब तक रहा; पर उसके निर्वाह के क्रमों में जमीन-आसमान का अंतर आ गया । इसी से एक समय का राष्ट्र सेवी दूसरे समय के राष्ट्र सेवी का मखौल नहीं उड़ाता।

अर्थ नीति के अंतर 

विभिन्न देशों ने अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने के विभिन्न क्रम अपना रखे हैं। जापान मशीनी औद्योगीकरण के माध्यम से, अरब देश पेट्रोलियम उद्योग के माध्यम से, डेनमार्क डेयरी उद्योग से
अपने देश की उन्नति में लगे हुए हैं । स्वीडन घड़ी उद्योग में सर्वोपरि रहा है आदि ।

एक देश का अर्थशास्त्री दूसरे देश के अर्थशास्त्री को मूर्ख इस आधार पर नहीं मानता कि उसने हमारे ढंग से क्यों नहीं सोचा । वही अर्थशास्त्री दूसरे देश में होता, तो वह भी परिस्थितियों के आधार पर उसी ढंग से सोचता, वही सूत्र अपनाता ।

यह सभी अंतर परिस्थितियों के, क्षेत्र के करण है । अपनी-अपनी जगह सभी ठीक हैं । धर्म परंपराओं में भी इसी आधार पर संशोधन करने की उदार एवं विवेकनिष्ठ दृष्टि बनानी चाहिए । इसी में मानव का कल्याण निहित है ।''
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