ततोऽपि मूले धर्मस्य भेदों नैवोपजायते ।
मेधाक्रान्तो ग्रहाक्रान्तो भवत्येव दिवाकर: ।। ५७ ।।
तथापि सत्ता नैवास्य तस्मात्स्वल्पं विकम्पते।
गङ्गायां प्रपतन्त्यत्र मलिनानि जलान्यपि ।। ५८ ।।
जलचरादिकजीवानां विष्ठादेरपि जाह्नवी ।
पवित्रता निजां नैव जहात्येषाऽन्यपावनी ।। ५१ ।।
आरोहन्ति च कीटास्ते प्रतिमा परमात्मन:।
न्यूनतां गौरवं नैव प्रयात्यस्यास्ततोऽपि च ।। ६० ।।
धर्मच्छायाश्रिता नूनमनाचारा: सदैव च ।
संशोध्या: परमेतेन महत्तायामथापि च ।। ६१ ।।
उपयोगेऽपि धर्मस्य सन्देह: क्रियतां नहि ।
महामानवतां यान्ति धर्मात्मानो नरास्त्विह ।। ६२ ।।
टीका-तो भी इससे धर्म के मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता । सूर्य पर बादल छाते और ग्रहण पड़ते रहते हैं, तो भी उसकी सत्ता स्वल्पमात्र भी विकम्पित नहीं होता । गंगा के प्रवाह में अनेक गन्दे स्रोतों से जल आकर उसमें मिलता रहता है तथा जलचर आदि जीवधारी भी उसमें गंदगी करते रहते हैं , तो भी उसकी पवित्रता में कोई अंतर नहीं आता, क्योंकि उसमें स्वत: अन्यों को पवित्र करने की शक्ति है। देव-प्रीतमा पर कृमि-कीटक भी चढ़ जाते हैं, पर इससे उनकी गरिमा कम नहीं होती । धर्म की आड़ में चलने वाले अनाचार को सुधारा-बदला जाना चाहिए, पर उसकी महत्ता एवं उपयोगिता के संबंध में कोई संदेह नहीं करना चाहिए । धर्म परायण ही महामानव बनते हैं ।। ५७ - ६२ ।।
काला चाँद एवं उसका विद्रोह
धर्म की आड़ में न जाने कितनों का दमन कर दिया जाता रहा है । मध्यकाल की इस विडंबना ने हिन्दू धर्म को काफी क्षति पहुँचायी है । एक घटना तेरहवीं शताब्दी की है । काला चाँद नमक एक ब्राह्मण ने मुस्लिम राजकुमारी से विवाह कर लिया । पति को मुसलमान नहीं बनाया, वरन् वह स्वयं हिन्दू पद्धति का जीवन बिताने लगी । इस पर पंडितों ने उसका बहिष्कार कर
दिया, मंदिरों में प्रवेश करने पर रोक लगा दी । और भी कई अवसरों पर उसे बुरी तरह तिरस्कृत किया ।
काला चाँद का स्वाभिमान फुफकार उठा। वह कट्टर हिन्दू द्रोही हो गया । बादशाह के प्रतिनिधि की हैसियत से उसने कितनी रियासतें मटियामेट कर दीं । उन क्षेत्रों के मंदिरों को विस्मार कर दिया और कल्लेआम का पहला शिकार पंडितों को बनाया । काशी और जगन्नाथ के पंडितों ने बहिष्कार में अपना अग्रणीपन दिखाया था। उसकी दृष्टि में इस जाति का भी मिला, उसे रुला-रुला कर मौत के घर पहुँचाया ।
अब तक जाने कितने काला चाँद धर्म के ठेकेदारों की संकीर्णता ने विनिर्मित किए होंगे ।
सिद्धियों तथाकथित जाल-जंजाल ने धर्म के स्वरूप को और विकृत किया है । सामान्यजन इसमें शीघ्र ही उलझकर लक्ष्य को जाते हैं, जो कुछ भी हो सकता था, उससे भी वंचित रह जाते हैं ।
जल पर चलने की सिद्धि
गंगा किनारे एक साधु तप करते थे । उन्हें पानी पर चलने की सिद्धि मिल गयी थी । घाट पर रहने वाला मल्लाह उनका भक्त हो गया । एक बार नदी में भयंकर बाढ़ आयी । मल्लाह ने अपनी झोपड़ी सहित अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया; पर बाबाजी की कुटिया बहने लगी और साथ ही वे भी गोते खाने लगे । मल्लाह ने कूद कर उन्हें किसी प्रकार किनारे तक पहुँचाया ।
चित्त शांत होने पर मल्लाह ने साधु से पूछा-''आपको तो जल पर चलने की सिद्धि थी, फिर यह दुर्दशा कैसे
हुई ।'' साधु ने गंभीर स्वर से कहा-'' सिद्धियाँ प्रदर्शन मात्र थीं । इतने प्रचंड प्रवाह को पार करने के लिए तो तैरने की सिद्धि चाहिए । तुम मुझसे बड़े सिद्ध हो।''
सिद्धियों की प्रवंचना नहीं, धर्म-धारणा से ही मनुष्य का कल्याण संभव है ।
रामतीर्थ और सिद्ध संन्यासी महामानव बनने के इच्छुकों को अनिवार्यत: यही रीति-नीति अपनानी पड़ती है । प्रारंभ में स्वामी रामतीर्थ भी सिद्धियों के भ्रम में थे।
एक बार उनने एक सिद्ध पुरुष की बड़ी प्रशंसा सुनी । वे उससे मिलने एक दुर्गम स्थान में पहुँचे ।
आग्रह करके उनसे साधना-सिद्धि की बात पूछी । उनने दो करामातें दिखायीं- एक नदी के जल पर चलने की, दूसरी आसमान में दूर तक उड़ने की ।
कौतूहल तो बहुत हुआ; पर रामतीर्थ का समाधान न हुआ । उनने कहा-''भगवन्! यह काम तो मक्खी और बत्तख भी कर सकती है । इतने भर कर लेने से क्या प्रयोजन सधा । जनहित के लिए इतना श्रम किया होता, तो उससे अपना और दूसरों का कितना कल्याण होता । ''
सिद्ध पुरुष निरुतर थे । रामतीर्थ वापस लौट आये ।
तोता रटंत
कुछ लोग वेश तो संतों का बना लेते हैं तथा शास्त्रज्ञान की शेखी भी बघारते हैं; पर देखने वाली बात यह है कि यथार्थ जीवन में वे संत बने है क्या ?
पालतू तोते को किसी ने पिंजड़े समेत एक संत के आश्रम में पहुँचा दिया ।
संत ने उसे मोक्ष का मार्ग बताया और नया वाक्य याद कराया-''पिंजड़ा छोड़ो, ऊँचे उड़ो ।'' तोते ने ये शब्द रट लिए ।
एक दिन पिंजड़ा खुला रह गया । तोता खिड़की से बाहर सिर चमकाता और रटे हुए शब्दों को-बोलता- ''पिंजड़ा छोड़ो, ऊँचे उड़ो ।''
आश्रमवासी इस कौतूहल को देख रहे थे । द्वार खुला है, उड़ने में कोई रोक नहीं, मंत्र भी याद 'हैं, फिर यह उड़ता क्यों नहीं? अपितु भीड़ को देखकर पिंजड़े के कोने में क्यों जा छिपता है ?
हँसते आश्रमवासियों के कौतूहल का समाधान करते हुए संत ने कहा-''हम में भी तो अनेक ऐसी ही तोता रटंत करने वाले हैं । भक्ति का द्वार खुला होने पर भी बंधन से निकलने का प्रयास नहीं करते, उल्टे धार्मिकता का भ्रम और फैलाते रहते हैं ।''
संत इब्राहीम की घबड़ाहट
सूफी संत इब्राहीम खवास एक बार अपने शिष्य के साथ कहीं जा रहे थे । रास्ते में घना जंगल पड़ता था । वहाँ जंगली, हिंस्र पशुओं का साम्राज्य था । संत एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ होकर बैठ गए । शिष्य ने देखा सामने शेर आ रहा है । वह घबराकर भागा और पेड़ पर जड़ गया । शेर आया, उसने संत के चारों ओर चक्कर लगाया, उनका शरीर सूँघा और चला गया । कुछ देर बाद ध्यान पूरा कर संत चले । शिष्य भी उनके साथ हो गया। सहसा एक मच्छर ने संत को काट लिया । संत के मुँह से आह निकली । शिष्य विस्मित रह गया । उसने गुरु से पूछा-'' गुरुजी ! शेर आया तब तो आप बिल्कुल नहीं घबराये और अब एक मच्छर के काटने से आह भर रहे हैं । यह क्या?'' संत बोले-''तुझे पता नहीं, उस समय मेरे साथ परमात्मा थे इसलिए मैं अभय था । किन्तु अब मेरा साथी तू है, इसलिए मैं घबरा रहा हूँ ।''
जब जब भी धर्म के नाम पर अनाचार एवं अनीति सीमा पार कर जाती है, मनीषी जनसाधारण में से ही उपजते एवं संघर्ष करते हुए सत्प्रवृत्तियों की स्थापना करते हैं। मरने के बाद भी उनकी कीर्ति मिटती नहीं ।
वाल्टेयर महान
उन दिनों समूचे क्षेत्र में अनैतिकता और दुष्प्रवृत्तियों की भरमार थी । जिधर नजर उठा कर देखा जाय, उधर ही अनाचारों का बोलवाला दीखता था । बालक वाल्टेयर जब काम चलाऊ पढ़ाई पढ़ चुके, तो उनके पिता वकालत पढ़ाना चाहते थे; पर उनने निश्चय किया किं उस झूँठ बोलने के धंधे में न पड़कर संव्याप्त अनाचारों से लोहा लेंगे और बंदूक से असंख्य गुनी शक्तिशाली लेखनी के योद्धा बनेंगे । उनने अपना निश्चय
कार्यान्वित किया । परिवार का कहना न माना ।
वाल्टेयर ने १०० अति महत्वपूर्ण लेख और ३०० के करीब शोध-निबंध विभिन्न विषयों पर लिखे । जनता में विद्रोह की भावना उमड़ पड़ी और उनके साहित्य का भरपूर स्वागत हुआ । किन्तु शासन को, निहित स्वार्थों को वे सहन न हुए । जेल, देश निकाला, आक्रमण, बर्बादी आदि से उन्हें हताश करने का प्रयत्न किया गया । पर वे झुके नहीं उन्हें नास्तिक घोषित किया गया। जब वे मरे तो कोई पादरी संस्कार कराने न आया । एक वीरान जगह में उन्हें गाड़ दिया गया । शासन ने जिस साहित्य को ढूँढ़-ढूँढ़ कर जला दिया था, वह गुपचुप छपता रहा और लोगों द्वारा मनोयोग पूर्वक पड़ा जाता रहा और छिपी चिनगारी ने दावानल बनकर फ्रांस में क्रांति कर दी ।
कब्र खोद कर उनकी अस्थियों का जुलूस निकाला गया, जिनमें ३ लाख जनता उपस्थित थी । अस्थियों पर शानदार स्मारक बनाया गया ।
दार्शनिक नीत्से ने उन्हें 'हँसता हुआ सिंह' कहा । वेले ने कहा-वे युग के सड़े शरीर की चिकित्सा करने आये थे ।' विक्टर ह्यूगो ने कहा-'वे अनाचार के विरुद्ध आजीवन लड़ने वाले योद्धा थे । उनकी आत्म निर्भरता लक्ष्य के प्रति समर्पण भावना और कर्मठता अद्भुत थी ।'
यशोधर्मा दूसरा चंद्रगुप्त
अहिंसा, क्षमा, दया के अतिवाद ने भारत को दीन, दयनीय और कायर बनाकर रख दिया था । अत्याचार सहने के वे आदी भी हो गए थे । परिस्थितियों से लाभ उठाकर मध्य एशिया की बर्बर जातियों को आक्रमण करने और नृशंसता बरतने का अवसर मिला और देखते-देखते
भारत का बहुत बड़ा भाग दीख तथा पराधीन हो गया ।
चाणक्य ने इस अतिवादी दर्शन का डटकर विरोध किया और चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त जैसे अनीति से लड़ने वाले
योद्धा तैयार किये । उनके उपरांत बर्बरों ने फिर सिर उठाया तो मालव के एक छोटे राज्य अधिकारी-यशोधर्मा ने वह कमान सँभाली । जनता में साहस भरा । भक्ति से मुक्ति की प्रांत धारणाओं पर करारा प्रहार किया । उन्हें योद्धा और धर्मोपदेशक का दुहरा उत्तरदायित्व सँभालना पड़ा ।
तथ्यों को जिसने भी समझा उसने यशोधर्मा का पूरा साथ दिया और लगभग वही स्थिति पैदा हो गई जो चंद्रगुप्त के समय में थी । उसने बर्बरों के हौंसले पस्त कर दिए । कितने ही छोटे-बड़े युद्ध उनने लड़े और जीते । सबसे बज कार्य उसने धर्मतंत्र के परिशोधन का किया जो समय की आवश्यकता को देखते हुए अभीष्ट भी था ।
ग्राह्मा धर्मधृतिर्नूनं महामानवतां गतै: ।
पराभवन्ति चाधर्मी विपुलं वैभवं तथा ।। ६३ ।।
पराक्रमश्च नात्यर्थ तिष्ठतोऽस्य रिरक्षया ।
उच्छलन्नपि नश्येत्स जलबुद्बुदतां गत: ।। ६४ ।।
इन्धनानीव लोकेऽस्मिज्वलन्त्यपि च तत्क्षणात् ।
भस्मतां यान्ति स्वल्पेन कालेनैते सदैव च ।। ६५ ।।
टीका-महामानवों को अनिवार्यत: धर्मधारणा अपनानी होती है । अधर्मी का पराभव होता है । उसका विपुल वैभव और पराक्रम भी उसकी रक्षा में देर तक नहीं टिकता । पानी में उठने वाले बबूले की तरह क्षण भर की उछल-कूद के उपरांत उसका अंत होते देखा जाता है । अधर्मी क्षण भर ईंधन की तरह जलते- उबलते दीखते हैं, पर उनके राख बनकर समाप्त होने में भी विलंब नहीं लगता ।। ६३ - ६५ ।।
अर्थ-अधर्म का स्वरूप विराट् प्रलयंकारी दीखता भर है । दीपक की लौ बुझने के पूर्व तेजी से लपक उठती है पर अंततः बुझकर धुँआ ही परिणति बनकर रह जाता है । अनीति के पक्षधरों आक्रांताओं के पास चाहे कितना ही वैभव क्यों न हो बल की दृष्टि से वे सम्पन्न भले हों, हार उनकी होकर ही रहती है । यह एक आकट्य- शाश्वत सिद्धांत है एवं इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए । विभिन्न अवतारों के प्राकट्य के समय अनीति हमेशा चरम सीमा पर रही है परंतु छोटे-छोटे साधनों एवं पुरुषार्थ की दृष्टि से नगण्य से व्यक्तियों को अपना सहायक बनाकर उन्होंने अधर्म की त्रासदी को मिटाया एवं धर्म की स्थापना की है । इससे एक तथ्य स्पष्ट होता है कि अधर्म-अनीति से जूझने के लिए संघ शक्ति के जुटने भर की आवश्यकता है । वह नष्ट तो होगी ही उसे झुकना पड़ेगा ही पर तब ही जब जन-जन का मन्यु जागे, उनमें चेतना उमगे ।
पराक्रमी चाणक्य
गुप्तकाल में मगध में जन्मे चाणक्य बड़े मातृ भक्त और विद्या परायण थे । एक दिन उनकी माता रो रही थी । माता से कारण पूछा तो उसने कहा तेरे अगले दांत राजा होने के लक्षण हैं । तू बड़ा होने पर राजा बनेगा तो तू मुझे भूल जायेगा । चाणक्य हँसते हुए बाहर गए और दोनों दांत तोड़कर ले आये और बोले-''अब ये लक्षण मिट गये । अब मैं तेरी सेवा में ही रहूँगा । तू आज्ञा देगी तो आगे चलकर राष्ट्र देवता की साधना करूँगा ।''
बड़े होने पर चाणक्य पैदल चलकर तक्षशिला गए और वहाँ २४ वर्ष पढ़े । अध्यापकों की सेवा करने में वे इतना रस लेते थे कि उनके प्राण प्रिय बन गए । सभी ने उन्हें मन से पढ़ाया और अनेक विषयों में पारंगत बना दिया ।
लौटकर मगध आये तो उन्होंने एक पाठशाला चलाई और अनेक विद्यार्थी अपने सहयोगी बनाये । उन दिनों
मगध का राजा नंद दमन और अत्याचारों पर तुला था और यूनानी भी देश पर बार- बार आक्रमण करते थे । चाणक्य ने एक प्रतिभावान युवक चंद्रगुप्त को आगे किया और उसे साथ लेकर दक्षिण तथा पंजाब का दौरा किया । सहायता के लिए सेना इकट्ठी की और सभी आक्रमणकारियों को सदा के लिए विमुख कर दिया । वापिस लौटे तो नंद से भी गद्दी छीन ली । चाणक्य ने चंद्रगुप्त का चक्रवर्ती राजा की तरह अभिषेक किया और स्वयं धर्म प्रचार तथा विद्या विस्तार में
लग गए । आजीवन वे अधर्म-अनीति से मोर्चा लेते रहे ।
सुभाष का स्वाभिमान
बमुश्किल दाखिला मिला था कलकत्ते के प्रेसीडेंसी कॉलेज में, एक भारतीय छात्र को । उस पर भी अग्रेंजी के प्रोफेसर का व्यवहार यह था कि वह बात-बात में भारतीयों को अपमान भरे शब्द कहा करता था । अभी तक कोई विरोध करने वाला था नहीं । जब भारतीय छात्र आ गया तो भी प्रोफेसर ने पुराना रवैया बदला नहीं ।
एक दिन जैसे ही उन्होंने भारतीयों के प्रति अपमान जनक शब्द कहे, युवक ने यह जानते हुए भी कि वह कॉलेज से निष्कासित किया जा सकता है, प्रोफेसर साहब के गाल, पर तमाचा जड़ दिया । कॉलेज से निकाल दिया गया पर उस भारतीय ने कभी अन्याय के आगे सिर नहीं झुकाया । वह युवक श्री सुभाषचंद्र बोस थे । उसके बाद प्रेसीडेंसी कॉलेज में स्वतः ही भारतीयों की निंदा बंद हो गयी । अनीति को पनपने न दिया जाय तो वह नष्ट होती ही है ।
महिषासुर मर्दन
महिषासुर के आक्रमण से सभी देवता पराजित हो गए । प्रजापति ने उनका दुःख दूर करने के लिए सम्मिलित शक्ति एकत्रित की और उससे दुर्गा का उद्भव हुआ । उनके तीखे प्रहार से दनुजों का संहार हुआ ।
महिषासुर अर्थात् आलस्य और प्रमाद । इनका आक्रमण सर्वत्र पराजय का कारण होता है । समूहबद्ध होकर ही, सम्मिलित प्रयत्नों से इसे दूर किया जा सकता है ।
दीपक-सूरज संवाद
मनुष्य कितना ही छोटा क्यों न हो उसे अपने पुरुषार्थ व दैवी विधान पर विश्वास रखना चाहिए । टिमटिमाते दीपक को देखकर सूरज बोला-''नन्हें बच्चे अंधकार की शक्ति तूने देखी नहीं अजगर है वह, निगल जायेगा तुझे, चुपचाप बैठ, जीवन नष्ट मत कर ।''
दीपक बोला-''तात् ! निरंतर चलते रहने का व्रत आपने नहीं तोड़ा तो मैं ही उससे विमुख क्यों होऊँ ।''
व्यवस्था जगतश्चैषा कर्मण: फलमाश्रिता ।
चलत्यत्र तरोर्जन्मप्रौढता मध्यगो महान् ।। ६६ ।।
काली विलम्बरूपोऽयं व्यत्येत्येवं सुकर्मणाम् ।
परिणामस्य प्राप्तौ स विलम्ब: सम्भवत्यलम् ।। ६७ ।।
कारका इव वर्षन्ति दुर्जना: पीडयन्ति च ।
मर्यादा सकलां धान्यसम्पदामिव सर्वदा ।। ६८ ।।
ते स्वयं नष्टतां यान्ति द्रवीभूता: परं क्षुपा:।
प्ररोहन्ति पुनस्ते तु कथञ्चित्समये गते ।। ६९ ।।
विलम्बं वीक्ष्म गच्छेतन्न भ्रमं कर्मफले नर: ।
हताशेन न भाव्यं च शुभमार्गानुयायिना ।। ७० ।।
टीका-कर्मफल की सुनिश्चितता के आधार पर ही यह विश्व व्यवस्था चल रही है । वृक्ष को उगने से लेकर प्रौढ़ होने में देर लगती है । सत्कर्मों के सत्परिणाम मिलने में देर हो सकती है । इसी प्रकार दुर्जनों को ओलों की तरह बरसते और मर्यादाओं की फसल नष्ट करते देखा जाता है, पर ओले गलकर स्वयं नष्ट ही जाते हैं परंतु उनके कारण टूटे हुए पौधे कुछ समय बाद फिर नये सिरे से पल्लवित होते देखे गए हैं ।
कर्मफल में विलंब लगते देखकर सन्मार्ग में प्रवृत्त किसी को भी न भ्रम में पड़ना चाहिए और न हताश होना चाहिए ।। ६६ -७०।।
अर्थ-बीज को गलकर वृक्ष का रूप लेने को प्रक्रिया समय साध्य है । जो अधीरता बरतते हैं, कर्मों का प्रतिफल तुरंत चाहते हैं, उन्हें निराश ही होना पड़ता है । इससे यह नहीं सोचना चाहिए कि दुष्कर्मों
की प्रतिक्रिया नहीं होती । जो दूरदर्शी होते हैं, वे कर्म फल व्यवस्था में सधे आस्तिकवादी की तरह विश्वास रखते हैं ।
कर्मफल से भगवान भी नहीं छूटे
कर्मफल से कोई बच नहीं सकता । रामावतार में बालि को छिपकर मारा गया था । बहेलिये के तीर से जब श्रीकृष्ण भगवान घायल होकर मरने लगे तो क्षमा माँगने वाले निषाद को सान्त्वना देते हुए उनने कहा-''इसमें तेरा दोष नहीं यह कर्मफल व्यवस्था है, जिससे भगवान भी नहीं बच सकते । ''
दशरथ ने श्रवणकुमार को तीर से मारा था। बदले में ऋषि श्राप से उन्हें भी पुत्र शोक में विलख-विलख कर मरना पड़ा ।
कुकर्म का प्रशंसक भी अपराधी
एक तक ने खिड़की में से सड़क पर जाते एक सुंदर युवक को देखा । दोनों एक दूसरे के सम्पर्क के लिए आतुर हो गए । रानी के यहाँ एक मालिन रोज माला देने आती थी । उसके साथ षड्यंत्र बनाकर एक तरीका निकाला गया । वह युवक मालिन की पुत्रवधू बनाकर आता और तनी अपराधी से सम्पर्क मिलाता ।
राजा को पता चल गया । उसने रानी, युवक और मालिन को सड़क पर बिठा दिया और देखा कि उनके बारे
में कौन क्या कहता है । अधिकांश लोग तो उनकी निंदा करते निकलते पर एक आदमी ने तीनों की बुद्धि को सराहा और कहा-''उसने इच्छित लाभ तो कमा लिया, अब जो होगा सो होता रहेगा ।''
राजा के आदेशानुसार गुप्तचरों ने उस प्रशंसक को भी पकड़ लिया और चारों को मौत के घाट उतारा गया ।
दुष्कर्म की प्रशंसा करने एवं प्रोत्साहन देने वाला भी उतना ही अपराधी होता है ।
सृष्टा का कर्म व्यापार
एक सुंदर युवती पड़ोसी युवक के प्रेमपाश में बँध गई । दोनों ने लोक भय से कहीं अन्यत्र जा बसने का निश्चय किया और रात्रि में घर छोड़ दिया । युवक अपरिचित जगह में निर्वाह साधन कठिनाई से ही जुटा पाता, फिर भी दाम्पत्य जीवन चला और तीन वर्ष में ही दो बच्चों का बाप बन गया ।
दोनों ने सोचा घर वापस लौट चलें । परिवार का क्रोध शांत हो गया होगा । वहीं गुजारा करेंगे । लंबा रास्ता पार करना था। दो बच्चों को गोद में लेकर दोनों बीहड़ के रास्ते घर लौट रहे थे । रास्ते में एक विषधर ने युवक को काट लिया और वह वहीं ढेर हो गया ।
युवती पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा । पर करती क्या ? उसने लाश को नदी में बहाया और किनारे पर पड़े लट्ठे के सहारे पार उतरने का प्रयास करने लगी । एक हाथ में लट्ठा रहने के कारण एक ही बच्चे को साथ ले जा सकती थी । सो उसने छोटे को पत्तों के ढेर में छिपा दिया और बड़े को कंधे पर बिठाकर लट्ठे के सहारे पार उतरी । दूसरे फेर में दूसरे को ले जाने की उसकी योजना थी ।
पार होने पर बड़े बच्चे को खेलने के लिए बिठाया और वापस लौटकर छोटे को लेने चली । पर दुर्भाग्य का क्या कहना । देखा तो छोटे को श्रृंगाल खा चुका था । शिर धुनती लौटी तो देखा कि माँ से मिलने की आतुरता में बड़ा नदी तट पर जा पहुँचा और प्रवाह में बह गया । अब उसका पूरा परिवार, पूरा संसार लुट चुका था । रोती- कलपती एकाकी पितृ-गृह की ओर चलती रही ।
घर पहुँचने पर नजारे दूसरे ही दीखे । माता-पिता मर चुके थे । सास-असुर बीमार पड़े थे । एक भाई था, सो
भी ठीक उसी दिन मरा जिस दिन घर पहुँची थी ।
इतनी विपत्तियाँ इतनी जल्दी एक साथ उस अल्हड़ लड़की पर टूटी तो वह संतुलन गँवा बैठी और पागल हो
गई ।
उस पगली की उद्धत गतिविधियों से क्रुद्ध होकर पड़ोसियों ने उसे भगवान बुद्ध के आश्रम में पहुँचा दिया । उस वातावरण में देर तक रहने के बाद शोक घटा और उसकी समझ फिर से लौटने लगी ।
अवसर देखकर भगवान ने उसे बुलाया, पास बिठाया और स्नेहपूर्वक उसे नया नाम दिया पट्टाचारा ।
गंभीर मुद्रा में बोलें-''भद्रे ! यह संसार जलती आग की तरह है । हम सब इसमें ईंधन की तरह जलते रहते हैं । जन्मने वाले के लिए मरण एक ध्रुव सत्य है । रोने से भी वह नहीं रुकता है । कर्म चक्र में बँधे हम सभी मर्माहत की तरह रह रहे हैं।
तथागत के अमृत वचन पट्टाचारा के अंतराल को छू गए । उसने शोक के परिधान उतार फेंके और महासत्य
की शरण में जाने वाली चीवरधारी तपस्विनियों की पंक्ति में जा बैठी ।
दुष्टता पर सज्जनता का प्रहार
एक मनुष्य को किसी संत के दुर्व्यवहार पर क्रोध आ गया । बदले में संत को भी क्रोध आ गया और वे भी उससे उसी प्रकार का व्यवहार करने पर उतारू हो गए ।
एक सिद्ध पुरुष यह सब देख रहे थे । बोले-कीचड़ को कीचड़ से नहीं स्वच्छ जल से प्रहार जल । आग पर पानी डालो। दुष्टता पर सज्जनता का प्रहार करो । बदले की अपेक्षा यह उपचार अधिक कारगर है।
पाप का प्रायश्चित पाप से नहीं
राजगृह के अधिपित राजा अजातशत्रु ने अपने पिता कार वध कर दिया । प्रायश्चित के लिए वह के परामर्शानुसार पंडितों के परामर्शानुसार पाप पशुबलि वाला यज्ञ कर रहा था ।
बुद्ध ने सुना तो वे सीधे अजातशत्रु के आँगन में जा पहुँचे । राजा के हाथ में एक तिनका देते हुए कहा-''इसे तोड़ो ।'' उसने तोड़ दिया । फिर कहा-''इसे जोड़ो।" वह संभव न था ।
बुद्ध ने समझाया-''पाप का प्रायश्चित पाप से नहीं हो सकता । उनके लिए दूसरा परमार्थ कार्य करो ।''
अजातशत्रु तथ्य को समझ गया । उसने यज्ञ बंद कर दिया ।
धर्मधारणया मर्त्या जायन्त उन्नतास्तथा ।
महामानवतां तस्मादधिगच्छन्ति चान्तत: ।। ७१ ।।
केवलं धर्मचर्चां ते श्रुत्वाऽधीत्यऽपि वा पुन:।
सन्तुष्टा नैव जायन्ते कृतां वा धार्मिकीं क्रियाम् ।। ७२ ।।
पर्याप्त न विजानन्ति परं तत्रानुशासनम् ।
विद्यते यद् विगृह्रन्ति तदैवैते स्वतस्तथा ।। ७३ ।।
नैवालस्यं प्रमाद या भजन्ते ते मनागपि ।
निर्धारणानि कर्तुं च व्यवहारान्वितानि तु ।। ७४ ।।
ईदृशा एव मर्त्यास्तु महामानवतामिह ।
अञ्जसाऽऽसाद्य सार्थक्यं नयन्त्यत्र स्वजीवनम् ।। ७५ ।।
टीका-धर्म-धारणा अपनाकर मनुष्य ऊँचे उठते, आगे बढ़ते और महामानव कहलाते हैं । वे मात्र धर्म-चर्चा सुनने- पढ़ने से संतुष्ट नहीं होते और न धर्मानुष्ठानों के क्रिया-कृत्य को ही पर्याप्त मानते हैं, वरन् उसके जुड़े हुए अनुशासन को अपनाते और निर्धारणों को क्रियान्वित करने में आलस्य-प्रमाद नहीं बरतते । ऐसे
लोग सहज ही महामानव बनने की जीवन- सार्थकता उपलब्ध करते हैं ।। ७१ -७५ ।।
कर्मयोगी जनक
राजा जनक के कोष में धन की कमी न थी; पर वे अपने निर्वाह के लिए अपने हाथों खेती करते थे । हल जोतते हि उन्हें सीताजी मिली थीं । राज्यकोष को उन्होंने प्रजा की अमानत भर माना और उसी के लिए उसका उपयोग किया । ब्रह्मज्ञानी कल्पना लोक में नहीं बिचरते, चरित्र भी उसी स्तर के अनुरूप बनाते हैं ।
साधुता सेवा में
बिठूर घाट पर एक उपकारी साधु रहते थे। टाट का कपड़ा पहनते, नंगे पैर चलते । साधु के आश्रम में भोग-प्रसाद मे बढ़िया चीजें आतीं । कितने ही लोग उसी लालच में वैसे ही वस्त्र पहन कर चेला बन
गये । सोचने लगे, कुछ दिन में उनकी भी ऐसी ही पूजा होने लगेगी । दर्शनार्थियों का दिया हुआ प्रसाद दिन भर बँटता रहता, उसी से शिष्यों का पेट भर जाता । साधु उनके मन की बात जानते थे, सो भ्रम मिटाने की बात सोची ।
एक दिन प्रात: गंगा के दूसरी पार अपरिचित जगह पहुँचे । तीसरे पहर तक पूजा-पाठ करते रहे । किसी ने भोजन की बात तक न पुछी ।
संध्याकाल परिचित गाँव के रास्ते लौटे, तो सब लोग उन्हें अपना-अपना घर पवित्र कराने ले गए । भेंट में प्रसाद मिला, सो उन्होंने उसी गाँव वालों को बाँट दिया ।
कुटिया पर लौटने के उपरांत भूखे शिष्यों ने भोजन पकाया और पेट भरा । शिष्यों का असमंजस देखकर गुरु ने कहा-''वेश बनाने से काम नहीं चलता। साधु सेवा कार्यों में भी लगे रहते है, सो भी सीखो । कर्मयोग का सिद्धांत तुम पर भी समान रूप से लागू होता है । ''