श्रेष्ठतानां संमाअस्था मर्यादा अनुशासनमू ।
उच्यते पालनीयें तत्सवरेख च मानवै ।। २२ ।।
अनुशासनजा नूनं ख्यूवस्था स्थिरता तत: ।
प्रगति: स्थिरताहेतो समागच्छति च क्रमात् ।। २३ ।।
टीका- श्रेष्ठता की समाजगत मर्यादाओं को अनुशासन कहते हैं । वह सभी के लिए पालने योग्य है । उसके प्रति किसी को उपेक्षा या अवज्ञा नहीं बरतनी चाहिए । अनुशासन से व्यवस्था चलती है । व्यवस्था से स्थिरता रहती और प्रगति होती है ।। २२-२३ ।।
अर्थ-समाज की सुव्यवस्था का मूलभूत आधार है निर्धारित अनुशासनों का परिपूर्ण निष्ठा के साथ निर्वाह । न्याय एवं प्रशासनिक विभाग शासन तंत्र की ओर से इस कार्य को निभाते हैं । वे नागरिकों को इस बात का आश्वासन देते हैं कि समूहगत व्यवस्था में कहीं ढील न आने दी जाएगी । जहाँ भी कहीं वर्जनाओं का उल्लंधन होगा, वहाँ समुचित दंड का भी प्रावधान होगा ।
जहाँ तक समाज का नागरिक स्तर पर प्रश्न उठता है, वह जन-जन के मन में संव्याप्त अनुशासन पर निर्भर है, । सामाजिक बंधनों से कोई भी मुक्त नहीं है । वे सबके ऊपर समान रूप से लागू होते हैं ।
किसी भी समूह, समाज या तंत्र की व्यवस्था का मूल है-हर एक के मन में अनुशासन की, जिम्मेदारी की
भावना का विकसित होना । राष्ट्रीय चरित्र का यही मापदंड है कि वहाँ के नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति कितने सचेत हैं । किसी ने उनके लिए क्या किया, इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वे समाज एवं राष्ट्रगत वर्जनाओं का पालन करते हैं अथवा जहीं ?
किराया चुकाय
स्वर्गीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के साथ बंबई से नागपुर तक तीसरे दर्जे में रेल द्वारा यात्रा पर जा रहे थे। उन दिनों वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष थे । उसी ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में गुरु मा० स० गोलवलकर भी जा रहे थे । उन्होंने किसी महत्वपूर्ण विषय पर विचार-विमर्श करने हेतु उपाध्याय जी को अपने पास बुलाया ।
दो स्टेशन तक उनका प्रथम श्रेणी के डिब्बे में ही वार्तालाप होता रहा । अपने डिब्बे में आने पर वे टी० टी० ई० को खोजने का प्रयास करने लगे । हर स्टेशन पर नीचे उतरते और टी० टी० ई० को खोजते ।
तीसरे दर्जे का टिकट रखते हुए दो स्टेशन तक प्रथम श्रेणी में यात्रा करना किसी व्यक्ति को कोई असामान्य बात नहीं लगती किन्तु जो निरंतर आत्म-निरीक्षण करता चलता है, उसके लिए यह सामान्य नहीं, असामान्य बात हो जाती है । एक तो राष्ट्रीय संपदा का उपयोग बिना मूल्य चुकाए करना तथा दूसरा अपने अंतःकरण को झुठलाना ।
श्री उपाध्याय को टी० टी० ई० की खोज करते देख उनके साथी यह जानने को उत्सुक थे कि आखिर उनको टी० टी० ई० से ऐसा कौन सा आवश्यक कार्य है । हर स्टेशन पर उतर कर दौड़- धूप करते है ।
किन्तु पंडित जी की दौड़- धूप का प्रयास सफल हुआ । उन्हें शीघ्र ही सामने से टी० टी० ई० आता दिखाई दिया । जब उन्होंने अपना अधिक किराया जमा करने को कहा तो वह विस्मय भरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा । एक साधारण-सा दीखने वाला व्यक्ति प्रथम श्रेणी में यात्रा करे और वह भी स्वयं आकर अपना किराया जमा कराए । किन्तु दूसरे ही क्षण वह कुछ नहीं बोला और चुपचाप हिसाब लगाकर पैसे ले लिए ।
पैसे लेने के साथ ही पूछ बैठा-''क्या आप रसीद भी चाहते हँ ?'' पंडित जी ने तत्काल ही उत्तर दिया- ''अवश्यमेव ।''
टी० टी० ई० उस राशि को रिश्वत रूप में अपने ही पास रखना चाहता था उपाध्याय जी ने कहा-''मेरे टिकट के पैंसे न देने और टी० टी० ई० के जेब में रख लेने के दोनों अपराध समान । दोनों से ही देश खोखला होता है ।
नागरिक कर्तव्यों के प्रति चेतना जगाई
इंग्लैंड के प्रख्यात पत्र ग्लासेस्टर टाइम्स के संपादक और प्रकाशक एवर्ट रेक्स एक दिन किसी काम से सूटी आले मुहल्ले से होकर गुजर रहे थे । उसे गंदी बस्ती कहा जाता था । माँ-बाप जहाँ-तहाँ मजदूरी करने चले जाते और बच्चे आवारा फिरते। उन्हें शिष्टाचार का तनिक भी ज्ञान न था ।
रेक्स जब उधर से निकले तो आवारा लड़कों ने उन पर कीचड़ फेंकना शुरू किया और सारे कपड़े गंदगी से सराबोर कर दिए । लड़कों पर समझाने का कोई असर नहीं हुआ । माँ-बाप वहाँ थे नहीं?
रेक्स पर इस घटना का बड़ा प्रभाव पड़ा । उनने लंदन के समीपवर्ती इलाकों का सर्वे किया । साथ ही यह भी पाया कि संपन्न लोगों में भी शिष्टाचार एवं नागरिक कर्तव्यों के प्रति रुचि बहुत कम है । इस सब ने उन्हें कुछ करने के लिए प्रेरित किया ।
रेक्स ने अपनी पत्रिका द्वारा शिष्टाचार का प्रसार किया । पुस्तिकाएँ भी लिखीं और मुहल्ले-मुहल्ले रविवासरीय कक्षाएँ लगाने का भी प्रयत्न किया । आरंभ में तो इसे निरर्थक ठहराया जाता रहा पर पीछे उस प्रयास की उपयोगिता समझी गई । पाँच वर्ष की अवधि में ऐसे एक हजार स्कूल खुले और उनमें एक लाख से अधिक शिक्षार्थियों ने नागरिक कर्तव्यों की प्रारंभिक शिक्षा पायी।
वकील नहीं लोकसेवी
टामस जैफर्सन वर्जीनिया में एक धनी किसान के बेटे थे । वकालत पार करते ही उन्हें न्यायाधीश का पद मि गया । पिता के मरते ही उत्तराधिकार में मिली वस्तुओं में से वे गुलामों की मंडली को तुरंत स्वतंत्र करना चाहते थे । पर तत्कालीन कानून के अंतर्गत वैसा करना भी अपराध था।
उनने उस पद को छोड़ दिया जिसमें अनुचित कानूनों के पालन करने के लिए वे बाध्य होते थे । उनने अवांछनीय कानूनों के विरुद्ध आवाज उठायी और प्रचलित अनुचित प्रचलनों में क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिए कमर कस ली । वे अपने समय के क्रांतिकारी नेता बने । पार्लियामेंट के चुनाव लड़े और जीते । इसके बाद वे राष्ट्रपति के पद तक पहुँचे । जिन सुधारों के लिए उनकी इच्छा थी उनमें से अधिकांश को उनने ८३ वर्ष के जीवन में ही पूरा करा लिया ।
पुरस्कार लेने से इन्कार
'वाशिंगटन पोस्ट' की समाचार संपादिका कुमारी जेनेट कुक को उनकी कुशलता के लिए 'पुर्लित्जर' पारितोषिक प्रदान किया गया । उस देश में पत्रकारिता के लिए मिलने वाला यह सबसे बड़ा पारितोषिक समझा जाता है । जो प्राप्त करते हैं, उनकी प्रतिष्ठा में चार चाँद लग जाते हैं ।
इनाम की घोषणा वाले समारोह में ही कुमारी कुक ने उसे अस्वीकार कर दिया, साथ ही अपनी बहुत पैसे और प्रतिष्ठा वाली नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया । इस अवसर पर उनने उन सभी छद्मों को प्रकट कर दिया जिनके कारण उन्हें सफलता और प्रतिष्ठा मिली । कुक के इस साहस पर सभी ने उनकी ईमानदारी को अंतरात्मा के दुस्साहस की संज्ञा दी और भूल सुधार को तथा पश्चात्ताप को भूरि-भूरि सराहा । उनकी प्रतिष्ठा घटी नहीं, वरन् बढ़ी ।
समय-समय पर इस तरह की परंपराओं का पुनर्जीवन न हो, तो समाज में अनाचार फैलता है । महामानव ही
यह प्रतिष्ठापनाएँ करते और आने वाली पीढ़ी का उज्ज्वल पथ-प्रशस्त करते हैं ।
सुकरात ने जहर पिया
जिन दिनों सुकरात पर धर्म विरोध और जनता को भड़काने का मुकदमा चला, उन दिनों जूरी ही न्यायाधीश होते थे । ५०० भूरियों की मीटिंग बैठी । २२० छोड़ने के पक्ष में थे और २८० दंड देने के । उन दिनों यह रिवाज था कि कोई अपराधी निर्वासन स्वीकार करे तो मृत्यु दंड से छोडा जा सकता था । सुकरात ने मृत्युदंड स्वीकार किया और साथ ही व्यंग्य करते हुए कहा-''मुझे टाउन हाल में एक प्रीतिभोज दिया जाय ।'' यह चिढ़ाने वाली बात थी । इससे चिढ़कर ५० जूरी और खिलाफ हो गए ।
शिष्य चाहते थे कि जेल की दीवार तोड़कर सुकरात को बाहर निकाल दिया जाय । उनने कहा-''किसी देश के नागरिक को उसके कानूनों का पालन करना चाहिए । मैं यहाँ से कहीं जाने वाला नहीं हूँ ।''
जो कपड़े तापूत में रखते समय पहने जाने चाहिए, वे उन्होंने खुद ही पहने । जेलर से इतने महान् दार्शनिक की मृत्यु औखों से देखी न गयी । उसने औखों पर रूमाल बाँध लिया।
जहर का प्याला पीने के बाद पैर लड़खड़ाने लगे । वे मुँह ढककर लेट गए। फिर उन्हें एक आदमी के मुर्गो के पैसे उधार होने की बात याद आयी । सो शिष्यों से बोले-''वे पैसे चुका देना ।'' फिर उनने मुँह ढक लिया और सदा के लिए सो गए ।
हमारे देश में इस सामाजिक अनुशासन का कड़ाई से पालन करने का प्रचलन था। सामान्य प्रजा ही नहीं मूर्धन्यों के लिए भी यह अनिवार्य था कि वे अनुशासन व्यवस्था को भंग न करें ।''
अपना सो अपना
महामनीषी चाणक्य राज्य के प्रधान मंत्री भी थे । दिन भर वे संपर्क और व्यवस्था कार्यों में निरत रहते । रात्रि को सरकारी फाइलें देखते और उपासना कृत्य पूरा करते ।
उनके पास दो दीपक थे । एक को तब जलाते जब राजकाज का काम करते, उसमें राजकोष का तेल जलता । पर जब वे उपासना करते तो पहला दीपक बुझाकर दूसरा जलाते, जिसमें उनके निजी परिश्रम का उपार्जित तेल जलता ।
चाणक्य कहते थे-'' उपासना निजी लाभ के निमित्त की जाती है । उसकी सुविधा में दूसरों की सहायता क्यों ली जाय ?
जब तक जन जीवन इन आदर्शों से आप्लावित रहा, तब तक राष्ट्र की गरिमा कितने उच्य शिखर पर थी उसका एक अनूठा उदाहरण इस घटना से मिलता है ।
प्रचंड आत्मविश्वास
धर्मपाल बड़ा होने पर तक्षशिला विद्यालय में पढ़ने लगा । एक दिन प्रधानाचार्य के पुत्र का स्वर्गवास हो गया । समाचार सुनकर सभी विद्यार्थी रोने लगे । धर्मपाल नहीं रोया । उसने कहा-''तुम लोग मिथ्या वचन कह रहे हो । हमारे वंश में किसी युवा की मृत्यु नहीं होंती, फिर आचार्य जी के कुल में ऐसा कैसे हो सकता है ।''
अंत्येष्टि के उपरांत आचार्य ने धर्मपाल को बुलाया और पूछा-''क्या यह सच है कि तुम्हारे वंश में बड़ों के रहते छोटों की मृत्यु नहीं होती ?''
धर्मपाल ने कहा-''यदि आप मिथ्या समझते हैं, तो मेरे घर जाकर तलाश कर लें ।''
आचार्य एक पोटली में अस्थियाँ बाँधकर धर्मपाल के यर पहुँचे और कहा-''तुम्हारे लड़के का स्वर्गवास हों गया है । यह उसकी अस्थियाँ हैं ।''
इस कथन पर उस परिवार के सदस्यों में से किसी ने विश्वास नहीं किया और कहा-''ऐसा हो ही नहीं सकता । हमारे वंश में बड़ों के आगे किसी छोटे की मृत्यु न तो हुई है और न होगी ।''
आचार्य ने इसका कारण पूछा तो उसके पिता ने कहा-''हमारे वंश में सब लोग मर्यादाओं का पालन करते हैं । कोई कुधान्य नहीं खाता । व्यभिचारी नहीं है । कोई अशिष्टता नहीं बरतता । फिर ऐसा अनर्थ कैसे होगा ।''
आचार्य नतमस्तक हो गए और कहा-'' यह अस्थियाँ आपके बेटे की नहीं हैं । वह तो जीवित है ।''
व्यक्तिगत जीवन के लिए अनुशासन सारे समाज को लाभ देते हैं । ऐसे अगणित उदाहरण इतिहास के पन्नों में भरे पड़े है ।
रोग की जड़ काटें
इंग्लैंड के डाक्टर रीड कॉलेज के अंतिम वर्ष की परीक्षा दे रहे थे । वहाँ की व्यवस्था के अनुसार उन्हें एक कस्बे के डाक्टर के यहाँ अनुभव प्राप्त करने भेजा गया । जहाँ वे गए, वहाँ का तरीका आश्चर्यजनक देखा। वे मात्र दवा देकर छुट्टी नहीं करते थे, वरन् रोग के कारण की तलाश करते थे और रोगी के शारीरिक-मानसिक दोष-दुर्गुणों को पूछकर उन्हें दूर करने के लिए घंटों समझाते थे । इस रीति से रोगियों का कायाकल्प ही हो जाता था और वे रोगों से स्थायी रूप से छुटकारा पा जाते थे।
डॉ० रीड को यह तरीका बहुत ही पसंद आया । उन्होंने शिक्षा पूरी करने के बाद यही तरीका अपनाया । आमदनी तो अन्य डॉक्टरों जैसी नहीं होती थी पर जो रोगी उनके यहाँ आते, स्थायी रूप से रोग मुक्त हो जाते थे । सारे इंग्लैंड में उनकी बहुत ख्याति बढ़ी ।
व्यक्तिगत जीवन भी महान् आचरण से घाटे में नहीं रहता ।
सच्चा अधिकार
गोपाल कृष्ण गोखले को सभी प्रश्नों के सही उत्तर देने के उपलक्ष्य में कक्षा का प्रथम पुरस्कार मिला, अध्यापक ने उनकी मेधा तथा लगन को सराहा भी ।
पुरस्कार उस समय तो उनने रख लिया पर रात बेचैनी से बिताई और दूसरे दिन उठते ही अध्यापक के घर जा पहुँचे । पुरस्कार वापस लौटाते हुए उनने कहा-'' यह उत्तर तो मैंने चुपके से अमुक छात्र से पूछकर दिए थे । पुरस्कार का असली अधिकारी वही है ।''
अध्यापक इस हिम्मत भरी ईमानदारी पर स्तब्ध रह गए । उनने दुबारा वही इनाम लौटाया और कहा-''यह तुम्हारी ईमानदारी और बहादुरी के उपलक्ष्य में है । उत्तीर्ण होने के कारण नहीं ।''
सिद्धि, स्वर्ग एवं मुक्ति वस्तुत: बाहर मिलने वाले वरदान नहीं, अपितु अंत:स्थिति के विकास के ही प्रतिफल
हैं । उसी से महामानव ऋषि स्तर तक पहुँचते हैं ।
मातृवत् सर्वदारेषु
रामकृष्ण परमहंस से एक बार उनके एक परिचित ने पूछा-''महाराज! आप अपनी पत्नी के साथ गृहस्थ जीवन क्यों नहीं बिताते ?''
प्रश्न सुनकर परमहंस कुछ पल चुप रहे, फिर मुस्कराते हुए बोले कि तुमने कार्त्तिकेय का किस्सा सुना है? एक दिन बालक कार्त्तिकेय ने खेल-खेल में एक बिल्ली को नोंच-खरोंच दिया । घर आये तो अपनी माँ का मुख देखकर हैरान रह गए । माँ के गालों पर नाखूनों की खरोंच के वैसे ही निशान पड़े थे । कार्त्तिकेय ने आश्चर्य से खरोंच के निशानों का कारण पूछा तो माँ बोली-''बेटा, यह तेरा ही कार्य है । तूने ही तो अपने नाखूनों से मुझे नोंचा है ।''
''मैंने नोंचा है ?'' बालक कार्त्तिकेय का आश्चर्य और बढ़ा । अविश्वास के स्वर में बोला-''मैंने तुमको कब नोचा ?''
''क्यों, भूल गया क्या? आज तूने बिल्ली को नोंचा-खरोंचा नहीं था । ''
'' बिल्लई को तो जरूर नोंचा था........' -कार्त्तिकेय ने उसी स्वर में कहा-'' लेकिन तुम्हारे गालों पर निशान कैसे पड़ गए ?''
''अरे बेटा''-माँ बोली-'' मेरे सिवा इस संसार में और है ही कौन ? सारा संसार मेरा ही स्वरूप है । यदि तू किसी को सतता है तो मुझे ही तो सताता हैं ।''
कार्तिकेय से कुछ कहते न बना । निश्चय कर लिया उसने-मैं विवाह ही नहीं करूँगा। संसार की सब स्त्रियाँ जब मातृवत् हैं तो विवाह करूँ भी तो किसके साथ?
रामकृष्ण ने इतना कहकर कारण बताया-''कार्त्तिकेय के समान मेरे लिए भी संसार की सारी स्त्रियाँ मेरी माँ के समान हैं । तुम्हीं बताओ, गृहस्थ जीवन किसके साथ बिताऊँ ?''
उद्धता शिक्षिता मर्त्या: स्वाहंकारसमुदभवम् ।
कुसंस्कारत्वमाश्रित्योच्छृंखलत्वं चरन्त्यलम् ।। २४ ।।
फलतस्तु सहन्ते ते दु:खान्यन्येभ्य एव च ।
भवन्ति दु:खदा नीचै: पतन्त: पातयन्त्यपि ।। २५ ।।
अनुशासनहीनत्वात् विशीर्णंत्यमुपैति यत् ।
तस्मात्सम्पन्नता नश्येत् सामर्थ्येन सहैव तु ।। २६ ।।
अपेक्षया च लाभस्य ततो दृश्यं तु दु:खदम्।
प्रत्यक्षतामुपैत्येवं पश्चात्तापोऽवशिष्यते ।। २७ ।।
टीका-उद्धत या अनगढ़ लोग अपनी अहंता की कुसंस्कारिता से प्रेरित होकर उच्छृंखलता बरतते हैं । फलत: स्वयं गिरते और दूसरों को गिराते हैं । अनुशासनहीनता से जो बिखराब उत्पन्न होते हैं, उसके कारण उपलब्ध समर्थता एवं सम्पन्नता बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है और उनके द्वारा लाभ के स्थान पर हानि का दुःखदायी दृश्य ही सामने आता है एवं पश्चात्ताप ही शेष रहता है ।। २४-२७ ।।
अर्थ- समाज समग्ररूप में एक अनुशासनबद्ध तंत्र है । मनुष्य उसकी एक इकाई है । किसी भी भवन का यदि एक भाग कमजोर होता है तो वह शीघ्र ही गिर जाता है । लकड़ी में लगी घुन शहतीर को
खोखला कर उसे टूटने को विवश कर देती है । इस पर टिकी बुनियाद कमजोर ही होती है । सेना के सिपाही एक होकर जब लड़ते हैं तो सामने वालों के छक्के छुड़ा देते हैं । किन्तु यदि ये ही स्वतंत्र रूप से निर्णय लेकर अनियंत्रित युद्ध करें तो मुट्ठी भर व्यक्ति ही इन पर काबू पा सकते हैं ।
समाज तंत्र पर भी यही बात लागू होती है। अहमन्यता व्यक्ति को उद्धत बना देती है एवं वे सभ्यता की अपनी वर्जनाएँ भूल कर जो व्यवहार करते हैं, अंतत: वह उनके एवं सारे समूह-समाज के विनाश का कारण बनता हैं । झाडू की सींके जब तक एक साथ बँधी हैं, तब तक उपयोगी भी हैं। एक बार अलग होने पर वे कूडे़ में फेंकने लायक रह जाती हैं । मनुष्य समर्थ है, सर्वमुण संपन्न है । किंतु अनुशासन
के अभाव में वह एक उच्छृंखल, वन में घूमते शेर के समान है । संस्कारवश उत्पन्न अनगढ़ता और चिंतन में समाई अहंता उबकी सामर्थ्य को भी शीण कर डालती है एवं ऐसे व्यक्ति अंतत: दुःख के कारण बनते हैं ।
इन्हें जाजना-पठचाजंना व इनके सुधार के प्रयास करना बहुत अनिवार्य है, ताकि समाज की व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहे, सभी सुख-शांतिपूर्वक एक साथ रह सकें ।
महंतजी पर विपदा बरसी
मनुष्य का उद्धत अहंकार जो न कराये, वह कम है ।
एक बार एक मठाधीश तीर्थयात्रा को गए। अपने स्थान पर शिष्य को छोड़ गए । मंदिर का चढ़ावा और मान-सम्मान देखकर शिष्य का मन मठाधीश बनने का हुआ ।
उसने इसके लिए एक तरकीब सोच ली ।महंत जी के आने से पहले ही उसने अफवाह फैला दी कि लौटने पर महंत जी के बालों से करामात होगी । जो एक भी बाल प्राप्त कर लेगा, उसकी मनोकामनाएँ पूरी होंगी । लोग प्रतीक्षा करने लगे ।
जैसे ही महंतजी लौटे, लोग उनके बाल माँगने लगे । इतनी मांग देखकर वे हड़बडाने-घबराने लगे, तो लोगों
ने उनकी दाढ़ी-मूँछों पर हाथ साफ करना शुरू कर दिया । थोड़ी ही देर में सारे बाल नुच गए । यहाँ तक कि सिर पर भी एक बाल बाकी न रहा । जड़ें उखाड़ने से लहू टपकने लगा ।
महंत जी इस नयी विपत्ति से घबरा कर स्थान छोड़ गए । शिष्य ने उस स्थान पर कब्जा कर लिया । करामातों की अफवाह तक संकट उत्पन्न करती है, फिर कुछ सचाई भी हो तो समझ लो कि प्रदर्शनकर्त्ता की खैर नहीं । अहमन्यता ही चमत्कारों के, सिद्धि के प्रदर्शन की ललक में उभरती है व अव्यवस्था उत्पन्न करती है।
तलवार नकली बनाम असली
स्वर्ग-नरक कहीं दूर नहीं, वस्तुत: उद्धत अहंकार नरक और अनुशासनबद्ध आत्मीयता ही स्वर्ग है ।
एक बार की बात है । वांग ली नाम का एक योद्धा संत कन्पयूशियस के पास गया और बोला-''स्वर्ग और नरक की परिभाषा करके बताइए ।''
संत ने कहा-'' तुम योद्धा कहाँ हो ? भिखारी जैसे लगते हो । '' इस पर ली आग-बबूला हो गया और म्यान
से तलवार निकाल ली । कन्पयूशियस ने कहा-'' यह तलवार नकली है, मेरी गरदन नहीं काट सकती ।''
वांग ली कुछ देर शांत रहा और विचार करके तलवार म्यान में डाल ली ।
कन्पयूशियस ने कहा-'' देख लिया न । जब तुम आग-बबूला होकर तलवार चमका रहे थे तब नरक में थे और जब सूझ-बूझ से काम लेकर तलवार म्यान में डाल ली तब तुम स्वर्ग में पहुँच गए । ''
अनुशासन जब तक अंतरंग से न उभरे वह किसी काम का नहीं; बाहर से कोई सिखा तो सकता है, प्रेरणा और मार्गदर्शन भी दे सकता है; पर अनुपालन की जिम्मेदारी हर व्यक्ति को स्वयं निबाहनी पड़ती है ।
कला व शिल्पी का विवाद
शिल्पी और उसकी कला, आपस में ही उलझ पड़े । शिल्पी से कला बोली-''मेरे ही कारण तुम्हारा नाम संसार में अमर रहता है । अत: मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ ।''
शिल्पी का कहना था-''मैं तेरा जन्मदाता हूँ। मेरे ही कारण तुझे अमरत्व प्राप्त होता है । अगर मैं न होऊँ, तो तेरी अभिव्यक्ति कौन करे ? अत: मैं तुझसे श्रेष्ठ हूँ। ''
विवाद बड़ी देर तक चलता रहा, कोई हार मानने को तैयार न हुआ । तभी पास पड़ा हुआ पत्थर का टुकड़ा बोला-'' बावलों! क्यों झगड़ते हो आपस में ? मेरे बिना न तो तुम्हारी भावाभिव्यक्ति हो सकती है, न अमरता । शिल्पी! और कला बहन तुम भी तो आकार मुझ ही से पाती हो । कोई एक नहीं; हम तीनों मिलकर ही अभिनंदनीय बनते है । एकाकी हमारी कोई हस्ती नहीं है ।''
लक्ष्मी जी लौट आयीं
जहाँ आपसी अहंता ही एक दूसरे को लड़ाती हो वहाँ लक्ष्मी भी नहीं रहती ।
देवता चिरकाल से अनुरोध करते रहे कि लक्ष्मी जी असुरों के यहाँ न रहें, देवलोक में निवास करें । पर उनकी प्रार्थना अनसुनी होती रही । लक्ष्मी जी ने असुर परिकर को छोड़ा नहीं ।
एक दिन अनायास ही लक्ष्मी जी देव लोक में आ गयीं । देवता प्रसन्न भी थे और चकित भी । उन्होंने सत्कारपूर्वक बिठाया तो पर साथ ही असमंजस भी व्यक्त किया कि वे असुरों को छोड़कर चल क्यों पड़ीं ।
लक्ष्मी जी ने कहा-''सुर और असुर होने का पुण्य-पाप भगवान देखते हैं । मेरा काम पराक्रम, संयम एवं सहकारिता की जाँच-पड़ताल करना है । जब तक असुर पराक्रमी और संयमी रहे, तब तक साथ-साथ रहे, मैं भी उनके साथ रही । अब वे बदल गए हैं । अहमन्यता, आलस्य और दुर्व्यसन अपनाने लगे हैं । ऐसे लोगों के साथ मेरा निर्वाह कैसे हो सकता था ?''
हातिम और औलिया
हातिम हाशिम के निमंत्रण पर एक औलिया उनके दरबार में आए । वे कभी ऊपर आसमान की ओर देखते थें और कभी जमीन की ओर । हातिम ने इस विचित्र व्यवहार का कारण पूछा । उनने कहा- ''आसमान कितना बड़ा है, जिसमें तेरी जैसी हजारों हुकूमतें समा सकती है । जमीन इसलिए देखता हूँ कि तेरे जैसों की असंख्यों कब्रें इसमें बन चुकी हैं और न जाने कितनी और बनने वाली हैं ।'' हातिम अपनी प्रशंसा सुनने की आशा लगाए बैठे थे । पर जब ऐसी खरी बातें सुनीं तो स्तब्ध रह गए । उनने समझा कि उनकी उच्छृंखलता ने बदनामी का अपयश एवं कितनों की बद्दुआ उन पर लाद दी है । तब से उन्होंने अपने जीवन की दिशा-धारा ही बदल दी ।
आंतरिक अनुशासन की अवहेलना
आंतरिक अनुशासन जीवन में कितना अनिवार्य है, इसे एक बार राजा को उनके मंत्री ने समझाया ।
पारस्परिक चर्चा के दौरान मंत्री ने राजा से कहा-''यदि अवसर मिले, तो कोई चालाकी से चूकता नहीं । अवसर मिलते ही लोग धूर्तता का अवलंबन लेते है ।''
राजा ने कहा-''इसका अर्थ यह हुआ कि संसार में भलमनसाहत है ही नहीं ।'' मंत्री ने कहा-''है तो पर उसे जीवित या सुरक्षित तभी रखा जा सकता है, जब सामाजिक नियंत्रण व रोकथाम का समुचित प्रबंध हो। छूट मिले तो कदाचित् ही कोई बेईमानी से चूके ।''
बात राजा के गले न उतरी । मंत्री ने ताड़ लिया और अपनी बात का प्रमाण देने के लिए एक उपाय किया ।
प्रजा में घोषणा करायी गयी कि किसी राजकाज के लिए हजार मन दूध की आवश्यकता पड़ेगी । सभी प्रजाजन रात्रि के समय खुले पार्क में रखे हुए कड़ाहों में अपने-अपने हिस्से का एक-एक लोटा दूध डाल जाँय ।
रात्रि के समय पार्क में बड़े-बड़े कड़ाहे रख दिए गए । चौकीदारी का कोई प्रबंध नहीं किया गया । स्थिति का पता कानों-कान सभी को लग गया । रात्रि का समय और चौकीदारी का न होना, इन दो कारणों का लाभ उठाकर प्रजाजनों ने दूध के स्थान पर पानी डालना आरंभ कर दिया । इतने लोटे दूध होगा तो हमारे एक लौटे पानी का किसी को पता भी न चलेगा। सभी ने एक ही तरह सोचा और अपने हिस्से के दूध के बदले पानी डाला ।
दूसरे दिन मंत्री राजा को दूध के कड़ाह दिखाने ले गए । सभी पानी से भरे हुए थे। दूध का नाम तक न था ।
राजा ने उस दिन समझा कि समाज तंत्र में नातिनिष्ठा को जीवित बनाये रखने के लिए सामाजिक अनुशासन की कितनी आवश्यकता है ।
शासक बनाम अनुशासन
एक बार मेंढकों को अपने समाज की अनुशासनहीनता पर बड़ा खेद हुआ और वे शंकर भगवान के पास एक राजा भेजने की प्रार्थना लेकर पहुँचे ।
प्रार्थना स्वीकृत हो गयी । कुछ समय बाद शिवजी ने अपना बैल मेंढकों के लोक में शासन करने भेजा । मेंढक इधर-उधर नि:शंकभाव से घूमते फिरे सो उसके पैरों के नीचे दबकर सैकड़ों मेंढक ऐसे ही कुचल गए ।
ऐसा उन्हें पसंद नहीं आया । मेंढक फिर शिव लोक पहुँचे और पुराना हटाकर नया राजा भेजने का अनुरोध करनें लगे ।
यह प्रार्थना भी स्वीकार कर ली गई । बैल वापस बुला लिया गया । कुछ दिन बाद स्वर्गलोक से एक भारी शिला मेंढकों के ऊपर गिरी, उससे हंजारों की संख्या में वे कुचलकर मर गए ।
इस नयी विपत्ति में मेंढकों को और भी अधिक दु:ख हुआ और वे भगवान के पास फिर शिकायत करने पहुँचे ।
शिवजी ने गंभीर होकर कहा-"बच्चो । पहली बार हमने अपना वाहन बैल भेजा था । दूसरी बार, हम जिस स्फटिक शिला पर बैठते हैं, उसे भेजा । इसमें शासकों का दोष नहीं है । तुम लोग जब तक स्वयं अनुशासन में रहना न सीखोगे और मिल-जुल कर अपनी व्यवस्था बनाने के लिए स्वयं तत्पर न होगे तब तक कोई भी शासन तुम्हारा भला न कर सकेगा ।'' मेंढकों ने अपनी भूल समझी और शासन से बड़ी आशाएँ रखने की अपेक्षा अपना प्रबंध आप करने में जुट गए ।