प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-4

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न्यूनता साधनानां न विद्यते कुत्रचित्क्षितौ ।
तेऽधिगन्तुं च शक्यास्तु योग्यतां श्रमशीलताम् ।। २८ ।।
मनोयोगमथोद्बोध्य सवैंरेव च मानवै: ।
सार्थयन्ति धनं सद्भ्यो युञ्जते ये सदागमम् ।। २९ ।।
मात्राऽल्पाऽपि च तस्यैषा प्रयच्छति महत्फलम् ।
सन्निवेशं समाश्रित्य यद्यप्यतुलवैभवा: ।। ३० ।।
नरा दुरुपयुञ्जाना नाशयन्तस्तु तत्स्वयम् ।
यान्ति नाशं यथा नौका छिद्रे जाते निमज्जन्ति ।। ३१ ।।

टीका-साधनों की कहीं कमी नहीं । वे योग्यता, श्रमशीलता और मनोयोग बढ़ाकर अभीष्ट मात्रा में उपार्जित किए जा सकते हैं । ईमानदारी से कमाने और सत्प्रयोजनों में ही उन्हें प्रयुक्त करने वाले धन को सार्थक बनाते हैं । उसकी थोड़ी मात्रा भी सदुपयोग के आधार पर महान प्रतिफल प्रदान करती है, जबकि विपुल संपदा वाले भी उसका दुरुपयोग करने पर उसे नष्ट करते, साथ ही स्वयं भी नष्ट होते हैं । छेद होने पर नौका पानी में
डूब जाती है ।। २८- ३१ ।।

अर्थ-यह एक स्मरणीय तथ्य है कि योग्यता, श्रम और मनोयाग के संयोग से ही साधन बनते हैं, बढ़ते हैं ।

धन सार्थक बनता है नेकी से कमाने और भलाई में खर्च करने से । घातक बनता है दुरुपयोग से । छोटी भी छिद्र हीन नौका पार कर देगी बड़ी से बड़ी छेद वाली होगी तो डुबो देगी ।

साधन कमाना मनुष्य के हाथ में है । गई-गुजरी परिस्थितियों में भी अनेक व्यक्तियों ने अध्यवसाय पुरुषार्थ के माध्यम से साधन जुटाकर स्वयं मे संपन्न बनाया है। योग्यता अकेली पर्याप्त नहीं ।
योग्यता के साथ परिश्रम एवं काम में तन्मयता का संपुट न हो तो वह भी निरर्थक ही चली जाती है । एक
बार कमा लेने पर भी उसके यदि सदुपयोग का मार्ग न बनाया गया तो वह सारा परिश्रम व्यर्थ ही जाता है, उपार्जन कर्त्ता को कष्ट पहुँचाता व अपयश का भागी बनाता है ।

साधन घटे, विभूतियाँ बढ़ीं 

राजकुमार पद्म महामंत्री मार्तंड के संरक्षण में व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे । उन्हें साधनों और विभूतियों का महत्व समझाते हुए महामंत्री ने एक उदारहण रखा । दो युवक नकुल और प्रदीप को व्यवसाय करने के लिए अनुमति और साधन दिए गए । नकुल को नगर के बीच में तमाम अचल संपदा तथा लागत के लिए प्रचुर धनराशि दी गई । प्रदीप को अनुमति के साथ थोड़ा सा धन देकर विदा
किया गया । पाँच दिनों के बाद उपस्थित होने के लिए कहा गया ।

निर्धारित समय पूरा होने पर नकुल आए फटे हाल । बतलाया कि धन समाप्त हो गया, अचल संपत्ति बिक गई और वे श्रेष्ठि प्रदीप के दीनों को राहत कार्यक्रम के आधार पर गुजारा चला रहे हैं । श्रेष्ठि प्रदीप और कोई नहीं सामान्य धन लेकर व्यवसाय प्रारंभ करने वाले युवक प्रदीप थे।

महामंत्री ने राजकुमार को समझाया-देखा। नकुल जैसों के साधन विभूतियों के अभाव में नष्ट हो जाते हैं और प्रदीप जैसों के पास उनकी योग्यता, ब्रमशीलता, लगन के आधार पर साधन पैदा हो जाते हैं । यह सत्य जो समझता है वही सही विभूतियों को महत्व दे पाता है ।

स्वल्प साधनों से गुरुकुल कांगड़ी 

स्वामी श्रद्धानंद ने अपना घर बेचकर उस पैसे से हरिद्वार के पास कांगड़ी गाँव में दस विद्यार्थियों को लेकर एक गुरुकुल चलाया । अध्यापक, पालक, संचालक वे स्वयं ही थे । जिस तत्परता से उनने बच्चों को पढ़ाया तथा विद्यालय चलाया, उसने देखने वालों के मन जीत लिए । ख्याति के साथ-साथ छात्रों की संख्या तथा उदार जनों की सहायता भी बढ़ती गई । एक-एक करके गुरुकुल विकसित होता गया । स्वामी जी के जीवन काल में ही यह संस्था उन्नति के चरम लक्ष्य तक पहुँची थी । आज उसे विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त है ।

गरीब विधार्थी से डायरेक्टर 

एक लड़का बिना किसी से सहायता माँगे अति निर्धन होते हुए भी फीस अपने पास से जमा करता और किताबें भी स्वयं ही खरीदता । ईर्ष्यालुओं ने उस पर लांछन लगाया कि यह पैसा कही से चुराता है । प्रधानाध्यापक ने जाँच की तो मालूम हुआ कि वह स्कूल से बचे समय में एक माली के यहां सिंचाई का काम करता है और उससे कुछ उपार्जन कर लेता है । फीस माफ क्यों नहीं करा लेते? इस प्रश्न का उसने उत्तर दिया-''समर्थ होते हुए भी मैं अपनी गणना असमथों में क्यों कराऊँ?''

यह सिद्धांत निष्ठ पुरुषार्थी लड़का सदानंद चट्टोपाध्याय २० वर्ष बाद बंगाल के उसी शिक्षा संगठन का डायरेक्टर बनाया गया ।

गुणों ने उछाला 

एक देहाती लड़का कलकत्ता में नौकरी के लिए गया । बहुत ही खोज के बाद एक सेठ के यहाँ चार घंटे नित्य अखबार और पुस्तकें सुनाने की छ: आने रोज की नौकरी करने लगा । एक दिन सेठ के ८०० रु० के नोट कूड़े में पड़े रह गए । लड़के ने उन्हें देख लिए और सही मालिक तक पहुँचाने की दृष्टि से कूड़े से ढक दिए ।

दूसरे दिन रुपयों की खोज बीन हुई । चपरासी पर सब का शक था । लड़के ने आते ही कूड़े के ढेर में से वे रुपये लाकर दे दिए । इस ईमानदारी से सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई । सेठ की आँखों में भी इज्जत बड़ी । उसकी आगे की पढ़ाई का कुछ प्रबंध हो गया । यही लडका आगे चलकर प्रसिद्ध साहित्यकार राम नरेश त्रिपाठी हुआ ।

संत का कार्यक्रम सफल हुआ 

विष्णु पुलस्कर का संगीत कार्यक्रम तीन घंटे का होना था। टिकट पाँच ही बिके । प्रश्न  यह उठ रहा था टिकट लौटा दिए जाए । पर पुलस्कर ने पाँच श्रोताओं के सामने अपने तीन  घंटे का पूरा कार्यक्रम चलाया ।

इस ईमानदारी और कलाकारिता पर सुनने वाले मुग्ध हो गए । उन्होंने दूसरे दिन सभी जगह गायन की भूरि-भूरि प्रशंसा की तो रात्रि को हजारों श्रोता उपस्थित हो गए ।

गुणवत्ता अधिक महत्वपूर्ण 

साधन जुटाना जितना जरूरी है, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, उस कार्य के साथ जुड़ी ईमानदारी-नीति निष्ठा ।

विश्व के सर्वश्रेष्ठ वायलिन निर्माता स्ट्रैडिवरी को एक वायलिन के बनाने में दो माह का समय लगता था, जबकि उनके प्रतिस्पर्धियों को वायलिन बनाने में केवल सात-आठ दिन ही लगते थे । एक दिन उनके मित्र ने पूछा-''आप तो विश्व विख्यात निर्माता हैं फिर तो आप अन्य कलाकारों से भी जल्दी वायलिन बनाकर बेच सकते हैं इससे आपको आर्थिक लाभ ही न होगा वरन् संगीतकारों को अधिक समय तक प्रतीक्षा न करनी पड़ेगी ।''

 ''आर्थिक लाभ के संबंध में तो भली-भाँति मैं नहीं कह सकता पर इतना अवश्य जानता हूँ कि जल्दबाजी में
किया गया कार्य अधूरा ही रहता है । मैं अपने लाभ से अधिक महत्व विक्रेताओं की लाभ-हानि को देता हूँ । क्योंकि जल्दबाजी में बनाए वायलिन उन्हें पूरा आनंद न दे सकेंगे ।'-स्ट्रैडिवरी ने कहा ।

गरीब से अमीर बना 

संसार के जिन चार बड़े धनियों की गणना होती है उनमें एक एक का नाम रॉकफेलर है । यह दौलत उन्होंने कठिन परिश्रम और अध्यवसाय से कमाई । उनकी माँ एक छोटा सा मुर्गीखाना चलाती थीं । निष्ठा से माँ के काम में हाथ बटाने पर उसे १) रु० मासिक अतिरिक्त मजूरी मिलने लगी । एक के बाद एक कदम उठाते हुए वे तेल व्यवसाय से अरबपति बने ।

उनने कितनी ही संस्थाओं को जन्म देने में अरबों रुपैया खर्च किया । चलती हुई संस्थाओं की सहायता के लिए उन्होंने करोड़ों की राशि दान दी । फिर भी उनकी नम्रता और मितव्ययिता देखने ही योग्य थी ।

सत्कार्यों में सुनियोजन 

डॉ० माम उस पुरुषार्थी का नाम है जिसने अपने बलबूते लेखक बनने का प्रयत्न किया और उसमें पूरी तरह सफल हुआ । उनकी एक पुस्तक की ही अब तक १५ करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं । इसे से अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी लगभग ५० पुस्तकों से कितनी आय हुई होगी । यह सारा पैसा उन्होंने लेखन कला सिखाने का विद्यालय चलाने और निर्धनों की सहायता करने के लिए दान कर दिया। यों उनकी पुत्री ने अपना हक सिद्ध करने के लिए एक मुकदमा भी चलाया कि यह पैसा उत्तरधिकारी के  नाते उसे मिलना चाहिए ।

दो अनाथ बालको की पुरुषार्थ साधना

पिता के स्वर्गवास हो जाने पर दस और बारह वर्ष के दो बच्चे अपना गाँव छोड़कर कहीं आजीविका की तलाश में चल पडे़ । रतलाम में एक पुजारी का आश्रम मिला । वहाँ कुछ कमाई करके बंबई चल दिए । वहाँ फुटपाथ पर सस्ती किताब बेचने लगे। यह धंधा उन्हें पसंद आया। फेरी लगाकर धार्मिक पुस्तकें बेचने लगे। हिम्मत बढ़ी और सफलता मिली तो  दो रुपये मासिक के झोपड़े में ही एक हैंड प्रेस लगा लिया । काम इतना बढ़ा कि धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करने का वह भारत का माना हुआ प्रेस बन गया । धार्मिक विचार के होने के कारण धार्मिक कार्यो में सदा मुक्त हस्त से दान दिया करते थे । अंत में प्रेस और प्रकाशन की संपत्ति करोड़ों रुपयों की हो गयी । इन्हें खेमग्रज श्रीकृष्ण के नाम से जाना जाता है। 

जमना लाल बजाज 

सेठ जमना लाल बजाज करोड़पति बच्छराज जी को गोद आए थे । उन्हें जो धन मिला। उसका अधिकांश भाग गाँधी जी की राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लगा  दिया । इसे कहते हैं धन का सदुपयोग । 

नौकर की बेहूदगी 

संत शिवली को खलीफा ने बुलाया और उनकी इज्जत करने के बाद कीमती कपड़े उन्हें उपहार में दिए । साथ में नौकर भेजा जो सामान को घर तक पहुँचा आया ।

नौकर ने बेशकीमती कपड़े नाक और मुँह के कफ से गंदे कर दिए । फलत: वे फेंकने पडे़ । खलीफा को नौकर की इस हरकत का पता चला तो उसे नौकरी से बरखास्त कर दिया ।

जब इस प्रसंग की चर्चा सत्संग में हुई तो संत ने कहा-''ईश्वर हम सबको कीमती कपड़ों जैसा शरीर और साधन संपदा देता है । पर अगर हम उस पिंजरे को गंदा कर दें, उस बहुमूलय संपदा को यों ही मूर्खतावश गँवा दें तो फिर नाराजी, बदनामी और बर्खास्तगी के सिवाय और क्या मिलेगा?

समझ की परख 

एक पिता के दो लडके थे। दोनों की समझ परखने के लिए पिता ने दस-दस रुपये दिए और कहा-''इनकी ऐसी वस्तु खरीद लाओ जो फर्श से छत तक जा पहुँचे ।''

एक लडका सड़ा हुआ भूसा खरीद लाया और दूसरा एक बढ़िया लालटेन । लालटेन की रोशनी फर्श से आसमान तुक मुद्दतों तक बनी रही और सड़े भूसे को बाहर फिकवाने के लिए उल्टा दाम खर्चना पड़ा।

ईश्वर की दी हुई जीवन संपदा के बदले में हम क्या खरीदते हैं यह बुद्धिमानी और मूर्खता पर निर्भर है ।

छिद्रहीन व्यक्तित्व बनाओ 

माँ मदालसा ने चौथे पुत्र अलर्क को राजा बनाया । पहले तीन पुत्र ब्रह्म ज्ञानी बन गए थे । अलर्क ने पूछा बडे़ भाइयों को आत्म कल्याण के लिए साधन संपन्न नगरवासी जीवन की अपेक्षा कम साधनों से युक्त वनवासी जीवन क्यों रुचा?

माँ बोली-''बेटे, बताओ जिसका उद्देश्य नदी पार करना हो वह सुविधा सामग्री मे भरी विशाल, लेकिन छिद्र वाली नौका चुनेगा, या सामान्य सी छिद्रहीन नौका?'' अलर्क ने कहा-''निश्चित रूप से छेदहीन सामान्य नौका चुनी जाने योग्य है ।''

माँ ने समझाया- ''बेटे, सांसारिक सुख सुविधाओं भरे जीवन में मनुष्य के व्यक्तित्वों में दोषों के छिद्र बन
जाते हैं । साधना युक्त जीवन से व्यक्तित्व छिद्र हीन बनता है । इसीलिए साधन-सुविधाएँ छोड़कर छिद्रहीन व्यक्तित्व वाला जीवन चुनते । तुम भी ऐसा ही व्यक्तित्व बनाना, साधनों को जरुरत से ज्यादा महत्व मत देना ।

दुग्धे दुग्धे च चालन्यां पश्चात्तापोऽभिलभ्यते ।
असंयमस्य छिद्रेषु पूर्वोत्केषु चतुर्ष्वपि ।। ३२ ।।
सम्पदाया जीवनस्य स्त्रवन्त्यंशास्ततो नर: ।
दीनं दरिद्रमात्मानमभाग्यमसहायकम् ।। ३३ ।।
अनुभवन्ति नग ये तु समये सावधानताम् ।
आश्चित्य संयमं चात्मशक्तिस्रौतोऽन्तयन्ति नो ।। ३४ ।।
परं विवेकपूर्वं तत्सर्वं सद्भ्यो नियुञ्जते ।
क्वोपयोज्या संयमेन सञ्चिता: सम्पदा इति ।। ३५ ।।
सम्बन्धे बोधयत्यस्मान् यत्तुधर्मानुशासनम् ।
भद्रा: श्रृण्वन्तु तत् सर्वे भवन्तो ध्यानपूर्वकम् ।। ३६ ।।

टीका-चलनी में दूध दुहने पर मात्र पश्चात्ताप ही हाथ रहता है । इसी प्रकार असंयम के उपरोक्त चार छिद्रों में होकर जीवन संपदा के महत्वपूर्णं अंश बह जाते हैं और मनुष्य अपने आपको दीन, दरिद्र, असहाय, अभागा अनुमव करता है । बुद्धिमान वे हैं, जो समय रहते इस दिशा में सतर्कता बरतते हैं और संयमी रहकर
अपने शक्ति भंडारों को नष्ट नहीं होने देते, वरन् विवेकपूर्वक उन्हें सत्प्रयोजनों में ही नियोजित किए रहते हैं । संयम द्वारा संचित संपदा का कहाँ उपयोग करना चाहिए, इस संबंध में धर्मानुशासन जो कहता है, उसे भद्रजनो! आप ध्यानपूर्वक सुनें ।। ३२-३६ ।।

अर्थ-शक्ति का मूल स्त्रोत जीवन संपदा जब तक संचित है, उसके अपव्यय के छिद्र बंद कर दिए गए हैं, जीवन को साध लिया गया है तो मनुष्य से बढ़कर सौभाग्यशाली कोई नहीं । आगे बढ़ने का मार्ग उसके लिए खुला है । भौतिक उपलब्धियों आत्मिक प्रगति का पथ उसे समृद्धि के चरम शिखर पर ले जाता
है । अक्षय जीवन जीते हुए वह स्वयं तो धन्य होता ही है, संचित संपदा सामर्थ्य के सुनियोजन द्धारा विश्व वसुधा को भी लाभान्वित करता है । असंयम के माध्यम से इस जीवन को क्रमश: खोखला बनाते हुए उपलब्धियों को खोते जाना एक ऐसी विडंबना है, जिसका वर्णन करते हुए शास्त्र वचनों में अनेक अनुशासन
मुनवी गरिमा के अनुरूप बताए गए हैं । वह स्वयं को तो हानि पहुँचाता ही है, समष्टि का एक अंग होने के नाते स्त्रष्टा के प्रति कृतघ्नता बरतने का दोषी भी ठहरता है । ऋषि यहाँ पर मात्र संयम को ही नहीं, संचित सामर्थ्य के सुनियोजन परमार्थ हेतु उनके सदुपयोग को एक प्रकार का धर्मानुशासन बताते हुए उसे अमल
में लाने के लिए जोर दे रहे हैं ।

वे अपने दोषों से जर्जर थे 

सुग्रीव का राज्याभिषेक हो चुका था । वे श्रीराम के बल की प्रशंसा करते हुए कहने लगे, उन्होंने बालि जैसे बलवान को एक ही बाण में धराशायी कर दिया ।

राम बोले देखने वालों को यही लगा । परंतु बालि के दोषों ने उसको छेद-छेद कर जर्जर बना दिया था, इसीलिए सिद्धांत के एक ही आक्रमण सें वह ढह गया ।

भगवान श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को दिव्य दृष्टि देकर वह दिखाया था कि कौरवादि किस प्रकार अपने ही पातकों के जबड़ों में पिस रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं । उसे तो मात्र अपना पुरुषार्थ दिखना है । वे स्वत: नष्ट हो जाएंगे । मोह भंग होने स्वं यथार्थता की अनुभूति होने पर अर्जुन ने परम सत्ता के सहयोग के बलबूते पर वह सब कर दिखाया, जो उसे अकेले के बलबूते असंभब जान पड़ रहा था ।

मौन की सामर्थ्य 

व्यास जी महाभारत के प्रसंग बोलते गए और गणेश जी लिखते गए । बोलने की गति स्वभावत: लिखने की गति से अधिक होती है, तो भी व्यतिरेक न पड़ा । गणेश जी के लिखने में कहीं कोई व्यवधान न पड़ा ।

कार्य की समाप्ति पर सूत जी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए गणेश जी से पूछा कि आपके ऊपर समझने और हाथ चलाने, कागज उलटने का अतिरिक्त श्रम पड़ा जबकि व्यास जी मात्र जोर से बोलते ही रहे । इतना अधिक कार्य आप किस प्रकार कर सके ।

गणेश जी ने कहा-''मैं इस बीच सर्वथा मौन रहा । मौन से शक्तियों का एकीकरण जो होता हैं । उसे अपनाने
वाले को सामर्थ्य की कमी नहीं पडती है ।''

रावण का पतन 

युद्ध भूमि में रावण का मृत शरीर पड़ा था। उसमें सहस्रों छिद्र थे और उन सभी से रक्त बह रहा था । अन्य दल नायकों के साथ राम-लक्ष्मण भी उसे देखने पहुंचे ।

लक्ष्मण ने मृत शरीर में सहस्र छिद्र देखे तो चकित रह गए । राम से पूछा-''देव! आपने तो एक ही वाण में इसका वध किया था फिर सहस्र छिद्र कैसे?''

राम ने गंभीरतापूर्वक कहा-'' मैने तो एक ही वाण मारा था । यह हजार छिद्र तो उसके अपने असंयम जन्य पाप कर्म के कारण है, जो स्वयं ही फूटे और स्रवित हो रहे है ।'' महा पंडित रावण की दुर्गति का कारण समझ कर सबने इस मर्म को जाना कि संयम की उपेक्षा से हुए जर्जर जीवन के लिए एक ही प्रहार पर्याप्त है।

सम्पदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग 

भगवान बुद्ध उन दिनों दान और अपरिग्रह का प्रचार करते थे । उस क्षेत्र का सबसे बड़ा धनाड्य अर्थवसु था । उसने प्रवचन ही सुने पर दिया एक पैसा भी नहीं ।

पुत्र ठाट-बाट के साधन मांगते थे और पुत्र वधुएं जेवर । पर अर्थवसु उन्हें सादगी का उपदेशकरते और खर्चने में स्पष्ट इन्कार कर देते ।

नालंदा विश्वविद्यालय का निर्माण और विस्तार कार्य चल रहा था । उस प्रयास की परिणति समझाई जा रही थी । अर्थवसु नें ऐसे ही उच्च प्रयोजन के लिए कृपणों की तरह अपना धन बचाया था ।

 दूसरे ही दिन वे तथागत के पास पहुंचे और अपनी लाखों की संपदा उनके चरणों पर रख दी और कहा-''मैने जीवन पर बन इसीलिए बचाया कि इसे श्रेष्ठतम कार्य में लगा सकूँ, आज मेरे सामने वह कार्य आ गया । आपमेरी सारी संपदा उसी कार्य में लगा दें ।''

सच्चे व्रती 

श्री रामकृष्ण परमहंस विवाहित थें । सपत्नी रहते थे । मिल-जुल कर अनेक महत्वपूर्ण कार्य करते थे । पर काम सेवन से पूरी तरह बचे रहे । गांधी जी ने भी भरी जवानी में ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था और उसके उपगत मे पसी को सदा बा (माता) कहते रहे ।

लक्ष्य के लिए समर्पित डॉ० लोहिया

डाक्टर राममनोहर लोहिया संपन्न घर के थे । विद्या और प्रतिभा के धनी । शरीर सुंदर और संगठित । उनके विवाह के लिए अनेक प्रस्ताव आते थे । घरवालों का दबाव भी बहुत था । पर वे अपने अटल निश्चय पर दृढ़ रहे कि जब तक देश स्वतंत्र नहीं हो जाता तब तक उस लक्ष्य को पूरा किए बिना मैं अपना समय और ध्यान किसी अन्य दिशा में नहीं लगा सकता । उनका आशीर्वाद उनके साथियों को सतत प्रभावित करता रहा।

जिन्हें राज वैभव और मकबरों से चिड़ थी

शाहजहाँ की लाडली बेटी जहानआरा को तथा औरंगजेब की पुत्री जेबुन्निसाँ को पैतृक संपदा तो मिली थी, पर परिवार मे आए दिन धन के लिए मचे रहने वाले षड्यंत्रों और हत्याकांडों से वे अत्यंत दु:खी थीं । वे जीवन के अंतिम दिनों अपनी संपदा परमार्थ में लगाकर सूफी
मतानुयायी हो गई थीं । उन्हें इस बात से भी चिढ़ थी कि कुकर्मी राजा अपने मरने के बाद कीमती मकबरे बनवाकर यशस्वी बनना चाहते हैं ।

  दोनों के मरने के समय में भी थोड़ा ही अंतर रहा । उनने अपने दफनाए जाने के लिए जगह भी स्वयं ही चुनी और हिदायत की कि उस पर घास के अतिरिक्त और कोई सरंजाम इकट्ठा न किया जाय । यह कब्रें हजरत निजामुद्दीन चिस्ती की दरगाह के पास मिट्टी के टीले के रूप में अभी भी बनी हुई हैं । ये बताती हैं कि राज वैभव की तुलना में सत्प्रयोजनों में नियोजित संपदा अधिक सार्थक है । ताजमहल के वैभव की तुलना में ये उपेक्षित कब्रें आदर्शवादियों के लिए सदा प्रेरणा स्रोत बनी रहेंगी ।

मल्ली ने विवाह नहीं किया 

मिथिला नरेश की पुत्री थी मल्ली । रूप और गुणों में प्रख्यात । विवाह योग्य हुई तो अनेक राजा उसे अपनी पुत्रवधू बनाने के लिए व्याकुल थे । मल्ली का मन बिछल ही न था । पर पाने के इच्छक इतने व्याकुल थे कि उनने मिथिला पर चढ़ाई कर दी और मिथिला नरेश को हरा दिया ।

मल्ली ने दूरदर्शिता से काम लिया उसने अपनी एक प्रतिमा बनवाई । उसमें मलमूत्र भर दिया । वस्त्र बहुत सुंदर पहनाए । आड़ में बैठकर मली ने उपस्थित सब राजाओं को संबोधित करते हुए कहा-''यही है वह पुतली
जिसके लिए आप लोग उतावले है ।'' पुतली खोल कर दिखाई तो उसमें मलमूत्र भरा था और दुर्गंध आ रही थी ।

राजाओं को स्थिति का बोध हुआ और वे सभी वापस लौट गए । मल्ली ने सिर मुड़ा लिया । राजमहल छोड़कर वह जन कल्याण के कार्यों में जुट गई । उसे जैन धर्म में महती प्रतिष्ठा साध्वियों की तरह मिली । उसने असंख्य व्यक्तियों को ऊँचा काया और परमार्थ में लगाया ।

राज्य कोष जन कल्याण की योजनाओं में खर्च 

राजा रघु के दरबार में एक प्रश्न चल रहा था कि राज्य कोष का उपयोग किन प्रयोजनों के लिए किया जाए?

एक पक्ष था सैन्य बढ़ाई जाय ताकि न केवल सुरक्षा वरन् क्षेत्र विस्तार की योजना भी आगे बढे़ । इसमें जो खर्च पड़ेगा वह पराजित देशों से नए लाभ मिलने पर सहज पूरा हो सकेगा ।

दूसरा पक्ष था प्रजा जनों का स्तर उठाने में राज्य कोष खाली कर दिया जाय । खुश, संतुष्ट, साहसी और भावनाशील नागरिकों में से प्रत्येक एक दुर्ग होता है । उन्हें जीतना किसी शत्रु के लिए संभव नहीं । इस प्रकार युद्ध विजय से क्षेत्र जीतने की अपेक्षा मैत्री का विस्तार कहीं अधिक लाभदायक है, उससे स्वेच्छा, सहयोग और अपनत्व की ऐसी उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, जिनके कारण छोटा देश भी चइक्रवर्ती स्तर का बन सकता है ।

दोनों पक्षों के तर्क चलते रहे । निदान राजा ने निर्णय दिया । युद्ध पीढ़ियों से लड़े जाते रहे हैं । उनके कडुए,
मीठे परिणाम भी स्मृति पटल पर अंकित हैं । अबकी बार युद्ध प्रयोजनों की उपेक्षा करके लोक मंगल की परिणति को परखा जाय और समस्त संपत्ति जन कल्याण की योजनाओं में खर्च कर दी जाय ।

वैसो ही किया गया । धीरे-धीरे प्रजा जन हर दृष्टि से समुन्नत हो गए । पड़ोसी राज्यों को समाचार मिले तो उनके हौसले टूट गए । आक्रमण की चर्चाएं समाप्त हो गई। सुख शांति के समाचार पाकर अन्य देशों के समर्थ लोग वहाँ आकर बसने लगे । बंजर भूमि सोना उगलने लगी और उत्साही प्रजा जनों ने अपने देश को ऐसा बना दिया जिसके कारण अयोध्या क्षेत्र में सतयुग दृष्टिगोचर होने लगा ।

मन्स्वी की अजेयता 

एन्थिस स्थित वेदांत केन्द्र अमेरिका का सुप्रसिद्ध अध्यात्म केन्द्र था । वहाँ बाइबिल से लेकर गीता तक के सारगर्भित प्रवचन होते थे ।

उस दिन गीता के उन श्लोकों की व्याख्या स्वामी विवेकानंद द्वारा हो रही थी जिसमें मन की उस कुटेव की विवेचना की गई थी जिसमें कहा गया है कि वह न चाहते हुए भी कुमार्ग पर चला जाता है और मनुष्य को पतन के गर्त में गिरा देता है ।

  भाषण बड़ा सारगर्भित और हदय ग्राही था । मंत्र मुग्ध श्रोता गण आदि से अंत तक उसे सुनते रहे । समाप्त होने पर वे विदा तो हुए पर लगा किसी ने उनके अंत करण को हिला दिया हो ।

सभी चले गए । विवेकानंद भी चांदनी रात में अपने निवास ग्रह की ओर पैदल जा रहे थे । एक असाधारण सुंदरी उनकें पीछे-पीछे चल रही थी । अवसर देखकर उसने प्रणय निवेदन किया । उनका हाथ अपने हाथ से पकड़ लिया और छाती से सट गई ।  

विवेकानंद न झिझके, न द्रवित हुए उनने उस युवती का हाथ थाम लिया और कहा-''माँ । तुम कैसी कल्याणी हो । लगता है माँ शारदा मणि का सा दुलार देने यहाँ आई हो । कितनी महान हो तुम ।

एक ईर्ष्यालु पादरी ने षड्यंत्र बनाकर विवेकानंद को बदनाम करने के लिए उसे भेजा था । पर विवेकानंद का हाथ छूते ही उसे लगा कोई देवता उस पर अमृत बरसा रहा है । वापस लौटते हुए उसने इतना ही -''देवता ! तुम्हें गिराने आई थी पर तुम हो जिसने मुझे आसमान तक उठा दिया ।'' विकार के स्थान पर उसका उदय हो आया था ।

प्राकृतिक जीवन से नव यौवन 

संत  बिनोवा के बड़े भाई बालकोवा एक बार अपना स्वास्थ्य बुरी तरह गँवा बैठे और मृत्यु की तैयारी करने लगे । गांधी जी ने उन्हीं दिनों उरुली कांचन में प्राकृतिक चिकित्सालय खोला था । वे उसमें
भर्ती हो गए और संयम, नियम पर इस प्रकार चलने लगे कि बीमारी को उनने पछाड़ दिया । उसके बाद वे आश्रम में संचालक बने और अपने जैसे अनेक निराश रोगियों को प्राकृतिक जीवन की
शिक्षा देकर नव जीवन प्रदान करने में सफल हुए ।

तप से शोधन 

आचार्य बसु ने बटू को मनु का सूत्र समझाया-'तपसा किल्षिं हन्ति' अर्थात जैसे अग्नि में डालकर सोना शुद्ध किया जाता है, उसका मल दूर किया जाता है, उसी प्रकार तप द्वारा कायागत, मनोगत स्वभावों का शोधन किया जाता है।

एक बटू ने पूछा-''आचार्य प्रवर  ! इस दृष्टि से तो तप सूक्ष्म साधना क्रम है । पर लोग कष्ट साध्य स्थितियों में शरीर को रखकर उसे भी तप की संज्ञा देते हैं- यह कहाँ तक ठीक है ।''

आचार्य ने समाधान किया-''वत्स ! सहनशक्ति, श्रमशक्ति का अभाव तथा आलस्य आदि भी दोष हैं । कष्ट साध्य स्थिति में शरीर को डालकर यह दोष हटाने में मदद मिलती है । इस दृष्टि से वह भी तप है । यह उद्देश्य पूरा न
हो तो उसे दुराग्रहपूर्ण प्रक्रिया ही समझना चाहिए ।'' आगे वे बोले-''तप का अर्थ दमन नहीं है, संचित सामर्थ्य जो
तितिक्षा द्वारा अर्जित की गयी है, उसका सुनियोजन है । जो इस चिंतन से तप में निरत होते हैं, वे निश्चित ही दैवी
अनुदानों के अधिकारी होते हैं ।''
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